Sailaab - 3 in Hindi Moral Stories by Lata Tejeswar renuka books and stories PDF | सैलाब - 3

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सैलाब - 3

सैलाब

लता तेजेश्वर 'रेणुका'

अध्याय - 3

शतायु ने स्टैंड से कपड़े निकाल कर पहने। पांच बज चुके थे। कुछ देर में बेबे भी उठ जाएंगी। दरवाज़ा खोल कर बाहर देखा। रास्ता सुनसान था। लोग अपने अपने घरों में अभी भी सोये हुए थे। जानु चाची उठकर आंगन धो रही थी। वैसे तो जानु चाची का पूरा नाम जाह्नवी है, लेकिन जाह्नवी को सब प्यार से जानु चाची बुलाते हैं। वे खुद भी बहुत सरल और सहज इंसान हैं। कोई भी बहुत आसानी से उनके साथ घुलमिल जाता है। खास करके बच्चे बहुत पसंद करते हैं जानु चाची को इसलिए धीरे धीरे उनका नाम जानु चाची पड़ गया।

रघु काका ने शतायु को घर का दरवाज़ा उढ़काते हुए देख कर आवाज़ दी, “शतायु बेटा इतने सुबह सुबह कहाँ जा रहे हो?” पेपर देते हुए पूछा।

“बस काका यूँ ही बाहर जा रहा था.” कहते हुए साइकिल की तरफ चल पड़ा शतायु। ‘बस, यूँ ही' कहने को दो लफ्ज़ होते हैं लेकिन उन दो लफ़्जों में बहुत कुछ कह जाते हैं। जब किसी को कुछ बताने का मन न करे, तो ऐसे कुछ शब्द मुँह से निकल जाते हैं। रघु काका भोर होते ही पेपर लेकर घर से निकलते हैं। सूरज के उदय होने से पहले उठ कर भोपाल की गली गली घूम कर सब के घर में पेपर पहुँचाना उनका काम है। एक नज़र शतायु को देख कर रघु काका साइकिल लिए गली की ओर निकल गए।

जानु चाची हो या रघु काका या राधा चाची सब कहने को तो आस पड़ोस वाले हैं लेकिन जरुरत पड़ने पर एक परिवार जैसे सुख दुःख में मदद करने को तैयार हो जाते हैं। गाँव का माहौल ही ऐसा होता है कि लोग रुपये पैसों से ज्यादा इंसानियत को अहमियत देते हैं। आपस में कोई रिश्ते न ही सही लेकिन सभी दुःख दर्द के साथी होते हैँ। इस रिश्ते से वे अपनों से भी ज्यादा अपने हैं। जरूरत पड़ने पर बेबे और शतायु के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं।

शतायु घर से बाहर निकल आया। घर के सामने लकड़ियों से घेरा हुआ एक छोटा सा कंपाउंड है। कंपाउंड के एक तरफ बगीचा बनाया गया है। जब भी वक्त मिलता है, शतायु उस बगीचे की देखभाल करता है। रंग बिरंगे फूलों के पौधे और कुछ हरी सब्जियाँ उगाता। शतायु, उस बगीचे की बहुत ही प्यार से देखभाल करता है। रोज़ शाम को घर वापस लौटते ही वह बगीचे के काम में मग्न हो जाता है। उस बगीचे की ओर एक नज़र देख कर शतायु अपनी साइकिल लिए गलियों में निकल पड़ा।

शतायु की बेबे करीब 60 साल की होगी। शतायु का परिवार, उससे छिन जाने के बाद से वह शतायु के साथ ही रहती है और उसकी देख भाल करती है। अगर वह नहीं होती तो न जाने शतायु आज किस हाल में होता। आज शतायु के परिवार में कहने को मुँह बोली बेबे के अलावा उसकी मौसी पावनी है, जो शहर में रहती है। ये दो कमरे शतायु और उसके बेबे के लिए काफ़ी थे। समय समय पर शतायु की मौसी पावनी दोनों से मिलने भोपाल चली आती थे। लेकिन मौसा रामु का मुंबई में ट्रांसफर होने के बाद उन्हें स्थानांतरण करना पड़ा। तब से पावनी का शतायु से मिलने अक्सर भोपाल आना मुश्किल हो गया। अब वह पहले की तरह अक्सर नहीं आ पाती।

शतायु अपनी पुरानी साइकिल लेकर गेट बंद कर के रास्ते पर निकल आया। कुछ दूर चलते ही रास्ते में राधा चाची से भेंट हो गयी। घर के बाकी सदस्यों के उठने से पहले वह सुबह उठ कर गाय को चारा डाल कर दूध दुहने के लिए तैयार करती है। उन्होंने शतायु को रोक लिया और कुशल मंगल पूछने लगी। शतायु उनके सारे सवालों पर सिर हिलाते हुए 'हाँ' या 'ना' में जवाब देता रहा।

- शतायु बेटा ये बता आज इतनी सुबह सुबह कहाँ निकला?

- कोई नहीं चाची बस यूँ ही, नींद नहीं आ रही थी इसलिए बाहर आया हूँ।

- सब ठीक तो है न, बड़ा उदास दिख रहा है, क्या बात है?

- सब ठीक है चाची, कोई बात नहीं। अच्छा चाची चलता हूँ।" कुछ और बात कहने का मौका न देते हुए साइकिल चलाते हुए आगे निकल गया।

- “अरे बेटा सुन तो… । राधा चाची पीछे से आवाज़ देती रही मगर शतायु वहां से आगे बढ़ गया।”

अब वह 33 साल का हो चुका है। सीने में अपनों की मौत का बोझ लेकर जी रहा है। कभी मन करता था जाकर उस फैक्ट्री में आग लगा दे जिस ने उसके परिवार को उस से छीन लिया। जब भी मन करता वह उस पहाड़ी के टुकड़े पर जा कर बैठ जाता और घंटों उस कंपनी की ओर निहारता रहता। रास्ते के पत्थर उठाकर उस टैंक को निशाना बनाता, आँखों में अश्रु, सीने में जलन लिए कौन भला जीवन गुजार सकता है। आज भी वह हादसा घाव बनकर उसके मन में चुभ रहा है। वह काला दिन काले साँप की भाँति उसकी जिंदगी निगल गया कि आज तक उस सदमे से बाहर निकल नहीं पाया शतायु। उस जहर को सीने में लिए आज तक जी रहा है।

वो दिन उसे अच्छी तरह याद है, जब वह 7 साल का था, स्कूल से आते ही स्कूल बैग फैंक कर जाकर मौसी पावनी की गोद में जाकर बैठ गया था।

- "आज मेरा जन्म दिन है और आप इतनी देर से घर पहुँची? आप ने कहा था न दो दिन पहले ही आ जाओगी, जाओ में आपसे बात नहीं करता मौसी।" मीठी मीठी आवाज़ में शतायु ने कहा।

- "माफ़ करना बेटा स्कूल में छुट्टी नहीं मिली, तुम जानते हो न अगले हफ्ते से स्कूल में बच्चों की परीक्षा है, इसलिए …… देर हो गयी सोनू, सॉरी मेरा बच्चा।" कहकर उसके गाल पर पप्पी दी।

- "मुझे कुछ नहीं सुनना, आप को मुझे ढेर सारे गिफ्ट देने होंगे नहीं तो में बात नहीं करूंगा, कट्टी।" कहकर मुँह फुलाये बैठ गया।

- "अच्छा बाबा ठीक है, ढेर सारे गिफ्ट ले कर ही आयी हूँ मुझे पता है मेरे सोनू को उपहार बहुत ज्यादा पसंद है। "

- "सच में? मेरे लिए गिफ्ट ले आई हो आप? मुझे दिखाओ न मौसी…।" कहकर वह ख़ुशी से उछल पड़ा। ठीक उसी समय पीछे से पवित्रा की आवाज़ सुनाई दी, "जरूर देखोगे पर अभी नहीं, पहले स्कूल यूनिफॉर्म बदल कर नए कपड़े पहनना है कि नहीं, जाओ मुँह हाथ धोकर तैयार हो जाओ। फिर आराम से मौसी के साथ मिलकर सारे गिफ्ट खोल कर देखना। … ठीक है।"

- नहीं, मैं मौसी के साथ गिफ्ट अभी देखूंगा और खूब खेलूंगा भी । जिद्द करने लगा ।

- बेटा अभी नहीं, मौसी अभी अभी आयी है, कुछ देर आराम करने दो फिर शाम को खेलना।

- तो फिर मौसी को मेरे साथ खेलने का वादा करना होगा। शाम को मेरे साथ खेलोगी न मौसी? पावनी के तरफ उँगली दिखाकर पूछा।

- हाँ जरूर क्यूँ नहीं, बहुत खेलेंगे पहले तुम जा कर मुँह हाथ धोकर खाना खालो, भूख लगी होगी मेरे सोनू को.. है न ?

- हाँ वो तो है, ठीक है .... माँ, भूख लगी है खाना खिला दो न और मौसी आप कहीं मत जाना मैं अभी आऊंगा। कहकर भाग गया वहाँ से।

***

शतायु अपनी माँ बाबूजी की इकलौती संतान है। शादी के ५ साल बाद शतायु का जन्म हुआ। देर से संतान होने के कारण वह सब का लाडला बच्चा रहा। ५ साल का होते ही उसका स्कूल में नाम लिखा दिया गया। वह प्यारी प्यारी बातों से अपने दादा दादी को खूब लुभाता, वे भी सोनू से खूब प्यार करते थे। उसे स्कूल कहने में मुश्किल होती थी इस कारण स्कूल को 'खूल' कहता था। इसलिए उसे स्कूल के बच्चे चिढ़ाते और एक दिन वह स्कूल न जाने कि जिद्द करने लगा।

"माँ मैं खूल नहीं जाऊंगा। मुझे खूल में सब चिढ़ाते हैं।" रोते हुए कहने लगा।

"क्यों मेरा राजा बेटा को क्यों चिढ़ाते हैं? स्कूल क्यों नहीं जाएगा? अगर स्कूल नहीं जाएगा तो बड़ा हो कर पापा जैसा अफसर बनेगा कैसे? बोलो पापा जैसा अफसर बनना है की नहीं?" शतायु के गाल पर ऊँगली फिराते हुये पूछा।

"हाँ बनना है। पर.. " कहकर सिर हिलाया।

"पर क्या??" पवित्रा ने जोर दे कर पूछा।

"पर मुझे सब चिढ़ाते हैं ना माँ। मुझे बुरा लगता है।" मुँह लटका कर फर्श की ओर देखते हुए कहा।

"तो क्या हुआ? तुम जब बड़े हो जाओगे पापा जैसे काम करने लगोगे और बड़े आदमी बन जाओगे तब सब की जुबान बंद हो जाएगी। कोई कुछ भी कहने का साहस नहीं करेगा।"

"सच माँ?"

"हाँ, इसलिए मेरे सोनू बेटा तुम्हेँ अच्छे से पढ़ाई करना है और अपने बाबा की तरह खूब नाम कमाना है। इसलिए स्कूल तो जाना ही पड़ेगा।"

"ठीक है माँ, मैं खूल(स्कूल) जाउँगा।" कह कर स्कूल जाने के लिए तुरंत तैयार हो गया।

कुछ दिन बाद पवित्रा को जब पता चला वो दूसरी बार माँ बनने जा रही है, उसका तो ख़ुशी का अंत नहीं था। शतायु के पापा मोहन शर्मा इस खुशी में परिवार समेत मंदिर में चढ़ावा चढ़ाने गये। शतायु के दादा हृदय् रोग से पीड़ित थे। अक्सर उनकी जांच करवाने हॉस्पिटल ले जाना पड़ता था। सुमित्रा देवी भी उनकी खूब देखभाल करती थी। परिवार में नए सदस्य के आगमन की खबर से सब बहुत खुश थे। शतायु भी ये खबर अपने दोस्तों को सुनाते फिरता और ख़ुशी से नाच उठता।

रमेश जब उसे कहता, "बहन क्यों भाई क्यों नहीं हो सकता?" तो वो साफ़ इंकार करके कहता, "मुझे भाई नहीं बहन ही चाहिए।"

पवित्रा को 8वां महीना शुरू हो चुका था, पावनी को जब भी वक्त मिलता पवित्रा से मिलने चली आती। उस वक्त मोहन के पिता मुकुंद जी को दिल का दौरा पड़ने से उन्हें अस्पताल में भर्ती करया। मुकुंद जी की हालत ज्यादा बिगड़ने लगी। पावनी कुछ दिन के लिए स्कूल से छुट्टी ले कर शतायु के जन्म दिन के बहाने दीदी, जीजू और परिवार से मिलने चली आयी।

***