मायामृग
(3)
उदय के बड़े भाई साहब जब विदेश गए थे तब ऐसा हंगामा उठा मानो विदेश में कहीं राष्ट्रपति बनकर गए हों | इतना दिखावा कि बस खीज आने लगती शुभ्रा को, चाहे विदेश में जाकर मजदूरी ही करते हों लोग लेकिन विदेश में जाकर बसना ---यानि गधे के सिर पर सींग उग आना | वैसे बड़े भाई साहब तो ‘व्हाइट कॉलर जॉब’ पर गए थे जबकि विदेश जाने के लिए उन दिनों लोग कितनी-कितनी परेशानियाँ झेलने के लिए तैयार होते थे और मेहनत–मज़दूरी करने के लिए तैयार रहते, कहीं न कहीं से पैसे का इंतजाम करते, चाहे ज़मीन-जायदाद क्यों न बेचनी पड़ जाए | पर बड़े भाई साहब के ‘व्हाइट कॉलर जॉब’का रुतबा परिवेश में कुछ ऐसा पसरा कि भाई बस ----उन दिनों परिवार में विदेश जाने वाले का इतना मान किया जाता जैसे और तो सब यहाँ रहकर घास ही खोद रहे हों, यूँ कमोबेश आज भी स्थिति तो उसे यही लगती है, अनेक कारण हैं इसके –लेकिन यह एक अलग विषय है | गुजरात में यह बात बहुत अच्छी लगी थी उसे कि चाहे कितने ही परिवारों के लोग विदेशों में बस गए हों, ‘एन.आर.आई’ हों किन्तु वे अपनी मिट्टी से जुड़े रहते थे| उदय के परिवार के ज्येष्ठ पुत्र जब भारत आते तो क्या हलचल मच जाती थी, सभी भाई-बहनों के परिवारों में| उनके कोई सन्तान न होने के कारण सबको लगता बस वे हमारे परिवार के सबसे अधिक नजदीक हैं और जहाँ वे जाते वहीं उनके स्वागत में जश्न की तैयारियाँ शुरू हो जातीं | यहाँ गुजरात में ऐसा कुछ भी दिखावा नहीं था| अधिकांशत: प्रत्येक मध्यम घर में से एक सदस्य तो अमरीका जाता ही फिर वह अपने अन्य भाई-बहनों को खींच लेता| शनै:शनै: परिवार के कई सदस्य अमरीका-निवासी होकर ‘एन.आर.आई’बन जाते, गुजराती अपनी जड़ों को कभी नहीं भूलते, वे कहीं भी जाते, थेपले-हथाणा(एक प्रकार के परांठे-अचार) उनके साथ चलते | अपना खान-पान, अपना रहन-सहन, अपनी हवा-पानी ! अपने लोगों को गुजराती कभी नहीं भूलते | जहाँ तक हो वे एक-दूसरे की सहायता करके स्थिति सुधारने का प्रयास करते थे | शुभ्रा के प्रदश में तो ‘एन.आर.ई’ यानि देवता ! या भगवान !
वास्तव में शुभ्रा को यहाँ आकर बहुत अच्छा लगा था, उसके प्रदेश में यह सब संभव ही नहीं नामुमकिन था | स्त्रियों की पक्षधर शुभ्रा एक शिक्षित माता-पिता की सन्तान थी | उसने कुछ दिन दिल्ली में भी शिक्षा ग्रहण की थी और उत्तर-प्रदेश में भी अत: उसका मस्तिष्क खुला हुआ था | उसे लगता जब युवाओं को इतनी स्वतन्त्रता प्राप्त हो सकती है तब युवतियों को क्यों नहीं ? किन्तु यह भी सच था कि जिस शहर में वह रहती थी उसका वातावरण इतना बिगड़ा हुआ व अन्धविश्वासी था कि उसमें लड़कियों को इतनी स्वतन्त्रता प्राप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता था | लड़कियों के दुपट्टे खींचे जाना, उन्हें उठाकर ले जाना, ऎसी तो न जाने कितनी ही घटनाएँ प्रतिदिन होती रहती थीं | यद्दपि शुभ्रा की माँ दिल्ली से थीं और शिक्षण के क्षेत्र में थीं किन्तु अपने शहर के वातावरण से सदा अपनी बेटी व स्वयं को बचाकर रखने की चेष्टा की थी उन्होंने | लड़के–लड़की में वो भी कभी कोई भेद नहीं करती थीं, उनकी किशोरावस्था में स्वयं उनके पिता ने उन्हें लड़कों के साथ ‘शास्त्री’ की परीक्षा देने बनारस भेजा था | किन्तु यह भी उतना ही सच था कि वे अपने उस शहर के वातावरण से बहुत भयभीत बनी रही थीं जहाँ युवा होती लड़कियों के साथ प्रतिदिन ही कोई न कोई काण्ड होता रहता था| यहाँ गुजरात में आकर वह तो बहुत आश्वस्त हो गई किन्तु उदय इतना खुलापन कभी भी नहीं पचा पाए | मेलों-ठेलों की शौकीन शुभ्रा देखती कि यहाँ हर दिन ही कोई न कोई नुमाइश सी लगी रहती, उसका मन मचल जाता | जितनी बार उदय से बच्चों को मेले में ले जाने की बात करती उनका उत्तर ‘न’ में ही होता | छोटा शहर होने के उपरान्त भी शुभ्रा अपनी शिक्षिका माँ व उनकी सह-अध्यापिकाओं के साथ प्रत्येक वर्ष नुमायश में ‘कवि-सम्मेलन’और ‘मुशायरे’ सुनने जाती | अन्य शिक्षिकाओं की पुत्रियाँ अथवा छोटी बहनें भी होती थीं जिन्हें बड़ी आयु की महिलाएं एक घेरे के अन्दर लेकर चलती थीं | कितना आनंद किया था शुभ्रा ने अपने छोटे से शहर में भी ! किन्तु यहाँ इतनी स्वतन्त्रता होने के उपरान्त भी वह उदय के साथ मेले-ठेलों में नहीं जा पाती थी, उन्हें पसंद ही नहीं था | उनके अनुसार मेले-ठेले में जाने वाले लोग टुच्चे होते थे | उदय के मन में अपने प्रदेश का वातावरण कुछ इस प्रकार पालथी मारे बैठा था कि वे कभी इन मेलों में अपने बच्चों और शुभ्रा को ले ही नहीं जा पाए जबकि न जाने कितने वर्षों से वे इसी धरती पर उगा अन्न खा रहे थे, इसीकी हवा में साँस ले रहे थे | यह सच ही है कि मनुष्य अपने जन्म और संस्कारों को आसानी से नहीं छोड़ सकता, कुछ न कुछ भीतर रह ही जाता है जो उसे उद्वेलित किए रहता है और समय आने पर वह ऐसे फूटता है जैसे मिट्टी का घड़ा | शनै:शनै: शुभ्रा ने भी वैसी ही आदत डाल ली अथवा उसकी आदत ढल गई जैसा उदय चाहते थे | गृह-शांति के लिए एक पक्ष का दूसरे के मनोभावों, स्वभाव व आदतों को समझना बहुत आवश्यक था, माँ ने तो यही सिखा-पढाकर भेजा था| बल्कि एक दिन तो माँ बोलीं थीं;
“देख शुभी ! इतनी बड़ी ससुराल में तेरी मर्ज़ी से ब्याहा है, अब दोनों परिवार की ज़िम्मेदारी भी तुझ पर ही है | प्यार से आएगी तो हर दिन तेरे लिए दरवाज़े खुले हैं, किसीसे गुस्सा होकर आई तो भई ये दरवाज़े तेरे लिए बंद---“ हाय! माँ कैसे इतने कठोर वचन बोल सकी थीं अपनी बिटिया को, शुभ्रा ने उस समय मायूस होकर सोचा था, अब लगता है ठीक ही तो कहा था माँ ने | वह कौनसी कम नखरेवाली थी अगर माँ शिक्षा न देतीं तो कुछ हो भी सकता था | कम मुह थोड़े ही फुलाया था उसने उदय से, ऊपर से सास से भी कोई मानसिक स्तर नहीं मिलता था जो मित्रता का संबंध बन पाता |
***