Pachyatap - 2 in Hindi Moral Stories by Meena Pathak books and stories PDF | पश्चाताप - 2

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पश्चाताप - 2

पश्चाताप

मीना पाठक

(2)

शहर के पॉश एरिया में भव्य और सुंदर सा बंगला, नौकर-चाकर, हर सुख-सुविधा और क्या चाहिए था उसे ! गेट से प्रवेश करते ही बड़ा सा बगीचा जिसमे देशी-विदेशी पुष्पों से ले कर अमलतास, गुलमोहर, खजूर और पारिजात के वृक्ष भी शान से खड़े बंगले की शोभा बढ़ा रहे थे | मधुमालती के नन्हे-नन्हे पुष्पों के गुच्छे उसे देख मुस्कुरा रहे थे | बंगले के भीतर की साज-सज्जा और रख-रखाव देख कर उसे ऐसा आभास हुआ जैसे वह किसी बंगले में नहीं, महल में आ गयी हो | खुशी से वह फूली नहीं समा रही थी | अपने भाग्य पर इतरा रही थी |

*

शुरू के कुछ दिनों तक तो सब कुछ ठीक रहा | पर जल्दी ही अमिता को आभास हो गया कि किंशुक ने किस मकसद से उससे विवाह किया है | धीरे-धीरे किंशुक की असलियत उसके सामने आने लगी | उसने विवाह सिर्फ बच्चों को संभालने के लिए और खुद की शारीरिक भूख मिटाने के लिए किया था | बच्चों को आया और पति को हमबिस्तर होने के लिए साथी, बस यही स्थान मिला था उसे इस घर में | घर जितना बड़ा था दोनों के बीच की दूरिय भी धीरे-धीरे उतनी ही बढ़ रहीं थीं | किंशुक को अपने बिजनेस के सिलसिले में हमेशा बाहर रहना पड़ता था | साल भीतर ही वह उसकी उपेक्षा को महसूस करने लगी | घर लेट आना, रोज शराब पीना कमरे में लगी बड़ी सी टीवी पर ब्लू फ़िल्में देखना और वही सब उसके साथ दोहराना | नशे की हालत में वह पशु से भी बद्तर हो जाता | अब आहिस्ता-आहिस्ता अमिता का नशा हिरन होने लगा था | उसने सोचा किंशुक आखिर कब तक ऐसा करता रहेगा मेरे साथ ? उसी दिन रात को उसने बात करने का निश्चय किया | डिनर के बाद बेड रूम में आते ही उसने जैसे ही किंशुक से बात करना चाह, किंशुक ने उसे अपने करीब खींच लिया | शराब की गन्ध उसके नथुनों में भरती चली गयी | उसे उबकाई सी आई, उसने किंशुक को धक्का दे कर स्वयं को उससे अलग किया |

“किंशुक ! आज तुम्हे मेरे सवालों के जवाब देने होंगे | वह चीख पड़ी |

धक्का खा कर बिलबिला उठा था किंशुक, उसका नशा पूरी तरह उतर गया था | उसने अमिता के केश अपने दोनों हाथों की मुठ्ठियों में जकड़ा और अपनी तरफ खींच कर पीछे जोर का धक्का दे दिया | अमिता इस अप्रत्याशित प्रहार के लिए तैयार ना थी | वह पीछे की दीवार से टकरा कर धड़ाम से नीचे गिर गयी | किंशुक वहशियों की भाँति उस पर झपट पड़ा -

“तू क्या समझती है ? मैंने तुझ पर मोहित हो कर शादी की ? तेरे जैसी ना जाने कितनी मेरे आगे पीछे घूमती रहती हैं..खबरदार जो फिर कभी मेरे सामने जुबान खोली..जुबान खींच लूँगा.. तेरे भाई ने तेरा ब्याह मुझसे यूँ ही नहीं किया..उसकी दुकान को डूबने से बचाया है मैंने..और तुझे भी तो पैसे वाला घर चाहिए था ना..तो अब ऐश कर रुपये-पैसों से... तुझे कोई रोक-टोक नहीं..उसके बदले बच्चो की देख-भाल कर..और साथ में मेरी भी...बाकी के लिए हैं ना नौकर-चाकर..|” उसके चेहरे पर वहशियाना मुस्कान थी..|

उसने उसे फर्श से उठा कर आलिशान बेड पर पटक दिया और दिवार लगी बड़ी सी L.E.D.टीवी की स्क्रीन पर फिल्म चल पड़ी |

अमिता का दिमाग सुन्न पड़ गया, उसने तो स्वप्न में भी ऐसे जीवन की कल्पना नहीं की थी | उसके कर्मो का लेखा-जोखा सब उसके सामने था | अब उसे अपनी वास्तविक स्थिति का भान हो गया | उसे समझ आ गया कि उससे बहुत बड़ी गलती हो गयी है | वह अपने ही बुने सुनहरे जाल में बुरी तरह फँस चुकी है |

*

बच्चे के रोने की आवाज सुन् वह आतीत से वर्तमान में आ चुकी थी | धीरे-धीरे छटपटाहट, अकुलाहट, शूल के चुभन जैसी पीड़ा का गुबार सीने से उठ कर दिमाग पर चढ़ने लगा | सिर दर्द से फटा जा रहा था फिर भी उठ कर बच्चे को उठाने चल दी अमिता |

*

अब उसका मन एक पल भी नहीं लग रहा था | हर पल वह अपने बच्चे और उन दो बुजुर्गों को याद करती रहती | नलिन की भी याद आ रही थी उसे | उसने कभी भी अमिता की मर्ज़ी के खिलाफ़ कुछ नहीं किया | मध्यमवर्गीय परिवार में उसका मान सम्मान था |

उसी शहर में तो रहते थे वो लोग क्यों ना जा कर एक दिन वह उनसे मिल आये, नहीं-नहीं ..क्या मुंह दिखाएगी उन्हें, वो लोग भी उसे दुत्कार कर भगा देगें पर वह दूर से तो देख ही सकती है ना उन्हें | उसने तय कर लिया | किंशुक के बाहर जाते ही वह जाएगी | दो दिन बाद ही किंशुक एक हफ्ते के लिए बाहर चला गया | अमिता ने ड्राइवर को गाड़ी निकालने को बोला और चल दी नबाबगंज की ओर | कम्पनीबाग चौराहे से जैसे ही उसकी गाड़ी विष्णुपुरी की ओर मुड़ी, उसकी हृदयगति बढ़ गयी | यहीं तो आई थी वह नलिन की दुल्हन बन कर, सम्मान से गृहप्रवेश करा कर उसे गृहलक्ष्मी का दर्ज़ा दिया गया था | यहीं तो...! और उसने क्या किया ? उन्हीं लोगों को छल कर चली गयी ! कैसे सामना करेगी उनका ? गाड़ी सड़क छोड़ गली में मुड़ गयी |

“अब किधर चलना है मैम ?” ड्राइवर की आवाज से वह अपनी सोच से बाहर निकल आई |

“बस..यहीं रोक दो |” वह वहीं उतर कर आगे बढ़ गयी जैसे ही उस घर के दरवाजे पर पहुंची, ताला लगा देख कर असमंजस में पड़ गयी |

गाड़ी आई देख कुछ लोग उत्सुकतावश घर से बाहर निकल आये | तभी एक बुजुर्ग महिला जो उसे बहुत ध्यान से देख रही थी; उसके पास आ कर बोली -

“ये घर बर्बाद करने के बाद अब यहाँ क्या लेने आई है ?”

उसकी आँखों में अपने लिए तिरष्कार और घृणा देख कर वह स्तब्ध रह गयी फिर भी हिम्मत कर के पूछा उसने –

“कहाँ गए हैं ये लोग ?”

“घर बेच कर अपनी बेटी के पास चले गये और कहाँ जाते बेचारे इस बुढापे में..तूने तो कहीं का नहीं छोड़ा था उन्हें..कितने आस-अरमान से ब्याह कर लाये थे वो लोग तुझे और तूने...अरे ! तू तो औरत के नाम पर कलंक है..अपने दुधमुंहे बच्चे को त्याग कर दूसरा ब्याह रचा लिया...अरे डायन भी दो घर छोड़ देती है पर तूने तो अपना ही घर फूँक दिया..तेरे जैसी अगर सबकी बहुएँ हो जायँ तो हम सब बेटे के ब्याह की चाह ही छोड़ दें |”

अमिता और नहीं सुन् सकी, उल्टे पाँव वह तेजी से चलती हुई आ कर गाड़ी में बैठ गयी और ड्राइवर को वापस चलने को कहा, उसी सोने के पिंजरे में जिसे स्वयं उसीने चुना था |

अब तो अपने किये की सजा काटनी है | जिस ऐशोआराम के लिए अमिता सब कुछ छोड़ आई थी वही ऐशोआराम उसके लिए अभिशाप बन गया था | वह चाहती तो किंशुक का घर छोड़ कर माँ के घर जा सकती थी; पर अब उसे उस घर से भी घृणा हो गयी थी | किंशुक उसकी देह के साथ उसके मन-मस्तिष्क को भी रौंद रहा था | धीरे-धीरे उसने घर से निकलना बंद कर दिया और बच्चों तक ही खुद को सीमित कर लिया |

जीवन की एक गलती ने उसे बहुत बड़ा सबक दिया था | किसीको दुःख दे कर हम कभी खुश नहीं रह सकते | अमिता अपनी गलती का पश्चाताप कर रही थी | उसने उन बच्चों को पूरे मनोयोग से पाला | अपने आँचल की ममता उन बच्चों के ऊपर उड़ेल दी | बच्चे भी उसी को अपनी माँ समझ रहे थे |

धीरे-धीरे समय बीतने लग | बच्चे बड़े हो गए | एक कानपुर IIT से निकल कर अमेरिका में सेटल हो गया दूसरे बेटे उदय ने अपने पिता का बिजनेस संभाल लिया | किंशुक को पैरालिसिस का अटैक पड़ गया और कुछ दिन बाद ही वह स्वर्गवासी हो गया | अब अमिता अपने खाली समय में कभी जेके मंदिर तो कभी गंगा किनारे जा कर घंटों बैठती और वापस चली आती | एक दिन गंगा किनारे बैठी थी कि तभी शोर सुन कर वह चौंक पड़ी, उसने देखा कुछ लड़के पानी की धारा से किसी को खींच कर ला रहे थे | वह उठ कर तेजी से उस ओर बढ़ गयी | उसने देखा वह एह वृद्धा थीं जल्दी-जल्दी उनको पेट के बल लिटा कर उनके पेट से पानी निकला गया, थोड़ी देर बाद वह कुछ होश में आयीं | अमिता ने आगे बढ़ कर उनका सिर उठा कर अपनी गोद में रख लिया और पूछा – “अब आप कैसी हैं ?

“हमका को-ने बचाओ ? हमका जीबे का नाहीं है..जिने पैदा करो..पालो-पोसो..बोई लोगन ने मोको बे-घर कर दओ..अब जी के का करहें हम ..|” वृद्धा बिलख पड़ी |

ओह्ह ! अमिता का दिल धक्क से रह गया, वह उठ खड़ी हुई | उसे आज फिर अपने बूढ़े सास-ससुर की याद आ गयी | वह भी तो उन्हें बेसहारा छोड़ आई थी अगर उनकी बेटियाँ ना होतीं तो वो लोग कहाँ जाते ? कौन उनकी देखभाल करता ? क्या वो भी इसी तरह गंगा जी में..! नहीं-नहीं..वह भी क्या फिजूल की बातें सोचने लगी |

लोग बूढ़ी अम्मा को समझा-बुझा रहे थे और अमिता मन ही मन कुछ निर्णय ले रही थी, उसे अपने किये की सजा तो किंशुक के साथ जीवन बिता कर मिल गया था; पर पश्चाताप अभी अधूरा था |

*

किंशुक जैसा भी था पर बेटे उसे पूरा सम्मान देते थे | एक दिन उसने छोटे बेटे को अपने कमरे में बुला कर कहा -

“बेटा ! मेरी एक हार्दिक इच्छा है जो मैं कई दिनों से तुमसे कहना चाहती हूँ |”

“हाँ माँ ..बोलिए ना |” उदय बोला |

“बिठूर रोड पर जो ज़मीन पड़ी है उस पर मैं एक वृद्धाश्रम बनवाना चाहती हूँ |” कह कर अमिता की आँखे चश्मे के पीछे से उदय का चेहरा पढ़ने लगतीं है | कहीं ये भी किंशुक की तरह उसकी इच्छा का हनन ना कर दे |

“ये तो बहुत नेक विचार है माँ, आप जब चाहें तब काम शुरू हो जाएगा या आप कहें तो दस दिन बाद नवरात्र शुरू हैं, उसी में आप की देख-रेख में काम शुरू करवा देता हूँ |”

अमिता खुश हो गयी | जिन नन्हें बिरवों को उसने सींचा था वो बहुत सुन्दर और फलों से लड़े-फदें वृक्ष बन कर खड़े थे | विनम्र और सौम्य ! वह खुश थी कि बच्चों के स्वभाव किंशुक के स्वभाव के विपरीत थे |

*

आज आश्रम की पहली वर्षगाँठ बड़े धूम-धाम से मनाई जा रही थी | शहर के बड़े-बड़े लोग आमंत्रित थे | सरकारी अमला भी आमंत्रित था | तीन-चार दिन से सभी अखबारों में अमिता और उसके आश्रम की चर्चा हो रही थी | आश्रम के प्रांगण में आने-जाने वालों का ताँता लगा था | धीरे-धीरे शाम होने लगी | सभी बुजुर्ग अपने-अपने बेड पर चले गए और लोग वापस जाने लगे | अमिता थक कर चूर हो गयी थी | वह आश्रम में बने अपने ऑफिस में आ गयी | थकान के कारण सिर भारी सा हो रहा था | वह आश्रम के ऑफिस में आ कर अपनी चेयर पर आँखे बंद कर आराम की मुद्रा में बैठ गयी | मन ही मन सोचने लगी कि सभी को कहते सुना है-- ‘अगर सच्चे दिल से अपने गुनाहों का पश्चाताप किया जाय तो ईश्वर भी वह गुनाह माफ़ कर देता है |’ शायद ईश्वर मेरा अपराध भी क्षमा कर दें | इन बुजुर्गों की सेवा कर उसे संतुष्टि मिलती थी और उनसे आशीष पा कर ह्रदय को शान्ति | उसकी आँखों के कोर भीग गए | तभी -

“क्या मैं भीतर आ सकता हूँ ?”

आवाज सुन् कर अमिता ने चौंक कर आँखे खोल ली | सिर पर रखा चश्मा आँखों पर लगा लिया | सामने एक सज्जन खड़े थे जो भीतर आने की अनुमति मांग रहे थे |

“हाँ..हाँ..प्लीज..आइये ना !”

एक संभ्रान्त से दिखने वाले व्यक्ति, आ कर उसके सामने वाली चेयर पर बैठ गए | वह मन ही मन सोचने लगी कि शायद इन्हें उदय ने आमंत्रित किया होगा नहीं तो जितने लोगों को उसने आमंत्रित किया था वह सब को जानती थी; पर इस चेहरे से वह अनभिज्ञ थी |

“आप शायद मेरे बारे में सोच रहीं हैं |” अमिता की आँखों में देखते हुए बोले वह |

इस बार अमिता चौंकी, लगा जैसे ये आवाज उसने पहले भी कहीं सुनी है | फिर भी दिमाग पर बहुत जोर देने के बाद भी उसे ध्यान नहीं आ रहा था कि उसने यह आवाज कहाँ सुनी है |

“क्षमा कीजियेगा..मैं पहचान नहीं पा रही हूँ |” कहते हुए वह बड़े गौर से उस व्यक्ति का चेहरा पढ़ने का प्रयास करने लगी |

सामने बैठे उस व्यक्ति ने इत्मीनान से अपना ऐनक आँखों से उतारा और जेब से रुमाल निकाल कर साफ लारने लगा | अमिता की ज्ञानेन्द्रियाँ सजग हो उठी | उसके मुँह से आश्चर्यमिश्रित शब्द निकल पड़ा -

“अ....मि....त !”

“शुक्र है ! आपने पहचाना तो !” उन्होंने अपना ऐनक फिर से अपनी आँखों पर चढ़ा लिया |

*

आसमान में खिला पूर्ण चाँद..गंगा का किनारा..कल-कल कर बहती धारा और गंगा की लहरों में झिलमिलाते असंख्य तारे ! बहुत सुन्दर और मनोरम दृश्य उपस्थित कर रहे थे | गंगा बैराज पर घूमने आये सभी लोग लगभग जा चुके थे |एक-आध प्रेमी जोड़े जो गलबहियाँ डाले बैठे थे, वो भी जाने को उठ खड़े हुए थे | बैराज पर गुजरते वाहनों की संख्या भी कम होती जा रही थी, हवा सांय-सांय कर रही थी | चाँदनी में स्नान कर पूरा वातावरण शीतल हो रहा था | ऐसे में तट की निचली सीढ़ियों पर एकांत में अपने पाँवों को गंगा की धार में डुबोए बैठी दोनों परछाइयाँ पूरी दुनिया से बेखबर कभी आसमान के चाँद को निहारतीं तो कभी गंगाजल में झिलमिलाते असंख्य तारों को |

***