Kabhi yu bhi to ho - 1 in Hindi Moral Stories by प्रियंका गुप्ता books and stories PDF | कभी यूँ भी तो हो... - 1

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कभी यूँ भी तो हो... - 1

कभी यूँ भी तो हो...

प्रियंका गुप्ता

भाग - १

नर्स ने आकर मुझे झकझोरा तो सहसा मैं जैसे एक बहुत गहरे कुऍ से बाहर आई। दो पल को तो समझ ही नहीं आया, मैं हूँ कहाँ...फिर एक झटके से सब साफ़ हो गया...। मैं माँ के साथ थी...इंटेन्सिव केयर यूनिट के एक कमरे में...उनकी देखभाल के लिए...और मैं ही सो गई...कैसे...? मन ग्लानि से भर उठा, पर कुछ पलों को सारे भाव एक किनारे रख मैने प्रश्नवाचक निगाह से पहले नर्स की ओर देखा और फिर एक आशंका-भरी नज़रों से माँ की ओर...। साँस चल रही थी उनकी, सो मेरी साँस में भी साँस आई जैसे...। नर्स ने धीरे से फुसफुसा कर कहा,"आपको बुला रही...आपने सुना ही नहीं...। पर सिर्फ़ दो मिनट...ज्यास्ती बात करने का नहीं...।"

मैं लपक कर माँ के करीब पहुँच गई। मुझे देख उनकी आँखों में मानो ज़िन्दगी लौट आई थी। काँपते हाथों से मैने उनका हाथ अपने हाथ में ले लिया था और झुक कर उनके मुँह के पास अपने कान ले गई थी,"तू ठीक तो है न बेटा...कुछ खाया कि नहीं...?"

मुझे लगा, मैं फूट-फूट कर रो दूँ। खुद मौत के मुँह से बाल-बाल बची हैं, पर होश में आते ही हमेशा की तरह मेरी चिन्ता...। तुम अपने लिए जीना कब सीखोगी माँ...? पर बमुश्किल अपने आँसू पी मैने हामी में सिर हिला दिया,"तुम्हे कुछ कहना था न...कुछ चाहिए क्या...?"

"हाँ...एक काम था तुझसे...पता नहीं, फिर मौका मिले न मिले...इसी लिए सोच रही, अभी पूरा करवा लूँ...ताकि शान्ति मिल सके...।" इतना कहने भर में ही माँ थक सी गई थी। मैने उन्हें सहज ढंग से ही चुप कराना चाहा,"अरे, तुम ठीक होकर घर तो पहुँचो...सारे काम निपटे मिलेंगे...। कोई ऐसी भी कामचोर नहीं हूँ, जितना तुम समझती हो...। अब तुम्हारी तरह हर चीज़ में इतनी एक्सपर्ट न सही, पर फिर भी...कुछ तो क्रेडिट दिया करो...।" मैं खोखली हँसी हँस रही थी...किसी तरह तो वापस आओ न...मेरे पास...। पर हमेशा धैर्य से सब कुछ झेलती जाने वाली माँ आज जैसे एक नन्हें बच्चे की तरह ही बेसब्र थी...। उन्होंने पूरी शक्ति से मेरा हाथ जकड़ लिया,"पलक, अगर अभी ये काम नहीं हुआ तो फिर कभी नहीं होगा...प्लीज़...।"

मुझे अन्दर से एक अंजानी सी घबराहट होने लगी थी। आज ये कैसी बात कर रही थी माँ...कैसा काम था जो उनको इस हालत में छोड़ कर मुझे पूरा करना होगा...? पर डॉक्टर की बात भी कान में गूँज रही थी...कुछ कहा नहीं जा सकता पलक जी...जस्ट होप फ़ॉर दि बेस्ट...बट प्रिपेयर फ़ॉर दि वर्स्ट...।

तो जैसा भी काम हो, मुझे तो पूरा करना ही था...हर हाल में...। माँ पूरी शक्ति लगा कर फुसफुसा रही थी,"मेरी अलमारी के लॉकर में एक नीली डॉयरी है...उसे पढ़ ले निकाल कर...और जैसा लिखा है, वैसा ही कर दे...प्लीज़...।"

माँ ने आज एक मिनट के ही अन्दर मुझसे दोबारा ‘प्लीज़’ कहा था...। ये क्या हो गया है माँ को...? इतनी निरीह तो कभी न थी...। ये मेरी माँ ही थी न...या मौत के पंजों में तड़फड़ाती कोई बेबस चिड़िया...?

डॉक्टर से मिल सारी बात उन्हें बता मैं कुछ देर के लिए माँ को नर्स के हवाले कर, उसे अलग से पैसे देने का वादा कर तेज़ी से घर की ओर निकल ली थी...। अजीब मिस्ट्री थी...। लॉकर में नीली डॉयरी...उसमें लिखा कोई काम...और उस काम को तुरन्त पूरा करना...अभी...। थोड़ी देर को मुझे लगा, माँ किसी विभ्रम का शिकार हो गई हैं...। जीवन भर इतने जासूसी उपन्यासों की शौकीन जो रही...। शायद दिमाग़ के किसी कोने में किसी उपन्यास का कोई थीम अटका रह गया हो...। पर फिर भी, सिर्फ़ हैल्यूशिन्येशन मान कर तो मैं इस समय उनकी कोई इच्छा अधूरी नहीं छोड़ सकती थी न...। क्या पता, कुछ सच्चाई हो ही उनकी इस बात में...।

घर पहुँच कर नीली डॉयरी खोजने में मुझे ज़रा भी दिक्कत नहीं हुई। वाह रे मेरी पर्फ़ेक्शनिस्ट माँ...हर चीज़ बिल्कुल सही जगह...और बाकी सारी चीज़ों की तरह तुम्हारी याददाश्त भी...एकदम पर्फ़ेक्ट...।

पहला पेज़ खोलते ही चौंक गई...माँ की सुन्दर हैंडराइटिंग में बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था...तुम्हारे लिए पलक...। मुझे हैरानी हो रही थी...। हर पल तो साथ रहती हूँ माँ के...फिर ऐसा क्या था जो माँ ने मुझ तक पहुँचाने के लिए इन पन्नों का सहारा लिया...। अन्दर एक धुकधुकी-सी होने लगी थी...। ये वसीयत-फसीयत तो नहीं है माँ की...? मुझे हमेशा से उनके वसीयत लिखने की बात से डर लगता रहा है...जैसे वसीयत लिखते ही उन्हें कुछ हो जाएगा...। और कोई मौका होता तो मैं बिना पढ़े ही डॉयरी उनके आगे फेंक देती...पर अगर आज चाहूँ भी तो ऐसा नहीं कर सकती। अगर मन का डर हक़ीकत में बदल गया तो जीवन भर खुद को माफ़ नहीं कर पाऊँगी...।

जहाँ खड़ी थी, वहीं बैठ मैने आगे का पन्ना खोल लिया था। शुरुआत ही माँ ने मुझे सम्बोधित करते हुए की थी...।

‘मेरी पलक...नहीं जानती कि ये डॉयरी तू मेरे जीते-जी पढ़ेगी या मेरे जाने के बाद किन्ही फ़ुर्सत के पलों में...पर एक बात का वादा तुझसे अभी लेना चाहती हूँ...। मेरी बेटी की तरह नहीं...एक औरत की तरह, मेरी सहेली बन कर ये पन्ने पढ़ना...और अगर हो सके...हो सके क्या, मुझे पता है, तू करेगी...फिर भी कह रही...अगर हो सके तो अन्त में जो कहा है, वो कर देना...। मैं रहूँ तो भी, न रहूँ, तो भी...।’

इतना पढ़ने तक मेरी आँखों से आँसू धाराप्रवाह बह रहे थे...। सारे अक्षर धुँधले हो रहे थे। पर मुझे तो सब पढ़ना था न...सो धुँधलका साफ़ कर आगे पढ़ना शुरू कर दिया।

‘तुझे सागर की याद है, पलक...? वही, कहने को इस दुनिया में मेरा इकलौता दोस्त...? शक़्ल तो पता नहीं तुझे याद भी है कि नहीं...आखिरी बार जब वो आया था, तब तू बारह साल की ही तो थी...। तब से तो न तूने उसे देखा, न मैने...। दस साल गुज़र गए...इतना लम्बा अर्सा बहुत होता है न किसी को भूलने के लिए...पर मुझे तो आज भी वो हू-ब-हू वैसा ही याद है...साँवला, लम्बा...एवरेज हेल्थ...न मोटा, न पतला...उस समय की अपनी उमर के हिसाब से बिल्कुल सही...। अब तो न जाने कैसा हो गया होगा...। हो सकता है, बहुत बदल गया हो...। बाल झड़ गए हों, तोंद निकल आई हो...आँखों पर चश्मा चढ़ गया हो...। या हो सकता है, मेरी तरह उसमे भी कुछ खास अन्तर न आया हो...। सच कहूँ, कई बार बहुत मन करता है, उसे आज के रूप में देखूँ...उससे पहले की तरह कुछ बातें कर लूँ मन की...कुछ उसकी सुन लूँ...। पर अपने को कन्ट्रोल कर लेती हूँ...। जानती हूँ, तू सागर से मुझे बात करते देख बचपन में कैसी इनसिक्योर हो जाती थी...। अब नहीं होगी, ये भी मुझे मालूम है, पर फिर भी मैं उसे फोन नहीं करती...सिवाय साल में एक बार के...उसका बर्थडे...। उसी दिन सारे साल का हिसाब-किताब हो जाता है...। पर उसकी ओर से तो कई बार मेरे बर्थडे पर भी फोन नहीं आता...हाँलाकि उसे याद रहता है, ये मालूम है मुझे...पर फिर भी...। असल में उसे तो आदत ही नहीं थी, कभी फोन करने की...। बहुत भूले-भटके कभी करता भी था, तो मैं छूटते ही कहती, रुको...ज़रा देख तो लूँ, सूरज आज किधर से निकला...और वो तुरन्त अपनी शहद-घुली हँसी मेरे कानों में उड़ेल देता..। उसकी वो हँसी...मेरे उदास पलों में उस एक हँसी को सुन कर खुश होने के लिए मैने न जाने कितनी बार उसे यूँ ही फोन किया था, टाइम-बेटाइम...याद ही नहीं...। मैं कितना भी छुपाऊँ, न जाने कैसे उसे पता चल ही जाता था कि मैं उदास हूँ...। मैने कई बार उससे पूछा भी...तुझे कैसे पत चल गया कि मैं उदास हूँ आज...और वो हँस कर टाल जाता...।

‘तुझे’...सागर के लिए मेरे मुँह से ये सम्बोधन सुन कर आश्चर्य हुआ न पलक...? हम दोनो एक-दूसरे को तुम कहते हैं, ये तो मालूम था, पर तुम्हारी माँ किसी पुरुष को ‘तुझे’ कह कर भी पुकार सकती है, ये माँ से ही सुन कर भी विश्वास नहीं हो रहा न...? पर सच तो ये है कि ‘तुम’ की सीमा से बाहर निकल किन पलों में हम दोनो ‘तू’ और ‘तुझे’ हो गए, पता ही नहीं चला...। एक बात और बताऊँ...? तू पढ़ कर बेहोश तो नहीं हो जाएगी...? कई बार मज़ाक में ही सही, पर मैं उसे गालियाँ भी सुना देती थी...कमीना वॉज़ द फ़ेवरिट वन...।

पलक...आँखें झपकाना बन्द कर...पता है मुझे, जब तू शॉक्ड होती है, तो जल्दी-जल्दी आँखें झपकाने लगती है...। पर बेटा, सच यही है...। आज तुमसे वो सारी बातें कहने के लिए ही तो इस नीली डॉयरी का सहारा लिया है...। इस डॉयरी का रंग भी मेरी पसन्द का लाल रंग न होकर नीला क्यों है, ये बताने की जरूरत लगती है क्या तुझे...? पर इन सारी बातों को लिखते-कहते समय मैं वो रुचि नहीं हूँ, जिसे सब जानते हैं...। मैं वो रुचि हूँ जिसे सिर्फ़ दो लोग जान सके इस पूरी दुनिया में...। एक तो मैं खुद...और दूसरा...सागर...। उसी ने तो इस रुचि से मुझको मिलवा दिया...। जाने कितनी गहराइयों से खोद कर निकाल ली ये बेजान-सी पड़ी रुचि...और लाकर खड़ा कर दिया मेरे सामने...बिल्कुल ज़िन्दा...। ये सागर के संग चुपके-से गाली-गलौज़ करना उस रुचि को बहुत भाता था। किसी अपने को प्यार से एक गाली देकर तो देखो कभी...सच्ची, बड़ा मज़ा आता है...।

पलक, तुझे अपने घुटने की चोट तो याद है न...? वही, जिसका निशान आज भी है वहीं...। तू कई बार बड़े होने पर मुझसे पूछ चुकी, कैसे लगी थी तुझे ये चोट और मैं हर बार यह कह कर टाल जाती कि तू खेलते हुए गिर गई थी...। तेरी हर बात खोद-खोद कर पूछने की आदत के कारण मैं नहीं चाहती थी कि तू उस चोट से जुड़ी हर बात निकालने की कोशिश करे...। एट लीस्ट तब तक, जब तक तू कुछ समझने-महसूसने लायक न हो जाए। सच कहूँ, तो तेरी ये चोट मुझे बहुत प्यारी है...। अरे, फिर शॉक्ड हो गई क्या...? वैसे तेरी हर छोटी-सी-छोटी तक़लीफ़ पर ज़मीन-आसमान एक कर देने वाली माँ कह रही है कि उसे तेरी चोट प्यारी है, तो तेरा शॉक्ड होना बनता है...। पर उसका कारण भी तो सुन ले पहले...।

असल में तेरी ये चोट ही तो वजह थी मेरे और सागर की पहली मुलाकात की...। तू चारेक साल की ही थी उस समय...। तुझे स्कूल भेजने के लिए तेरी बस का इंतज़ार करने बस स्टॉप पर खड़ी थी कि अचानक तू हाथ छुड़ा कर सड़क पर दौड़ गई थी। जब तक मैं कुछ समझ पाती, सामने से आ रही गाड़ी एक झटके से रुकी और तू सड़क पर गिर गई। चोट तुझे गाड़ी से नहीं लगी थी, ये तो बाद में समझ आया था, पर उस समय का इंस्टेन्ट रिएक्शन तो गाड़ी वाले के खिलाफ़ ही हुआ था न...जो भागने की बजाए तुरन्त उतर आया था अपनी गाड़ी से...बिना इस बात की परवाह किए कि वहाँ इकठ्ठा हो गई भीड़ उसके साथ कुछ बदसलूकी भी कर सकती थी। मैं तो पहले ही उसे बक-झक रही थी...अंधा...लापरवाह...शराबी...पता नहीं क्या-क्या..। पर वह इन सब से परे मानो कुछ सुन ही नहीं रहा था। तुम चोट से तो नहीं, पर शायद डर से बेहोश हो गई थी। उसने तुरन्त तुम्हें गोद में उठा गाड़ी में डाला और मुझे बैठने का इशारा कर तेज़ी से ड्राइविंग सीट पर बैठ गया था। मैं भी इतना घबरा गई थी कि बिना यह सोचे कि एक नितान्त अजनबी के साथ अपनी चार साल की बच्ची को लेकर उसी की गाड़ी में बैठना मेरे उसूलों के खिलाफ़ था, मैं झट से गाड़ी में घुस गई। बड़ी कुशलता से गाड़ी तेज़ रफ़्तार से चलाता वो एक नर्सिंग होम के सामने रुका और फिर जब तक मैं दुबारा कुछ समझ पाती, तुझे उठा वह ये गया, वो गया...। उसकी तेज़ चाल से सामंजस्य बिठाना शायद नॉर्मल कन्डीशन में मेरे लिए सम्भव न होता, पर उस समय मेरे अन्दर की माँ मेरे ऊपर इतना हावी थी कि वो मुझे कुछ सोचने-समझने ही नहीं दे रही थी। मुझे आश्चर्य हुआ था जब वो सीधा डॉक्टर के केबिन में घुस गया था और साधिकार तुझे बेड पर लिटा डॉक्टर की ओर मुखातिब हो गया था...उसी अधिकार भरे ढंग से...। वो इतनी कुशलता से तुझे सम्हाल रहा था जैसे तू उसी की औलाद हो...। उतनी देर मैं तो जैसे उसके लिए कहीं अस्तित्व में थी ही नहीं...। मैं भी अवाक...मूक-दर्शक सी सब देखे जा रही थी। पाँच-दस मिनट बीतते-बीतते जैसे ही तुझे होश आया और तू ‘माँ’ कह कर रोई तो जैसे हम सब जागे...। डॉक्टर ने ही बताया था कि खतरे की कोई बात नहीं, तू घबराहट और डर के मारे बेहोश हुई थी और घुटने की वो चोट गाड़ी से नहीं, बल्कि तेरे सड़क पर गिरने से लगी थी। तब जाकर मुझे इतना होश आया कि मैं उस शख़्स का धन्यवाद कर सकूँ...। जवाब में वो मेरी ओर देख कर हल्का-सा मुस्कराया था और तब मैने जाना, कोई आँखों से भी कैसे मुस्कराता है...। वो नर्सिंग होम उसके कज़िन का था और वो डॉक्टर ही था उसका कज़िन...डॉ.आशू...। याद है न तुझे...? जब तक आशू इण्डिया में रहा, तेरी हारी-बीमारी में उसी के पास तो जाते थे न...। पर मेरे ही कहने से आशू ने भी कभी तुझे तेरी चोट की बाबत सच्चाई नहीं बताई थी...क्योंकि मैं नहीं चाहती थी कि तुम सागर को कभी भी अपनी किसी तकलीफ़ का ज़िम्मेदार मानो...। तो इस तरह इतनी ड्रॉमेटिक थी सागर से मेरी पहली मुलाकात...।

उसके बाद सागर थोड़ा जल्दी-जल्दी ही आया घर...कभी तुम्हारा हाल पूछने, तो कभी ‘यहाँ से गुज़र रहा था, सोचा पलक से मिल लूँ’ कह कर...। जब आता, रुकता तो थोड़ी ही देर, पर जब तक रहता, घर के सर्द मौसम में जैसे गुनगुनी धूप सा छा जाता...। उसकी वो खुल कर हँसने की आदत ने मुझे भी अपने में शुमार कर लिया था। बरसों बाद मैं भी खिलखिलाने लगी थी। वो अपने बारे में तो खूब बताता...अपने माता-पिता...बहनें...उनका परिवार...अपनी पसन्द-नापसन्द...सब कुछ जैसे मेरे साथ बाँटना चाहता रहा हो...। पर उसने पता नहीं क्या सोच कर अपनी तरफ़ से मेरे बारे में कुछ पूछने की पहल नहीं की थी। बस एक बार पूछा था...पलक के पापा...? मैने भी बस इतना ही कहा था, कुछ कारणों से वो हमारे साथ नहीं रहते...इस लिए मैने अपनी माँ को अपने साथ रखा है, तुम्हारी देखभाल के लिए...। सागर ने फिर कुछ नहीं पूछा था...। वो तो शायद एक-दो साल बीतने पर हुआ जब एक दिन किन्हीं भावुक पलों में मैने अपने सारे घाव खोल कर रख दिए थे उसके सामने...। अपने पति की बेवफ़ाइयों की कहानी...मेरे साथ उनका वो अमानवीयपन...सब कुछ...। सागर उस समय तो कुछ नहीं बोला था, पर धीरे-धीरे उसने मेरे घाव सहलाने का अनकहा दायित्व भी अपने काँधों पर ले लिया था। मैं कितना सिमटी थी अपने भीतर...ये सिर्फ़ वो ही जान रहा था...और इसी लिए कतरा-कतरा कर के वो मुझे बाहर निकालता जा रहा था...। मेरे अन्दर की वो रुचि, जो आज भी एक मासूम सी बच्ची थी...बात-बात पर रूठना, फिर झट मान भी जाना...खिलखिला कर हँसना...गाना-नाचना...। बारिश की बूँदों को हथेलियों में समेट कर कीचड़-भरे गड्ढे में छपाक कर के कूद जाना...ऐसी थी वो रुचि...। छोटी-छोटी खुशियों को खुल कर जीना...ज़िन्दगी को नए नज़रिए से देखना सिखाया सागर ने इस रुचि को...। उसकी चुटकियों में हर बात का हल निकाल लेने की क़ाबिलियत कई बार मुझे हैरान कर जाती थी। वो एक ऐसा शख़्स रहा, जिससे कुछ भी कहते समय मुझे कभी कोई संकोच नहीं हुआ। इतना विश्वास हो गया था उस पर...और उस विश्वास को उसने कभी तोड़ा भी नहीं...इस बात का फ़ख़्र है मुझे...। तुम्हें आश्चर्य होगा पलक, पर एक जवान औरत और पुरुष की इतनी करीबी-सी दोस्ती में कभी देह बीच में नहीं आई...हालाँकि तुम्हारी नानी जब हमारे साथ रहने आई थी तो उनको सबसे पहला यही डर लगा था हमारे रिश्ते में...। हाँ, इतना जरूर था कि सागर मेरी ओर आकर्षित था, ये मुझसे छुपाने का प्रयास कभी उसने भी नहीं किया और न ही मैं उसे चाहने लगी हूँ, ये उससे छुपा रह पाया...। ये कब और कैसे हुआ...हम दोनो में से कोई नहीं जान पाया...। पर इस प्यार को क्या नाम दूँ मैं...? क्या प्लेटोनिक लव इसी को कहते हैं...? देह से परे...। तुम्हें पता है पलक, मैं सागर को अक्सर अपना मनमीत कहती थी...। सारे रिश्तों से अलग...एक अनोखा-सा रिश्ता...। मन की डोर से बँधा...।

पर कोई रिश्ता कितना भी पवित्र क्यों न हो, लोग तो गन्दगी ढूँढने ही लगते हैं न...? तुम्हारे पापा तक किसी जल-खुखरे ने हमारे बारे में खबर पहुँचा ही दी...सो एक दिन अपने बिन-निभाए पतित्व के अधिकार के साथ वो हाज़िर हो ही गए थे...। तुम उस समय सागर के साथ ही कहीं घूमने गई थी। अपनी उसी पशुता के साथ मेरे लाख मना करने, दुत्कारने के बावजूद वो बन्दा वहीं डटा रहा, सागर के इंतज़ार में...। सागर जब तुम्हारे साथ लौटा था तो तुम्हारा बाप नाम का जीव जैसे कुत्ते की तरह लपका था उसकी ओर...। सागर का धैर्य और दृढ़ता मैने उस दिन देखी थी। ये रूप मैने कभी नहीं देखा था...। हाँ, ये तो कई बार उसने बताया था कि कम्पनी के जी.एम की हैसियत से अक्सर उसके सामने ऐसी सिचुएशन आती रहती है, जिसमे असीम धैर्य के साथ-साथ एक दृढ़ता की भी बहुत ज़रुरत होती है, पर उसका साक्षात नमूना मैने उस दिन देखा था। तुम्हारा बाप किस तरह वहाँ से सिर झुकाए निकल गया था, ये तो तुम सोच भी नहीं सकती...। उसके जाने के बाद सागर मेरी ओर पलटा था...कब तक इस आदमी के नाम का टैग अपने साथ टाँगे फिरोगी...? तलाक़ दे क्यों नहीं देती इसे...? है कौन ये तुम्हारा...? और पता है पलक...वही दिन था जब मेरे अन्दर की रुचि पूरी शिद्दत से बाहर आई थी...। पहली बार मैने अपने बारे में सोचा था...अपने जीवन के बारे में सोचा था...। तुम्हारी नानी बहुत गुस्साई थी मेरे इस फ़ैसले से...। सारा ठीकरा उन्होंने सागर के सिर फोड़ने की कोशिश की थी...। पता नहीं क्यों उन्हें अब भी आशा थी कि मेरा नाममात्र का वैवाहिक जीवन एक बार फिर हैप्पी एण्डिंग को प्राप्त होगा...। पर मेरे अन्दर की वो असल रुचि अब अपने साथ-साथ हर अपने-से के लिए भी पूरा लड़ने को तैयार थी...। सागर के खिलाफ़ मैं एक शब्द भी नहीं सुनना चाहती थी। गुस्से में मुझे अपने हाल पर छोड़ नानी ने हमारा घर ही छोड़ दिया था। उनके अन्दर की पुरातनपन्थी औरत तो वैसे भी मेरे बिना अर्थी पर चढ़े ही पति का घर छोड़ने से ख़फ़ा रहती थी।

तुम्हारे पापा से तलाक़ का मुकदमा दायर होने से लेकर तुम्हारी कस्टडी मुझे दिलवाने तक सागर हर कदम पर मेरे साथ बना रहा। तुम्हारे पापा ने बहुत कोशिश की थी कि सागर से मेरे रिश्ते को ग़लत साबित कर वे तुम्हारी कस्टडी ले सकें, पर ऐसा सम्भव नहीं हुआ...एण्ड फ़ॉर दिस...थैंक्स टू सागर...। जब हमारे रिश्ते में कुछ ग़लत था ही नहीं तो साबित कैसे होता...।

तुम्हारे नाना-नानी ने मुझसे सारे सम्बन्ध तोड़ लिए थे। एक तलाक़शुदा, पतिता से नाता रख कर वे अपने परिवार की बदनामी नहीं कराना चाहते थे। ऐसे में भी सागर ही सामने आया था। दौड़-धूप करके उसने न केवल फ़ाइनेंस की व्यवस्था की, बल्कि आज जो तू मुझे एक सफ़ल बिज़नेस वूमेन के रूप में देखती है, उस बिज़नेस को इस्टैबलिश करने में भी सागर का ही हाथ था। वो तो तेरी सारी ज़िम्मेदारियाँ उठाते हुए मेरा हाथ भी थामना चाहता था...पर तुम ऐसा नहीं मंज़ूर कर सकती थी पलक...। जाने क्यों सागर को पसन्द करते हुए भी तुम अपनी माँ उसके साथ नहीं बाँट सकती थी, ये मैने बहुत बार नोटिस किया था...। किसी का फोन आने पर दौड़ कर तुम्हारा वो फोन उठाना...स्कूल से आकर मेरा फोन-लॉग और मैसेज इनबॉक्स चेक करना...कई बार सागर से मुझे बात करते देख-सुन कर तुम्हारा मुँह उतर जाना...उसके जाने के बाद तुम्हारा बिन बात खिजलाना...सब मुझे समझाने के लिए काफ़ी था कि तुम इनसिक्योर थी मुझे और सागर को लेकर...।

तुम्हें बताऊँ पलक, एक दिन अकेले में सागर ने मुझे ऑफ़िशियली प्रपोज़ भी किया था...। पर मेरे इंकार ने जैसे उसका सब कुछ छीन लिया था। सिर झुकाए...एकदम चुपचाप...बहुत देर तक बैठा रह गया था। मैने उसे समझाने की कोशिश की तो पहली बार एकदम उखड़ गया था...आइ डोन्ट वॉन्ट एनी एक्स्प्लेनेशन्स...। ज़िन्दगी तुम्हारी है, हर निर्णय लेने के लिए स्वतन्त्र हो...और फिर एक झटके से उठ कर चला गया था। मैं बहुत रोई थी उस दिन...अपने से ज्यादा सागर के लिए...। उसकी वो आहत आँखें याद करके मैं आज भी रो देती हूँ पलक...अकेले में...चुपके से...। उस दिन सागर की वो रुचि एक बार फिर दफ़न हो गई थी कहीं, जिससे उसी ने तो मिलवाया था मुझे...। बहुत तकलीफ़देह होता है न, खुद से मिल कर एक बार फिर से बिछड़ जाना...और वो भी शायद हमेशा के लिए...। ये मुझसे अधिक कोई नहीं समझ पाएगा कभी...।

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