आसपास से गुजरते हुए
(27)
कहीं कुछ बच गया है शायद
आई को गुजरे छह महीने हो गए हैं। शायद आप भी जानना चाहेंगे कि मेरा क्या हुआ? मैंने क्या किया? मेरे साथ जो हुआ, इस बात का खुद मुझे विश्वास नहीं हो रहा।
मैं पिछले पांच महीने से कोचीन में हूं, अप्पा के गांव में।
आई के निधन के बाद अप्पा ने मुझे मना लिया था कि मैं उनके साथ पुणे चलूं। मैंने आनन-फानन अपना सामान पैक किया था। अगले दिन मैं ऑफिस गई थी रेजिगनेशन देने के लिए। श्रीधर से काफी बहस हुई। उसका कहना था कि तुम चाहे तो कुछ दिन और छुट्टी ले लो, पर जॉब मत छोड़ो। मैंने मन बना लिया था। यहां किसी महीने धागे के सहारे अपने आपको जोड़े रखने का कोई मतलब नहीं है।
वहीं मुझे शेखर मिल गया था। दो दिन बाद उसकी शादी थी। मुझे देखकर वह बुरी तरह चौंक गया। मैं बहुत सामान्य थी, पता नहीं कैसे!
मैंने ही बात शुरू की, ‘कैसे हो शेखर? शादी की तैयारियां हो गईं?’
वह हकबका गया।
मैं ज्यादा बोल नहीं पाई। आई का शॉक मुझ पर बुरी तरह हावी था। मैं ठीक से मुस्कुरा भी नहीं पा रही थी। शेखर ने सुन लिया कि मैं दिल्ली छोड़ रही हूं। आई के बारे में जानकर वह भावुक हो गया, ‘अचानक कैसे हो गया?’
मेरी आंखें हल्की-सी पनीली हो आईं, ‘अचानक ही तो घटती हैं चीजें!’
इसके बाद मुझे याद नहीं कि क्या हुआ। श्रीधर ने कहा था कि तुम नए वाइस प्रेसिडेंट से मिल लो। उनका केबिन सेकेण्ड फ्लोर पर था। मैं थर्ड फ्लोर से सीढ़ियों से नीचे आ रही थी। पता नहीं कैसे मेरा पैर फिसल गया। बस इसके बाद कुछ याद नहीं।
अस्पताल में आंख खुली, तो अप्पा मेरे सिरहाने थे। मुझे चक्रवर्ती भी दिख गया और एक कोने में खड़ा शेखर भी। वह अपराधियों की तरह कोने में मुंह छिपाए खड़ा था। मेरी पहली प्रतिक्रिया हुई कि शेखर को यहां नहीं होना चाहिए, उससे मेरा कुछ लेना-देना नहीं है। मैं बहुत कमजोर थी। मैंने आंखें बंद कर लीं। जो होना था, हो चुका। अब मेरा कुछ भी सोचना मायने नहीं रखता।
कभी सोचा न था कि सत्ताईस साल की उम्र में जिंदगी यूं हाथ से फिसलती चली जाएगी। मैं लगभग चार दिन अस्पताल में एडमिट रही। चक्रवर्ती ने ही दौड़-भाग करके आल इंडिया मेडिकल में मुझे एडमिट करवा दिया था। डॉ. सोहना कौर को मैंने कहते सुना था, ‘ही वॉज ए बेबी बॉय।’
ही वॉज...इज क्यों नहीं? मैं ठीक से रो भी नहीं पाई। लग रहा था, मेरे बच्चे को पहले ही पता चल गया होगा कि उसकी मां बेहद कन्फ्यूज्ड है, उसे इस दुनिया में नहीं जाना चाहती। इससे अच्छा है कि ना आया जाए। आकर बेचारा करता भी क्या? मैं उसे क्या दे पाती? इससे आगे मुझसे सोचा नहीं जा रहा था। अपने पेट पर हाथ फेरती, कुछ खाली-खाली लगता। कितने उदास-से दिन थे। अप्पा को मेरे पास रहना पड़ा। आई की तेरहवीं में भी पुणे नहीं जा पाए। अप्पा बहुत बोलने लगे थे इन दिनो। मेरे पास बैठकर घंटों पता नहीं क्या-क्या कहते रहते। अपने बचपन की बातें, आई के बारे में, पुणे के बारे में।
घर आने के बाद तो मैं और भी बेचैन रहने लगी। इस तरह हर वक्त सबका मुझे घेरे रहना जरा भी नहीं भा रहा था मुझे। मन हो रहा था, कहीं भाग जाऊं। किसी ऐसी जगह चली जाऊं, जहां कोई मुझे नहीं जानता हो। दस दिन बाद मैं उठने लायक हुई। जिंदगी में पहली बार अप्पा मेरे साथ इतना समय बिता रहे थे।
मैंने जिद पकड़ ली, ‘मुझे यहां नहीं रहना!’
अप्पा कुछ परेशान-से लगे, ‘मोले, कहां चहना है? पुणे?’
मैंने पता नहीं क्यों ‘नहीं’ में सिर हिलाया।
‘फिर?’
मेरे पास कोई जवाब नहीं था। उनसे कैसे कहती कि मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिए। मैं भटकना चाहती हूं, अकेली। मुझे किसी का साथ नहीं चाहिए। जिसका साथ चाहिए था अब वे दोनों नहीं हैं। मेरी आई और मेरा बेबी बॉय!
ना जाने क्यों वक्त-बेवक्त आंखों में आंसू बह आते। अप्पा को लग रहा था, मैं कमजोर पड़ती जा रही हूं। अंदर से भी और बाहर से भी। मैं कमजोर नहीं थी। बस अपने आप पर गुस्सा आ रहा था। कितना निरुद्देश्य जिंदगी को जाया कर रही हूं। कभी यह ना सोचा कि देश में, दुनिया में औरतें कितनी बड़ी-बड़ी परेशानियों से जूझ रही है। कितनी छोटी और अक्षुण्ण हूं।
बस इसी उधेड़बुन में ही मैंने दिल्ली को अलविदा कहा। बहुत कष्टदायक था राजधानी को इस तरह छोड़कर जाना। मुझे यह तक पता नहीं था कि अप्पा मुझे कहां लेकर जा रहे हैं। ट्रेन जब प्लेटफॉर्म छोड़ने लगी, तो लगा आई गा उठी हों-ये वाट दूर जाते, स्वपना मदील गांवा...।
पूरे बावन घंटे बाद हम कोचीन पहुंचे।
मैं सारे रास्ते यही सोचती रही कि शेखर ने माना से पता नहीं क्या कहा होगा। वह मुझसे मिलने आई थी अस्पताल में। चुपचाप खड़ी रही मेरे सिरहाने। कुछ नहीं कहा।
बस जाते समय धीरे-से बोल गई, ‘तुम ठीक होतीं तो हमारी शादी में आतीं।’
मैं धीरे-से मुस्कुरा-भर दी। अच्छा हुआ शेखर ने उसे कुछ नहीं बताया। शेखर ने जाती बार मुझसे कहा, ‘अनु, मैं शादी कर लूं ना?’
मैं कहना चाहती थी कि क्यों नहीं करोगे? मेरे लिए? पर लगा, उसके मन में ऐसा कुछ नहीं है, वह तो बस खाना-पूरी कर रहा है। मैंने हंसने की चेष्टा की, ‘मुझे तो लगा था कि तुम कर चुके होगे।’
‘अनु, हमारे बीच जो भी हुआ...’ उसने इतना धीमे कहा कि अप्पा ओर माना ना सुन पाए।
मैं रोक नहीं पाई, ‘कहानी खत्म हो गई अब। मुझे कभी याद भी मत दिलाना। मैं भी कोशिश करूंगी...’
फिर मैंने पलटकर उसकी तरफ नहीं देखा। इसके बाद वह मुझसे मिलने अस्पताल नहीं आया।
शेखर का अध्याय खत्म हुआ। मैंने खत्म करने की कम-से-कम कोशिश तो की।
पर बिना किसी अध्याय के जिन्दगी इतनी रूखी हो सकती है, मैंने कभी सोचा ना था।
कोचीन आने के बाद मेरी आदित्य से बात हुई थी। मैंने ही फोन किया था, रोक नहीं पाई। आदित्य बड़े उदासीन लगे, ‘तुम ठीक हो? अच्छा। मौका मिले तो कोचीन आऊंगा।’
मैं उन्हें अपने बारे में बताना चाहती थी, अपने बेबी बॉय के बारे में। पता नहीं क्यों, अब मेरी रूह उसे लेकर सपना देखनी लगी है। पर बता नहीं पाई।
मैं अनु...इस तरह जिन्दगी के हाथों बांध दी जाऊंगी, कभी सोचा भी ना था। अप्पा ने अपने हिस्से के रबर के वृक्षों को बेचकर कॉयर का बिजनेस शुरू किया था। वे इसमें खासे व्यस्त रहने लगे। वे चाहते थे कि बिजनेस में मैं भी उनका हाथ बटाऊं। मेरी कोई इच्छा नहीं थी। अप्पा ने यहां तक कहा कि वे घर में कंप्यूटर लगवा देंगे, पर मैंने दिलचस्पी नहीं दिखाई।
वे बिजनेस के सिलसिले में अकसर मुंबई जाते रहते। अच्छा था, मैं खुद नहीं चाहती थी कि अप्पा हर वक्त मेरे सामने बने रहें। मैं अकसर कमरे में अकेली बंद रहती। बड़ी कोचम्मा की बेटी तनुजा की बेटी हुई। कोचम्मा की खुशी की सीमा नहीं थी। केरल में लड़कियों की पैदाइश पर आज भी जश्न मनाया जाता है। जब भी मैं तनुजा की नन्हीं बेटी को देखती मुझे अपना अजन्मा बेबी बॉय याद आ जाता। यह भी एक वजह थी कि मैं अपने आप से उबर नहीं पा रही थी। अप्पा महसूस कर रहे थे कि मेरा कुछ करना होगा। मैं काम नहीं करना चाहती थी। मैं आम घरेलू लड़कियों की तरह घर के कामों में भी हाथ नहीं बंटाती थी। अमम्मा मुझसे खुश नहीं थीं, मुझे अच्छी तरह दिख रहा था। मैंने उन्हें खुश करने की कभी कोशिश भी नहीं की।
जून के पहले सप्ताह से घनघोर बारिश होने लगी। अप्पा का बिजनेस थोड़ा मंदा पड़ा तो उन्हें व्यस्त रहने के लिए दूसरा शगल मिल गया था। वे मेरे लिए लड़का देखने लगे। मुझे आश्चर्य हुआ, अप्पा तो सब जानते हैं! अप्पा का तर्क था , ‘तुम शादी नहीं करेगी तो और क्या करोगी?’
‘अप्पा,’ मैं अचम्भित हो गई, ‘मैं किसी से भी शादी कैसे कर सकती हूं? मेरे बारे में सब कुछ जानने के बाद भी...’
‘जो हो गया, सो हो गया। फिनिश्ड! किसी को कुछ बताने की जरूरत नहीं।’ अप्पा ने दृढ़ स्वर में कहा।’
‘हां, कहते तो सब यही हैं। लड़की का अतीत उससे पहले उसके वर्तमान को डस लेता है। पर मैंने ना बताने के लिए तो कुछ नहीं किया। जो हुआ, जो किया, वो मेरा था। मैं यह बात अप्पा को कैसे बताती?’
अप्पा ने शिद्दत से लड़का ढूंढना शुरू किया। अमम्मा भी जोश में आ गई। मुझसे कोई नहीं पूछ रहा था कि मैं क्या चाहती हूं। अप्पा ने सुरेश भैया को भी बताया कि वे मेरे लिए लड़का देख रहे हैं।
भैया फोन पर ही चहक पड़े, ‘अच्छा कर रहे हैं अप्पा। अब उसे अकेला छोड़ना सही नहीं है।’
सुरेश ने क्या कहा, मैंने नहीं सुना। अप्पा ने ही बताया कि सुरेश भी यही चाहता है। सबका यही कहना है कि अनु की जल्द-से-जल्द शादी हो जानी चाहिए। मैं उदासीन थी। मैं अपने आपको संभाल नहीं पाई। अगर पारिवारिक और सांसारिक बंधनों में रहना है, तो सबकी तरह चलना होगा। मैं ऐसा कैसे कर सकती थी?
अगले दो हफ्तों में मुझे देखने चार लड़के आने वाले थे। मुझे सब कुछ बहुत असहज लग रहा था। काश! मैं दूसरी लड़कियों की तरह शादी और उससे जुड़ी प्रथाओं को लेकर उत्साहित हो पाती। उलटे मैं आहत थी। अप्पा मुझे अच्छी तरह जानते हैं, फिर कैसे मुझसे इन सब बातों की उम्मीद करते हैं?
अमम्मा ने मुझे छोटी कोचम्मा की कांजीवरम साड़ी पहनने को दी। इसी बात पर मेरी उनसे बहस हो गई। अप्पा खुद बीच-बचाव करने आए और मुझे डांट दिया, ‘तुम साड़ी पहन लोगी तो क्या हो जाएगा? त्रावणकोर से लड़का आ रहा है। खानदानी परिवार है। पांच बीघा जमीन है। हजार नारियल के पेड़ हैं। मैं नहीं चाहता कि वे लोग जब आएं, तब तुम कोई नौटंकी करो। खबरदार! जो अपनी आई की तरह नाटक करने की कोशिश की।’
मैंने आश्चर्य से अप्पा का चेहरा देखा। मैं नहीं रोई, ना मैं बौखलाई। अप्पा के खानदानी कैंडिडेट आए। मुझे जब कमरे में बुलाया गया, मैं साड़ी में आ खड़ी हुई। त्रावणकोर के खानदानी परिवार के दूसरे बेटे ने मुझसे सवाल किया, ‘दिल्ली ज्यादा पसंद है या कोचीन? दिल्ली छोड़कर यहां रह लोगी?’
क्या इसके अलावा और कोई बात नहीं हो से सकती थी? मुझे अचानक दिल्ली में अपनी पड़ोसिन मिसेज अहलूवालिया की बेटी संजू की याद आई। मूर्ख लोग हर कहीं पाए जाते हैं।
खानदानी परिवार के दूसरे सदस्यों ने भी मुझसे कई सवाल दागे। मेरा ठीक से मलयालम ना बोलना सबको अखर गया। अमम्मा ने बात संभालने की कोशिश की, ‘गोपालन शुरू से पुणे में रहा है। अब सब यहां आ गए हैं। महीने-भर में अनु मोले को मैं निखालिस मलयालम सिखा दूंगी।’
मेरी तरफ देखकर अमम्मा मुस्कुराई। मैं चेहरा नीचे किए बैठी थी। आई को नाटकों में काम करते समय ऐसे ही लगा होगा। लड़केवाले यह कहते हुए चले गए कि सप्ताह-भर बाद जवाब देंगे।
उस रात अप्पा से मेरा बात करना जरूरी हो गया।
मेरा यह तर्क कि मैं उसी आदमी से शादी कर पाऊंगी, जो मुझे जाने, मेरे बारे में जाने, उने गले नहीं उतरा।
उन्होंने स्पष्ट कहा, ‘मोले, कोई भी आदमी यह जानने के बाद तुमसे शादी नहीं करेगा कि तुमने क्या किया है।’
‘तो अप्पा, मैं फिर शादी नहीं करूंगी। मुझे इस तरह शादी नहीं करनी। मुझे कम-स-कम सिर उठाकर जीने तो दीजिए।’
अप्पा गंभीर हो गए, ‘अनु, तूने जो किया, उसके बाद मैंने सोचा था, जिंदगी-भर तेरी शक्ल नहीं देखूंगा। पर मोले, मैं रह नहीं पाया। मुझे लगा, तुम जो भटक रही हो, उसमें मेरा भी हाथ है। मैं कभी एक अच्छा फादर नहीं बन सका। तुम बच्चे अपने-अपने रास्ते चलते गए, मैं अपने रास्ते चला गया। तुम्हारी आई भी अलग टाईप की थीं...’
‘अप्पा, आई को बीच में मत लाइए।’
अप्पा चुप रहे। फिर कुछ आहत होकर बोले, ‘मैंने ऐसा क्या किया है मोले, जो तुम तीनों मुझसे दूर भागते हो? तुम्हें क्या लगता है, मैंने तुम्हारी आई से निभाने की काशिश नहीं की? बल्कि वहीं मुझसे दूर भागती थी।’
‘क्या आप चाहते हैं कि मेरे साथ भी ऐसा हो?’ मैं अप्पा के पैरों के पास बैठ गई, ‘मैं जानती हूं कि आप मेरे लिए परेशान हैं। पर मुझे वह सब करने को मत कहिए अप्पा, जिसके लिए मेरा दिल राजी नहीं है।’
‘तुझे कभी तो किसी पर विश्वास करना होगा। मैं चाहता हूं कि तेरी शादी किसी अच्छे लड़के से हो जाए। फिर तेरा ये भटकना रुक जाएगा।’
मेरी आंखों में आंसू आ गए। मैंने धीरे-से कहा, ‘मैं अब नहीं भटकूंगी अप्पा।’
अप्पा आंख बंद कर ना जाने क्या सोचने लगे।
मैं भी उसी तरह बैठी रही।
‘अच्छा, जाकर सो जा। कल बात करेंगे।’
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