Aaspas se gujarate hue - 25 in Hindi Moral Stories by Jayanti Ranganathan books and stories PDF | आसपास से गुजरते हुए - 25

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आसपास से गुजरते हुए - 25

आसपास से गुजरते हुए

(25)

हमसफर, तुम कहां थे?

सब कुछ आनन-फानन हो गया। 31 मार्च को रात की फ्लाइट से मैं दिल्ली आ गई। जब दिल्ली एयरपोर्ट पर प्लेन ने लैंड किया, रात के दस बज रहे थे। मैं टैक्सी करके घर आई। मकान मालिक मुझे देखकर चौंक गए, ‘अरे अनु तुम! दो दिन पहले तुम्हारे ऑफिस से किसी का फोन आया था कि तुम महीना-भर नहीं आओगी...!’

‘जी...मैं आ गई।’

‘अच्छा किया। तुम्हारे लिए चार-पांच चिट्ठियां हैं, कल ले जाना...’

‘अच्छा...’ मैं बड़ा-सा सूटकेस थामे सीढ़ियों के पास ठिठक गई। अग्रवालजी को मुझ पर दया आ गई, उन्होंने अपने नौकर से कहकर मेरा सामान ऊपर पहुंचवा दिया। दरवाजा खोलते ही जैसे मुझे गश आ गया। धूल की मोटी परत, दीवारों पर जाले, पूरे घर में अजीब-सी दमघोंटू गंध भरी थी। मैं सिर पकड़कर कुर्सी पर बैठ गई। यह मैं कहां आ गई?

महीने-भर से ज्यादा हो गया था मुझे घर से गए। क्या बुरी हालत हो गई थी घर की। मैंने अपने बिस्तर की चादर बदली और पंखा चलाकर सो गई।

अगले दिन शनिवार था। सुबह जल्दी आंख खुल गई। पहली अप्रैल का आग उगलता सूरज मेरे बरामदे में पूरी मुस्तैदी के साथ घुस आया। मैं उठी, छत पर गई, तो एक बार फिर से दिल बैठने लगा। मेरे पौधों का बुरा हाल था। आधे से ज्यादा तो सूखकर लकड़ी हो चुके थे। मैं चेहरा फेरकर अंदर चली आई। मन हुआ, बोरिया-बिस्तर समेटकर चली जाऊं। लेकिन कहां जाती? पुणे में कौन है? भैया के पास? अप्पा के पास? मेरा तो कोई ठिकाना ही नहीं।

मेरी आंखों में आंसू आ गए। रसोई में गैस जलाकर मैंने दूध पाउडर से चाय बनाई। बहुत ही बेस्वाद चाय थी। चाय का कप लेकर मैं छत पर आ खड़ी हुई। मकान मालिक की नौकरानी मेरे घर भी काम करती थी। वह नजर आई, मैंने उसे हाथ के इशारे से ऊपर बुलाया। मुझे देखकर वह आश्चर्यमिश्रित खुशी का इजहार करती ऊपर आ गई, ‘तू आ गई गुड़िया! मुझे लगा, सादी-वादी करके ही आएगी।’

इस वक्त उसकी अनर्गल बकबक मुझे अच्छी लग रही थी। घंटे-भर में वह झाड़-पोंछकर मेरे घर को पुराने रूप में ले आई। दस बजे मैं नीचे उतरकर मदर डेरी से दूध, फल और सब्जियां ले आई। शाम तक घर रहने लायक हो गया। घर का फोन डेड पड़ा था। दोबारा नीचे उतरकर मैंने दुकान से भैया को फोन लगाया, ‘मैं दिल्ली आ गई हूं।’

सुरेश भैया बुरी तरह चौंक गए, ‘अकेले? क्यों? ठीक तो है न तू?’

‘हूं, बस यूं ही। करने के लिए कुछ था नहीं!’

‘अच्छा! मन हो तो कलकत्ता आ जा। शर्ली भी घर पर बैठी बोर होती रहती है।’

‘उसकी नौकरी का क्या हुआ?’ मैंने रुककर पूछा।

‘इन दिनों घर पर ही बुटीक खोलने का भूत सवार हुआ है। करने दो, उसे जो करना है।’

‘भैया, वो मैं आई से झगड़कर...यहां आई हूं।’ मैंने रुकते-रुकते कह ही दिया।

‘आई कहां हैं?’

‘वो कोल्हापुर चली गई हैं, सुल्लू मौसी के पास।’

‘अप्पा नहीं हैं पुणे में?’

‘नहीं, शायद वे कोच्चि वापस चले गए हैं।’

‘नहीं, कल वहां से अमम्मा का फोन आया था। वहां भी नहीं हैं अप्पा।’

‘तो फिर कहां गए?’ मैं चौंक गई।

‘वही तो, पता नहीं पिछले पंद्रह दिनों से कहा हैं अप्पा! किसी को कोई खबर नहीं।’

‘ऐसा तो वो कभी नहीं करते!’ मैं धीरे-से बुदबुदाई।

सुरेश भैया अचानक फट पड़े, ‘हमारे घर में सब वहीं करते हैं, जो उनको नहीं करना चाहिए।’

मैंने ‘बाय’ कहकर फोन रख दिया। अप्पा के बारे में सुनकर मैं परेशान हो गई। ये बूढ़े ऐसी गैर जिम्मेदाराना हरकत क्यों करते हैं?

मैंने श्यामली को फोन लगाया। वह अपने परिवार के साथ शिमला गई थी। चक्रवर्ती का नम्बर लगाया, वह घर पर नहीं था। उसकी बीवी ने फोन उठाया और कहा, ‘वो सब्जी मंडी तक गए हैं। लौटेंगे तो फोन करने को कह दूंगी।’

मैं कहना चाहती थी कि घर का फोन ठीक नहीं है, पर मैं बिना कुछ कहे फोन रखकर, पैसे देकर चली आई। घर जाने का बिल्कुल भी मन नहीं हो रहा था। मैंने बेवजह लम्बे रास्ते से चलना शुरू किया। पार्क में जाकर थोड़ी देर बैठी। धूप इतनी तेज थी कि सिर भन्नाने लगा। मैं उठ गई।

मेरी पड़ोसिन मिसेज अहलूवालिया सड़क पर फेरीवाले से सूट का कपड़ा खरीद रही थी। मुझे देखते ही खींसें निपोरती बोली, ‘बड़े दिनों बाद नजर आ रही हो। बाहर गई थी? एब्रोड?’

मैंने बेवजह की लम्बी मुस्कान तानी, और ‘हां’ में सिर हिला दिया। उससे कहूं, पुणे गई थी वाया कोचीन, उसे क्या समझ आएगा? मैं आगे बढ़ने लगी, तो उसने टोक दिया, ‘क्या लाई तुम? गोल्ड, परफ्यूम, चॉकलेट!’

मैंने धीरे-से कहा, ‘कुछ नहीं!’

उसने मेरी तरफ आश्चर्य से देखा, ‘ओह! ऑफिस के काम से कई थी?’

मैंने सिर हिलाया।

‘तुम भी कुछ सूट-वूट खरीद लो। सौ रुपए में साढ़े चार मीटर कपड़ा दे रहा है, अच्छा है। मैंने छह पीस लिए हैं। अगले वीक बहू का जन्मदिन है, उसे भी तो कुछ देना होगा न!’

मैंने फिर से सिर हिलाया।

‘तुम्हारी एब्सेंस में पता है, तुम्हारी गाड़ी के साथ क्या हुआ?’

मैं चौंक गई। यह मेरे लिए नई बात थी, हालांकि मेरी गाड़ी सही सलामत घर के सामने खड़ी थी।

‘पन्द्रह दिन पहले दोपहर को चार लड़के आए थे, बस इधर ही गाड़ी के पास आकर खड़े हो गए। मैं बाल धोकर छत पर खड़ी सुखा रही थी। एक लड़के ने तुम्हारी गाड़ी का दरवाजा खोलने की कोशिश की, तो मैंने ऊपर से आवाज लगाई, ‘ऐ क्या कर रहे हो,’ तो लड़का खिसियाकर बोला, ‘किसी ने बोला, गाड़ी बेचने की है, हम खरीदने आए हैं।’ मुझे आ गया गुस्सा, मैंने चिल्लाकर कहा, ‘पिल्लों, यह गाड़ी मेरी है, मैं अभी नीचे आकर बताती हूं’ तो वे लड़के ऐसे सरपट भागे कि...’

‘थैंक्यू आंटी,’ मैंने धीरे-से कहा।

‘थैंक्यू-वैंक्यू क्या है? फर्ज बनता था मेरा। वैसे भी दिल्ली में मारुति गाड़ी के थीफ इतने हो गए हैं...’

‘हां, वो तो है।’ मैं वहीं खड़ी हो गई।

उन्होंने अपने खरीदे सूट मुझे दिखाकर मेरी राय पूछी। छींटदार सूती सूट पीस सौ रुपए में बुरे नहीं थे, मैंने यह कहा, तो वे खुश हो गईं।

‘चलो, घर आओ, मैं चाय पिलाती हूं।’ वे मेरा हाथ पकड़ती हुई बोलीं। और कोई दिन होता, तो मैं मना कर देती, पर आज पता नहीं क्या हुआ मैं उनके पीछे-पीछे चली गई।

मैं इस इलाके में डेढ़ साल से रह रही थी, पास-पड़ोस में मेरा मेल-जोल ना के बराबर था। मैं उनकी नजरों में जरूर ही आदित्य की भाषा में ‘विचित्र, किन्तु सत्य प्राणी’ थी। दिल्ली जैसे महानगर में अकेली रहनेवाली लड़की!

आदित्य से याद आया, मैंने दिल्ली पहुंचने के बाद उन्हें फोन भी नहीं किया था। रात को ग्यारह बजे के बाद करूंगी, उस वक्त वे घर पर भी होंगे और एस.टी.डी. में पैसे भी कम लगेंगे।

मिसेज अहलूवालिया ने मुझे खूब दूधवाली सफेद चाय पिलाई। मैं उनके साथ घंटा-भर तक इधर-उधर की बातें करती रही। मिसेज अहलूवालिया की बहू आठ महीने की प्रेग्नेंट थी। परेशान थी कि मई महीने में जब डिलीवरी होगी, तब आधे दिन बिजली नहीं रहा करेगी। उसका भी पहला बच्चा था। मायके से उसके लिए ढेर सारे मावे, गोंद के लड्डू आए थे। सास की नजर बचाकर कहने लगी, ‘मुझे कहां मिलता है खाने को? सारा तो...’ सामने से ननद को आते देख वह चुप हो गई।

मिसेज अहलूवालिया की बेटी भी अजीब किस्म की कार्टून थी। पच्चीसेक साल की संजू मुझसे कम-से-कम दस साल बड़ी लगती थी। मिसेज अहलूवालिया परेशान थी कि उसकी कहीं शादी नहीं हो रही। संजू दिन-भर भाभी और मां से लड़ती, शाम को पड़ोसियों से लड़ती, रात को ड्राइवरों से। सुबह वह अपनी पारदर्शी नाइटी पर एक दुपट्टा डालकर ठेलेवाले से फल खरीदने नीचे उतर आती और घंटा-भर तक छांट-छांटकर फल खरीदती। पैसा देने उसकी मां आती। मुझसे संजू ने एक-दो बार बात करने की कोशिश की, पर मैंने टाल दिया। मुझे असामान्य लोगों से बात करने में काफी दिक्कत होती है।

मिसेज अहलूवालिया कह रही थीं, ‘तुम तो बड़े दफ्तर में काम करती हो! हमारी बेटी के लिए कोई अच्छा लड़का हो तो बताओ न! बिजनेसवाला भी चलेगा!’

मेरा कहने का मन हुआ, ‘आंटी, मेरे दफ्तर में बिजनेस वाले काम नहीं करते।’ पर मैं चुप रही।

‘तनख्वाह कितनी तक मिल जाती है तुम लोगों को?’ उन्होंने अगला सवाल किया।

यह बताना मेरे लिए हमेशा मुश्किल हो जाता था कि इस वक्त मेरी तनख्वाह लगभग पैंतीस हजार रुपए प्रतिमाह है और इस महीने इन्क्रीमेंट के बाद और बढ़ जाएगी। मुझ जैसी लड़कियों को इतनी तनख्वाह मिलने की बात सुन मैंने अधिकांश लोगों की आंखें चौड़ी होते देखी हैं। मेरे मकान मालिक ने तो मेरी तनख्वाह सुनने के बाद हजार रुपए किराया बढ़ा दिया। कुछ दिनों बाद यह भी पूछ लिया कि, ‘इतने पैसों का तुम क्या करोगी? हम लोग चिटफंड का भी काम करते हैं, ना हो तो उसमें डाल दिया करो।’

मैंने उस वक्त बात बदल दी थी। मिसेज अहलूवालिया ने जब दोबारा मुझसे तनख्वाह पूछी तो मैंने नपे-तुले शब्दों में कहा, ‘बस गुजारे लायक मिल जाती है!’

‘पांच हजार!’

‘जी उतना ही,’ मैंने डिप्लोमेट बनकर जवाब दिया।

‘यह तो कुछ भी नहीं है मम्मीजी! मैं तो पंद्रह-बीस हजार कमानेवाले से ही शादी करूंगी।’ संजू ने तुनककर कहा, जैसे उसकी शादी मुझसे होनेवाली हो!

मैं उठ गई। चाय के लिए धन्यवाद देकर चली आई। कहां फंस गई मैं? इस महानगर में एक भी कोना ऐसा नहीं है, जहां में बिना सोचे-समझे आंखें मींचकर चली जाऊं...कोई नहीं है आदित्य की तरह, आई की तरह।

घर लौटी, तो फिर उदासी ने घेर लिया। कल इतवार है, काटना मुश्किल होगा। मूड हुआ, तो दिल्ली हाट चली जाऊंगी। फिर यह भी लगा कि अब मैं पहले की तरह सामान्य नहीं हूं कि जब जो जी में आया, कर लूं। मैंने धीरे-से अपने पेट पर हाथ फेरा। मुझे अजीब-सा लगा। मैं अपने अंदर पल रहे बच्चे से कितनी उदासीन और असंपृक्त हूं। वह क्या सोचता होगा मेरे बारे में? मैं घर आकर शाम तक सोती रही। रात को खिचड़ी बनाकर खाने के बाद मैं फोन करने फिर से अपनी दूसरी मंजिल के घर से नीचे उतरी। आदित्य घर पर ही थे। उनकी आवाज सुनकर बहुत अच्छा लगा। मैंने कह भी दिया।

‘तुम अच्छी-खासी अजीब लड़की हो अनु!’

‘अपनी पड़ोसिन की लड़की संजू से कम!’ मैंने कहा।

‘क्या?’

‘कुछ नहीं। समझ नहीं आ रहा, दिल्ली क्यों चली आई?’

‘ऐसा करो, कल सुबह की फ्लाइट लेकर वापस पुणे आ जाओ।’

‘आसान नहीं है आदित्य।’ मैंने धीरे-से कहा।

‘मुश्किल भी नहीं है तुम जैसी लड़की के लिए।’ आदित्य की आवाज में आग्रह था।

‘मन तो कर रहा है, सच में...’

‘तो क्या दिक्कत है? अब वापस यह मत कहना, तुम्हारी नौकरी, घर...! पुणे में भी तुम सड़क पर तो नहीं रहोगी। पता है, तुम्हारे चक्कर में मैं कोचिंग क्लास में किसी को एपाइंट नहीं कर रहा। तुम यहां आओ और मेरा साइबर कैफे संभालो, मुझे तो कुछ नहीं पता...’

‘कोचिंग क्लास के साथ साइबर कैफे...! यह आइडिया कब आया?’

‘जब तुम्हें देखा...’

‘मजाक छोड़िए...वैसे पुणे में खूब चलेगा साइबर कैफे। आजकल जिसे देखो, इंटरनेट में ही तो लगा रहता है...’

‘फिर तुम्हें क्या दिक्कत है?’

‘पता नहीं आदित्य! कहीं भी चैन नहीं है!’

‘मैं पुराना डायलॉग दोहरा रहा हूं, तुम चैन नहीं चाहतीं। तुम चाहती हो कि दु:खों को ग्लोरिफाई करो।’

मैं चुप रही।

‘सुन रही हो अनु?’

‘पुणे आकर क्या करूंगी? आई भी तो नहीं हैं वहां!’

‘उनको यहां बुलाया जा सकता है। हम दोनों कोल्हापुर चलेंगे...’

‘आप चलेंगे?’

‘हां, क्यों नहीं...’

‘एक बात पूछूं आदित्य! आप इतने खाली तो नहीं बैठे कि मेरी मुसीबतों को दूर करने में इतना वक्त, पैसा सब लगा रहे हैं! या आप सबके साथ ऐसा करते हैं?’

‘नहीं, मैं विशुद्ध बिजनेसमैन हूं...जहां आमदनी का रास्ता दिखता है, वहीं पैसा लगाता हूं।’

‘मुझसे क्या फायदा होगा?’

‘तुम्हें क्यों बताऊं?’

‘फिर भी...अच्छा...एस.टी.डी. का बिल बहुत हो रहा है। कल फोन करूंगी...’

‘फोन मत करना, यहीं आकर मिलना।’

‘मैं...अच्छा...कल...’ फोन कट गया।

आदित्य से बात करने के बाद दिल और भी बुरी तरह बैठने लगा। कैसे रहूंगी मैं अब दिल्ली में? दिल्ली में क्यों, कहीं भी…

***