आसपास से गुजरते हुए
(23)
अधूरी रह जाएगी शाम
घर में सबको पता चल गया था कि मेरा एबॉर्शन नहीं हो सकता। सबकी अलग-अलग प्रतिक्रिया हुई। अप्पा खूब गरजे-बरसे कि मैं उनके खानदान का नाम डुबो रही हूं। आई मेरे बचाव के लिए आगे आई, तो अप्पा उन पर नाराज हो गए। लेकिन इस बार आई के तेवर अलग थे, उन्होंने साफ कह दिया कि चाहे जो हो, वे मेरा साथ देंगी!
विद्या दीदी ने काफी कोशिश की कि मैं इस बात के लिए तैयार हो जाऊं कि बच्चा होते ही उन्हें गोद दे दूं। उस क्षण मुझे अपने आप में लिलिजापन महसूस हुआ। क्या मेरे अंदर कोई अवांछित जीव है, जिसे पैदा होते ही काटकर अलग कर देना जरूरी है? मुझे इस ख्याल से भी कोफ्त होने लगी।
सुरेश भैया ने बीच का रास्ता अपनाया और ठंडी सांस लेते हुए कहा, ‘अनु की जिंदगी का सवाल है, और कोई चारा भी तो नहीं।’
अप्पा दो-चार दिन रुककर कोचीन वापस चले गए। विद्या दीदी भी मुकंदन के साथ मुंबई अपनी ससुराल चली गईं। उसी शाम सुरेश भैया और शर्ली भी कलकत्ता लौट गए।
घर अचानक भांय-भांय करने लगा। हर कोने से सूनापन झांकने लगा। सुबह से शाम होते-होते जी घबराने लगा। मैं अंदर से उठकर बरामदे में आ गई। आई मेरे लिए अदरक वाली चाय लेकर आई और साथ में प्रस्ताव रखा, ‘कोई फिल्म देखने चलें?’
‘फिल्म? हां!’ मैं खुश हो गई।
सबसे पासवाले थियेटर दिगम्बर पैलेस में ‘कहो ना प्यार है’ लगी थी। दो महीने पुरानी फिल्म थी, इसलिए आसानी से टिकट मिल गए। मैं अर्से के बाद फिल्म देख रही थी, शायद पांच महीने बाद! इससे पहले शेखर और श्यामली के साथ दिल्ली में अंग्रेजी फिल्म सिक्स्थ सेन्स देखी थी। टिकट शेखर ही लेकर आया था। अक्टूबर का तीसरा सप्ताह था। मैं लगातार तीन सप्ताहान्त दफ्तर में ही बिता रही थी। नया प्रोजेक्ट था, नवम्बर के पहले हफ्ते में जर्मनी से क्लाइंट आनेवाले थे। मैं काम करते-करते बुरी तरह थक गई थी। शेखर और श्यामली एक तरह से खींचकर मुझे फिल्म दिखाने ले गए। वैसे भी भूत-प्रेतों की फिल्मों में मुझे खास दिलचस्पी नहीं थी। अंग्रेजी फिल्मों से ज्यादा फॉर्मूला हिन्दी फिल्में पसंद आती थीं। ‘सिक्स्थ सेन्स’ देखने के बाद लगा था, वाकई इस तरह की फिल्में हमारे यहां नहीं बनतीं।
‘कहो ना प्यार है’ देखते-देखते मुझे झपकी आ गई। फिल्म थियेटर में ही गहरी नींद में सो गई। जब जागी, तो नायक रितिक रोशन की शक्ल बदल चुकी थी। सिनेमा हॉल में सीटी और हाय सुनकर लगा कि जरूर यह नायक खूब लोकप्रिय होगा।
इंटरवेल के बाद मैंने कोशिश की कि ध्यान लगाकर फिल्म देखूं। मन ना जाने कहां-कहां भटकने लगा। मैंने दफ्तर में भी तो सूचना नहीं दी है कि छुट्टी बढ़ा रही हूं। कल आई कह रही थीं कि मैं नौकरी छोड़कर पुणे आ जाऊं। अब वापस दिल्ली जाकर रहना मुझे वाकई मुश्किल लग रहा था।
आदित्य कह रहे थे कि मैं चाहूं तो उनकी कंप्यूटर क्लास में नौकरी कर सकती हूं। आई भी यही चाहती थीं। मैंने उन्हें कुछ जवाब नहीं दिया था। मैं मन नहीं बना पाई थी कि क्या करूं? कम-से-कम मुझे दिल्ली ऑफिस में फोन करके बता तो देना चाहिए कि मैं छुट्टियां बढ़ा रही हें। अगर मैं वहां होती, तो मई महीने में अमेरिका जाने का मौका मिलता एक कांफ्रेंस में भाग लेने। मेरे बॉस श्रीधर मेरे काम से खुश थे। उन्हें शायद यह सुनकर अच्छा न लगे कि मैं अपने काम को गंभीरता से नहीं ले रही। वे तो यह सुनकर भी स्तब्ध रह जाएंगे कि मैं मां बनने वाली हूं!
अचानक फिल्म देखने में मेरा मन नहीं लगा। दिल उचट-सा गया। मुझे एक बार तो दिल्ली जाना ही होगा। मैं श्रीधर को सब सच-सच बता दूंगी। अगर उन्हें दिक्कत नहीं हुई तो मैं वहां काम करना जारी भी रख सकती हूं। शेखर होगा, तो हुआ करे! माना उसकी मंगेतर है, आगे-पीछे वह उसी से शादी करेगा!
मैं तनाव में आ गई। पीछे छूटा मेरा अतीत मुझे डसने लगा। बड़ा मुश्किल होता है अपने हिस्से या बीते हुए कल से पीछा छुड़ाना। मैंने आई के कान में फुसफुसाते हुए कहा, ‘आई, मुझे अपने ऑफिस फोन करना है।’
‘अभी?’ वे चौंक गई।
‘नहीं, कल सुबह...’
‘अच्छा,’ आई धीरे-से बोलकर तत्परता से फिल्म देखने लगी।
मेरा मन फिर फिल्म में नहीं लगा। एक अजीब-सी बेचैनी घर करती गई। अचानक कितनी खाली हो गई हूं मैं? पिछले चार साल से मैं लगातार नौकरी कर रही थी। कभी अपने लिए इतना सारा वक्त नहीं मिला कि मन को भटकने देती। लग रहा था, जैसे दुनिया आगे निकलती जा रही है और मैं पीछे रह गई हूं।
फिल्म देखने के बाद आई ने प्रस्ताव रखा, बाहर ही खाना खाकर चलते हैं। आई को नाईक की पाव भाजी बहुत पसंद थी। वह सिर्फ शाम के समय खोंमचा लगाता था और रात दस बजे तक सारी पाव भाजी बेचकर दुकान बंद करके अपने घर चला जाता था। मैं सालों बाद उसे देख रही थी। जब हम बच्चे थे, नाईक जवान हुआ करता था। धारीदार पाजामा-कुर्ता पहने और करीने से बाल काढ़े वह लोहे के बड़े तवे पर प्याज-लहसुन छौंककर कलछी से पटापट ऐसे मारता कि भुनी प्याज की सुगंध से सारा वातावरण महक उठता। मुझे और सुरेश भैया को उसकी पाव भावी इतनी पसंद भी कि छुट्टियों में हम जब भी घर आते, लगभग रोज ही आई से किसी-न-किसी बहाने दो रुपए लेकर नाईक के पास दौड़ जाते। दो रुपए की एक प्लेट पाव भाजी देता था नाईक, पर हम भाई-बहन से उसे खास लगाव था। हमारी प्लेट में वह भाजी भी ज्यादा डालता और दो पाव भी एक्स्ट्रा डाल देता। हम दोनों जल्दी-जल्दी खाकर दौड़ते हुए घर लौट आते। घर आते-आते दोनों हांफ जाते। आई खाना परोसकर देतीं, तो चुपचाप खा लेते। भूख नहीं होती तब भी। पर नाईक की पाव भाजी का लालच हमसे नहीं छूटता था।
सालों बाद मुझे देखकर भी वह पहचान गया, ‘ओह, बेबी मौशी! कशी है? पुणे वालों को भूल गई?’
मैं मुस्कुराई, ‘नहीं काका!’ नाईक के बाल सफेद हो गए थे, आंखों के नीचे काली झांइयां पड़ गई थीं, पर उसकी पोशाक वही थी, धारीदार पाजामा और कुर्ता। उसने बड़े प्यार से पूछा, ‘तुमची आई मंडला होता, तुम बहुत बड़ी अफसर बन गई हो! सुनकर खूब खुशी झाला! खरच...’
मैंने धीरे-से सिर हिलाया।
‘शादी बनाया कि नहीं बेबी मौशी? मेरे को याद रखेगी न! तुझे पाव भावी खिलाया, तेरे बच्चों को भी खिलाऊंगा...’
नाईक लगातार बोलता हुआ अपने बड़े कलछुए से भाजी पर टपाटप थाप भी लगाता जा रहा था।
नाईक ने अपना खोमचा पक्का कर लिया था। पहले वह दोने में पावभाजी दिया करता था, अब मेल्मोवेयर की प्लेट आ गई थीं। पानी के लिए फिल्टर लगवा लिया था। खोमचे के साथ सात-आठ कुर्सियां भी लगा ली थीं। पहले तो भाजी बनाने, ग्राहकों को सर्व करने, पानी देने का काम भी वह खुद किया करता था। अब उसने दो नेपाली लड़के रख लिए थे, जो ‘शाब जी और पाव मांगता क्या?’ पूछते ग्राहकों के पास घूम रहे थे।
‘क्या खाओगी बेबी मौशी? भाजी पाव,ख् बेजीटेबल पुलाव, बड़ा पाव?’
मेरे बोलने से पहले आई ने कहा दिया, ‘दोन पाव भाजी, लवकर।’
‘हां, मैं कभी देर लगाता था? बैठो तो तुम्ही दोनों...’
उसने खुद दो कुर्सियों पर अंगोछा मारकर हमारे बैठने की जगह बना दी।
‘बेबी मौशी, इतना चुप कायको है? नाईक काका को भूल गया क्या?’
‘नहीं काका, तुम्हें कोई भूल सकता है?’
‘पहले तो तू कितना बोलती थी! अंग्रेजी में गिटर-पिटर करती थी, अभी एकदम चुप! क्या बांदा हो गया?’
‘कुछ नहीं काका।’
नाईक ने मेरी तरफ देखकर प्यार से कहा, ‘हमेशा हंसते रहने का। कभी उदास नहीं होने का!’
मैं मुस्कुराई, ‘हां काका।’
नाईक ने उत्साह से दो पाव भाजी की प्लेट बनाईं, बारीक कतरे प्याज और धनिया पत्ती से सजाया, नीबू की कटी फांक और भुने पापड़ से सजाकर उसने प्लेट थमाई, ‘लो बाबा, एकदम फर्स्ट क्लास, बोले तो ए वन भाजी पाव!’
‘ये क्या? पापड़-वापड़?’ मैंने पूछा।
‘हूं, यहीच मुम्बइया श्टाइल है बेबी मौशी!’
मुझे हंसी आ गई, पाव भाजी बहुत ही लजीज थी। हमेशा की तरह तीखी, चटपटी। बहुत दिनों बाद मैं इतना मिर्चीदार खाना खा रही थी, आंखों में पानी आ गया, जुबान सी-सी करने लगी। मैं घबरा गई, मुझे अपने लिए ना सही, किसी दूसरे का भी तो सोचना चाहिए, कही उसे कुछ ना हो जाए!
घर आकर मैंने मटके से पांच-छह गिलास ठंडा पानी निकालकर पिया। रात देर तक पेट में जलन होती रही, नींद भी नहीं आई। सुबह देर से नींद खुली, सिर में दर्द हो रहा था। अजीब-सा मूड था। आई ने मुझे टोक दिया, ‘जल्दी क्यों नहीं उठती मुलगी? दस बज रहे हैं!’
मैं कहना चाहती थी कि सुबह पांच बजे के बाद मैं सो पाई थी, पर बिना कुछ कहे मैं अखबार उठाकर बरामदे में आ गई। बिना किसी टोका-टोकी के जिंदगी जीने की आदत पड़ जाने के बाद किसी का भी टोकना बुरा लगता है। लेकिन मैं ऐसी तो ना थी। दिल्ली में रोज सुबह छह बजे उठ जाती थी, टहलने जाती, चाय-नाश्ता बनाकर खाती, अखबार पढ़ती, घर के काम करती। यहां आने के बाद तो एक तरह की सुस्ती पूरे वजूद पर हावी होती जा रही है।
क्या करूं, दिल्ली वापस चली जाऊं? मेरी नौकरी, मेरा घर, मेरी दुनिया मुझे अपनी तरफ खींच रही थी। आई मेरे लिए नाश्ता बनाकर लाई, दलिए की लप्सी और साबूदाने की कांजी। मैंने ना चाहते हुए भी थोड़ा-सा खा लिया! ग्यारह बजे के लगभग दिल्ली अपने दफ्तर में एस.टी.डी. करने निकली। फोन श्रीधर ने ही उठाया, मैंने आवाज को भरसक मुलायम बनाते हुए कहा, ‘सर, मैं पुणे में हूं, अपनी छुट्टियां बढ़ाना चाहती हूं...’
श्रीधर ने कुछ रूखे स्वर में कहा, ‘तुम सिर्फ दो सप्ताह की छुट्टी लेकर गई थीं, पहले ही तुम ओवर स्टे कर चुकी हो...’
‘सर...,’ मैं रुकी, ‘थोड़ी डोमेस्टिक प्रॉब्लम...’
‘ओ.के.। मुझे लीव एप्लीकेशन फैक्स कर दो...मैं सोचूंगा।’ उन्होंने फोन रख दिया।
मेरे अंदर जबर्दस्त उबाल आया। जब मैंने बिना छुट्टी लिए दो साल तक काम किया है, तो अब महीना-दो महीना छुट्टी नहीं ले सकती? मैं दस मिनट तक एस.टी.डी. बूथ पर यूं ही बैठी रही। फिर ना जाने क्या हुआ, मैंने दोबारा दफ्तर में फोन लगाया, लेकिन इस बार फोन मेरे विभाग में चक्रवर्ती ने उठाया। मेरी आवाज सुनकर वह चौंक गया, ‘ओए अनु, कहां हो बॉस? कब आ रही हो? पता है तुम्हारी एब्सेंस में यहां क्या-क्या हो गया?’
‘क्या?’
‘वो श्रीधर है न, उसके ऊपर कोई आ गया है, नया वाइस प्रेसिडेंट। काफी कड़क है। पिछले एक हफ्ते से हमारी ऐसी की तैसी हो रखी है। कल रात को हम सब बारह बजे तक ऑफिस में थे...’
‘क्यों?’
‘वो इन्फोलाइन डॉट कॉम वाला प्रोजेक्ट पूरा करना था। तुम होती तो चुटकियों में कर देतीं, हमारा तो डिब्बा गोल हुआ पड़ा है।’
‘बाकी सब...कैसे हैं?’
‘सब ठीक है...चलता है। नथिंग एक्साइटिंग। बस, तुम आ जाओ।’
‘अभी तो नहीं आ पाऊंगी चक्रवर्ती, मैं छुट्टियां बढ़ा रही हूं!’ मैंने धीरे से कहा।
‘लेकिन क्यों? बॉस, कहीं शादी-वादी तो नहीं कर रही?’
‘अरे नहीं!’ मैं फीकी-सी हंसी हंस दी, ‘बस, यहां कुछ काम है। तुम मेरा एक काम करोगे? मेरे ड्राअर में जो टेलीफोन डायरी है, उसमें मेरे मकान मालिक सुदर्शन अग्रवाल का नम्बर है। उसे फोन करके बता देना कि मैं कुछ दिन नहीं आ पाऊंगी।’
‘कितने दिन के लिए अनु?’ उसने उतावले होकर पूछा।
‘पता नहीं, चक्रवर्ती, पैसे बहुत हो गए हैं, मैं फोन रखती हूं।’ फोन रखा तो बेचैनी फिर से घिर आई। मैंने और किसी के बारे में तो पूछा ही नहीं। शेखर के क्या हाल होंगे?
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