आसपास से गुजरते हुए
(22)
एक खुशबू जवा सा नाम
पंद्रह मिनट बाद मैं तैयार होकर बाहर निकली। आदित्य गाड़ी स्टार्ट कर चुके थे। मैं उनकी बगल की सीट पर जाकर ऐसे बैठ गई मानों बरसों से मैं यही करती आई हूं। आदित्य ने बात शुरू की, ‘तुम्हारे भैया, क्या नाम है उनका?’
‘सुरेश...’
‘हूं! लगता है उनको मेरी शक्ल देखते ही एंटीपथि हो गई!’
‘क्यों?’ मैं मुस्कुराने लगी।
‘देखा नहीं, एक शब्द नहीं बोले...क्या तुम्हारे घर में सब ऐसे ही हैं?’
‘कैसे?’
‘विचित्र, किन्तु सत्य...!’
मुझे हंसी आ गई। मैंने जबरन हंसी पर काबू पाते हुए कहा, ‘हां, यही समझ लीजिए। सब अपनी मर्जी के मालिक हैं।’
‘यह तो मैं देख ही रहा हूं।’
मैं खामोश हो गई।
दो मिनट बाद आदित्य फिर शुरू हो गए, ‘कल तो तुम रणचण्डी के अवतार में थीं, आज किस अवतार में हो...’
‘जूलिएट के!’ मैंने भी उन्हीं के अंदाज में जवाब दिया।
‘कहीं रोमियो मैं तो नहीं?’ आदित्य ने भौंह ऊपर की...
‘हो सकता है!’ मैंने चिढ़ाया।
वे अचानक गंभीर होकर बोले, ‘पता नहीं मुझमें ऐसा क्या है? दो मुलाकात के बाद हर लड़की मुझ पर मरने लगती है...’
मेरे कानों की लौ गर्म हो गई। समझते क्या हैं अपने आपको? इस शक्ल पर लड़कियां मर मिटेंगी?
‘क्यों? क्या हुआ, चुप क्यों हो गईं? मैं तो मजाक कर रहा था। मुझे देखकर लगता है, कोई लड़की मेरे पास भी फटकती होगी? एक मजे की बात बताऊं अनु! सबकी सब मुझे भैया बना लेती हैं। आदित्य काकू, वाह!’
मैं थोड़ी-सी सहज हो गई, ‘आपने शादी नहीं की?’
वे चौंके, ‘की थी...मतलब शादी हुई थी। क्यों नहीं करनी चाहिए?’
‘नहीं, यह मतलब नहीं है मेरा?’
‘मेरी पत्नी भी तुम्हारे ही खानदान की थी...’
‘यानी...’
‘विचित्र, किन्तु सत्य।’ वे हंसने लगे, ‘साल-डेढ़ साल हम साथ रहे...’
‘फिर...’
‘उसने तलाक ले लिया!’
‘क्यों...?’
‘उसे लगता था कि मैं उसे और उसके बच्चे को समय नहीं दे पा रहा, नेगलेक्ट कर रहा हूं।’
‘बच्चा?’ मैं पिघलने लगी।
‘हूं, मेरी बेटी, जूही! उसे लेकर वह चली गई।’
मुझसे कुछ पूछते नहीं बना। हर व्यक्ति के अंदर एक कहानी समाई होती है। छुओ, तो एक के बाद एक चरित्र सामने निकलकर अपनी भूमिका निभाने लगते हैं। मैंने लम्बी सांस ली, सीट पर सिर टिकाकर बैठ गई। आज आदित्य अपनी फिएट मारुति की चाल चला रहे थे। अचानक उन्होंने पूछा, ‘तुम्हें गाड़ी चलानी आती है?’
मैंने ‘हां’ में सिर हिलाया। एक साथ मेरे दिमाग में दिल्ली का अपना घर, अपना सामान, गाड़ी और निजता कौंध आई। तीन सप्ताह हो गए मुझे दिल्ली छोड़, यूं लगता है मानों बरसों पुरानी बात हो, वसन्त का महीना पूरे शबाब पर था। सड़क के दोनों और गुलमोहर के पेड़ों पर लाल-पीले फूल खिले थे। अच्छी-सी हवा चल रही थी। इतना खुशगवार मौसम है, पर मेरे अंदर इतना सूनापन क्यों है? मैं खुश क्यों नहीं हूं?
आदित्य ने मुझे अपनी सोच के साथ छोड़ दिया। रास्ते में और कोई बात नहीं की। डॉ. वर्षा मुझे देखकर खुश हुई, ‘अनु, तुम कल कहां चली गई थीं? मैंने बहुत गिल्टी महसूस किया।’
‘नहीं डॉक्टर, गलती तो मेरी थी, जो मैं बिन बताए चली गई। सॉरी, पता नहीं मुझे क्या होता जा रहा है! मुझमें धीरज नाम की चीज नहीं रही।’
‘होता है बेटा! चलो, पहले एक-एक कप चाय पीते हैं, फिर तुम्हारा काम...। आज सच में मैं कहीं नहीं जाऊंगी।’ वे मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए मुझे अंदर ले गाईं। चाय पीते समय भी हम देर तक बात करते रहे। मैं उन्हें अपने बचपन के बारे में बताती रही। वे खुद भी हॉस्टल में रह चुकी थीं, वे अपने अनुभव सुनाती रहीं।
डॉ. वर्षा ने सहजता से कहा, ‘तुम्हें देखकर लग रहा है, मैं एक बार फिर अपनी जिंदगी जी रही हूं। मैं बचपन में अपने घर में सबसे अलग थी, यानी सबसे कुरूप। आजी-आजोबा हर वक्त मुझे मेरे रंग-रूप के लिए ताने देते। मैं छह साल की थी, जब घर से भाग गई। आदित्य के पापा मुझसे दस साल बड़े थे, वे ही ढूंढ़ते-ढूंढ़ते मेरे पीछे आए। मैं एक ट्रक में चढ़कर लोणावला पहुंच गई। वहां कुछ नहीं सूझा, तो सड़क किनारे बैठकर भीख मांगने लगी। वहीं मुझे यूरोपियन टूरिस्ट दल के कुछ सदस्य मिले। मुझे इतना प्यार किया कि मैं उनके साथ उनके वतन जाने को तैयार हो गई...’ वे रुकीं, तो मैं उत्सुकता से पूछ उठी, ‘फिर...’
‘फिर क्या? चार-पांच दिन बाद आदित्य के पिताजी ने मुझे देख लिया। मुझे कान के नीचे थप्पड़ लगाया और घर वापस ले गए। घर लौटने के बाद मैंने चार दिन खाना नहीं खाया। पूरा घर हिल गया। बाबा ने आजी को डांट दिया कि आगे से बच्ची को कुछ अंट-शंट कहा तो घर से निकाल दूंगा। बस, उस दिन से मैं बाबा की लाडली हो गई! आजी के सामने ठसके से रहती। वे बस आई के सामने बड़बड़ातीं कि तेरी लड़की धींगड़ी हो गई है। पर मैं उनकी बात सुनती ही नहीं थी...’
‘डॉक्टर, आपने शादी क्यों नहीं की?’
‘मेरा चेहरा देखा? मुझे क्या किसी लड़के को डराना था, जो शादी करती! मुझ जैसी बदशक्ल, जिद्दी, खूसट डॉक्टरनी से कौन शादी करता?’
‘पता नहीं आप अपने बारे में ऐसा क्यों सोच रही हैं? मैं तो चाहती हूं कि जब आपकी उम्र की होऊं, तो आप जैसी गरिमामय दिखूं...’
‘बेटी, तेरे पास वक्त है। मेरी गलती मत दोहराना, अच्छा लड़का देखकर शादी कर ले...’
मैं चुप हो गई। मैं दिल से यह महसूस नहीं कर रही थी कि मैंने कोई गलत काम किया है या कोई कलंक लग गया है मुझ पर। पर क्या मेरी जिंदगी में जो भी आएगा, वह भी यही मानेगा? आज तक मैं अपने प्रति ईमानदार रही थी, अपने साथ गलत होने नहीं दिया। जहां हुआ, उस गली में फिर कदम नहीं रखा। पर क्या आगे ऐसा हो पाएगा?
मुझे नि:शब्द देख डॉ. वर्षा ने टहोका, ‘चलो, तुम्हारा काम करते हैं।’
मैं धीमे कदमों से उनके पीछे क्लीनिक की तरफ चल पड़ी। अचानक मुझे चक्कर-सा आने लगा। किसी तरह मैंने अपने आपको नियंत्रित किया। सुबह से ज्यादा खा लिया था, शायद इस वजह से...
डॉ. वर्षा मेरा ब्लडप्रेशर लेने लगीं। अचानक उनके चेहरे का रंग बदल गया, ‘ओह, माई गॉड, तुम्हारा ब्लडप्रेशर तो बहुत कम है...। किसी भी वक्त तुम्हें अटैक पड़ सकता है...’
तब तक मैं बिस्तर पर लगभग गिर चुकी थी। उन्होंने मुझे इंजेक्शन दिया और बिस्तर पर ठीक से लिटा दिया। आधे घंटे तक मैं बेसुध पड़ी रही। आंख खुली तो सामने आदित्य और डॉ. वर्षा चिंतित से बैठे थे।
मैं फौरन उठकर बैठ गई।
डॉ. वर्षा ने मुलायम आवाज में कहा, ‘लेटी रहो। देखो अनु, तुम्हारा ब्लडप्रेशर जब तक सही नहीं हो जाता, तुमको एबॉर्शन नहीं करवाना चाहिए। मेरी तो यही सलाह है कि ऐसी हालत में तुम एबॉर्शन मत करवाओ।’
‘फिर?’ मैं हक्की-बक्की उनका चेहरा देखने लगी।
‘और कोई चारा नहीं है मुलगी!’
मैं अंदर तक कांप गई, ‘नहीं डॉक्टर, कोई तो उपाय होगा?’
‘तुम क्यों घबरा रही हो? बच्चा होने के बाद तुम किसी को गोद दे देना। मुझे दे देना, मैं पाल लूंगी!’
मेरी आंखों में आंसू आ गए, ‘आप लोग नहीं समझ रहे! मैं इस तरह नहीं जी सकती...मैंने ऐसा सोचा नहीं है...’
‘क्या कह रही हो तुम?’
‘डॉक्टर, अगर बच्चा होगा, तो मैं ही पालूंगी। पर मैं ऐसा नहीं करना चाहती। मुझे और भी बहुत सारे काम करने हैं जिंदगी में...’
डॉ. वर्षा ने मेरे सिर पर हाथ रखा, ‘तुम अभी आराम करो। जल्दबाजी में कुछ अंट-शंट मत कर बैठना। बच्चे को भी नुकसान होगा और तुम्हें भी...’
मैंने लाचारी से उनकी तरफ देखा, फिर लेखकर आंखें मूंद लीं।
शाम तक तबीयत कुछ संभली। डॉ. वर्षा का कहना था कि मैं रात वहीं रुक जाऊं, पर मैं घर जाना चाहती थी। आदित्य मुझे छोड़ने आए। जाते समय हम दोनों जितने सहज थे, लौटते में उतने ही खोए-खोए थे। आदित्य ने कुछ नहीं पूछा, ना कहा। मैं भी अपने में खोई थी।
घर आई, तो सिर चकरा गया। कितने सारे लोग थे! विद्या दीदी की चचेरी ननद, उसका परिवार, सुरेश भैया के दोस्त। मैं सबसे आंख बचाकर कमरे में आ गई। आई पीछे-पीछे चली आई, ‘काम झाला ग मुलगी? बर आहे न तू?’
मैंने धीरे-से ‘ना’ में सिर हिलाकर उन्हें सारी बात बताई। बताते-बताते पता नहीं कैसे आंखों में आंसू आ गए। आई ने मुझे एकदम से बांहों में भींच लिया, ‘अनु, कालजी करू नकोस! मैं हूं न! मैं तुझे बचपन से जो नहीं दे पाई, वह सब तेरे बच्चे को दूंगी। हिम्मत मत हार बेटी...अंदर से महसूस कर..., तू मां बनने जा रही है...’
‘ऐसा नहीं हो सकता आई...’ मैंने शब्द को गटकते हुए कहा।
‘तूने कभी इस बारे में सोचा नहीं, इसलिए घबरा रही है। जिंदगी किसी भी हादसे से रुक तो नहीं जाती...’
मैंने सोचते हुए ‘हां’ में सिर हिलाया, ‘मां बनना बहुत मुश्किल है न?’ मैंने धीरे-से पूछा।
‘है तो..., पर अच्छा लगता है। वो भी शरीर की मांग है। कल से मैं तेरे खाने-पीने का पूरा ख्याल रखूंगी। जो भी होगा, हम दोनों मिलकर हल कर लेंगे।’
मैं चुपचाप बिस्तर पर बैठ गई। मैं हमेशा खुश रहने वाली लड़की अचानक मनों बोझ लेकर कैसे बैठ गई? आई मेरा सिर थपथपाकर चली गईं।
मैं लेटी, तो अपने अंदर कुछ हिलता-सा महसूस हुआ। मेरा अपना हिस्सा! बहुत पहले कभी सोचा था कि मेरी कभी बेटी हुई तो उसका नाम जवा रखूंगी। साहब बीवी गुलाम की चुलबुली जवा, जो होंठों को जरा टेढ़ा कर भूतनाथ से सवाल-जवाब करती है। बेटा होगा तो नील रखूंगी।
जवा या नील! कैसा होगा? मुझ जैसा या...उस वक्त मेरी आंखों के आगे शेखर का चेहरा आया ही नहीं!
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