Aaspas se gujarate hue - 18 in Hindi Moral Stories by Jayanti Ranganathan books and stories PDF | आसपास से गुजरते हुए - 18

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आसपास से गुजरते हुए - 18

आसपास से गुजरते हुए

(18)

मेरा दोस्त नहीं है वक्त

फ्लाइट डेढ़ घंटे लेट थी। मैं तीन बजे मुंबई एयरपोर्ट पहुंची और रात को दस बजे पुणे। वापसी का सफर ठीक ही था। फ्लाइट में मैंने खाना खा लिया था। दादर बस स्टॉप पर कुछ फल खरीद लिए। इस बार ना जी मिचलाया, ना किसी ने कोई सवाल किया। अब तक तो विद्या दीदी ने सबको यह बात बता दी होगी! अप्पा, अमम्मा, कोचम्मा, कोचमच्ची! पता नहीं क्या प्रतिक्रिया हुई होगी सबकी?

घर पहुंची, तो आई सो चुकी थीं। मेरे बार-बार खटखटाने पर उनींदी आंखों से उन्होंने दरवाजा खोला। मुझे देखते ही उनकी बांछें खिल गईं, ‘अनु, तू? सरप्राइज देला ग मला।’

मैं बेतहाशा थकी हुई थी। सोना चाहती थी, पर आई जिद करके मेरे लिए पोली भाजी बना लाई। गर्म दूध के साथ चपाती का कौर बहुत भला लग रहा था।

आई के चेहरे पर तनाव के निशान नहीं थे। ना उस दिन कल्याण स्टेशन पर ना आने का कोई कारण ही बताया। मेरे पूछने पर वे कहने लगीं, ‘मैंने बहुत सोचा अनु, मेरे रोकने से तेरे अप्पा रुकेंगे नहीं। मैं तो उन्हें तलाक देने को भी तैयार हूं।’

मैंने आश्चर्य से आई का चेहरा देखा। वे शांत थीं। मैंरे धीरे-से पूछा, ‘आई, फिर तुम कहां रहोगी?’

‘कहीं भी! तेरे पास रह लूंगी। रखेगी न मुझे?’

मैं खाना छोड़कर उनसे लिपट गई, ‘आई, मुझे तुम्हारी बहुत जरूरत है। मैं अंदर से बहुत बिखर गई हूं।’

‘क्या हुआ? बता न, किसी ने कुछ कहा? नौकरी छूट गई?’ वे घबरा गईं। मैंने लम्बी सांस भरकर उन्हें अपना सच बता दिया। आई चुप रहीं। मैं उनकी पहली प्रतिक्रिया जानने को बेताब हो उठी। क्या वे भी मेरे भाई-बहन की तरह गुस्सा करेंगी, कहेंगी कि एबॉर्शन करवा लो?

आई ने हुंकारा भरा, मेरे सिर पर हाथ फेरा और धीरे-से बोली, ‘हम औरतों को हर बार अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है। हम अपने अनुसार ना जी सकती हैं, ना मर सकती हैं। मेरे साथ भी ऐसा मौका आया था, जब मैं सही निर्णय नहीं ले पाई थी। तुझे मैं कुछ नहीं कहूंगी। तुझे जो सही लगता है, वो कर...’ आई की आवाज भर्रा गई, ‘पर तेरा जो भी निर्णय होगा, मैं तेरा साथ दूंगी।’ अचानक मैं आई से लिपटकर फूट-फूटकर रोने लगी, ‘आई, मेरी समझ में नहीं आ रहा, क्या करूं? मैंने सोच लिया है, मैं जिंदगी में जो करना चाहती हूं, वो मेरे अकेले रहने पर ही हो पाएगा। मेरे बच्चे का कोई भविष्य नहीं होगा आई। उसे इस दुनिया में लाने की बात सोचना भी गलत है।’

आई खामोश रहीं, फिर उन्होंने स्पष्ट पूछा, ‘तेरे अंदर किसी किस्म का अपराधबोध तो नहीं है न?’

मैंने सोचकर देखा, ‘नहीं! मैं पूरी तरह होश में थी आई! मैं किसी को दोष नहीं दे रही...’

‘हां’, आई को अचानक ख्याल आया, ‘पिछले दो दिन से तेरे दिल्ली ऑफिस से किसी शेखर का तीन-चार बार फोन आ चुका है। वह तो कोचीन का भी फोन नम्बर मांग रहा था...’

मैंने खाली निगाहों से आई की तरफ देखा, ‘आई, सबके लिए यही अच्छा होगा कि मैं एबॉर्शन करवा लूं...’

‘तू सोचकर कह रही है न? मैं तेरा बच्चा पाल सकती हूं पोरी...’

मेरी आंखें नम हो आईं, ‘नहीं आई, सोच लिया। मैंने जिंदगी में भावुकता में आकर कोई निर्णय नहीं लिया है, तो अब क्यों लूं? ना मैं अपने आपको सजा देना चाहती हूं, ना बच्चे को।’

आई ने मेरी पीठ पर हाथ रखा और मेरा थाल उठाकर उठ गईं। रात मैं आई के पास सोई। तीन-चार दिन बाद मुझे अच्छी गहरी नींद आई।

सुबह आंख खुली, तो अहसास हुआ कि सुल्लू मौसी नहीं है। वे नाटक बीच में छोड़कर कोल्हापुर लौट गई थीं। मौसीजी की तबीयत खराब चल रही थी।

आई ने सुबह जल्दी उठकर मेरे लिए थालीपीठ बनाया, पोली भाजी बनाकर रिहर्सल के लिए चली गईं। मैं नाश्ता करके वापस सो गई। दो बजे के करीब आई वापस आईं। उन्होंने झटपट चपाती गर्म की और प्लेट लगा दी। मैंने धीरे-से पूछा, ‘आई, शाम को तुम डॉक्टर के पास ले चलोगी न?’

‘हां रे! सुन, उससे पहले तुझे मेरे साथ चलना होगा।’

‘कहां?’

‘वो हमारे नाटक का प्रोड्यूसर है अभ्यंकर। उसकी कंप्यूटर की कोचिंग क्लास भी है। सप्ताह-भर से उसके यहां कंप्यूटर खराब पड़ा है। कोई इंजीनियर आया था, पर ठीक नहीं हुआ। मैंने उससे कहा कि मेरी बेटी कंप्यूटर का काम जानती है, तू जरा ठीक कर दे उसका कंप्यूटर!’

‘पर आई, मैं हार्डवेयर नहीं, सॉफ्टवेयर का काम जानती हूं...’

‘अरे कोई बात नहीं, आकर देख तो ले। क्या पता तुझसे ठीक हो ही जाए।’ आई मुस्कुराई, ‘तुझे तो बहुत कुछ आता है कंप्यूटर के बारे में!’

मैं उन्हें कैसे समझाती कि कंप्यूटर की दुनिया में बहुत कुछ, कुछ भी नहीं होता।

आई के इसरार करने पर मैं नीले रंग का लखनवी सूट पहनकर तैयार हो गई। वहीं से डॉक्टर के पास चले जाएंगे।

अभ्यंकर का कंप्यूटर कोचिंग सेंटर एक विशालकाय बिल्डिंग की पहली मंजिल पर था। वहीं एक कमरे में नाटक की रिहर्सल चलती थी। आई ने बड़े उत्साह से मुझे आदित्य अभ्यंकर से मिलवाया, ‘माझी मुलगी अनु! दिल्ली में नौकरी करती है, ऊंची पोस्ट पर है, गाड़ी-घर सब मिला है कम्पनी से!’

मैंने झेंपकर कहा, ‘हैलो!’

आदित्य को देखकर उम्र का अंदाज लगाना मुश्किल था। पहली नजर में मुझे वे पच्चीसेक साल के लगे, दूसरी नजर में पैंतीस के आस-पास और तीसरी नजर में मैं कन्फ्यूज्ड हो गई।

छोटी दाढ़ी-मूंछ, मध्यम कटे बाल, गेहुंआ रंग, छरहरा शरीर, जीन्स और कुर्ते में वे कहीं से नाटक के प्रोड्यूसर नहीं लग रहे थे। आदित्य ने मुझमें खास रुचि नहीं ली। आई के दो-तीन बार कहने पर वे मुझे नीचे कंप्यूटर क्लास में ले गए और कंप्यूटर दिखा दिया। मैंने कंप्यूटर ऑन किया और चेक करने लगी। हार्डवेयर की दिक्कत थी। मैंने हाथ ऊपर कर दिए, ‘ये मेरे बस की बात नहीं।’

आदित्य मुस्कुराए, ‘यह तो मुझे पहले ही पता था।’

मैं झल्लाती हुई ऊपर आ गई। आई भी ना जाने कहां-कहां फंसा देती हैं।

अगले दो दिनों में नाटक का मंचन होना था। सारे कलाकार जोश में थे। सुबह ड्रेस रिहर्सल थी। मैंो मंत्रमुग्ध-सी ड्रामे की रिहर्सल देखती रही।

कमर में आंचल खोंसे, आई बड़े आत्मविश्वास से अपने संवाद बोल रही थीं। आई की भूमिका ज्यादा बड़ी नहीं थी, पर आई बखूबी कर रही थीं।

रिहर्सल के बाद चाय का गिलास लेकर आई पसीना पोंछती, हांफती मेरे पास आकर बैठ गईं। मैंने दिल से कहा, ‘तुमने कमाल कर दिया आई! कितना अच्छा काम कर रही हो!’

‘सच?’ वे खुश हो गईं, ‘सच कह रही है? अच्छा अनु, मुझे एक बात बतानी है।’

‘क्या आई? कहीं तुम भी अप्पा की तरह दूसरी शादी तो नहीं करने जा रही?’ मैंने छेड़ा।

‘धत, काय सांगते? जिंदगी में एक शादी कर ली, वही बहुत है। मैं इन दिनों एक कादम्बरी लिख रही हूं।’

‘वाह! कैसी कहानी है?’ मैंने उत्सुकता से पूछा।

‘तुझे पढ़वाऊंगी। चल, अभी निकलते हैं यहां से। सात बजे डॉक्टर उमा चिपलूणकर क्लीनिक बंद कर देती है!’

मैं अचानक जमीन पर आ गई। आई कितनी व्यावहारिक हो गई हैं! पल-भर को मैं भूल गई थी कि मैं यहां क्यों बैठी हूं। हम दोनों निकलने लगे, तो सामने से आदित्य आ गए। आई को कल की वेशभूषा के बारे में कुछ बताना था। आई ने बेसब्री से कहा, ‘मला घाई आहे। मैं रात को फोन कर लूं?’ आदित्य चौंक गए, ‘हां, हां, कहीं जाना है? मैं छोड़ दूं।’

आई असमंजस में पड़ गईं। सोचकर बोली, ‘हां, शिवाजी चौक तक जाना है। अगर आपको दिक्कत ना हो, तो...’

‘नो, नॉट एट ऑल।’

आदित्य ने अपनी फिएट निकाली। आई के कहने पर मैं आदित्य के बगलवाली सीट पर बैठ गई। वे बड़े आराम से गाड़ी चला रहे थे। मुझे खीझ हुई। मेरे हाथ में स्टीयरिंग होता तो अस्सी की स्पीड में भगाती।

आदित्य ने ठीक डॉक्टर उमा चिपलूणकर की क्लीनिक के सामने हमें उतार दिया। यह भी पूछा कि रुकने की जरूरत तो नहीं है, लेकिन आई ने मना कर दिया।

डॉक्टर उमा ने मेरी सारी जांच की, पचास दिन का गर्भ था। उसने एबार्शन करने से साफ मना कर दिया। बल्कि आई को भी सुना दिया कि वे यह सब काम नहीं करतीं।

मैं निराश हो गई। आई मेरा मूड बदलने के लिए मुझे होटल ले गई। पाव भाजी और संतरे का जूस पीकर भी मैं उदासीन बनी रही। आई ने समझाया, ‘धीरज रख अनु, डॉक्टरों की कमी थोड़े ही है! दो दिन बाद मेरा शो खत्म हो जाएगा, फिर मैं तुझे ले चलूंगी डॉक्टर के पास...’

मैंने अनमने भाव से सिर हिलाया। मैं जल्द-से-जल्द मुक्ति पाना चाहती थी। नहीं चाहती थी कि मैं किसी भी मोह में पड़ूं।

अगले दिन शाम तक मैं घर पर रही। आई सुबह से निकल गई थीं। पहला शो शाम को पांच बजे शुरू होने वाला था। मैं चार बजे तैयार होकर ऑडिटोरिम पहुंच गई।

ग्रीन रूम में आदित्य ने मुझे देख लिया। मैंने कई बार कहा कि मैं यहां ठीक हूं, पर उन्होंने मुझ हॉल में पहली कतार में बिठा दिया। नाटक शुरू होने से पहले वे खुद मेरी बगलवाली सीट पर आ बैठे। मैं ढाई घंटे तक बिना पलक झपकाए ‘प्रचंड’ देखती रही, पुराने कथानक का प्रयोगात्मक प्रस्तुतिकरण था। हालांकि नाटक मराठी में था। कुछेक संवाद मेरी समझ में नहीं आए, पर पात्रों का चित्रांकन गजब का था।

आई नीले रंग की नौ गज की साड़ी में भव्य लग रही थीं। राजा दशरथ से अपनी जिद मनवाने के लए कैकेयी बनी आई ने लावणी का ठुमका भी लगाया। नाटक खत्म हुआ, मैं खड़ी होकर देर तक ताली बजाती रही। इतनी देर में आदित्य से मेरी कोई बात नहीं हुई थी। मैं सीधे ग्रीन रूम में जाकर सभी कलाकारों से मिली। सबके सब उत्तेजित थे। अचानक किसी ने कहा, ‘अग, आदित्य अभ्यंकर कुठे है? उनको बधाई दो, उन्हीं की वजह से हमारे नाटक का मंचन हो पाया है।’

आई ने मेकअप उतारा, कपड़े बदले। हम दोनों ऑडिटोरियम से बाहर निकले, आई का खुमार उतरा नहीं था।

मैं घर पर पुलाव बना कर आई थी। रात को हम दोनों ने वही गर्म करके खाया।

***