Aaspas se gujarate hue - 13 in Hindi Moral Stories by Jayanti Ranganathan books and stories PDF | आसपास से गुजरते हुए - 13

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आसपास से गुजरते हुए - 13

आसपास से गुजरते हुए

(13)

धुएं की कठपुतलियां

इस तरह 18 जून, 1997 को मैं दिल्ली पहुंच गई। मुंबई से दिल्ली का सफर मैंने हवाई जहाज से तय किया। शाम के वक्त विमान दिल्ली एयरपोर्ट पर उतरा, गर्मियों की उदास शाम। मैं दिल्ली पहली बार आ रही थी। क्यों आ रही थी, मुझे भी नहीं पता था। मैं राजधानी में किसी को भी नहीं जानती थी। अजनबी महानगर, नई दिल्ली! एयरपोर्ट पर कंपनी की गाड़ी मुझे लेने आई थी। दिल्ली की सड़कों को पहली बार देखते समय सुखद अहसास हुआ, चौड़ी सड़कें, हरे-भरे पेड़, साफ आबोहवा। ना मुंबई जितनी भीड़, ना चेन्नई जैसी गंदगी।

कम्पनी का गेस्ट हाउस कैलाश कॉलोनी में था। पन्द्रह दिन तक मैं वहां रही, फिर कम्पनी के ही ब्रोकर ने मालवीय नगर में घर दिलवा दिया। दो कमरे का मेरा अपना घर! मैं चेन्नई से अपना कुछ सामान नहीं लाई थी। दिल्ली आने के बाद पहले ही महीने फ्रिज, अलमारी और टेबल खरीदे। दूसरे महीने चौदह इंच का रंगीन टीवी। धीरे-धीरे मैंने अपना पूरा घर सजा लिया। दिल्ली हाट से बेंत की कुर्सियां ले आई, फेब इंडिया से बड़े वाले गद्दे आ गए। सेटी और दीवान मैंने अमर कालोनी में बड़े सस्ते दामों पर लिया। मेरे दिल्ली आने के निर्णय से इस बार घर में किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। चेन्नई से मैं सीधे भैया के पास मुंबई गई थी। शर्ली ने मुझसे मिलते ही शिकायतों का पिटारा खोल दिया, ‘मैं घर बैठे-बैठे बोर हो जाती हूं, तुम्हारे भैया मुझे नौकरी नहीं करने देना चाहते।’

सुरेश भैया को शर्ली का इस तरह शिकायत करना पसंद नहीं आया। वे गुस्से से बोले, ‘तुम कौन-सी नौकरी करोगी? तुम्हें टीचर की नौकरी नहीं करनी। वैसे ही तुम वक्त पर घर का काम नहीं कर पाती। नौकरी पर जाओगी तो घर कौन संभालेगा?’

दोनों के बीच देर तक बहस होती रही। मैं बीच में पड़े बिना बोल पड़ी, ‘मैं आज शाम को ही पुणे निकल जाऊंगी। आई-अप्पा से भी मिलना हो जाएगा!’ सुरेश भैया चुप हो गए।

भैया मुझे दादर बस स्टॉप पर छोड़ने आए, तो रास्ते-भर बताते आए कि शर्ली उनकी कोई बात नहीं मानती, बेहद जिद्दी है।

‘पर भैया, तुमने तो अपनी पसंद से शादी की थी!’ मैंने कह दिया।

‘तो?’ सुरेश भैया खीझ गए, ‘क्या प्रेमविवाह करने का मतलब जिन्दगी-भर खुश रहना होता है?’

‘नहीं!’ मेरे दिमाग में आई और अप्पा की छवि कौंध गई, ‘ना, ऐसा बिल्कुल नहीं है।’

भैया गाड़ी चलाते रहे। साल-भर से चेहरे पर उनकी उम्र झलने लगी थी। कनपटी के बाल सफेद हो गए थे। मुझसे चार साल ही तो बड़े हैं भैया! पर देखकर लगता नहीं।

‘भैया, तुम आई से मिलने जाते हो?’

भैया ने मेरी तरफ देखा और बदले अंदाज में कहा, ‘आई अब पहले जैसी नहीं रहीं!’

‘क्या मतलब?’ मैं चौंक गई।

‘आई सुल्लू मौसी के साथ एक नाटक में काम रही हैं।’

‘सच!’ मैं उछल पड़ी।

‘तू इतना खुश क्यों हो रही है?’

‘खुशी की ही तो बात है! आखिरकार, आई अपनी पसंद से कुछ कर रही है। पूरी जिंदगी उन्होंने दूसरों का मुंह ताकते गुजार दी। अब वे अपने लिए कुछ कर रही हैं, तो अच्छी बात है न!’

‘खाक अच्छी बात है! तू भी पागल हो गई है! हमारे घर में किसी का नियंत्रण नहीं है, इसलिए तुम सब लोग खुले सांड की तरह घूमने लगे हो!’

मुझे भैया का यह कहना बिल्कुल पसंद नहीं आया। मैंने सोचा था, सुरेश भैया आम पुरुषों से अलग सोचते होंगे। पर वे भी वही निकले, निहायत मेल शेवनिस्ट! मेरा मन हुआ, उनसे झगड़ूं, उन्हें खरी-खोटी सुनाऊं, पर मैं चुप रही।

बस स्टॉप पहुंचने तक मैंने उनसे कोई बात नहीं की। बस चलने लगी, तो भैया ने कुछ संजीदगी से पूछा, ‘तू वापसी में हमसे मिलने आएगी न दिल्ली जाने से पहले?’

मैंने ‘हां’ में सिर हिलाया। बस में बैठते ही मुझे नींद आ गई। इस बार मुझे बस में कोई परिचित या अवांछित चेहरा नहीं दिखा। पुणे में आई मुझे बस स्टॉप पर लेने आई थीं। जिंदगी में पहली बार उनके चेहरे पर अजीब-सी चमक थी। मैरून ढाकाई चैकवाली साड़ी उन पर जंच रही थी। मैं बस से उतरी, तो सुल्लू मौसी पीछे से हांफती-हांफती आई और मुझे गले लगा लिया।

‘अग, मला वाटला, तू विसरून गेली ग तुझा मौशी ला!’

मैं मुस्कुराई। सुल्लू मौसी की तरह आई भी गदबदी होती जा रही थीं। आई के पास कितना कुछ था मुझे बताने के लिए, ‘पहले घर चलकर सोल कढ़ी और भात खाते हैं, फिर गपशप करेंगे!’

आई के बात करने का ढंग बदल गया था, कितना आत्मविश्वास आ गया था उनमें!

अप्पा अमम्मा (दादी) से मिलने कोचीन गए थे। सुल्लू मौसी हंसने लगीं, ‘जरूर तेरी आई की शिकायत करने गए हैं।’

आई वहीं खड़ी थीं, ‘अनु के अप्पा में इतनी हिम्मत नहीं है। जो कुछ मर्दानगी उन्हें दिखानी है, बस मुझ पर दिखा सकते हैं। देखा नहीं, जब भी उनके गांव से कोई आता है, उसके सामने कैसे भीगी बिल्ली बन जाते हैं!’

सुल्लू मौसी आई की इस बात पर हंस-हंसकर दोहरी हो गईं, ‘मी मंडला, पता है अनु, तेरी आई नाटक में कौन-सा रोल कर रही है? कैकेयी का।’

मैं आश्चर्य से आई का चेहरा देखने लगी, ‘तुम और कैकेयी? तुम दशरथ के सामने मुंह खोल भी पाती हो?’

सुल्लू मौसी हंसती रहीं, ‘कित्ती छान! तू कल आकर रिहर्सल देख न! तेरी आई ने तो कमाल का काम किया है।’

नाटक में आई कैकेयी बनी थी, सुल्लू मौसी मंथरा। मुझे हंसी आ गई। सुल्लू मौसी फिट थीं उस रोल के लिए। जब वे लंगड़ाकर चलेंगी और टेढ़ा मुंह बनाकर बात करेंगी, तो दर्शक ताली पीटते रह जाएंगे।

आई ने मुझे नाटक की पटकथा पढ़ने को दी। मराठी पढ़ने में मुझे हमेशा दिक्कत होती थी, पर उनके कहने पर मैंने कैकेयी के संवाद जरूर पढ़ लिए। नाटक का नाम था प्रचंड! आई ने अपने बाल रंग लिए थे। पूरी बांहोंवाला ब्लाउज पहनने लगी थीं। जब मैंने उन्हें कोल्हापुरी चप्पल के बजाय दाउद की हीलवाली चप्पल पहने देखा, तो आंखें बंद ही नहीं हुईं। साल-भर में आई में जमीन-आसमान का बदलाव आ गया था।

रात को जब सुल्लू मौसी से मैं अकेले में मिली, तो मैंने उनका हाथ पकड़कर ‘थैंक्यू’ कहा।

‘कशाला ग पोरी?’

‘मेरी आई की जिंदगी उन्हें वापस देने के लिए।’ मैं भावुक हो गई।

‘मैंने कुछ नहीं किया। मैंने तो बस रास्ता दिखाया है!’

‘उसी की तो जरूरत थी मौसी!’ मैंने धीरे से कहा।

मैं सप्ताह-भर आई के साथ रही। उनकी रिहर्सल में गई। उनका कॉस्ट्यूम डिजाइन किया। आई को इतना खुश मैंने पहले कभी नहीं देखा था।

वे बड़े उत्साह से बोलीं, ‘अनु, मेरा नाटक 19 मई से शुरू हो रहा है। तू देखकर जाएगी न?’

‘आई, उसी दिन तो मुझे दिल्ली में जॉइन करना है।’

आई उदास हो गई, ‘तुममें से कोई भी नहीं होगा! विद्या को तो इन सबसे कोई मतलब नहीं है। सुरेश वैसे ही नाराज चल रहा है।’

‘तुम दूसरों की परवाह मत करो! अब अपने लिए जीना सीखो आई!’ मैंने उनकी बांहें थाम लीं, ‘सच! मुझे कितना अच्छा लग रहा है तुम्हें इस तरह देखकर। यही तुम्हारी जिंदगी है आई, यही तुम्हारी दुनिया है।’

आई की आंखों में आंसू आ गए, ‘अनु, एक तू ही है, जो मुझे समझती है। वरना तो सबने मुझे दूध में से मक्खी की तरह निकाल दिया है।’ उन्होंने अपना हाथ मेरे सिर पर रखा, ‘तू मेरे पास आती रहना!’

‘जरूर आई! मैं दिल्ली में घर ले लूं, तो तुम भी आ जाया करना।’

मुझे दिल्ली आकर आई की खूब याद आती। मैं उन्हें नियमित पत्र लिखती, हर इतवार को फोन करती। आई खूब व्यस्त हो चली थीं। घर, बागवानी, वात्सल्य संस्था का काम, नाटक! हर बार उनकी आवाज से उत्साह टपकता, ‘पता है, मेरी बैंगन की क्यारी में नन्हें-नन्हें बैंगन आ गए हैं!

अप्पा पुणे वापस आ गए थे, पर अब आई उनकी एक नहीं सुनती थीं। शान्तम्मा को घर से निकाल दिया। अप्पा कुढ़ते रहते, गालियां देते रहते, आई चुपचाप अपना काम किए चली जातीं।

मैं संतुष्ट थी, चलो रो-पीटकर ही सही, अप्पा और आई साथ तो हैं।

दिल्ली को अपना कहने में कुछ काफी वक्त लग गया। मैं सुबह से देर रात तक दफ्तर में रहती। यहां आते ही मैंने ड्राइविंग सीखकर सेकेण्ड हैंड मारुति खरीद ली। मेरी अपनी सफेद मारुति!

दोस्त बनाने के मामले में मैं शुरू से ही कंजूर रही, सो यहां भी बमुश्किल चार-पांच लोगों से ही मेरा परिचय हुआ। दफ्तर में एकाउंट्स में श्यामली थी, उसके साथ मैं सप्ताहान्त पी.वी.आर. या सत्यम में फिल्म देखने चली जाती। चूंकि मैं अपने विभाग की हैड थी, इसलिए दफ्तर में मुझे गंभीरता का मुखौटा ओढ़े रखना पड़ता था।

अब मुझे अकेलापन काटने लगा था। मैं अपने अंदर झांकने की कोशिश करती, मैं क्या चाहती हूं! पर हर बात नाकाम रहती। मैं नियमित योग करती थी। एक बार ‘विपश्यना’ के लिए छतरपुर भी हो आई थी।

जिंदगी में खालीपन भरता जा रहा था। उम्र में मुझसे छोटी सहयोगी दोस्तों के साथ सप्ताहान्त बिताने दिल्ली से बाहर जाते। मैं चुपचाप अपने घर टीवी देखती रहती या कोई उपन्यास पढ़ती रहती। सबकी शादियां हो गई थीं या होनेवाली थीं। मेरे ऊपर हमेशा एक सवाल की तलवार टंगी रहती, ‘तुमने शादी क्यों नहीं की? शादी नहीं करना चाहतीं? अकेले जिंदगी बिताना चाहती हो?’

मैं पहले हंसकर बात को टाल जाती थी, अब यह भी नहीं हो पाता था। कई बार मन होता, चिल्लाकर कहूं-मुझे मेरे हाल प छोड़ दो! मुझे अपनी तरह से जीने दो!

पर अपनी तरह से जीना भी तो मुझे नहीं आया!

***