आसपास से गुजरते हुए
(5)
अनछुए सच
मैंने पहली बार जब अमरीश को देखा, मुझे बड़ा अजीब लगा। तन्दुरुस्त शरीर, चिकना चेहरा, फिल्मी हीरो जैसे हाव-भाव! उसके आंखें छोटी थीं। वह जब हंसता तो आंखें पूरी तरह बंद हो जातीं। वह बहुत बोलता था। अच्छी कसी हुई आवाज। उसके होंठ भरे-भरे थे। गोरा रंग। धीरे-धीरे मुझे वह आकर्षित करने लगा। मैं कॉलेज के बाद रुककर कम्प्यूटर सीखती थी। अमरीश भी कम्प्यूटर सीख रहा था। वह क्लास की सभी लड़कियों से फ्लर्ट करता। मैं चुप रहती थी। कुछ दिनों बाद वह मुझे लेकर ताने कसने लगा। वह मुझसे तीन साल सीनियर था। मैं बी.एस.सी. के दूसरे वर्ष में थी, वह एम.ए. कर रहा था।
एक दिन उसने खुद ही मुझसे दोस्ती कर ली। उसकी बेतकल्लुफी मुझे अच्छी लगी। हम दोनों शुरू में सिर्फ दोस्त थे। वह अपनी सभी-प्रेमिकाओं की रामकहानी मुझे सुनाता। बात-बात में यह भी कह देता, ‘अनु, तुम मेरे टाइप की लड़की नहीं हो। तुमसे मैं कभी इश्क नहीं कर सकता।’
बात-बात में मुझे उसका यह कहना बुरा लगने लगा, क्योंकि मेरे मन में उसके लिए कोमल भावनाएं पनप चुकी थीं। पता नहीं, कब कैसे उसने मेरा हाथ पकड़ना शुरू किया, एक दिन एम्पायर में फिल्म देखते समय उसने मेरे होंठ चूम लिए। जब हम फिल्म देखकर बाहर निकले, तो उसने हंसते हुए पूछा, ‘तुम्हें बुरा ते नहीं लगा?’
मैं जड़ हो गई।
वह अपने दोस्तों के सामने हमेशा यही दिखाता कि मुझसे उसका कुछ लेना-देना नहीं है, पर जब हम दोनों साथ होते, तो वह रोमांटिक बन जाता। उसके चुम्बन होंठों से होते हुए मेरे शरीर के हर भाग को कंपा गए। लिफ्ट, ऑटो, टैक्सी, कॉलेज के सूने गलियारे-हम कोई जगह नहीं छोड़ते।
मेरे साथ वह घर भी चला आया, बिल्कुल ऐसे जैसे पुराना दोस्त हो। अमरीश की आदत थी, वह अपने आपको बखूबी किसी पर भी थोप लेता था। अप्पा ने उसे बर्दाश्त कर लिया, आई ने उसे देखते ही मुझे सुना दिया, ‘मुलगा बर नाही।’
मुझे अच्छा नहीं लगा, ‘क्यों, क्या कमी है?’
‘बस मुझे लगा तो कह दिया। ऐसे लड़कों को घर मत लाया कर?’
मुझे गुस्सा आ गया। अमरीकश मेरा पहला पुरुष मित्र था, जिसे लेकर मैं घर आई थी। अमरीकश को भी यह अच्छी तरह पता था कि आई उसे पसन्द नहीं करतीं। वह मेरे घर आने से पहले पूछ लेता, ‘तुम्हारी मां होंगी?’
मैं चिढ़कर कहती, ‘कहां जाएंगी?’
वह तब भी चला आता। आई से हक से कहता, ‘अदरकवाली चाय बना देंगी?’
आई चुपचाप चाय बनाकर कप हमारे सामने रखकर चली जातीं। पर मुझे पता था, उनकी नजरें कमरे के किसी कोने से मेरा पीछा कर रही हैं। घर में अमरीश का मुझे छूना, चूमना मुझे डरा देता था। उसे इससे फर्क नहीं पड़ता था। दरअसल, उसे किसी बात से फर्क नहीं पड़ता था।
अमरीश से इस कदर और इतनी जल्दी मैं क्यों जुड़ती चली गई, मुझे नहीं पता। पता नहीं किस क्षण उसने मेरे मन और तन पर अधिकार जमा लिया। वह बेहिचक कहीं भी मुझे बांहों में भर लेता, चूम लेता। उसकी यह निर्भीकता मुझे अच्छी लगती।
बी.एस.सी. के बाद मैंने एडवान्स कम्प्यूटर कोर्स में दाखिला ले लिया। अमरीकश एम.ए. करने के बाद महीने-भर इस ऊहापोह में रहा कि उसे क्या करना चाहिए। मुझसे सलाह लेता। हम दोनों पूरी दोपहरी किसी रेस्तरां में बैठे-बैठे गुजार देते। बंजारे से दिन थे वे। कुछ करने के लिए नहीं था। पता नहीं था कि क्या करना है, क्या होगा। अमरीश के सपने आसमान से टकराकर मेरे पास आते थे। कभी-कभी मन होता, टोककर उसे जमीन पर ले आऊं। मैं उससे शायद डरती थी। वह जो कुछ कहता, मैं हां में सिर हिलाती। हम रेस्तरां में बैठकर चाय पर चाय पीते रहते। अपने सपनों में वह कभी मेरा जिक्र ही नहीं करता। कभी यह नहीं कहता कि यह काम हम दोनों मिलकर करेंगे। मैं एक बाहरी तत्व थी, जो उसे उसके होने का अहसास दिलाती रहती थी।
महीने-भर बाद अमरीश नौकरी ढूंढने मुम्बई चला गया। पुणे में मेरा मन नहीं लगता था। मेरी हालत दीवानों-सी हो गई थी। अमरीश नहीं, तो कुछ भी नहीं। सुरेश भैया को मुम्बई में नौकरी और कम्पनी की तरफ से फ्लैट मिला, तो मैं अपना कम्प्यूटर कोर्स बीच में छोड़कर मुंबई चली गई।
बचपन में मैं कई बार अप्पा के साथ मुम्बई जा चुकी थी। पर इस बार मुम्बई जैसा महानगर मेरे लिए एक नई दुनिया थी। मैं दिन-भर में मुश्किल से आधा घंटे घर का काम करती। अपने और सुरेश भैया के लिए खाना बनाती। फिर टीवी देखती, उपन्यास पढ़ती। शाम को अमरीश के दफ्तर पहुंच जाती।
वह मुझे अपने दफ्तर में ऊपर नहीं आने देता था। मैं नीचे गेट से इंटरकॉम से उसे संदेश भेजती और घंटों उसके इंतजार में नरीमन पॉइण्ट के सामने सागर के तट पर लोहे की बैंच पर बैठी रहती। कई बार शाम से रात हो जाती। वह मेरे बुलाने पर तुरंत कभी नहीं आता। यह उसकी स्टाइल थी। जब आता, तो मैं नाराज होती, वह मुझे मनाता। ऐसा दो साल तक चला।
सप्ताहान्त में अमरीश के साथ उसके भाण्डुपवाले दो कमरे के छोटे-से घर में बिताती। घर के सारे परदे तानकर हम दोनों होटल से खाना मंगवाकर खाते। फिर देर रात तक एक-दूसरे की बांहों में बांहें डाले उसके जमीन पर पड़े गद्दे पर लोटते रहते।
अमरीश के साथ अपना सब कुछ बांटते हुए मुझे कभी अजीब नहीं लगा। मेरे लिए यह सोचना भी मुश्किल था कि वह मुझसे या मैं उससे शादी नहीं करूंगी।
अमरीश और सुरेश भैया की कभी दोस्ती नहीं हो पाई। सुरेश भैया को मेरा इस तरह निर्बाध अमरीश के साथ रहना नापसंद था, पर मैं उस समय किसी से कुछ सुनने के मूड में नहीं थी। मैं गले-गले तक अमरीका के प्यार में डूबी थी।
अमरीश की शादी की खबर मुझे उसके दोस्त की पत्नी से मिली। उसे शक था कि हम दोनों में कुछ चल रहा है। हालांकि अमरीश हमेशा यही दिखाता था कि मैं उसकी अच्छी दोस्त भर हूं। मैं और अमरीश उसी दोस्त के घर उनकी शादी की सालगिरह पार्टी में गए हुए थे। मैं हमेशा की तरह रसोई में जाकर उनकी पत्नी की मदद करने लगी।
उन्होंने मुझे सशंक नजरों से देखा, फिर अपने आपको रोक नहीं पाईं, ‘अठारह जनवरी को तुम चल रही हो न पुणे?’
‘क्यों? कोई खास बात है?’
‘तुम्हें नहीं बताया अमरीश ने? उसकी शादी है। लड़की मेरी भाभी की रिश्तेदार है, तभी तो मुझे पता चला। वरना अमरीश ने तो किसी को नहीं बताया।’
मेरा चेहरा जलने लगा। मुझे विश्वास नहीं हुआ, ये झूठ बोल रही हैं। मैं हर वक्त अमरीश के साथ रहती हूं, उसकी शादी और मुझे नहीं पता! वह मेरे अलावा किसी और से शादी कैसे कर सकता है? मेरी आंखों में गर्म आंसू लहलहा आए। मैंने अपने आपको जब्त किया और समोसे की प्लेट लेकर बाहर आ गई।
आधे घंटे बाद यह बात सबके सामने जाहिर हो गई। अमरीश खिसियानी हंसी हंसे जा रहा था। उसने ‘ना’ नहीं कहा। मेरे लिए वहां बैठना मुश्किल हो गया। मैं एक झटके से उठ गई, ‘मेरे सिर में दर्द हो रहा है, मुझे घर जाना है।’
मैं अपना पर्स लेकर दौड़ती हुई बाहर निकल आई। ऑटो रोककर स्टेशन चलने को कहा। अंधेरी के लिए टिकट लेकर मैं प्लेटफॉर्म पर बैठ गई। मेरी आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे। मैं बुरी तरह कांप रही थी। आने-जानेवाले लोग मुझ पर एक निगाह डालकर आगे निकल जाते। मुझे किसी की परवाह नहीं थी। मेरे सामने तीन ट्रेन आईं और चली गईं। मैं नहीं उठी। मन में एक क्षीण-सी आशा थी कि शायद अब भी अमरीश वापस आ जाए और मुझे बांहों में भरकर कहे, ‘सब झूठ है, झूठ! मैं किसी और से शादी कैसे कर सकता हूं?’
लगभग घंटे-भर बाद में अपने आपको घसीटती हुई उठी। बान्द्रा से अंधेरी जानेवाली लोकल लग गई थी। मैं लेडीज कम्पार्टमेंट तलाशती हुई आगे बढ़ी। डिब्बा लगभग खाली था। मैं खिड़की के पास बैठ गर्ई। आंसू से धुंधली निगाहों से मैंने देखा, सामने से अमरीश भागता हुआ आ रहा है। मुझे देखते ही उसने डपटकर कहा, ‘चलो उतरो, तुम ऐसे कैसे मुझे छोड़कर आ गई?’
गाड़ी प्लेटफॉर्म से सरकने लगी थी। मैं दौड़ती हुई दरवाजे तक आई और चलती गाड़ी से नीचे कूद गई। सामने अमरीश खड़ा था। मैंने उसकी कमीज पकड़ ली और रोते हुए पूछा, ‘तुमने ऐसा क्यों किया?’
‘यहां नहीं। मेरे घर चलो। बात करते हैं।’
वह जाकर हम दोनों के लिए टिकट ले आया। रास्ते में दोनों ने कोई बात नहीं की। मेरे आंसू उसकी हथेली पर, शर्ट पर गिरते रहे। मैं यन्त्रचालित-सी उसके साथ उसके घर आ गई। जैसे ही कमरा बंद हुआ, उसने मुझे बांहों में ले लिया, ‘अनु, सब ठीक हो जाएगा।’
‘क्या ठीक हो जाएगा?’ मैं बिफरी, ‘तुम मुझे इतना बताओ, तुम अठारह जनवरी को शादी कर रहे हो या नहीं?’
‘अमरीश ने सिर झुका लिया, ‘हां।’
मैंने आगे कुछ नहीं सुना। दोनों हाथों से तड़ातड़ उसे मुक्के मारने लगी। वह चुपचाप खड़ रहा। मैंने ना जाने कितनी गालियां बकीं, उसकी कमीज फाड़ दी, वह पाषाण की तरह खड़ा रहा।
मैं थककर बैठ गई। आंखों के आंसू सूख चुके थे। वह मेरे पास आया। कंधे पर से मेरे बाल हटाकर उसने चूम लिया। मैं सिहरकर उठ गई, ‘अब नहीं! मुझे मत छूना। तुम इस लायक नहीं।’
उसने जबर्दस्ती मेरे होंठों पर अपने होंठ रखने चाहे, मैं तड़पकर अलग होने की कोशिश करने लगी, मेरा होंठ कट गया। मैंने अपने नाखूनों से उसका चेहरा खरोंच डाला और लपककर दरवाजा खोल दिया। उसने पीछे से आवाज लगाई, ‘अनु, कहां जा रही हो? रात बहुत हो गई है।’
‘मैं कहीं भी जाऊं, इससे तुम्हें कोई मतलब नहीं है।’ मैं दरवाजा भेड़कर बाहर निकल आई।
वाकई रात बहुत हो चुकी थी। मैं सड़क किनारे पुलिया पर लगभग दस मिनट तक इस आशा में बैठी रही कि शायद अमरीश आएगा, पर वह नहीं आया।
भारी मन और कदमों से मैं स्टेशन गई। रात के ग्यारह बजे महिला डिब्बे में भिखारी और चरसी बैठे थे। मैं पुरुषों के डिब्बे में आ गई। दादर उतरकर वहां से अंधेरी जानेे लिए दूसरी ट्रेन ली। स्टेशन से ऑटो करके घर गई। पहली बार मैं इतनी रात को अकेली सफर कर रही थी। घर पर सुरेश भैया आ चुके थे।
दरवाजा खोलते समय उनका चेहरा तना हुआ था। बाईस साल की बहन इतनी रात गए इस हाल में घर आए, तो किस भाई को अच्छा लगेगा? बस, उन्होंने मुझ पर हाथ नहीं उठाया। बिना कुछ कहे वे अंदर चले गए। रात-भर मैं तकिया भिगोती रही। सुबह सुरेश भैया चाय का कप लेकर मेरे पास आए, मैं जाग रही थी। मुझसे रहा ना गया। मैंने उन्हें बता दिया कि अमरीश कहीं और शादी कर रहा है।
सुरेश भैया की आवाज ठंडी थी, ‘अनु जाने दे। वह तेरे लायक नहीं था। तू वापस पुणे जा, अपना कंप्यूटर का अधूरा कोर्स पूरा कर।’
मैंने कुछ नहीं कहा। मेरे पास कोई विकल्प था ही नहीं। उसी दिन सुरेश भैया ने मुझे दादर से पुणे जाने वाली बस में बिठा दिया। बस चलने से पहले उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा, उनकी आंखें पनीली थीं। उस वक्त मुझे जिंदगी की असलियत समझ में आ गई। जो आपके अपने होते हैं वे आप जैसे हैं, वैसे स्वीकार कर लेते हैं।
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