Aaspas se gujarate hue - 4 in Hindi Moral Stories by Jayanti Ranganathan books and stories PDF | आसपास से गुजरते हुए - 4

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आसपास से गुजरते हुए - 4

आसपास से गुजरते हुए

(4)

गुदगुदाते हैं रास्ते

हॉस्टल आने के बाद भी मैं कई दिनों तक पौधों को याद करती रही। अब आई को लम्बे-लम्बे खत लिखना मेरा शगल बन गया था। विद्या दीदी और सुरेश भैया को समझ नहीं आता था कि मेरे और आई के बीच क्या चल रहा था। सुरेश भैया को मैं आई के बारे में बताती, तो उन्हें विश्वास ही नहीं होता। हालांकि मेरी वजह से उनका भी आई के प्रति रवैया बदल गया था। आई मुझसे ही कहती थीं कि सुरेश भैया को छुट्टियों में घर आने को कहूं। सुरेश भैया मन मारकर आने लगे। अब सुरेश भैया पूरे नौजवान लगने लगे थे। हल्की मूंछें, पूरी बांह की टी शर्ट, फुट पैंट, आंखों पर चश्मा। अप्पा से वे बिल्कुल नहीं बोलते थे। उनके सामने अप्पा ने एक बार आई पर हाथ उठाने की कोशिश की, तो सुरेश भैया ने लपककर उनका हाथ पकड़ लिया, उन्होंने सिर्फ इतना कहा, ‘नहीं।’ अप्पा ढीले पड़ गए।

अब अप्पा और आई के बीच दरार साफ बढ़ती नजर आ रही थी। मैं बहुत ज्यादा गंभीरता से नहीं सोचती थी। अपने शरीर के बदलावों से मैं खुद आश्चर्यचकित रहती थी। हर वक्त एक खुमारी-सी लगी रहती। अचानक पुणे के हमारे मोहल्ले के सभी जवान लड़के मुझे आकर्षक लगने लगे। घर के बिल्कुल सामने रहनेवाले, अपने से दोगुने उम्र के कर्नल चड्ढा को देखते ही मेरे पूरे शरीर में सनसनी दौड़ जातीञ मन होता, मैं उनके पास जाऊं, वे मुझे छुएं, मेरे बालों को सहलाएं और चूमें भी। मैं दिन-भर उनकी कल्पना में खोई रहती। पर जब वे सामने पड़ते, तो पैर जम-से जाते। मैं छत पर खड़ी होकर घंटों उन्हें निहारा करती। जब भी अकेली होती, मैं अपने साथ उनकी कल्पना करती।

छह-सात महीने बाद मैं दीवाली की छुट्टियों में घर आई थी। घर में उन दिनों पानी की बड़ी किल्लत थी। आई खाना बना रही थीं और पानी रुक गया। उन्होंने सहजता से कहा, ‘सामनेवाले को कह आ पानी के लिए, उनका कोई अर्दली ड्रम भर जाएगा।’

मैं लगभग उड़ती हुई कर्नल चड्ढा के घर पहुंच उनका दरवाजा खटखटाने लगी। दरवाजा कर्नन चड्ढा ने खोला। दोपहर का वक्त था, लेकिन उनकी आंखें लाल हो रही थीं।

‘येस?’

‘अंकल...’ मैं रुक गई। शर्म आई, उन्हें अंकल कहते हुए, ‘पानी...’

‘ओह तुम नायर साब की लड़की हो? हॉस्टल में पढ़ती हो?’

‘जी, पंचगनी में...’

‘अंदर आओ।’ उन्होंने दरवाजे में रास्ता बनाया। अंदर जाने के लिए मुझे उन्हें छूते हुए निकलना पड़ा, पर अच्छा लगा। उन्होंने फौरन अपने एक अर्दली को काम पर लगा दिया। मेरी तरफ मुड़े, तो मैंने ध्यान दिया कि वे सिर्फ बाथरोब पहने हैं। उनके हाथ में सिगार था, उसे बुझाकर मेरे पास आ बैठे। मुझसे हॉस्टल के बारे में पूछने लगे। मैं जवाब देती जा रही थी।

अचानक उनका एक हाथ मेरे नंगे घुटने पर पड़ा। मैंने स्कर्ट पहन रखी थी। जब हाथ स्कर्ट के नीचे से होे हुए ऊपर उठने लगा, तो मैं चिहुंककर उठ गई। उन्होंने हाथ खींच लिया। उनकी निगाहों में पता नहीं क्या था कि मैं बुरी तरह डर गई। ये मेरी कल्पना के पुरुष तो नहीं हैं! मुझे लगा था, जब वे मुझे छुएंगे तो मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठेगा। पर यहां तो लग रहा है जैसे बदन पर छिपकली रेंग गई।

मैंने धीरे-से पूछा, ‘मैं जाऊं?’

‘जल्दी क्या है? बैठो।’ उनकी नजरें लगातार मेरी टीशर्ट के ऊपरी हिस्से पर टिक रही थीं। मुझे तो लगा कि शमीज के अंदर उनकी नजरें घुसी जा रही हैं। मैं उसी तरह खड़ी रही, ‘कुछ खाओगी? चॉकलेट, केक?’

‘नहीं, थैंक्स। मैं जाऊंगी।’

वे मेरे बहुत नजदीक आ गए, ‘फिर कब आओगी? शाम को आओ कॉफी पीना मेरे साथ।’

उनका हाथ मेरी पीठ से होकर सामने के हिस्से में पहुंच गया, हल्के-से मेरा दायां वक्ष सहलाकर उन्होंने निपल दबा दिया। इसके बाद मैं वहां रुक नहीं पाई। लगभग दौड़ती हुई घर आ गई। आंखों में आंसू भर आए। किसी भी पुरुष के लिए इतना गुस्सा मन में कभी नहीं आया। पुरुष से पहला साबका अंदर तक मुझे हिला गया। फिर क्यों उपन्यासों में लिखा जाता है कि पुरुष का स्पर्श स्त्री को सुखद लगता है? सब झूठ! सब गलत!

क्या आई को भी अप्पा जब छूते हैं तो ऐसा ही लगता है?

मैं डर के मारे यह बात किसी से नहीं कह पाई। दो दिन तक मैं घंटा-भर लगातार मल-मलकर नहाती रही। पर उनका स्पर्श इतने अंदर तक छू गया था कि वह उतरा ही नहीं। मुझे अपने आप को कोफ्त होने लगी। बहुत लिजलिजा-सा अनुभव होता। मैं पहले कुछ दिनों तक सो नहीं पाई। एक डर-सा समाता जा रहा था अंदर। लगता, मैंने ही कुछ गलत कर दिया। इसके बाद जब भी कर्नल चड्ढा घर आते, मुझे अजीब-सी दहशत होती थी कि कहीं वे सबको यह बताने तो नहीं आए कि उन्होंने मेरे साथ क्या किया? मैं हॉस्टल में डरती रही कि अगली बार जब जाऊंगी, तो सबका सामना कैसे कर पाऊंगी? मैं लगभग साल-भर तक डरती रही, अहसासे कमतरी से बुरी तरह ग्रस्त रही। मैं पहले कभी अंतर्मुखी ना थी। अब मेरे मुंह से गिने-चुने शब्द निकलते।

गर्मी की छुट्टियों में जब घर आई, तो कर्नल चड्ढा वहां से जा चुके थे। उस घर में दिल्ली से कपूर परिवार रहने आ गया था। मेरी उम्र की सोहेला और उससे चार साल बड़ा उसका गबरू भाई साहिल। सोहेला से दो ही दिन में मेरी दोस्ती हो गई। सोहेला ने मुझे जिंदगी का एक नया रूप दिखाया। हालांकि मैं हॉस्टल में रहती थी और मुझे यह भी पता था कि कुछ लड़कियां रात के अंधेरे में एक-दूसरे के साथ क्या करती हैं। मेरे साथ पढ़नेवाली एक अभिनेत्री की बेटी ने खुलेआम कह दिया था कि वह एक बार एबॉर्शन करवा चुकी है। मैं पन्द्रह साल की थी, वह बमुश्किल सोलह की होगी। वह और उसके ग्रुप की चार-पांच लड़कियां हर वक्त लड़ों और सेक्स की बातें करतीं। मैं चाहते हुए भी उनके पास नहीं जा सकी। मेरे ग्रुप की अधिकांश लड़कियां मध्यम वर्ग की थीं। महाराष्ट्रीय या दक्षिण भारतीय लड़कियां, जो हर वक्त पढ़ाई की बातें करतीं। दूसरी लड़कियों को हम ‘लूज करेक्टर’ कहतीं। हमारे ग्रुप की लड़कियों में किसी का बॉयफ्रेंड नहीं था।

सोहेला ने कामसूत्र पढ़ रखा था। उसके पास कुछ ऐसी किताबें थीं, जिन्हें देखकर मेरे होश उड़ गए। वह अपने पापा की अलमारी से डेबोनियर उठा लाती और हम दोनों छत पर बैठक दुपट्टे से ढककर डेबोनियर के पन्ने पलटते। हम दोनों की गर्म सांसें एक-दूसरे से टकरातीं। कई बार उसकी उंगलियां मेरे बदन पर सिहरती हुई सरकतीं। मैं आंखें बंद कर बैठ जाती। मैंने सोहेला को पहली बार चड्ढा के बारे में बताया। उसने कुछ गुस्से से कहा, ‘अनु, तूने उसे छोड़ कैसे दिया? उसके दोनों पैरों के बीच जमकर लात मारनी थी। आदमियों को वहीं सबसे ज्यादा दर्द होता है। साले की अकल ठिकाने आ जाती!’

सोहेला से ही मुझे ज्ञान प्राप्त हुआ कि जिस पुरुष को आप चाहते हैं, उसके छूते ही शरीर पर क्या प्रतिक्रिया होती है?

‘तुझे कुछ गीला-गीला नहीं लगता?’ उसने फिर से अपनी जादुई किताब खोल दी, ‘बस, इसके बाद अगर कोई हाथ लगाए, तो अच्छा लगता है।’

आई को शक हो गया था कि मैं सोहेला के साथ घंटों क्यों बैठी रहती हूं। उन्हें यह भी अच्छा नहीं लग रहा था कि मैं घर पर उनके साथ कम वक्त बिता पा रही हूं। घर पर यूं भी काम बहुत था। अप्पा विद्या दीदी की शादी के लिए लड़का देख रहे थे। वे चाहते थे कि लड़का नायर हो। हम तीनों भाई-बहनों के साथ दिक्कत यह थी कि ना हम मलयालम ठीक से बोल पाते थे, ना मराठी। आई कोशिश करतीं कि हमसे मराठी में ही बातें करें। अब अप्पा ने भी ताकीद कर दी थी कि हम तीनों आपस में मलयालम में ही बोलें। हम तीनों ने मलयालम में बोलने के बजाय कम बोलना ज्यादा सही समझा।

आखिरकार, अप्पा को अपनी पसन्द के हिसाब से लड़का मिल गया। मुकुंदन दुबई में नौकरी करते थे। काले भुजंग, घुंघराले बालोंवाले मुकुंदन को देखकर मैं तो डर गई, विद्या दीदी इसके साथ कैसे रह पाएंगी? सोलेला भी उस वक्त वहीं थी, उसने मेरा हाथ भींचकर कहा, ‘यह आदमी बिस्तर पर बहुत सही निकलेगा।’

मैंने उसे ‘श श् श’ कहकर चुप करा दिया। अप्पा सुनेंगे, तो मेरी खाल उधेड़ देंगे। विद्या दीदी की चट मंगनी, पट शादी हो गई। हमारे घर के सामने शामियाना लगा, केरल से अप्पा के ढेर सारे रिश्तेदार आए, मुझे अप्पा ने हर किसी से मिलवाया। उनके रिश्तेदार मुझे देखकर गद्गद हो गए, ‘बिल्कुल पंजाबी लड़की लगती है!’

कोचम्मा, कुंजम्मा, कोचमच्ची, कुंजमच्ची, चेटन, चेची, तम्बी, मोले-सबके चेहरे लगभग एक जैसे। अप्पा के बड़े भाई तो जितने दिन पुणे में रहे, रोते रहे, ‘गोपाल मोणे, अपने घर चलो। वहां सब कुछ है, दरब प्लांटेशन, घर। यहां क्या है? अब सब एक साथ रहेंगे।’

अप्पा के रिश्तेदारों ने आई को अहसास करवा दिया कि वे उनमें से एक नहीं हैं, अप्पा की बड़ी मौसी कोचम्मा ने तो आई को ताना दे डाला कि उन्होंने अप्पा को फंसाया है। आई चुपचाप सुनती रही। उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा। अपने रिश्तेदारों की उपस्थिति में अप्पा शेर बने घूमते रहे। सिर्फ शादीवाले दिन आई के छोटे भाई नन्दू मामा आए, वो भी कुछ घंटों के लिए। हम सबकी प्यारी सुल्लू मौसी नहीं आई।

विद्या दीदी शादी के अगले दिन हनीमून के लिए महाबलेश्वर गईं। लौटीं तो पहचान में नहीं आ रही थीं। गालों पर लाली, आंखों में डोरे, सलीके से बंधी सफेद सूती साड़ी, माथे पर कुमकुम की बिंदी, गले में मंगलसूत्र। मुकुंदन का भी चेहरा बदल गया था। काली मूंछों के बीच सफेद दांत अब डरावने नहीं लग रहे थे। सोहेला तुरंत कोने में मुझे बुलाकर फुसफुसाती हुई बोली, ‘देख, चाल बदल गई है विद्या दीदी की। सब कुछ कर लिया है! पूछना तू?’

‘नहीं, मैं नहीं पूछ सकती। जाने दे।’ मैं हड़बड़ी में कहकर अंदर आई का हाथ बंटाने चली गई। मुकुंदन सप्ताह-भर हमारे साथ रहे। बउ़े कमरे में उन दोनों का पलंग लगवाया था। उसी कमरे से होकर टॉयलेट के लिए निकलना पड़ता था। आई ने सख्ती से ताकीद कर दी थी कि रात को कोई उस कमरे से होकर ना जाए।

मैं पहले दो दिनों तक कमरे की दीवार से कान सटाए उनकी बातें सुनने की कोशिश करती रही। फिर उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया। विद्या दीदी पासपोर्ट और वीजा बनने तक हमारे पास रहीं। इसमें दो महीने लग गए।

मैं बारहवीं कर चुकी थी और मैंने पुणे में ही फग्र्यूसन कॉलेज में दाखिला ले लिया। दुबई जाने से पहले जब वे अपनी पुरानी चीजें बांटने में लगी थीं, तो मुझे बुलाकर कहा, ‘अनु, तुझे जो चाहिए, ले ले-मेरे कपड़े, जूते, नेल पॉलिश! मैं ये सब लेकर थोड़े ही जाऊंगी?’

मैंने उनके खजाने में से सिर्फ एक लाल कश्मीरी पश्मीना उठाया, बाकी सब विद्या दीदी ने सोहेला और मोहल्ले की दूसरी लड़कियों में बांट दिया।

मैं पढ़ाई में मशगूल हो गई। मेरे नए दोस्त बन गए, सोहेला की जादुई किताब और बातें उबाऊ लगने लगी थीं। साहिल मुझे लगातार प्रेम-पत्र लिखता था, सोहेला बात-बात पर कहती थी कि मेरे भाई से अच्छा लड़का दुनिया में कोई नहीं है। पर गोरा, लम्बा, आकर्षक साहिल कभी मेरे दिल को नहीं भाया। उसका चेहरा स्त्रियोचित था। मुझे बिना मूंछों के लड़के आकर्षक नहीं लगते। साहिल मेरे पीछे दीवानों की तरह घूमता, मैंने उसे कभी लिफ्ट नहीं दी। अगले साल सोहेला की भी शादी हो गई। साहिल जब भी मुझसे मिलने घर आता, अप्पा दो मिनट में उसे चलता कर देते।

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