दीप शिखा
तमिल उपन्यास
लेखिका आर॰चुड़ामनी
हिन्दी मेँ अनुवाद
एस॰भाग्यम शर्मा
(9)
“मुझे मुक्ति दो |” यामिनी बोली |
चंद्रमा की चाँदनी में पिता और पुत्री दोनों खड़े थे | पूर्णमासी की रात | आकाश में चंद्र अपनी सोलह कलाओं के साथ मौजूद था | उस प्रकाश में जो चमक थी काली यामिनी पर पड़ कर उसके सांवले रंग कोऔर चमका रही थी |
सामान्य दृष्टि से अलग खोई हुई उसकी आँखें अब हमेशा भ्रमित रहने लगी थीं| अकेली छोड़ो तो अपने को खत्म करने दौड़ती| वह बाहर फटी-फटी आँखों से देख रही थी | उस समय उसके अंदर क्या हो रहा था कौन जाने ? पहले भी वह इस तरह फटी-फटी आँखों से देखती हुई बैठी रहती थी |
तब उस मौन में कविता के से भाव रहते थे | अब देखने वाली आँखों की नीली पुतली शून्य में ताकती, दृष्टि में सिर्फ खालीपन ही है । बेकार की ही ये सृष्टि है क्या ? जो भी हो इस तरह बैठे हुए रात को देखते समय उसके हृदय में कितने उठते हुए तूफान फिर शांत हो जाते ये तो समझ में आता है | इसीलिए वे उसे कोने के कमरे की कैद से बाहर ऊपर की छत पर खुले में लेकर जाते थे | वहाँ फैला रात का अंधेरा और बहती हुई हवा उसकी पसंद होती थी | कुछ कुछ सोचती हुई, आँखें शून्य में घूरती, बिना हिले डुले वह स्थिर बैठी रहती |
इसी पागलपन की स्थिति में पिता के सामने वह बैठी थी | सिर्फ उनकी ही बातें कभी कभी उसके समझ आती थी | उसका प्रमाण भी मिल गया, दो दिन पहले उनके बोलने से उसने अपने आप खुद के हाथों और पैरों में मेहँदी लगाई थी |
रात के अंधेरे को देखते काली मूर्ति जैसे बैठी हुईउसे देख सारनाथन जी बहुत ज्यादा दुखी हुए | उन्होंने क्या कर दिया ? अपनी लाड़ली बच्ची के साथ उन्होंने कितना अन्याय कर दिया | उसकी क्यों शादी की ? दूसरों की बात उन्होंने क्यों सुनी ?
उसने तो अपनी भावनाओं को बड़ी स्पष्टता से कह दिया था ना! ‘मैं शादी नहीं करूंगी |’ उसका वो ख्याल बहुत गंभीर था, गहराई लिए हुए बहुत ही सच्चा भी था | उसका कारण लोगों को समझ में नहीं आए तो क्या ? मनुष्यों में जाने कितने तरह के लोग होते हैं | संसार में अपनी भावनाओं व संवेदनाओं को प्रकट करने का गुण तो बहुत बड़ा गुण है उसके ऊपर कारण की क्या जरूरत है | उसे ऐसे ही अपनाना चाहिए | लकड़ी आग से क्यों जलती है ? वह लकड़ी की नियति है, उसमें सहन करने की शक्ति उतनी ही है | बस इतनी सी बात | ज्वाला को ठंडा नहीं कर सकते | उसे ठंडा करना चाहकर उसके उपर पानी डालों तो वह ठंडा नहीं होगा, पर बुझ जाएगा |
बुझ ही तो गया |
‘देखो कैसे बेकार मूर्ति जैसे बनी बैठी है, बिना किसी मतलब के बिना मकसद के | तीस साल में ही जैसे सब खत्म हो गया | उसकी बच्ची को उसकी आँखों से दूर छुपा कर पालने की मजबूरी एक दयनीय दशा ही तो है !
सालों इलाज करने पर भी कोई फायदा नहीं हुआ | उसकी उम्र पूरी 50 साल होगी क्या ? या साठ ? अस्सी ? पूरे जीवन भर ऐसे ही दीवानापनरहा तो जबरदस्ती कर कमरे के अंदर इसे रहना पड़ेगा क्या ? कैसी कठोर उमर कैद इसकी तकदीर में है !
‘उन्होंने स्वंय ही उसे बर्बाद किया’ अपनी पैदा की हुई बच्ची को उन्होंने उसका मनपसंद जीवन नहीं जीने दिया | इस दशा में वह अंदर की भावनाओं के कारण अपने को समाप्त करने का प्रयत्न करती है | कितनी ही बार दबाएे उसके अंदर के भावआज फिर सामने आ गये | हम जैसा जीवन चाहते हैं वैसा जीवन वह न जी सकी इसलिए उसका जीवन एक कैद खाना हो गया ?
उन्हें कंपकपी सी लगी | उनके शरीर में सिहरन दौड़ गई | विचारों के बोझ को वे सहन न कर सके | “चले आओ यामिनी” वे बोले | किसी यंत्र के जैसे वह उठी | ये ही उसकी नियति थी | दोनों खड़े हो गये | अब उसे ले जाकर फिर से उस कोने के कमरे में कैद करके रखना पड़ेगा..... ‘सृष्टि का नियम है कोई कोना कोई जगह छूटे बिना यात्रा करते रहना’ सोचते हुए बंद दरवाजा खोला ………
वे बहुत ही तड़फड़ाये | उनकी आँखों से आँसू निकल कर गालों पर बहने लगे |
उनके भावपूर्ण शब्दों को वह मनोरोगी समझेगी या नहीं ये भी नहीं सोचा उन्होंने | उनके हृदय में जो प्रेम, प्यार, दु:ख था वह सब उनके दिल को चीरता हुआ बाहर आया
“मैंने गलती कर दी यामिनी ! मुझे माफ कर दो |”
अचानक उसकी भ्रमित आँखें ठीक हुई | धीरे से वह सिर को घुमाकर उन्हें देखने लगी | कुछ भी समझ न आने वाली बातें दूर हो कर एक मिनिट में विचित्र तीव्रता के साथ उसकी निगाहों में एक उफान आया | जैसे काई दूर हो कर अंदर का साफ पानी दिखाई देने लगेउसी प्रकार उनकी बात को समझने लायक स्पष्ट और संदेह रहित एक क्षण आया | उसे समझते ही उसने जवाब दिया | कितनों ही दिन के बाद सामान्य हुई, उसके मुंह से बिजली के कडकने जैसे शब्द निकले - - -
“मुझे मुक्ति दे दो, मैं माफ कर दूँगी |” पागल के मन में क्या होता है कौन जानता है ? वह जिंदगी को न जी पाई न उसे छोड़ पाई कैसे दुख व कष्ट उसके अंदर अनुभव करती है किसको पता ? उन कष्टों से ही मुक्ति चाहती है ?
किस अर्थ में वह यह बात बोली ? स्त्री ने मर्द को देख ऐसी बात बोली ? जो अपराध भार से भरा था उसे देख बोली | सभी को एक ही एक साँचे में भरने की कोशिश करने वाले दुनिया वालों से सवाल पूछ रही है इसीलिए बोल रही है ?
एक बात तो है, उन्हीं की बात को सोच उसे साधन बना उसके मुंह से बाहर आ ही गया | एक सिहरन उनके शरीर में दौड़ गया | दुख से भरे हृदय से, आश्चर्य से उन्होंने उसको देखा | बिना किसी संकोच या चंचलता के वह शांत सिर उठा कर खड़ी थी | एक अलग न होने वाला अकेलापन कालिमा का कठोर आवरण लिए उनके सामने खड़ी उनके चेहरे को ध्यान से देख रही थी | उनके जवाब के लिए रुकी हुई थी ? एक क्षण के लिए उनकी आँखें चौंधियाई | शरीर के साथ मन में भी सिहरन हुई |
अगले ही क्षण वह बेहोशी खत्म हुई | उनकी लाड़ली बेटी बदल गई | अपने वात्सल्य, अपनापन, भावनाओं से भरा प्रेम उसकी वेदनाओं पर दुखी होने वाले वे भी बदले |
बचपन में उसने कभी दूसरे बच्चों जैसे ‘गुड़िया दो’ नहीं मांगा | युवा अवस्था में दूसरी युवा लड़कियों जैसे ‘ऐसे कपड़े खरीद के दो’ कभी नहीं मांगा | युवती होने पर अन्य युवतियों जैसे ‘ऐसे पति दो’ नहीं मांगा | आज पहली बार उसने जीवन से मुक्ति की मांग की है ! वे कैसे मना कर सकते हैं ?
जीवन तो बहुत ही मूल्यवान वस्तु है, उसके बराबर कुछ नहीं| एक सिक्के के दो पहलू जैसे जीवन के साथ ही मृत्यु भी उसी के साथ जुड़ी हुई है | वो दो शक्तियाँ है | इसके जीवन को ठीक करना सिर्फ मृत्यु से हो सकता है |
अपनी बेटी को जीवन नहीं दे पाने के कारण कई बार वे बहुत दुखी हुए ?
उसकी दशा को देख-देख कर मन बहुत दुखी होता । अब ये उस दुख से मुक्त होना चाह रही है |
बुजुर्ग सारनाथन के शरीर में करंट दौड़ गया | हृदय का प्रेम उमड़ कर उफन कर बहने लगा, तो उन्होंने उसकी काली छाया को कुछ देर भरपूर दृष्टि के साथ देखा | छूकर उसके बालों को सहलाकर ‘जा मेरी प्यारी बेटी’ बोलने से उसे पसंद नहीं आएगा सोच चुप हो गए | परंतु, उनकी निगाहों में पूरा वात्सल्य भर कर उसे बच्चे जैसे उठा लिया | वह भी उस दिन बिना आवेश में आए खड़ी रही | उस क्षण दोनों बहुत पास आ गए ऐसा लगा | दृष्टि को धुंधलाने वाला आँसू का गीलापन चाँदनी में चमक उठा, वे उसे देख मुस्कुराऐ, समय जैसे ठहर गया, हंसी को जो भूल गयी थी वही उस क्षण जीवन में पूर्ण होने जैसे एक अपूर्व मुस्कान में जवाब दे रही थी। हँसते समय उसके गालों में डिम्पल पड़ रहे थे |
“आजा माँ !” कहते उनकी जीभ लड़खड़ा रही थी | दोनों नीचे उतरे |
सोने के कमरे में पेरुंदेवी और छोटी गीता दोनों सो रहेथे | पीछे की तरफ कोने का कमरा खुला | वहीं पर हमेशा यामिनी को ले जाकर ताला लगाना पड़ता | आज सारनाथन ने वह नहीं किया | उस कमरे को पार कर वे सीधे बगीचे में कुएं के पास गए | पीछे यामिनी आ रही है क्या देखा नहीं | रोज उसके साथ चलने वाले चौकीदार की आज जरूरत नहीं | कुएं के अंदर झुक कर देखा | उसका गहरा पानी अपने आगोश में उसकी लाड़ली को लेने के लिए तत्पर चांदनी व नक्षत्रों की चमक से झिलमिलाता साफ नजर आ रहा था | कुछ क्षण बिना हिले खड़े रहे फिर पिछवाड़े के दरवाजे से घर के अंदर घुसे, यहाँ वहाँ जो अंधकार छाया हुआ था वहाँ कहीं भी यामिनी जहां चाहे वहाँ रह सकती थी | उसे वैसे ही उसके पसंद के एकांत में छोड़ कर घर के अंदर चले गये सीढ़ियों की ओर । कांपते शरीर से वे अपने दोनों कानों को बंद कर खड़े रहे | कुएं से आने वाले आवाज को वे सुन नहीं पाएंगे | कुछ भी हो उनमें इतनी ताकत नहीं है, बंद आँखें थीं, दुख से जमे हुए ममत्व का क्या करें ?
कान व आँखें बंद किए लंबे समय तक खड़े रहे उनके हृदय की धड़कन अपनी सीमाओं को तोड़ बाहर जा रही थी | आज उनके जीवन की काली छाया का एक भाग हमेशा के लिए चला जाएगा –उसके साथ |
बड़ी देर बाद उन्होंने धीरे से कानों से हाथ को हटाया | लगा जैसे पूरी दुनिया ही निशब्द हो गई हो | बहुत देर तक कानों को बंद कर खड़े थे उन्हें लगा वहअब भी जीवित है । वह पत्थर बने जीवित यंत्र की भांति अपने को संभाले हुए थे ।
पेरुंदेवी आ गई | इस बीच रात में ये कैसे जग गई ? फिर अपने को संभाल कर अभी ही वे छत से उतरे हों जैसे नाटक किया|
“यामिनी कहाँ है ?” घबराई पेरूंदेवी बोली |
आखिर में जब उनकी लाड़ली पुत्री को निकाल कर बाहर लाये, तो पेरुंदेवी बेहोश हो गई, तब उनका हृदय भी टुकड़े टुकड़े होकर बिखर गया | उसे शव के रूप में देख वे सहन न कर पाये | उसके गाल में डिम्पल पड़ कर हँसते हुए जैसे ही सुंदर लग रही थी | चारों तरफ रोने की आवाजों के बीच सारनाथन खुद को संभाल नहीं पाए बिलख-बिलख कर उनका रोना फूट पड़ा |
उनके हृदय में वही एक दृश्य आया जब पहली बार उसके प्रेम को जानने वाला दिन था | मुस्कुराते चेहरे पर गाल पर पड़े डिम्पल उसकी सुंदरता बढ़ा रहे थे मुख की तेजी देखते ही बनती थी |
ये मुख क्या इस शव का है ? इसकी आयु दो वर्ष की थी तब उनके मुंह पर अपने छोटे छोटे हाथों से उसने छूआ था | घुँघराले काले बाल और उसकी तोतली जुबान जैसे उन्हें बहला रहीहो ।
“रो रहे हो अप्पा ? मत रो |”
उनका शरीर ढीला पड़ गया | बच्ची ने अभी भी यही तो बोला है? नासमझ लोग उसके लिए रोये | वे रो सकते है क्या ? मुक्ति दिलाने वाले को रोना चाहिए क्या ? नहीं ! सब भूल वह अपने ईष्ट को पा गई जानने के बाद रोना चाहिए ? उन्होंने धीरे से आँखों को पोछ लिया |
सबेरा हुआ | वहाँ जितने लोग इकट्ठे हुए सब “पिता जी के साथ रहते भी वह लड़की उनसे बच कर दौड़ कर जा कुएं में कूद गई! पागल थी ना ! पागलों के आवेश में शक्ति बहुत होती है ना ?” ऐसा रोने के बीच में लोग बातें कर रहे थे तब उनकी दृष्टि तो उसकीलेटी हुई आकृति पर ही जमी रही | फूलों की मालाएँ व नई साड़ी में माथे पर कुमकुम की बिंदी से कैसे उसका श्रृंगार किया था | श्रृंगार ही पसंद न करने वाली को श्रंगार ! पैरों में और बांए हाथ के नाखूनों में मेहँदी खूब लाल लगी थी | सीधे हाथ के नाखूनों में मेंहदी नहीं थीक्योंकि उसने स्वयं अपने दाहिने हाथ से उठा कर मेहँदी लगाई थी |
सीधे हाथ से लेकर दूसरे हाथ को लगाने के कारण सीधे हाथ की उँगलियों के अंदर के भाग में ही लाल रंग की मेहँदी लगी हुई थी | काले शरीर में लाल दिखने वाले पैर और हाथ ऐसे लगे जैसे वह जीवित हो |
पेरुंदेवी का मातृ हृदय दुख में दुखी हो “मेरी बच्ची कुएं में कूदी उसकी आवाज भी मेरे कानों में नहीं आई | मैं ऐसी पापी हूँ!” बार-बार बोल रही थी पर परंपरा का भी तो ध्यान रखना होगा ना ? बोली “बाबू को तार दे दो तुरंत आने के लिए | उसे आना चाहिए यही बात नहीं, लड़का नहीं हो तो पति को ही अंतिम क्रिया करनी चाहिए |” बोली |
उस समय सारनाथन जो बात बोलेउसे सोच कई दिनों तक पेरुंदेवी, बेटी की मृत्यु के कारण ये पागल हो गए क्या सोच कर परेशान होती रही |
सारनाथन तूफान जैसे चीरते हुए उठे, आवेशमें भर बोले-
“पति क्या है रे पति ! कहाँ से आया पति ? मेरी बेटी की कौन सी शादी सफल हुई ? मेरे लिए वह कन्या ही थी ! वह बोली नहीं क्या ? मेरी बेटी एक कन्या ही है | उसको अग्नि मैं ही दूंगा, उसे पैदा करने वाला पिता !”
उन्होंने ही अपने हाथों से उस काले सौंदर्य को अग्नि दी |
सुबह अच्छा प्रकाश हो गया | रात की कोई बात बची नहीं थी |
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