Deep Shikha - 2 in Hindi Love Stories by S Bhagyam Sharma books and stories PDF | दीप शिखा - 2

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दीप शिखा - 2

दीप शिखा

तमिल उपन्यास

लेखिका आर॰चुड़ामनी

हिन्दी मेँ अनुवाद

एस॰भाग्यम शर्मा

(2)

बहुत साल पहले कहीं पढ़ी एक कविता उसके मरने के बाद उनको याद आई। वह उनके अन्दर आत्मध्वनि बन गूंजने लगी

नीले आकाश की रात

मन की याद

फूल जैसे खिली है कौन

मेरे मन के अन्दर बसी हुई जाने कौन?

वे उसके दुःख को महसूस कर आखिर में जवाब देने वाले भी वे ही है। फिर भी हृदय में प्रेम की पीड़ा खत्म नहीं हुई। तड़प कर सब जगह जाकर भी, बिलखने पर भी चैन नहीं मिला। पिछवाड़े में बगीचे के कुंए के पास खड़े होकर आकाश को देख रहे थे। रात के समय नीले आकाश का रंग काला हो गया। उसमें असंख्य तारे टिमटिमाने लगे, उस समय वह काला रंग जीवित होकर सांस लेकर हिलने का भ्रम होता है। उसके हिलने पर एक आवाज फैलती है |

दीप की ज्योति में

उस अंधकार के फैलने में कौन सहायक है

चलते हुए भी छुपने वाले कौन है ?

अंधकार में एक ज्योति, उसको ऐसे ही सोच सकते हैं । उसके मन की भावनाओं को समझने वाला अंधकार ही तो था ? अंधेरे में डूबे हुए हृदय में भावनाओं का उमड़ना-घुमड़ना जारी था परन्तु अंधकार को रोशन करने जैसे तीव्र भावनात्मक बिलखना जैसे ही तो था।

उसकी याद उनको छोड़ कर न जाने वाली हमेशा ही साथ रहने वाली थी | वे एक विशेष आयोजन के लिए मन्दिर में कुछ देर रहे जैसे उसे याद करने का यही सही समय हो उसका सपना देखते और कविता करते हुए समय निकालते थे |

सारनाथन की उस समय आयु बत्तीस साल थी। राजकीय नौकरी में बड़े पद पर थे। परम्परागत सम्पदा व सारी सहुलियतें थी। अपना निजी मकान था। बिना कष्ट का आरामदेह जीवन चल रहा था। बत्तीस साल के उम्र तक उन्हें दो बच्चे हुए पर होना न होना बराबर हो गया। दोनों लड़के मरे हुए पैदा हुए । पेरूंदेवी तो बहुत दुःखी होकर बिलख-बिलख कर रोई। अपने भी एक बच्चा पैदा होकर जीवित रहेगा कि नहीं सोच-सोच कर बड़ी दुःखी रहती थी। उस समय तीसरी बार जब पेरूंदेवी को एक लड़की पैदा हुई वह बच्ची जिन्दा रही । सारनाथन को भी खुशी हुई लेकिन लड़की हुई इस बात का दुःख व निराशा भी थी और उसके काले रंग पर क्रोध भी था । वह कुछ ऐसे नक्षत्र में हुई अतः रात जैसी काली व रात्री में ही पैदा हुई। उसका नामकरण संस्कार करते नाम रखते समय मोहक रसभरे और कोमल नामों को छोड़कर गुस्से में नाम रखा यामिनी।

पेरूंदेवी यह सोच कर खुश थी कि वह बच्ची कैसे भी हो उसने मुझे बांझपन से मुक्ति तो दिला दी । उसे उसका यामिनी नाम पसन्द नहीं था । परन्तु पति की पसंद के कारण समझौता कर लिया। सुन्दरता को चाहे किसी भी नाम से पुकारो क्या फर्क पड़ता है | उसके दुःख का विमोचन हो गया, नाम उसका कोई भी हो क्या फर्क पड़ता है उसने जो पौधा लगाया वह मुरझा जायेगा यह बात तो खत्म हुई। ये बात ही उसके लिए बहुत है।

अभी तो बेटी हुई है अगली बार लड़का हो जायेगा सारनाथन को विश्वास था। दूसरे साल लड़का भी हुआ पर हमेशा की तरह मरा हुआ। उसके बाद कुछ नहीं हुआ। उनके तकदीर में बच्चे के नाम पर सिर्फ यही एक लड़की ही है इसे सारनाथन जी हजम ही नहीं कर पा रहे थे । मां ने यामिनी पर अपने पूरे प्यार व स्नेह को न्यौछावर कर दिया । बच्ची को दूध पिलाते समय वह अपने सारे प्यार को उड़ेल देती। सोती हुई बच्ची को हाथों में लेकर प्यार से बिना समय के बारे में सोचे घंटो निहारती रहती। उस भयानक काले मुख पर एक अनोखा तेज था जाने कैसी अजीब सी कांति उसके चेहरे पर थी जो उसे बहुत अच्छी लगती । बिजली चमके तो आंखेँ चुंदिया जाती है पर काला रंग तो अन्दर तक आराम से प्रवेश कर जाता है।

सारनाथन तो उस पर ध्यान ही नहीं देते थे परन्तु एक दिन शाम को घर वापस आकर कपड़े बदल कर आराम कुर्सी में आंखों को बन्द कर लेटे थे तब फूल जैसे हाथों का उनके गाल पर स्पर्श हुआ, आंखें खोलीं तो देखा दो साल की यामिनी खड़ी थी। वह बच्ची रात के अंधेरे में भगवान की मूर्ति जैसे कांतिमान चेहरा लिए और सफेद मोती की लडी जैसे चमकीले दांतों से हँसती हुई दिखाई दी, गालों पर हंसने से जो गड्ढे पड़ रहे थे वो देख व उस बच्ची के स्पर्श को वे अपने चेहरे पर पा हतप्रद रह गये । उनके बैठे हुए इस स्थिति को देख बच्ची ने सोचा शायद वे रो रहे हैं, शहद घुले हुए तोतली जबान के बोल कमरे में गूँजें !

‘‘रो रहे हो क्या अप्पा मत रो” उन्होने उस दिन उसे उठाकर गोदी में लेकर गले लगा लिया। फिर उसके प्यार और ममता ने उन्हें जकड़ लिया।

बच्ची बड़ी होती गई।

पेरूंदेवी का असमंजस दिन पर दिन बढ़ता ही गया। अब धीरे धीरे बच्ची से उसकी घनिष्टता कम होती गई। दूसरे बच्चे तो अब भी खाना मां के हाथों से खाते थे। पर यामिनी मैं ही खा लूंगी मां कहती। नहाने कपड़े पहनने बाल बनाने सब कुछ वह बच्ची स्वयं ही करना चाहती। सब बातों में ऐसी क्या स्वतंत्रता सात साल की उम्र में ही बिना किसी के साथ के अकेले कमरे में सो जाती। दूसरे बच्चियों जैसे रहना पहनना फूल लगाना भिन्न-भिन्न तरीके से तैयार होना ये सब बच्ची को पसन्द नहीं था । स्कूल से वापस आती तो छोटी बच्ची अपनी पुस्तकों को सम्भाल कर ले आती | वह बिखेरे तो मैं ठीक करूं पेरूंदेवी सोचती, लेकिन सब ठीक से करते समय उसे देखती रहती | यामिनी ऐसा मौका ही न देती । हमेशा ही सब काम सही-सही परफेक्ट तरीके से करती। सभी बातों में ऐसे ही थी। उसके ऐसे रहने से उनके बीच में एक दूरी हो रही थी। ऐसा पेरूंदेवी ने महसूस किया। उसने सोचा मेरे हृदय से प्रेम की अनवरत धारा बह रही है उसमें आने को उसकी लड़की हिचक रही है क्यों ? उसने उस प्यार को देखा ही नहीं ? क्या उसको वह महसूस नहीं कर पा रही है ? उसे महसूस करायें तो कैसे ?

‘‘ये ले मेरी राजकुमारी इधर आ मेरी बेटी |”

‘‘आाती हूं अम्मा पर राजकुमारी कह कर क्यों बुला रही हो यामिनी कह कर बुलाओ तो नहीं आऊँगी क्या ? इस तरह अपनी आवाज में बिना किसी बदलाव के सीधे सपाट शब्दों में जवाब देने को क्या कहें ?

मुर्गीयों के साथ यामिनी खेलती थी। अलग-थलग तो वह नहीं रहती परन्तु खेलते समय दूसरी बच्चियां से हिल-मिल कर हँस- हँस कर खेलते समय अचानक कोई बात हुई जैसे एक अलग एकांत ढूंढ कर चली जाती। घर के काम काज में नाम मात्र के लिए मां की मदद करती, उसकी काम काज में अधिक रूचि नहीं रहती और एकांत में बैठे रहने में ही उसका अधिक चाव होता। दूसरों से मिलने-जुलने में पीछे तो नहीं रहती परन्तु उसकी कोई रूचि भी नहीं रहती । बचपन में ही ऐसी पूर्णता होना ठीक है ? कभी-कभी उसे कहीं अकेले में बैठ एक ज्योति जैसे चमकती हुई अपने आप में लीन देख पेरूंदेवी को एक अजीब सा डर लगता।

यामिनी जब दस साल की थी तब एक दिन आधी रात को अपने बिस्तर पर नहीं थी पर खिड़की की तरफ खड़ी हो खिड़की के लोहे के सरियों को पकड़कर आकाश को देख रही थी उसे देख पेरूंदेवी घबराकर पास आई। “अभी तक बिना सोये मेरी लाड़ली बाहर क्या देख रही है। “

‘‘लाड़ली वाड़ली मत बोलो मां। मुझे इस तरह प्रेम, स्नेह से लाड़ लड़ाना अच्छा नही लगता मैंने तुम्हें कई बार कहा है ना? मुझे बुरे-बुरे सपने आ रहे थे। तभी मैं डरकर उठ गई। ”

माँ का हृदय बहुत घबरा गया। “मुझे बुलाना चाहिए था ना मेरी सोना ? मेरे पास आकर मेरे पास सो जा मैं तुझे पकड़ लेती हूँ, डर मत। ”

प्यार से उसे गले लगाने लगी तभी यामिनी बड़ी बेरुखी से अलग हो गई! “नहीं अम्मा मैं जगी रहूं तो मुझे कोई डर नहीं है। तुम जाकर सोओ। ”

इस बीच सारनाथन भी जाग कर वहां आ गए। “अम्मा को जाने दे तुम मेरे पास आ जाओ राजकुमारी। ” ऐसा कह उन्होंने उसे गले लगाने की कोशिश की तो उसने जबर्दस्ती से अपने आप को छुड़ा लिया। मीठी आवाज में मुसकरा कर बोली “मुझे अभी कुछ नही हुआ अप्पा। मैं यही खिड़की के पास खड़ी रहती हूं। फिर........ अप्पा तुम मुझे यामिनी कह कर बोलो राजकुमारी बोलना मुझे तो पसंद नही। ”

अम्मा और अप्पा अलग हो दुःखी होकर असंजस में पड़ गए। ऐसे अकेले अपने आप में रहना ! ये कौन सा तरीका है कोई घनिष्टता, स्नेह, प्यार, लाड़ ये सब इसे कुछ नहीं चाहिए क्यों ? सभी बच्चे जो प्रेम, प्यार, स्नेह स्वाभाविक रूप से चाहते है वह भी उसे नहीं चाहिए ! उससे दूर भागती है।

‘ये इस तरह मेरे पेट में नौ महीने मेरी बनकर कैसे रही। ’ ऐसा अचानक एक ख्याल पेरूंदेवी के मन में उठा।

‘‘तुम कहो तो हम चले जाते है यामिनी, पर तुम इस तरह अंधेरे को देखते हुए खड़ी मत रहो डर लगेगा ” सारनाथन बोले। तुरन्त वह हँस कर बोली ‘नहीं अप्पा अंधेरे को देख मुझे डर नहीं लगता। अंधकार, अंधकार..... अंधेरा मुझे पसन्द है। ”

फिर वह अंधेरे में खिड़की से देख गर्दन ऊंची कर मुंह को कटोरे जैसे खोल ऐसे देख रही थी कि सबको अपने में समेट लेगी। उस काले चेहरे में कितनी कांति है! रात उसके लिए बड़े साधारण ढंग से कुछ कह रही थी। उसको रात का जो आकर्षण है उसमें गाने जैसे आवाज आती थी ।

सारनाथन और पेरूंदेवी को जब वह अपने से अलग करती है तो उन्हें बडा अजीब असमंजस सा लगता था। उन्हें ऐसा भी लगा शायद हमारे में ही कुछ खराबी हो क्योंकि तीन बच्चे मरे पैदा हुए। ये बच गई, इसलिए यह भी अजीब तरीके से व्यवहार करती है। इसका मतलब हमारे जीन्स में ही कोई खराबी है। इसीलिए संसार में होकर भी लोगों से दूर हो रही है | नन्हीं बच्ची ही तो है बड़ी होने पर सब ठीक हो जाएगा......

वह सबके जैसे नहीं है वह साधारण नहीं है इसीलिए ये ऐसा व्यवहार कर रही है क्या ? सभी के जैसे ही वह भी है, एक सामान्य लडकी । उसी की पुष्टी करते हुए उसमें जो बदलाव हुए तो वह फिर से बड़ी परेशान हुई। जैसे अपने स्वयं से ही नाराज और परेशान हो | वह उस समय तेरह वर्ष की थी।

ये परेशान होना ही क्या उसमें काई खराबी की बात है क्या? उसके शारीरिक घटन में ही कोई खराबी है या कोई और कमी ? या लड़की पैदा होने का ही वह विद्रोह है ? या वह प्राकृतिक किसी भी तरह के बदलाव को सहन न कर पाने से परेशान हो रही है या घबरा रही है ?

लड़की से युवा होना मां-बाप के लिए खुशी, फिकर और जिम्मेदारी होती है। वह तो रोए जा रही थी। उसे सांत्वना देना भी बेकार ही रहा। “बिटिया रानी मत रो। ये तो प्राकृतिक ही है। इसमें डरने जैसी कोई बात नही। ” ऐसे कहने वाली अम्मा को जोर से चिल्लाकर उसने दूर भगा दिया ।

पूर्ण युवती कहलाने योग्य सौभाग्य दूसरे को वारिस देने योग्य बनने के अनुभव से वह पुलकित नहीं हुई। उसकी भावनाएँ बड़ी अजीब ही थी। अपने एकांत और साफ-सुथरे जिन्दगी में तूफान आया जैसे फड़फड़ाहट उसे दूर करने जैसे लड़ाई।

‘‘नहीं.....नहीं.......नहीं......।

‘‘यामिनी यहां देखो.......”

‘‘मुझे मत छुओ! अपने सिर को हिलाकर उसने गर्दन ऊंची की, उसका आँखों को फाड़कर देखना बहुत ही भयंकर लगा |

***