लोभिन
मीना पाठक
(3)
गर्मियों के दिन थे | दोनों जेठानियाँ बच्चों के साथ मायके गयीं थीं | घर में बस सास-ससुर और नौकर-चाकर थे | पति तो रात के अंधेरे में भूत की तरह उजागर हो जाता और सुबह नीचे उतर कर गायब हो जाता | इधर मनोहर का आना-जाना बढ़ गया था | कुसुम ने हिदायत भी दी थी कि अब उस घर की तरफ आँख उठा कर भी ना देखे पर वह नहीं माना | मनोहर के आते ही सुधा खिल उठती थी |
धीरे-धीरे नौकरों में खुसुर-फुसुर होने लगी थी, छोटी बहू और मनोहर को ले कर; पर किसी की हिम्मत नहीं थी कुछ कहने की |
वट सावित्री का त्यौहार नजदीक आ रहा था | सुधा का पहला व्रत था, उसी की खरीदारी करने सासू माँ ससुर जी के साथ बाजार गयीं हुई थीं | उसी समय मनोहर घर में आ गया और सीधे सुधा के कमरे में चला गया | पूरा घर खाली देख कर वह सुधा से लिपट गया सुधा भी बेल की तरह उससे लिपटती चली गयी | नर्म मुलायम मखमली बिस्तर, एयरकंडीशनर की ठंडक और बाँहों में सुधा ! मनोहर सुध-बुध खो कर सुधा को अपनी बाँहों में कसता चला गया |
थोड़ी देर बाद जैसे ही वह कमरे से बाहर निकला सामने सुधा की सास को देख कर उसे पसीना छलक आया | वह लंबे-लंबे डग भरता हुआ बाहर निकल गया |
मिसेज शर्मा मनोहर को यूँ बहू के कमरे से निकल कर जाते हुए देख कर चौंक पड़ीं | उनका माथा ठनक गया | वह तेजी से सुधा के कमरे की तरफ बढ गयीं | जैसे ही वह कमरे में पहुँचीं उनके पाँवो तले ज़मीन खिसक गयी | सुधा को अस्त-व्यस्त देख वह सब समझ गयीं | सुधा भी सपनी सास को देख कर स्तब्ध रह गयी | उसे लगा कि किसी ने उसे बीच चौराहे पर नंगा कर दिया हो और लोग उसे पत्थर मार रहे हों | सास की आँखों से अंगारे बरस रहे थे | वह चल कर उसके पास आई और खींच कर एक जोर का थप्पड़ उसके गाल पर रसीद कर दिया और बिना कुछ कहे बाहर चली गयी | थोड़ी देर बाद ही आनन-फानन में सभी नौकरों को दो दिन की छुट्टी दे दी गयी |
सुधा अपना चेहरा घुटनों में छुपाये रोये जा रही थी | वह शर्म से पानी-पानी हो गयी थी | क्या मुंह दिखाएगी वह अब सबको, माँ ने उसे किस जंजाल में फँसा दिया था, इससे अच्छा तो वह किसी नदी-नाले में ढकेल दी होती मुझे, कितना मना किया; पर किसीने मेरी एक ना सुनी | वह फफक-फफक कर रोती जा रही थी कि तभी किसीने उसको जोर से झकझोरा | आँसुओं से भीगा चेहरा उठा कर देखा तो सामने माँ थी |
“निर्लज्ज कहीं की ! कितना समझाया था मैंने कि अब मनोहर से मिलना-जुलना बंद कर दे पर तू नहीं मानी..कहीं का नहीं छोड़ा तूने.. अपनी बहन का भी नहीं सोचा ..अब मैं इन लोगो को क्या जवाब दूँ..? तूने तो मेरे मुंह पर कालिख मल दी..बे-हया !..बदचलन ! कुसुम उसे पागलों की तरह पीटती जा रही थी | अंत में अपना सिर पीट कर रोने लगी | सुधा को जैसे काठ मार गया | वह पत्थर की मूरत बनी माँ को देखती रही, उसके आँसू सूख गए थे, दिल दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था |
कुसुम सुधा के पास से उठ कर नीचे आ गयी -
“ले जा अपनी बदचलन बेटी को..नहीं चाहिए मुझे ऐसी बहू..हमने तुम लोगो को गंदी नाली से उठा कर महल में पहुँचा दिया, तुम लोगों की जिंदगी बदल दी, रहन-सहन पहनावा सब कुछ बदल दिया और तुम लोगों ने मुंह दिखाने लायक भी नहीं छोड़ा हमें |” मिसेज शर्मा चीख पड़ीं, उन्होंने ही फोन करके उसे बुलाया था |
“बच्ची है..गलती हो गयी है उससे.. मैं समझाऊँगी..आगे से ऐसी गलती कभी नहीं करेगी वह |” कुसुम हाथ जोड़ कर घिघियाती हुई बोली | उसे अपना राज-पाट हाथ से निकलता दिखाई दे रहा था |
शर्मा जी सिर पर हाथ धरे सन्न-गन्न बैठे थे | इस माहौल में उनके मुंह से बोल नहीं फूट रहे थे | तभी मिसेज शर्मा फिर चीखीं ..|
“अपनी बेटी को ले और दफ़ा हो इस घर से |” वह क्रोध से थर-थर काँप रहीं थीं | तभी शर्मा जी उठे और पत्नी के कन्धे पर हाथ रख कर उन्हें शांत रहने को कहा | उन्होंने कुसुम की ओर देख कर कहा “आप आज जाइए..कल इस विषय पर बात करेंगे, आज ‘यह’ अपने होश में नहीं है |”
कुसुम हाथ जोड़े कमरे से निकल गयी | उन्होंने पत्नी को पानी पिलाया और कहा, “घर की इज्जत की बात है..तुम्हारे इस तरह चीखने चिल्लाने से बात बाहर तक जाएगी और हमलोग किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे | शान्ति से कोई रास्ता निकालते हैं पर खबरदार जो किसी भी लड़के को कुछ बताया ! बात बढ़ाने से बढ़ेगी और हमें बात को घर के बाहर नहीं जाने देना है, बेटों को पता चल गया तो गज़ब हो जाएगा !”
मिसेज शर्मा ने सहमति में अपना सिर हिलाया और शर्मा जी के सीने से लग कर रो पड़ीं |
*
दोपहर से रात हो चली थी | सुधा वहीं पत्थर की मूरत बनी मौन बैठी थी कि तभी पर्दा हटा कर कोई आया | वह यूँ ही बैठी रही तभी उसके सामने वही कंकाल आ कर खड़ा हो गया जिसे घर में सब निहाल कहते थे | उसे सुधा की भावनाओं से कभी कुछ लेना-देना नहीं था वह तो एक आहार थी, उसके देह की भूख मिटाने के लिए और इस आहार के लिए ही उसकी माँ का जीवन सुधर गया था | दुनिया की नजरों में वह भी सुखी थी; पर आहार बनते हुए वह हर बार कितनी पीड़ा से गुजरती थी, ये तो उसे जन्म देने वाली माँ भी नहीं समझती थी | मनोहर के साथ कुछ पल बिता कर वह सब कुछ भूल जाती थी; पर मनोहर भी उसे इस हाल में छोड़ कर भाग गया था | माँ ने उसे ब्याह कर अपना बुढ़ापा सुरक्षित कर लिया, मनोहर ने अवसर का लाभ उठाया और ससुराल वालों ने पैसे के बल-बूते अपना खोटा सिक्का भी चला दिया था | पर किसी ने भी उसके बारे में नहीं सोचा कि वह क्या चाहती है ? अब वह कल का सूरज कैसे देखेगी ? किस-किस को जवाब देगी ? सभी के हिकारत भरी नज़रों का सामना नहीं कर सकेगी वह | उसके भीतर मौन मंथन चल रहा था कि तभी उसके पति ने उसकी कलाई पकड़ कर खींचा, वह खिंचती चली गयी | एक बार फिर से सैकड़ों जोंक उससे लिपट गयीं | इस बार उसने मनोहर को याद नहीं किया | उस अस्तिपिंजर के नीचे दबी उन जोंको का लिजलिजापन महसूस करती रही जो उसके ऊपर रेंग रही थीं | वह उनसे बिधती रही | मसाले की गंध अपनी साँसों में भरती रही | वह पीड़ा से कराह उठी | उसने आँखे खोल दी | घड़ी देखा तो रात के तीन बजे थे |
उसने पलंग पर पड़े हुए अपने पति को देखा जो निद्रा की आगोश में जा चुका था, फिर छत्त की ओर देखा..पंखा मौन सब कुछ देख रहा था..दीवारें साँस रोके खड़ी थीं..पर्दे थरथरा रहे थे..ए.सी. की हवा उसके आहत जिस्म को सहला रही थी..और सुधा ! उसे अपने से घिन आ रही थी.. नफरत हो रही थी स्वयं से, अब वह ना तो किसी की बेटी थी, ना पत्नी, ना प्रेमिका..उसका जीवन अब उस मोड़ पर आ गया था जहाँ पर आगे कुंआँ तो पीछे खाई थी, दूर-दूर तक अँधेरा, कहीं कोई रौशनी की किरण नजर नहीं आ रही थी | अचानक उसने एक निर्णय लिया और पलंग पर बिखरे अपने आस्तित्व के टुकड़ों को समेटने लगी |
*
रात भर कुसुम को नींद नहीं आई | ये क्या किया सुधा ने ! मनोहर को भी उसने कितना डांटा था पर उसने भी उसकी एक ना सुनी | बड़ी बेटी भी उसी को भला बुरा कह गयी थी | अगर उन लोगो ने सुधा को घर से निकाल दिया तो उसके सिर से यह छत्त भी चली जायेगी और फिर से वही झुग्गी और झूठे बर्तन ! अब वह नहीं कर पाएगी | जो गुजरा जीवन वह भूल चुकी थी दुबारा जीना ना पड़ जाय ! नहीं-नहीं, वह ऐसा नहीं होने देगी..अब दुबारा वह किसी की चाकरी नहीं करना चाहती थी ..यही सब सोचते-सोचते पूरी रात निकल गयी | सुबह पाँच बजे ही कुसुम का फोन बज उठा | शर्मा जी का फोन था | उसका दिल धड़क उठा, उन्होंने उसे तुरंत बुलाया था | कुसुम जल्दी से घर लॉक कर निकल गयी | सुधा के बंगले पर भीड़ देख कर किसी अनहोनी की आशंका से डर गयी कुसुम, ऑटो से उतर कर भीड़ को चीरती हुई जैसे ही ड्राइंगरूम में पहुँची, पूरा परिवार सिर पर हाथ रखे बैठा था |
सुधा की सास उसे देखते ही उसकी कलाई पकड़ कर खींचती हुई सुधा के कमरे की ओर बढ़ गयी |
अचानक एक जोर की चीख वातावरण में गूँज गयी ..
“अरे मार डाला रे ! मेरी फूल सी बच्ची को..इन दहेज के लोभियों ने |”
शर्मा जी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी | कुसुम की चीख और दूर से आती हुई सायरन की आवाज सुन कर भीड़ में खुसुर-फुसुर शुरू हो गयी |
*
छ: महीने हो गए थे | पूरा शर्मा परिवार यहाँ-वहाँ भागा-भागा फिर रहा था | बच्चों की पढाई रुक गयी थी | सब के सिर पर गिरफ्तारी की तलवार हर वक्त लटकी रहती थीं | दस दिन इस रिश्तेदारी तो दस दिन उस रिश्तेदारी में भाग-भाग कर वह थक गए थे | उस दिन फोन पर वह अपनी बहन को कुछ धीरे-धीरे समझा रहे थे |
*
घंटी की आवाज सुन कर कुसुम ने जा कर गेट खोल दिया | सामने अपनी पुरानी मालकिन को देख कर पहले तो ठिठकी फिर रूखे स्वर में बोली - "जी कहिये |"
"भीतर आने को नहीं कहोगी ?"
"आइये |" कुसुम ने थोड़ा सा हट कर उन्हें भीतर आने का रस्ता दे दिया |
भीतर आ कर वह बड़े गौर से उसका घर देखते हुए बोली –“तेरे तो बड़े ठाट है री..! भैया ने तुझे कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया और तूने उन्हीं को घर से बे-घर कर दिया ?..आज वह दर-दर भटक रहे हैं और तू यहाँ चैन की बंसी बजा रही है |”
“मेरी बच्ची के हत्यारे कभी चैन से नहीं रह सकेगें, चली जाइए आप नहीं तो आप का नाम भी लिखवाने में मुझे देर न लगेगी |” रोष में बोली कुसुम |
“एक तमाचा लगाऊँगी तो चेहरा बिगड़ जायेगा तेरा..अपनी औकात भूल गयी तू.. मेरे देवता समान भाई पर झूठा आरोप लगाया है तूने..सच्चाई क्या है ये तू भी जानती है और मैं भी..ये ले और अपना झूठा केस वापस ले..ताकि मेरे भैया सुकून से अपने घर में परिवार के साथ रह सकें |” अपने बैग से अखबार में लिपटा एक भारी-सा बण्डल कुसुम के मुँह पर फैंका उसने | कुसुम अखबार खोल कर देखने लगी, चेहरे पर कई रंग आए और चले गए फिर मालकिन की ओर देख कर बोली, “बस इतना ही ?”
“मुझे पता था कि तू यही कहेगी पर पहले केस वापस ले फिर इतना ही और मिल जाएगा तुझे | वैसे तेरे जैसी लोभिन मैंने जिंदगी में नहीं देखी..जिसने अपनी मरी हुई बेटी का भी सौदा कर लिया हो..धिक्कार है तुझ पर..धिक्कार है !”
खट्ट की आवाज से पंखा रुक गया..उसकी आँखें पंखे पर स्थिर थीं.. वृद्धाश्रम की बिजली फिर चली गयी थी |
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