Advertisement of fear and Myth. - 2 - 6 in Hindi Motivational Stories by Lakshmi Narayan Panna books and stories PDF | भय और आडम्बर का प्रचार - मर गया वह पत्थरदिल इंशान - 2 - 6

Featured Books
  • પ્રેમ સમાધિ - પ્રકરણ-122

    પ્રેમ સમાધિ પ્રકરણ-122 બધાં જમી પરવાર્યા.... પછી વિજયે કહ્યુ...

  • સિંઘમ અગેન

    સિંઘમ અગેન- રાકેશ ઠક્કર       જો ‘સિંઘમ અગેન’ 2024 ની દિવાળી...

  • સરખામણી

    સરખામણી એટલે તુલના , મુકાબલો..માનવી નો સ્વભાવ જ છે સરખામણી ક...

  • ભાગવત રહસ્ય - 109

    ભાગવત રહસ્ય-૧૦૯   જીવ હાય-હાય કરતો એકલો જ જાય છે. અંતકાળે યમ...

  • ખજાનો - 76

    બધા એક સાથે જ બોલી ઉઠ્યા. દરેકના ચહેરા પર ગજબ નો આનંદ જોઈ, ડ...

Categories
Share

भय और आडम्बर का प्रचार - मर गया वह पत्थरदिल इंशान - 2 - 6

Part-6
पत्थर न पूजने से शायद ही हमारा कोई नुकसान हो लेकिन अगर प्रकृति नष्ट हुई तो हमारा अस्तित्व ही नही रहेगा । मतलब कि ईश्वर का अस्तित्व भी तब तक ही है जब तक मनुष्य का । ईश्वर अपने अस्तित्व के लिए मनुष्य को जिंदा रखेगा यह सब इस प्रकृति से ही सम्भव है । तब मुझे एक जवाब मिला कि ईश्वर कोई पत्थर नही यह प्रकृति ही वास्तविक ईश्वर है ।इसी में हमारे हर प्रश्न का जवाब है , हमारी हर समस्या का हल है , हर रोग की दवा है , हर कष्ट का निवारण है । हम हैं कि इस प्रकृति के एक छोटे से अंश पत्थर को आकर देकर पूजते हैं , उसके आगे गिड़गिड़ाते हैं । पूरा वातावरण गन्दा करते हैं , अपने घर का कचड़ा दूसरे के दरवाजे फेंक देते हैं , अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए वृक्ष काट देते हैं ।
प्रकृति का पूरा सन्तुलन बिगाड़ने पर आमादा मनुष्य , पत्थरों को खुश करने में लगा हुआ है । मैं यह नही कहता कि प्राकृतिक वस्तुओं का उपभोग न करें । परन्तु प्रकृति से जो अंश हम लेते हैं उसका संरक्षण भी तो हमारी जिम्मेदारी है । वृक्ष के बदले वृक्ष लगाएं , घास फूस व अन्य वनस्पतियों को भी संरक्षित करें । अक्सर ऐसा देखा जाता है कि व्यक्ति अपनी जरूरत के पेड़-पौधों के अतिरिक्त अन्य पेड़-पौधे नही लगाना चाहता । जबकि प्रकृति के सन्तुलन के लिए जैवविविधता आवश्यक है । पर्याप्त जल स्रोतों का होना भी नितांत आवश्यक है । चूँकि हमारे देश के अधिकतर भागों में जल की प्रचुर उपलब्धता है इसलिए यहाँ लोग इसकी कीमत नही समझते ।
मुझे भी जल का महत्व , इसकी कीमत तब समझ में आई जब ईर्ष्यावश मेरे पट्टीदारों ने साझे के नलकूप से भी सिंचाई के लिए पानी देने से इनकार कर दिया । किराये पर जीन पाइप ला करके काफी दूर से पानी की व्यवस्था करनी पड़ी । उन दिनों बारिश भी मतलब भर की हो जाया करती थी , इसलिए बहुत दिक्कत नही हुई । पानी को लेकर मेरे साथ एक घटना और हुई जिसने मेरे सोंचने का नजरिया ही बदल डाला । जिस समय मुझे सिंचाई के लिए पानी देने से मना किया गया उसी समय कुछ लोगों ने मेरे पट्टीदारों की सह में मेरे घर के बरसाती पानी का निकास प्रतिबंधित कर दिया । उनका कहना था कि कच्ची नाली से जब पानी निकलता है तो उनके घर में घुसता है , इसलिए मुझ पर पक्की नाली बनाने के लिए दबाब बनाने लगे । जानबूझकर मुझे परेशान किया जाने लगा जबकि बारिश केवल मेरे घर तो होती नही थी कि उनके घर में मेरी वजह से पानी जाता हो । पानी का निकास न होने से बरसाती पानी घर के पास ही जमा रहता । जिससे मच्छर पनपने लगे आने-जाने वालों को भी दिक्कत होने लगी लेकिन जल निकासी के सब प्रयास विफल होते गए । मैंने स्थानीय थाने पर इसकी शिकायत की परन्तु कुछ नही हुआ । जब ग्राम प्रधान का चुनाव नजदीक आया । प्रधान प्रत्यासी वोट के लिए आने लगे तो मैंने पक्की नाली बनवाने की शर्त रखी । एक प्रत्यासी ने मुझे भरोसा दिलाया कि यदि वह प्रधान बनता है तो सबसे पहले नाली बनवाकर जल निकासी की व्यवस्था करेगा । अंततः वह प्रत्यासी जीता , उसने नाली बनवाई , इस प्रकार मेरी समस्या का समाधान हुआ ।
उस समय जो लोग बारिश के पानी का सारा दोष मुझ पर मढ़ते थे , वही आज पानी की कमी से परेशान हैं । जो लोग पहले मुझे सिंचाई के लिए पानी नही देते थे । कम जलवृष्टि के कारण तमाम खर्च के बावजूद सिंचाई नही कर पा रहे हैं । लोगों ने अपने स्वार्थवश छायादार वृक्ष काटकर , यूकेलिप्टस जैसे पेड़ लगा दिए जिस कारण जल स्तर गिर गया । इसकी वजह से लोगों ने प्रारम्भ में तो खूब पैसा कमाया परन्तु अब समस्या यह है कि फसल उत्पादन के लिए आवश्यक जल की किल्लत हो गई । अपने प्रकृति प्रेम के कारण मैंने कई पेड़ लगाए । लोगों ने ईर्ष्यावश उन्हें भी तोड़ा , फिर भी मेरे लगाए कई पेड़ बड़े हो चुके हैं ।
एक दिन मैं नीम के पेड़ की छांव में बैठा था , तब मुझे उन दिनों की याद आई जब गाँव में हर घर में एक दो आम या नीम के पेड़ हुआ करते थे । सावन के दिनों में झूला भी नीम के पेड़ पर पड़ता था । गाँव के बाहर एक सरकारी हैण्डपम्प था , उसी के पास नीम के दो पेड़ थे । दोपहर को हैण्डपम्प के पास काफी दूर तक उनकी छाँव रहती थी । खेतों से लौटकर लोग अपनी-अपनी बाल्टी और लोटा लेकर वहीं पहुँचते और नहाते-धोते । घर पर पीने के लिए भी वही से शीतल जल ले जाते । फिर एक दिन गाँव में भयंकर आग लगी लगभग सभी घर राख का ढेर हो गए । लोगों ने बच्चों और मवेशियों को तो बचा लिया , परन्तु वे सारे पेड़ इतना झुलस गए कि पुनः उन पर हरियाली नही आई । लोगों ने पुनः घर बनाये , जरूरत का सारा सामान पुनः ले आये । परन्तु पेड़ कुछ एक लोगों ने ही लगाए । पेड़ खत्म हुए , शाम को लोगों का एकसाथ बैठना खत्म हो गया । इसी के साथ लोगों का आपसी प्रेम भाव भी खत्म हो गया ।
जब लोग एक दूसरे के साथ बैठते थे तो एक-दूसरे का दुःख-दर्द भी सुनते-सुनाते थे । बड़े-बुजुर्ग अपना अनुभव और ज्ञान साझा करते , प्राकृतिक जड़ी-बूटियों की जानकारी भी मिलती थी । पेड़ों के खत्म होने से यह सब खत्म हो गया । लोग आत्मकेंद्रित हो गए , दूसरों को खुश देखकर उनमें ईर्ष्या का भाव आने लगा । आपसी प्रेम और भाईचारा खत्म हो गया ।
अब जब कभी लोग एक जगह एकत्र भी होते हैं तो उनकी चर्चा सामान्यतः हिन्दू-मुस्लिम और मंदिर-मस्जिद , हिंदुस्तान-पाकिस्तान या क्रिकेट-सिनेमा तक सीमित हो जाती है । पत्थर पूजते-पूजते मानवता मर गई , प्रकृति से प्रेम खत्म हो गया । रह गया पत्थर का घर , मन्दिर , भगवान , और "पत्थर दिल इन्शान" ।
यह सब समझने के बाद मेरे मन मस्तिष्क से उस पत्थर की मूर्ति का भय खत्म हुआ , मानवता धीरे-धीरे जीवित होने लगी , प्रकृति से प्रेम हुआ और मुझ में से मर गया वह पत्थर दिल इन्शान ।
कलमकार
( लक्ष्मी नारायण "पन्ना" )

समाप्त
पाठकों को सहृदय धन्यवाद!