खुशियों की आहट
हरीश कुमार 'अमित'
(7)
अगले दिन शाम के छह बजे के आसपास मोहित क्रिकेट खेलने जाने के लिए तैयार हो ही रहा था कि दरवाज़े की घंटी बजी. कुछ पल बाद दरवाज़ा खोलने की आवाज़ आई. 'कौन हो सकता है?' मोहित के मन में सवाल उभरा. तभी उसे पापा की आवाज़ सुनाई दी.
'पापा! इस समय!' वह चौंक पड़ा. अपने कमरे से बाहर निकलकर वह ड्राइंगरुम में आया. सिर्फ़ पापा ही नहीं मम्मी भी थीं. पापा ने एक डिब्बा पकड़ा हुआ था. मोहित उन दोनों की तरफ़ बढ़ने लगा.
''देखो मोहित, लैपटॉप आ गया.'' मम्मी की आवाज़ से ख़ुशी झलक रही थी.
पापा ने डिब्बा हाथ में पकड़े-पकड़े मुस्कुराकर मोहित की ओर देखा और अपने कमरे की ओर बढ़ने लगे. मम्मी और वह भी पापा के पीछे-पीछे उसी कमरे की ओर चल पड़े.
कमरे में पहुँच पापा ने डिब्बा खोलकर लैपटॉप निकाला और उसकी तार वगैरह जोड़ने लगे.
''आप लोग इतनी जल्दी कैसे आ गए पापा?'' मोहित पूछने लगा.
पापा लैपटॉप में व्यस्त थे. मोहित की बात का जवाब मम्मी ने दिया, ''बेटू, आज हम दोनों अपने-अपने ऑफिस से जल्दी निकलकर यह लैपटॉप खरीदने गए थे.'' मोहित को लगा मम्मी जैसे खुशी से चहक रही हैं.
''कितने का मिला है यह लैपटॉप?'' मोहित ने लैपटॉप को हाथ से हल्के-से छूते हुए कहा.
''चालीस हज़ार का पड़ा है बेटा.'' पापा ने व्यस्तता से उत्तर दिया.
''अभी तो मुफ्त में ही मिला है.'' मम्मी ने हँसते हुए कहा.
''वो कैसे मम्मी?'' मोहित को उत्सुकता हो आई.
''अभी तो क्रेडिट कार्ड पर ख़रीदा है न बेटू. पैसे तो अगले महीने देने हैं.'' मम्मी मुस्कुराते हुए बोलीं.
तभी शांतिबाई एक ट्रे में पानी ले आई. सबने पानी पिया.
''शांतिबाई, चाय बना लो जल्दी से. फिर जाना है मुझे.'' पापा ने शांतिबाई से कहा.
तभी मोहित के मन में न जाने क्या आया कि वह कहने लगा, ''मैं भी पियूँगा चाय!''
''चलो, ठीक है. पी लेना. लैपटॉप आने की खुशी में.'' मम्मी ने हँसते हुए कहा. फिर शांतिबाई से बोलीं, ''इसके लिए ज़्यादा दूध वाली.''
शांतिबाई 'अच्छा मेमसाहब' कहती हुई पानी के खाली गिलास लेकर कमरे से बाहर निकल गई.
तभी मम्मी को जैसे कुछ याद आया. उन्होंने पलंग पर पड़े थैले में से एक पैकेट निकाला और उसे खोलने लगीं. वह मिठाई का डिब्बा था.
''लो बेटू, लैपटॉप आने की खुशी में मिठाई खाओ.'' मम्मी ने मिठाई के डिब्बे का ढक्कन हटाते हुए कहा.
मोहित ने देखा, डिब्बे में काजू की बरफी थी. मम्मी ने ख़ुद ही बरफी के दो टुकड़े उठाकर मोहित को दे दिए और फिर डिब्बा पापा की ओर बढ़ाया.
''बाद में खाऊँगा. अभी हाथ खराब हो जाएँगे.'' पापा अब भी लैपटॉप में उलझे हुए थे.
''चलो, मुँह खोलो.'' कहते हुए मम्मी ने बरफी के दो टुकड़े पापा के मुँह में डाल दिए और खिलखिलाने लगीं.
पापा मुस्कुराते हुए मिठाई खाने लगे.
तभी मम्मी कहने लगीं, ''अभी अपनी सारी फ्रेंड्स को फोन पर बताती हूँ कि हमने भी ले लिया है लैपटॉप. बड़ी डींगें मारा करती हैं न लैपटॉप की!''
''पर ध्यान रखना, फोन पर इतनी लम्बी बातें मत करना कि फोन का बिल इस लैपटॉप की कीमत से ज़्यादा आ जाए.'' पापा ने हँसते हुए कहा.
लैपटॉप अब काम करने की हालत में आ गया था. पापा उसे चलाकर देख रहे थे. उसने भी लैपटॉप के दो-चार बटन दबाकर देखे.
तभी शांतिबाई ने कमरे में आकर कहा कि डाइनिंग टेबल पर चाय लगा दी है. शांतिबाई की बात सुनते ही पापा ने लैपटॉप को पलंग पर रखा और खड़े हो गए. फिर मम्मी से बोले, ''भई, मैं तो चाय पीकर निकल रहा हूँ ट्यूशन के लिए. ध्यान रखना लैपटॉप का.''
मम्मी ने बरफी का एक टुकड़ा शांतिबाई को दिया और फिर पूरा डिब्बा उसे थमाती हुई कहने लगीं, ''फ्रिज में रख दो इसे. लैपटॉप की बधाई देने आएँगे न लोग तो खिलाएँगे सबको.''
शांतिबाई डिब्बा लेकर रसोई की तरफ़ चली गई. पापा, मम्मी ओर वह डाइनिंग टेबल की ओर बढ़ चले.
मोहित को लगा आज बहुत दिनों बाद घर खुशियों से चहचहा रहा था. मम्मी तो ऐसी ख़ुश थी कि पूछो मत. यह सब लैपटॉप का ही तो कमाल था. मगर न जाने क्यों मोहित को लैपटॉप आने से कोई ज़्यादा ख़ुशी हो नहीं रही थी. घर में दो-दो कम्प्यूटर पहले से ही थे. एक उसके कमरे में और एक मम्मी-पापा के कमरे में. लैपटॉप की ज़रूरत ही क्या थी?
पापा जल्दी-जल्दी चाय पी रहे थे. उन्हें ट्यूशन पढ़ाने जो जाना था. मोहित को कभी-कभार ही चाय पीने दी जाती थी और वह भी ज़्यादा दूध वाली.
चाय पीकर पापा ट्यूशन पढ़ाने चले गए, तो मम्मी फोन की तरफ़ लपकीं. मोहित समझ गया कि वे अब अपनी सब सहेलियों को फोन कर-करके लैपटॉप खरीद लेने वाली बात बताएँगी और उन्हें अपने यहाँ बुलाएँगीं भी मिठाई खाने के बहाने ताकि अपना नया लैपटॉप दिखाया जा सके.
वह अपने कमरे में आ गया. उसने अपना मोबाइल फोन देखा. उसके दोस्तों की तीन-चार मिस कॉल्स थीं. 'अरे! लैपटॉप के चक्कर में क्रिकेट खेलने जाना तो मैं भूल ही गया!' उसके दिमाग़ में आया. पौने सात बज चुके थे. 'अब इस वक्त क्या जाना' सोचते हुए उसने क्रिकेट खेलने के लिए न जाने की बात सोच ली और फोन उठाकर अजय को बता भी दिया. अजय के उसके न आने की वजह पूछने पर उसने लैपटॉप वाली बात बता दी.
फिर वह स्टडी टेबल पर बैठ गया और अपना होमवर्क पूरा करने लगा. सामाजिक विज्ञान का काम करते समय वह एक जगह ठिठका. उसे लगा मम्मी से कुछ पूछ लेना ठीक रहेगा. वह अपनी किताब लेकर मम्मी-पापा के कमरे की तरफ़ बढ़ा भी, पर उसने देखा कि मम्मी पलंग पर लेटी हुई किसी से लैपटॉप के बारे में बातें किए जा रही थीं. मम्मी ने मोहित को नहीं देखा था क्योंकि दरवाज़े की तरफ़ उनकी पीठ थी. मोहित चुपचाप वापिस अपने कमरे में आ गया और अपनी पढ़ाई में लग गया.
***
लैपटॉप खरीदने के तीन दिन बाद की बात है. शुक्रवार का दिन था. मोहित स्कूल से वापिस आया तो देखा घर में मम्मी-पापा दोनों मौजूद थे. दोनों जैसे कहीं जाने के लिए तैयार हो रहे थे. उन दोनों को दफ्तर वाले दिन उस वक्त घर में मौजूद देखकर मोहित हैरान रह गया.
तभी मम्मी उसे कहने लगीं, ''मोहित, मुँह-हाथ धोकर कपड़े बदल लो. हम लोग कनॉट प्लेस चलेंगे. लंच भी वहीं करेंगे.''
''क्यों मम्मी, कनॉट प्लेस क्यों जाना है?'' मोहित पूछने लगा.
''अरे, लैपटॉप नहीं खरीदा क्या? उसकी पार्टी दे रही हूँ मैं तुम्हारे पापा को और तुम्हें.'' मम्मी ने खुशी से चहकते हुए कहा.
मोहित अपने कमरे में जाकर तैयार होने लगा. उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि लैपटॉप खरीदने की बात पर इतना खुश होने की क्या बात है. और चलो, अगर लैपटॉप खरीदने की खुशी है भी, तो उसके लिए पार्टी देने की क्या ज़रूरत है? मम्मी-पापा के पास ऐसी पार्टियों के लिए तो टाइम निकल आता है, पर उसकी पढ़ाई के लिए इनके पास हमेशा टाइम नहीं होता. बस ये पूछ लेने से कि होमवर्क कर लिया, टैस्ट की तैयारी हो गई, तो उसे कुछ मदद नहीं मिलती न. अगर टैस्ट या एग्ज़ाम अच्छा हो जाए, तो शाबासी दे देंगे और कोई खाने-पीने की बढ़िया-सी चीज़ ले आएंगे या कोई कीमती चीज़ ला देंगे. और अगर उसका कोई टैस्ट या एग्ज़ाम ख़राब हुआ हो, तो दो-चार मिनट उसे डॉट लेंगे और फिर एक-दूसरे पर दोष लगाते रहेंगे, बस. अगर उसके मम्मी-पापा हर रोज़ एक घंटा भी उसे पढ़ाई करवाएँ, तो क्लास में उसकी पोजीशन बहुत सुधर सकती है, लेकिन न तो पापा के पास टाइम है उसके लिए और न मम्मी के पास.
वह इन्हीं ख़यालों में खोया था कि मम्मी ने उसे आवाज़ दी, ''बेटू हो गए तैयार?''
''बस, आ रहा हूँ मम्मी.'' मोहित ने शीशे में देखकर कंघी करते हुए कहा.
कुछ ही देर में वे तीनों कार में बैठे कनॉट प्लेस की ओर जा रहे थे. पापा गाड़ी चला रहे थे. आज वह बहुत दिनों बाद मम्मी-पापा के साथ घर से बाहर निकला था.
वे लोग कनॉट प्लेस पहुँचे तो साढ़े तीन बजने वाले थे. मोहित को बड़ी तेज़ भूख लग रही थी. पहले तो दोपहर को स्कूल से आते ही वह खाना खा लिया करता था, पर आज कनॉट प्लेस जाने के लिए तैयार होने में ही लगा रहा और उसने घर आकर कुछ भी खाया नहीं था.
''मम्मी, पहले खाना खा लेते हैं, भूख लगी है बड़ी ज़ोर की.'' उससे रहा नहीं गया तो वह मम्मी से कहने लगा.
''हाँ, बेटू. पहले खाना ही खाने चलेंगे.'' मम्मी ने बड़े मुलायम स्वर में कहा.
''कहाँ चलें?'' पापा ने पूछा.
''इसी सामने वाले रेस्टोरेंट में चलते हैं.'' इससे पहले कि मम्मी कुछ कहतीं, मोहित बोल उठा. दरअसल उससे भूख बर्दाश्त नहीं हो पा रही थी.
''अरे, रेस्टोरेंट में क्यों? किसी अच्छे-से होटल में चलेंगे. आखिर लैपटॉप लिया है.'' मम्मी ने हँसते हुए कहा.
''और क्या, रोज़-रोज़ थोड़ा ही लेना होता है लैपटॉप.'' पापा ने भी मुस्कुराते हुए मम्मी की हाँ में हाँ मिलाई.
मनपसन्द होटल पहुँचते-पहुँचते पाँच-सात मिनट और लग गए. भूख के मारे मोहित का बुरा हाल हो रहा था, पर खाना आने तक तो सब्र करना ज़रूरी था न.
अपनी-अपनी पसन्द का खाना खाने के बाद वे लोग होटल से निकले. मम्मी ने मोहित से पूछा, ''आओ तुम्हें लैपटॉप लेने की खुशी में एक जींस और शर्ट ले देती हूँ.''
मम्मी की बात सुनकर पापा एकदम से बोल उठे, ''अरे वाह, मोहित को तो जींस-शर्ट लेकर दे रही हो और मुझे कुछ भी नहीं!''
''अरे, ऐसा कैसे हो सकता है. आपको भी कुछ तो ज़रूर मिलेगा.'' मम्मी ने मुस्कुराते हुए कहा.
''बताओ तो सही, क्या मिलेगा मुझे?'' उत्सुकता से पूछा पापा ने.
''क्रेडिट कार्ड का बिल. बेटू की जींस-शर्ट आपके क्रेडिट कार्ड से ही तो खरीदी जाएँगी जनाब!'' मम्मी ने हँसते हुए कहा, तो पापा भी हँसने लगे.
मम्मी-पापा का साथ देने के लिए मोहित को भी हँसना पड़ा, पर उसे जींस-शर्ट खरीदने का कोई चाव महसूस हो नहीं रहा था. उसके पास तो ढेरों कपड़े पहले से ही थे. कुछ कपड़ों को पहनने की बारी तो कई-कई महीनों बाद आती थी. उसके ज़्यादातर कपड़े तो उसका कद बढ़ने के साथ-साथ छोटे पड़ जाते थे, जिन्हें किसी ज़रूरतमंद को दे देना पड़ता.
वे एक बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर में गए जहाँ मम्मी ने मोहित की पसन्द की जींस-शर्ट खरीद दीं. फिर मम्मी ने पापा को भी कहा कि वे अपनी पसन्द की कोई कमीज़ ख़रीद लें.
इस पर पापा कहने लगे,’षीाॅपत ''भई, मेरे पास तो बहुत सारी कमीज़ें पहले से ही हैं. मैं क्या करूँगा एक और कमीज़ लेकर?''
यह सुनकर मम्मी बोलीं, ''एक शर्ट तो आपको लेनी ही पड़ेगी. यह मेरी तरफ़ से है - लैपटॉप खरीदने की खुशी में.''
अब पापा इन्कार न कर सके. उन्होंने अपने लिए एक कमीज़ पसन्द कर ली. उसके बाद पापा मम्मी से कहने लगे, ''अब तुम भी पसन्द करो अपने लिए कोई अच्छा सा पर्स.''
''अरे, मेरे पास कितने सारे पर्स हैं पहले से ही. मुझे नहीं चाहिए अभी.'' पापा की बात सुनकर मम्मी एकदम से कहने लगीं.
''भई, तुमने हम सबको बढ़िया खाना खिलाया है, ये कपड़े खरीदकर दिए हैं, तो हम भी लेकर देंगे न तुम्हें कुछ.'' पापा ने मुस्कुराकर कहा.
''अरे, नहीं. रहने दो.'' मम्मी थीं.
''भई, यह पर्स मेरी तरफ़ से होगा. अपनी पसन्द का छाँट लो तो ठीक है वरना मैं और मोहित जो पर्स चुन लेंगे, वही लेना पड़ेगा तुम्हें.'' पापा ने ज़रा ज़ोर देकर कहा.
इस पर मम्मी अपने लिए कोई पर्स चुनने लगीं.
तभी मोहित के मन में कुछ ख़याल आया और वह मम्मी से बोला, ''मम्मी, शांतिबाई के लिए भी ले लें कुछ?''
''अरे, छोड़ो. उसके लिए क्या लेना है.'' मम्मी पर्स पसन्द करने में व्यस्त थीं.
''मम्मी, शांतिबाई के पास गिनी-चुनी दो-तीन साडियाँ ही हैं. एक साड़ी ले लो उसके लिए.'' मोहित ने फिर कोशिश की.
''अरे छोड़ो, बेटू. उसे कोई पुरानी साड़ी दे दूँगी दीवाली पर.'' कहते-कहते मम्मी ने एक पर्स को हाथ में ले लिया और सीधी खड़ी हो गईं. मोहित समझ गया कि उन्हें यही पर्स पसन्द आ गया है.
''और कुछ भी चाहिए?'' पापा मम्मी से पूछ रहे थे.
''नहीं, बस.'' मम्मी का जवाब था.
मोहित के मन में आया कि शांतिबाई के लिए एक साड़ी ख़रीद लेने की बात वह पापा से भी कहकर देखे. शायद वे 'हाँ' कह दें इसके लिए, मगर फिर न जाने क्या सोचकर वह चुप रह गया.
बिल देने की बारी आई, तो पापा मज़ाक में मम्मी से बोले, ''करो पेमेंट भई, तुम ही लेकर आई थी हम लोगों को यहाँ.''
मम्मी ने पापा की बात का कुछ जवाब नहीं दिया. बस मुस्कुराकर रह गईं और अपना पर्स खोलकर कुछ निकालने लगीं. मोहित समझ गया कि वे रुपए या क्रेडिट कार्ड निकाल रहीं हैं.
''अरे भई, रहने दो. पेमेंट कर रहा हूँ मैं.'' कहते हुए पापा ने पर्स से क्रेडिट कार्ड निकाला और सारा भुगतान कर दिया. मोहित ने देखा कि बिल 6,230 रुपए का था.
डिपार्टमेंटल स्टोर से बाहर निकलते समय मोहित के मन में बार-बार यही बात आ रही थी कि बासठ सौ रुपए उस सामान पर ख़र्च कर दिए गए हैं, जिसकी ज़रूरत भी नहीं थी. और दूसरी तरफ़ शांतिबाई के लिए कोई छोटी-मोटी साड़ी भी नहीं खरीदी गई, जिसके पास बस दो-तीन पुरानी-धुरानी साड़ियाँ ही हैं.
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