Mannu ki vah ek raat - 20 in Hindi Love Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | मन्नू की वह एक रात - 20

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मन्नू की वह एक रात - 20

मन्नू की वह एक रात

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग - 20

‘तब तो तुम दोनों के संबंध और भी ज़्यादा उन्मुक्त और निर्द्वंद्व हो गए होंगे।’

‘हां ..... ।’

‘तो जब वह तुम दोनों का सहारा भी बन रहा था तब तो तुम्हारे लिए यह दोहरा फ़ायदा था कि कोई कभी शक भी न करता, तो फिर दूसरा लड़का क्यों गोद लिया।’

‘एक तो मैं छोटा बच्चा गोद लेना चाहती थी। दूसरे चीनू से जो रिश्ता बन पड़ा था उसे देखते हुए यह संभव ही न था।’

‘हां ये तो है। फिर ...... ?’

‘फिर इसी ऊहापोह, इनको तैयार करने की धींगामुस्ती में कुछ बरस और निकल गए। फिर एक गर्मी ऐसी आई कि यह भी बिना किसी हील-हुज़्जत के तैयार हो गए। उस साल भी हर गर्मियों कि तरह शहर में जगह-जगह संक्रामक रोग फैला हुआ था। हमारा मुहल्ला भी चपेट में आ गया। एक दिन रात को हम दोनों की ही तबियत एक साथ खाना खाने के बाद खराब हो गई। कालरा ने हम दोनों को कुछ ही घंटों में पस्त कर दिया। ज़िया को फ़ोन करने की सोची तो उनका फ़ोन डेड। फिर इन्होंने ऑफ़िस के कुछ लोगों को फ़ोन करना चाहा तो अपना फ़ोन भी खराब हो गया। फिर रात तीन बजते-बजते तक जब हालत बहुत गंभीर होने लगी तो मैं किसी तरह उठ कर पड़ोसी को बुलाने गई। पड़ोसी ने दरवाजा खोला ही था कि मैं वहीं गश खाकर गिर पड़ी। फिर वह किसी तरह मुझे लेकर घर आए, यहाँ इनकी भी हालत सीरियस देख वह सामने वाले को भी बुला लाये और हमें सिविल इमरजेंसी ले गए। हम दोनों की हालत इतनी बिगड़ गई थी कि हॉस्पिटल में हफ़्ता भर लग गया। इस बीच रिश्तेदारों को फ़ोन किया तो गोद लेने वाले प्रकरण के चलते सब नाराज थे सो सबने फ़ोन पर ही तीमारदारी का फर्ज़ निभा दिया।’

‘और तुम्हारी ज़िया का क्या हुआ उन्हें अगले दिन तो फ़ोन कर सकती थी और चीनू .... हां चीनू तो बता रही थी बड़ा काम करने लगा था।’

‘दुर्भाग्य से जिस रात यह सब हुआ उसी रात ज़िया की सास गुजर गई थीं। वह लोग अगले ही दिन सवेरे ही चले गए थे गाजी़पुर और वहां फ़ोन वगैरह कुछ न था। वह सास की तेरहवीं करके पंद्रह दिन बाद आईं। वैसे तो यह वक़्त हम दोनों के लिए बड़ा ही कष्टप्रद रहा। लेकिन एक मायने में यह बहुत अच्छा हुआ था। क्योंकि इस घटना के बाद इन्होंने बच्चे की कमी का अहसास बड़ी गहराई से किया। फिर अवसर देख मैंने एक दिन जैसे ही किसी छोटे अनाथ बच्चे को गोद लेने की बात उठाई यह तुरंत सहमत हो गए। लगा जैसे यह मेरी प्रतीक्षा ही कर रहे थे। अब सहमति मिलने के बाद अनाथ छोटे बच्चे की तलाश शुरू हुई। इस तलाश ने फिर नई दुनिया के दर्शन कराए। नए अनुभव कराए। लखनऊ जैसे शहर के अनाथालयों और वहां की अंधेरी दुनिया को देख कर लगा कि सारे बच्चों को ही उठा लाऊं और प्यार से पालूं उन्हें। मैंने जैसे बच्चे की कल्पना कर रखी थी वह इन अनाथालयों में मिल भी नहीं रहे थे।’

‘इन अनाथालयों में तुम्हें ऐसा क्या दिख गया था कि वहां की दुनिया काली दिखने लगी।’

‘इन अनाथालयों में वहां के कर्मचारी न सिर्फ़ बच्चों का शोषण करते हैं बल्कि खाने-पीने कपड़े शिक्षा आदि के लिए सरकार जो व्यवस्था करती है वह भी चट कर जाते हैं। महिला कर्मचारियों के रहने के बावजूद लड़कियों के यौन शोषण की बातें छन कर आती रहतीं ।’

‘तो फिर मन मुताबिक बच्चा तुम्हें कहां मिला।’

‘अनाथालयों के चक्कर काटते समय ही चीनू ने और रास्ते भी तलाशे। उसने पता कर बताया कि कई ऐसे नर्सिंग होम हैं जहां अवैध संतानें जन्मती हैं और कई लोग गैर-कानूनी तरीके से उन्हें गोद ले लेते हैं। लेकिन मैं तीन या चार साल से कम उम्र का बच्चा नहीं चाहती थी। इस दौड़ धूप में चार महीने और निकल गए। हमारी चिंता बढ़ती ही जा रही थी। इस बीच चीनू ने कानपुर में कहीं जुगाड़ किया। एक गरीब परिवार था। मगर उसके पास बच्चे सात थे। चुपचाप बच्चे गोद देने की तैयारी में थे। वह असल में गरीबी से तंग आकर यह कद़म उठा रहे थे।

मुझे उनका करीब तीन साल का एक बच्चा पसंद आया। आकर इनसे बात की तो यह तैयार न हुए। ये बच्चा गोद लेने के तौर-तरीके का, कानून आदि का पता कर चुके थे। इनके इंकार से मुझे धक्का लगा। फिर अनाथालय से संपर्क साधा और तय हुआ कि जैसे ही मेरा मन चाहा बच्चा आएगा हमें सूचना दे दी जाएगी। इनकी जिद के आगे मेरे सामने इंतजार के सिवा कोई और रास्ता नहीं बचा था। एक-एक दिन एक-एक युग सा बीत रहा था। दो साल से लंबा चला यह इंतजार, इस बीच चीनू यूनिवर्सिटी में पहुंच गया। वहां की नेतागिरी उसे रास आ गई।

बड़ा दबंग हो गया था वह । बडे़ संपर्क हो गए थे उसके। उसी ने कोशिश जारी रखी मगर ऐन वक़्त पर कानून आड़े आ गया। जितनी उम्र के दंपति को बच्चा गोद दिया जा सकता है कानूनन हम उस उम्र की सीमा से आगे निकल चुके थे। इस अड़चन से हम टूट से गए थे। लेकिन चीनू फिर आगे आया। उसने एक वकील और उस अनाथालय के प्लेसमेंट ऑफ़िसर को सेट कर लिया। बात बीस हज़ार में तय हुई। मगर यह मैंने इनसे नहीं बताया। मुझे डर था कि यह कहीं इतनी बड़ी घूस देने के नाम पर बिदक न जाएं। उस समय ऐसे काम के लिए यह रकम बड़ी थी। इसलिए रिश्वत का पैसा मैंने अपने पास से छिपा कर दिया। बहुत जोड़-तोड़, महीनों की दौड़ धूप के बाद अंततः मैंने अनिकेत को गोद लिया।

जिस दिन मैं इसे लेकर आई मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अनाथालय से किसी और के जने बच्चे को लेकर नहीं बल्कि हॉस्पिटल से अपने जने बच्चे को लेकर आई हूं। अनिकेत उस समय करीब-करीब तीन साल का था। गेहुंआ रंग अच्छी सेहत। तीखे नैन-नक्स, बड़े-बड़े बाल कुल मिला कर मेरे सपनों में मेरे मनपसंद बच्चे की जो तस्वीर थी यह करीब-करीब वैसा ही था। खुशी का सही मायने में मैंने अहसास उसी दिन किया। अनिकेत को लेकर घर आते-आते शाम के चार बज चुके थे। उस दिन मैंने इनका एकदम दूसरा बिल्कुल बदला हुआ रूप देखा।

जब घर पर आई तो चीनू भी साथ था आते समय ढेर सारी मिठाई-फल, खिलौने और इसके कपड़े लेकर आई थी। इन्होंने घर आने तक तो कुछ ख़ास प्रतिक्रिया नहीं दी। लगता ही नहीं था कि इनमें बच्चे को लेकर कोई उत्साह है, खुशी है, उमंग है। घर आने के बाद कुछ देर में चाय-नाश्ता कर चीनू और उसका दोस्त भी चला गया। बच्चा बड़ा गुमशुम था। बड़ी अजीब नजरों से मुझे इनको टुकुर-टुकुर देखता, मैं बड़े प्यार स्नेह से उसे प्यार-दुलार कर अपनी गोद में चिपकाए हुए थी। उसे खिलाने-पिलाने की कोशिश कर रही थी। मैं जल्दी-जल्दी उसे अपने साथ घुला-मिला लेना चाहती थी। उसको मैंने जो नए कपडे़ खरीदे थे आते समय, वह बड़े प्यार-दुलार से पहना दिए। उसको गोद से उतारने का मन नहीं कर रहा था। अंततः सात बज गए तो इन्होंने चाय बनाने को कहा।

यह अब तक शांत बैठे या तो पत्रिकाएं पलट रहे थे या फिर टीवी पर नजर डाल रहे थे। मैंने बच्चे को इनके पास बैठाते हुए कहा-देखे रहिएगा, मैं चाय बना कर लाती हूँ । इन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। बच्चा सहमा-सहमा इनके करीब बैठ गया। मैं चाय लेकर आई तो देखा यह बच्चे को गोद में लेकर पुचकार रहे हैं। इनकी दोनों ही आंखें नम थीं। मैंने चाय एक तरफ रख कर जब इनकी नज़रों में नजर डाली तो इन्होंने अपनी नजरें झुका लीं। आंसू पलकों का बंधन तोड़ बह चले। तब मैंने इन्हें और बच्चे को एक साथ गले लगा लिया। मेरी आंखें और गला भर आई थीं। मैंने फिर इन्हें शांत कराया और कहा ‘शांत हो जाइए अब हमारी भी दुनिया मुस्कुराएगी। ये हमारा नन्हा राज-दुलारा हमारा नाम रोशन करेगा। हमारे बुढ़ापे का सहारा बनेगा।’

यह बोले तो कुछ नहीं बस एक बार फिर बच्चे को चूम कर गले लगा लिया। यह चाए पीते रहे। इस बीच मैं बच्चे के लिए भी दूध बना कर उसकी बोतल में भर कर ले आई थी। इतने बड़े बच्चे का खाने-पीने से लेकर कपड़े खिलौनें तक जो भी सामान हो सकता है हम आते समय ही सब लेकर आए थे। बच्चे को मैंने खूब मन से खिलाया-पिलाया, सजाया। उस दिन मैंने चुनचुन कर इनकी पसंद के खूब व्यंजन बनाए थे। खाने पर ज़िया के परिवार को बुलाया था। वह लोग भी उस दिन पूरा परिवार आए। बच्चे के लिए खुब उपहार ले आए थे। मगर न जाने चीनू क्यों नहीं आया। हालांकि दिन भर साथ था। उस दिन की खुशी जो थी उसे मैं कभी नहीं भूल सकती।’

‘बच्चे के असली मां-बाप कौन थे इसका कुछ पता था?’

‘बच्चा किसका था। क्या था। कुछ पता नहीं। अनाथालय वालों ने सिर्फ़ इतना बताया था कि कोई गेट पर छोड़ गया था। सच यह है कि मैं जानना भी नहीं चाहती थी। उस रात हम दोनों बड़ी देर तक बच्चे और अपने भविष्य को लेकर बतियाते रहे। बच्चा ग्यारह बजते-बजते सो गया था। बाद में यह भी सो गए। मगर मुझे नींद नहीं आ रही थी बार-बार बच्चे को चूम लेती। उसे अपने से चिपका लेती। मैं जैसा सोच रही थी उसके विपरीत बच्चा न तो ज़्यादा रोया। न ही परेशान किया। बल्कि पुचकारने पर अब मुस्कुराने भी लगा था। कुछ बातों का जवाब भी देने लगा था। इस बीच एक बात और थी जो मेरे मन में बराबर उमड़ घुमड़ रही थी।’

‘चीनू की बात ....... ?’ बड़ी देर से चुप बैठी सुन रही बिब्बो ने एकदम से टुपक दिया। उसकी बात सुन कर मन्नू कुछ क्षण चुप रही। अपनी खीझ पर नियंत्रण करने के बाद वह फिर बोली।

‘नहीं इस समय चीनू दूर-दूर तक मेरे दिमाग में नहीं था। बस मैं हर पल बच्चे को जी रही थी। वह दृश्य मुझे याद आ रहे थे जब मैं अलग-अलग समय पर तमाम औरतों को अपने-अपने बच्चे को आंचल में छिपा कर, ब्लाउज ऊपर उठाकर, स्तन बच्चे के मुंह में देकर दुध पिलाते देखा था। और साथ ही तब उनके चेहरे उनकी आंखों में वात्सल्य सुख की जो अद्भुत लकीरें उभरती थीं उनकी याद, उनकी तस्वीरें मेरे सामने आ रही थीं।

मन में तरह-तरह के विचार आ रहे थे। यूं कहो कि विचारों का महाविस्फोट हो गया था। इस विस्फोट से मैं कभी घायल होती, तो कभी लगता कि मेरी चेतना अब सही मायने में लौटी है। मैं एक नजर बच्चे पर डालती फिर सोचने लगती कि बच्चा तो ले लिया लेकिन वह सुख कहां से लेकर आऊं जो स्वयं बच्चे को जन्म देने से मिलता है। यह सुख दुनिया में कहां मिलता होगा, कितने का मिलता होगा। कौन देता होगा। मैंने सारे कर्म-कुकर्म कर डाले लेकिन कहीं भी तो नहीं मिला।

कहां .... कहां से ले आऊं वह सुख जो एक मां नौ महीने बच्चे को अपने पेट में धारण करने, उसे पालने का उठाती है। पेट के अंदर बच्चे के बढ़ने की प्रक्रिया। उसके स्पंदन का सुख, धीरे-धीरे अपने ही भीतर एक और जीव के बढ़ने, परवान चढ़ने का सुख। अपने ही शरीर के हिस्सों पेट, स्तनों के बदलने, नया आकार लेते रहने को देखने का सुख। अपने ही अंदर एक और जीव, अपने ही पति के अंश को अपने ही खून से पालने-पोसने का सुख। फिर छठे-सातवें महीने से ऊपर के बच्चे के मूवमेंट को देखने का सुख।

उभरे हुए पेट पर, स्तनों पर रात में पति के स्नेह भरे चुम्बनों, उनका पेट पर कान लगा कर बच्चे की मूवमेंट का अहसास करने की कोशिश और पेट में बच्चे के हाथ-पैर जब इधर-उधर घूमते हैं तो पेट पर ऊपर जो उभार दिखता है उसे देखने, पति के साथ या अकेले देखने का सुख। और जो कभी पति की कामेच्छा भड़क उठे तो उसे बच्चे का वास्ता देकर शांत करने और स्वयं में उभर आई कामेच्छा को भी दबाने के अहसास का सुख। फिर प्रसव पीड़ा, बच्चे के शरीर का जुदा होकर उसके धीरे-धीरे बाहर आने का सुख। जन्मते ही उसे सीने से चिपकाने का सुख, फिर स्तनपान कराने का सुख ? कहां से लाऊं यह सारे सुख। इस जीवन में तो अब संभव नहीं रहा यह सारे सुख पाना। मैं क्या जानूं कि कैसे बच्चे के आने के साथ ही स्तनों में निर्मल दूध की धारा अवतरित हो जाती है। यह सब सोचते-सोचते मैं बराबर बच्चे को छूती उसे चूम लेती।

इस बीच उसने पेशाब कर दी। बच्चों के इस तरह के कामों का मुझे बचपन से करने का अनुभव था। तुम सब छोटे थे। मैं सबसे बड़ी। हर साल डेढ़ साल के अंतर पर अम्मा के बच्चे होते थे। साथ में घर का ढेर सारा काम। मैं थी तो मात्र आठ - नौ बरस की लेकिन मुझ से तुम सब की देखभाल का काम लिया जाने लगा था। सोचती हूं कि अगर अम्मा के सभी बच्चे जीवित होते तो हम-सब ग्यारह जने होते।

तो इस बच्चे के पेशाब करने पर उसके कपड़े चेंज करने में मुझे कोई असुविधा नहीं हुई। हां जब मैं चेंज करने लगी तो वह कुनमुनाया और जाग गया। मेरी तरफ टुकुर-टुकुर देखने लगा। मैं उसको देख कर एक दम निहाल हो गई। चेंज करा कर मैंने उसे छाती से लगा लिया। मेरी छातियों पर उसके स्पर्श ने मुझे अजीब से अहसास से भर दिया। बच्चे को स्तनपान कराने का सुख लेने की इच्छा इतनी प्रबल हो उठी कि मैं अपने को रोक न सकी। मैंने एक झटके से अपना गाउन सामने से खोलकर स्तन उसके मुंह में दे दिया।

एक क्षण उसने निपुल मुंह में लिया फिर बाहर कर देखने लगा। मैंने पुचकार कर फिर निपुल उसके मुंह में लगाया तो अबकी लेकर उसने चूसना शुरू कर दिया। उस समय मैंने सुख, संतोष का जो अहसास किया। जो पल मैंने जीए उस सुख को मैं आज तक शब्द न दे पाई। बस अनपढ़ गूंगे की तरह उस सुख का अहसास, उस रस का स्वाद आज तक लेती रहती हूं। मगर कुछ ही क्षण में उसने स्तन फिर छोड़ दिया। लेकिन उत्साह में मैंने दूसरा निपुल उसके मुंह में दे दिया। उसने फिर पूरे जोर से चूसना शुरू किया। फिर अचानक उसके दांतों की चुभन मैंने निपुल पर महसूस की। और साथ ही यह भी अहसास किया कि नाहक ही मैं मासूम को अपने सुख के लिए परेशान कर रही हूं।

मैं उसकी प्राकृत मां तो हूं नहीं। और जब मां ही नहीं तो दूध कहां से उतरेगा। हां तब मेरे आंसू जरूर धारा-प्रवाह बहने लगे। मैंने धीरे-धीरे थपकी देकर उसे सुला दिया। सोचने लगी सही ही तो कहा गया है कि ठूंठ में कहीं फल आते हैं। और जब फल ही नहीं तो रस कहां से आएगा। और जब रस ही नहीं तो बच्चा क्यों कर पीने लगा। अचानक मुझे अपने स्तनों से नफरत होने लगी। जो उस वक़्त कपड़ों से बाहर तने पड़े हुए थे। जो मुझे मुंह चिढ़ाते हुए से लग रहे थे। मैं सोचने लगी आखिर ये किस काम के। मैं भी कितनी मुर्ख थी जो घमंड करती थी अपने इस अंग पर कि ये बड़े विशाल, सुडौल और बहुत ही कसे हुए हैं।

तमाम औरतें ऐसे सुन्दर अंग को पाने के लिए तरसती रहती हैं। मगर मैं इनका क्या करूं। ये तो मेरे काम नहीं आ रहे। कहते हैं कि यह पति को दीवाना किए रहते हैं लेकिन यहां तो यह भी नहीं। पति तो न जाने किस-किस के पीछे मुंह मारता रहा है। हां शुरू के एक दो वर्ष वह जरूर इसका दीवाना था। इसको छूने, दबाने, मसलने का अवसर तो हर क्षण तलाशते रहते थे। बिस्तर पर तो आफत ही कर देते थे। न जाने क्या-क्या संज्ञा देते थे। लेकिन जल्दी ही हालात बदल गए। इनके लिए सारा आकर्षण खतम हो गया। लेकिन हां दुनिया के लोगों का नहीं। लोगों की गिद्ध दृष्टि को अंदर तक झांकने की कोशिश को मैं बराबर देखती थी।'

‘और चीनू का नाम नहीं लोगी।’

‘जब तुम उसी के बारे में सुनने को बेताब हो तो मैं कैसे नहीं लूंगी। बल्कि वह तो शुरू में ही बता चुकी हूं कि वह कैसे झांकता रहता था।’

‘झांकता तो तब था। जब तक तुमने उसे एक सहेली के लड़के की तरह रखा लेकिन जब उसके सामने ही फैल गई तब ?’

‘यह भी कोई पूछने की बात है। जो जिस के लिए बेताब हो और वही यदि उसे मिल जाए तो वह निश्चित ही दीवाना हो जाएगा। उसके साथ भी यही हुआ।’

***