Mannu ki vah ek raat - 9 in Hindi Love Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | मन्नू की वह एक रात - 9

Featured Books
  • क्या लड़की होना गुनाह है

    आज की कहानी उन सभी लड़कियों के लिए जो अपने परिवार के बीच होत...

  • Black Queen ( A Mysterious Girl )

    Rathore's club ( काल्पनिक नाम )यह एक बहुत बड़ा क्लब था ज...

  • Revenge Love - Part 1

    जय द्वारिकाधिश..जय श्री कृष्ण.. जय भोलेनाथ...... ॐ नमः शिवाय...

  • My Devil Hubby Rebirth Love - 48

    अब आगे थोड़ी देर बाद डॉक्टर का केबिनरूही और रुद्रा डॉक्टर के...

  • जिंदगी

    खुद के एहसासों को कुछ इस तरह बिखेरना चाहती हूमैं रहूं तुझमें...

Categories
Share

मन्नू की वह एक रात - 9

मन्नू की वह एक रात

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग - 9

‘मगर वो ऐसा क्या कर रहा था?’

‘बताती हूं , वह कुर्सी पर बैठा था। मेज पर कोर्स की किताब खुली पड़ी थी। और ठीक उसी के ऊपर एक पतली सी छोटी सी किताब खुली पड़ी थी। चीनू ने कुर्सी थोड़ा पीछे खिसका रखी थी। उसने बनियान उतार दी थी। ट्रैक सूट टाइप का जो पजामा पहन रखा था वह उसकी जांघों से नीचे तक खिसका हुआ था। वह अपने आस-पास से एकदम बेखबर सिर थोड़ा सा ऊपर उठाए आंखें करीब बंद किए हुए था और दाहिने हाथ से पुरुष अंग को पकड़े तेजी से हाथ चला रहा था। उसकी हरकत देख कर मुझे बड़ी तेज गुस्सा आ गया और मैं इस स्थिति में बजाय चुपचाप वापस आने के एक दम से दरवाजा खोल कर अंदर पहुंच गई।

इस समय मैं ठीक उसके पीछे थी। भड़ाक से दरवाजा खुलने के कारण वह एक दम हकबका गया। उसने तुरंत अपना पजामा ऊपर खींच कर उठना चाहा, लेकिन वह झटके खाने लगा था। बड़ी मुश्किल से वह सीधा खड़ा हुआ। दीवार की तरफ मुंह किए रहा मेरी तरफ नहीं देख रहा था। मेरी भी हालत अजीब सी हो रही थी। एकदम किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गई थी। मुझे लगा कि इस समय मुझे नहीं आना चाहिए था। लौट जाना चाहिए था। बड़ा लड़का है। और सबसे बड़ी बात कि कौन सा अपनी संतान है। क्या ज़रूरत थी उसे टोकने की। खुद बड़ी शर्मिंदगी महसूस कर रही थी। मैंने कुछ बोले बिना चाय मेज पर रख दी और एक नजर उस छोटी सी किताब पर डाली, कुछ शब्दों से पता चल गया कि वह सड़क छाप अश्लील किताब थी। मैं एकदम पलटी और वापस चल दी चुपचाप। तो वह धीरे से बोला,

‘चाची किसी से कहिएगा नहीं।’

उसके स्वर में मुझे कुछ ख़ास अफ़सोस जैसी बात नजर नहीं आ रही थी। मैंने कहा,

‘ठीक है। ये सब साफ कर देना।’

मैंने जमीन पर गिरे उसके अंश की ओर इशारा कर कहा और लौट आई कमरे में अज़ीब सी उलझन लिए। नजरों के सामने एक साथ दो-दो सीन चल रहे थे। एक चीनू का दूसरा उसे देख कर याद आ गई रुबाना का ।

‘क्यों ....... रुबाना से क्या मतलब चीनू का।’

‘पता नहीं पर चीनू की हरकत देख कर उस समय एकदम दिमाग में कुछ आया था तो वह रुबाना और काकी, उनकी हरकतें और हॉस्टल की कुछ न भुलाई जाने वाली घटनाएं थीं।’

‘खैर दिमाग का भी कुछ पता नहीं, कब कहां पहुंच जाए कुछ ठिकाना नहीं। चीनू की हरकत और रुबाना का याद आना कुछ कहना मुश्किल है।’

‘बिब्बो तुम्हारे लिए भी कुछ मुश्किल न होता अगर तुम हॉस्टल में रही होती। वहां की अंदरूनी दुनिया को जानती।’

‘क्यों लड़कियों के हॉस्टल में ऐसा कुछ खा़स क्या होता है ? फिर तुमने कभी कुछ बताया भी तो नहीं।’

‘बताती तो इस डर से नहीं थी कि वह सब जानने के बाद बाबूजी मेरी पढ़ाई हर हालत में बंद कर देते। और मैंने बड़े सपने पाल रखे थे तो इस लिए किसी भी सूरत में पढ़ाई बंद नहीं करना चाहती थी। ये अलग बात है कि सपने सारे सपने ही रह गए।’

‘सारे सपने तो भाग्य वालों के ही पूरे होते हैं दीदी।’

‘नहीं मैं तो यह कहती हूं कि सपने उनके पूरे होते हैं जो उन्हें पूरा करने के लिए दुनिया की परवाह किए बिना खुद आगे बढ़ते हैं। जो सोचते रह जाते हैं उनके सपने कभी पूरे नहीं होते।’

‘जब तुम यह सब जानती हो तो तुम्हारे सपने क्यों अधूरे रह गए।’

‘मैं जानती तो सब थी लेकिन आगे बढ़ कर आने की हिम्मत में कमी रह गई। और रह रह कर ठिठक जाना ही मेरे सपनों के टूटते जाने का सबसे बड़ा कारण था।’

‘मैं ठिठकने का मतलब नहीं समझी।’

‘यहां ठिठकने से मेरा मतलब यह था कि जहां मुझे अपनी बात के लिए अड़ जाना चाहिए था वहां मैं यह सोच कर पीछे रह जाती थी कि फलां क्या कहेगा, क्या सोचेगा, दुनिया क्या कहेगी।’

‘अच्छा ..... मगर जब दुनिया में रहते हैं तो दुनिया के बारे में तो सोचना ही पडे़गा न।’

‘हां जो दुनिया की चिंता करते हैं वह भीड़ का हिस्सा होते है। भीड़ में खोए रहते हैं। उनका जीवन, उनकी दुनिया मेरी तरह तुम्हारी तरह दुनिया की ही चिंता में व्यर्थ चला जाता है, ख़त्म हो जाता है। और जो दुनिया के बजाय अपने सपनों के बारे में सोचते हैं उसे पूरा करने के लिए अपने हिसाब से आगे बढ़ते हैं वह भीड़ का हिस्सा नहीं बनते, एकदम अलग नजर आते हैं, और दुनिया सोचती है उनके बारे में, उनके बारे में चर्चा करती है।’

‘मैं तुम्हारी यह बातें पूरा तो नहीं हां काफी कुछ समझ पा रही हूं। मगर कहूं क्या यह समझ में नहीं आ रहा है। तुम्हारी इन बातों से ज़्यादा मेरा दिमाग रुबाना, काकी और हॉस्टल पर लगा हुआ है कि चीनू की हरकत से तुम्हारे हॉस्टल के जीवन का क्या संबंध है।’

‘संबंध है भी और कह सकते हैं नहीं भी। संबंध इस तरह से है कि उस दिन जो चीनू कर रहा था, हॉस्टल में रुबाना, काकी और कई लड़कियां करती थीं। उन्हें किसी तरह के संकोच की तो जैसे जानकारी ही न थी।’

‘ये क्या कह रही हो दीदी। हॉस्टल में यह सब होता है।’

‘यह सब ही नहीं .... और भी बहुत कुछ होता है। जिसे जान कर तुम यकीन नहीं कर पाओगी।’

‘क्या मतलब ? और क्या होता है।’

‘चीनू अश्लील किताबें कोर्स की किताबों में रख कर पढ़ता था। हॉस्टल में रुबाना, काकी खुलेआम देखती पढ़ती थीं। उसी ने घर जाते वक़्त मेरे बैग में जानबूझकर वह मैगज़ीन रखी होगी जिसे तुमने और अम्मा ने देखा था।’

‘तुम उन दोनों के साथ रहती थी तो तुमने भी वह किताबें देखी-पढ़ी होंगी ?’

‘जो चीजें सामने ही घट रही हों उनसे कब तक अछूता रहा जा सकता है ? कैसे रहा जा सकता है ?’

‘तो तुम उन दोनों से कमरा अलग लेकर भी रह सकती थी।’

‘मुश्किल था, उस समय इतनी समझ भी न थी। दरअसल एक कमरे में चार स्टूडेंट रहती थीं। मेरे साथ रुबाना, काकी यानी काजल, और नंदिता रहती थीं। नंदिता बहुत पढ़े-लिखे और अच्छे परिवार से थी। रुबाना और काकी अच्छे-खासे खाते-पीते घर की थीं। मगर पढ़ाई-लिखाई के मामले में दोनों का परिवार पीछे था। काकी के पिता एक व्यवसायी थे और रुबाना के ठेकेदार। दोनों को कुल मिला कर पैसे की कमी न थी। मैं जब पहुंची तो मेरे लिए तो पूरी दुनिया ही एकदम अनजान, एकदम नई थी। मुझे हॉस्टल और रैगिंग के बारे में कोई जानकारी न थी। जबकि रुबाना, काकी काफी कुछ जानती थीं। परम खुराफाती और आज़ाद ख़याल की थीं। अपनी मनमर्जी करने में ही उनको जैसे सब कुछ मिलता था। उनकी हरकतें कम से कम मेरी जैसी सामान्य लड़कियों के लिए किसी अजूबे से कम न थीं। यही कारण है कि उसकी बातें मुझे जस की तस आज भी याद हैं। और चीनू ने एकदम उसी दुनिया में पहुंचा दिया था।

मैं जब हॉस्टल में पहुंची थी तब इन दोनों ने मेरे हॉस्टल के जीवन से अनजाने होने का खूब फायदा उठाया। दिन में कई सीनियर स्टूडेंट ने अच्छे ढंग से हमारा परिचय लिया कुछ उसमें ऐसी थीं जो बेढंगे ढंग से भी पेश आईं। उस गुट में काकी और रुबाना की सहेलियां भी थीं। दिन में सीनियर जूनियर रैगिंग की थ्योरी मुझे थोड़ी-थोड़ी पल्ले पड़ गई थी। शाम को हॉस्टल पहुंची तो वहां भी सीनियरों का एक गुट आया कुछ अच्छे प्रश्न किए तो कुछ ऊल-जलूल थे। यह गुट जब कमरे से बाहर निकल गया तो हमने राहत की सांस ली। अब-तक मेरी आंखें डबडबा आई थीं।’

‘क्यों ? तुम्हारी आँखें क्यों डब-डबा आई थीं ?’

‘क्योंकि जैसी अश्लील बातें पूछीं गई थीं वह मेरे लिए पहला अनुभव था। मेरी सोच से परे था। यह सोच कर डर गई थी कि पहले दिन यह हाल है आगे न जाने क्या होगा। इसी बीच एक झटका और लगा। उस गुट में से एक लड़की पलट कर अचानक हमारे कमरे में आई और बोली,

''सीनियर्स की बातों को बिना इफ-बट किए मानने में ही भलाई है, जिसने इफ-बट किया समझ लो उसकी पढ़ाई-लिखाई बंद। और हां इस रूम में तुम सब की सीनियर रुबाना और काकी हैं ध्यान रखना इस बात का।'' हमने और नंदिता ने सहमते हुए कहा

‘जी .... ठीक है।’

'‘जी क्या होता है यस मैम बोलो।'’

'‘यस मैम।'’

उस सीनियर के जाने के बाद रुबाना तो कुछ न बोली बस अपनी कुर्सी पर बैठ गई लेकिन काकी ने कहा,

'‘तुम लोगों को बाकी सीनियर्स से डरने की ज़रूरत नहीं है। कहीं जाना तो हम दोनों के साथ ही जाना।'’

इसके बाद काकी ने सीनियर्स के साथ कैसे पेश आना है इस बारे में एक के बाद एक हिदायतें देते हुए जब यह कहा कि,

‘'रैगिंग की पहली क्लास हम लेंगे'’ तो हमारी रुह कांप गई।

‘फिर क्या हुआ ?’

‘इतना कहने के बाद दोनों कहीं चली गईं और करीब रात साढे़ आठ बजे लौटीं। साथ में वो पूड़ी-सब्जी, केले, खीरा लेकर आई थीं। पूरा पैकेट हमारे सामने मेज पर रख कर काकी बोली,

'‘सुनो तुम लोगों को भूख लगी होगी। और अभी मेस शुरू नहीं हुई है। खाना बनाने का अरेंजमेंट भी अभी नहीं है इसलिए फिलहाल आज पूड़ी-सब्जी का मजा लेते हैं।'’

सच कहूं उस समय हमें काकी और रुबाना बड़ी भली लगीं। हमारे मन में आया कि यह दोनों तो हमारा बड़ा ख़याल रखती हैं। फिर हम चारों ने हाथ मुंह धोकर एक साथ पूड़ी-सब्जी का मज़ा लिया। खाते वक़्त उन दोनों को हमने सीनियर समझ कर उसी तरह से व्यवहार शुरू किया तो रुबाना बोली,

'‘ए खाने के वक़्त नो सीनियर नो जूनियर।'’

उसके बाद उसने कुछ ओछे मजाक भी किए जिससे हम सब न चाहते हुए भी हंस पड़ीं। मगर सच यह भी है कि उनके मजाक के चलते हम सब खाना ठीक से खा सके। नहीं तो गले के नीचे उतरना मुश्किल हो जाता। वह काफी खाना लेकर आई थीं इससे थोड़ा बच गया। तो मैंने सोचा रख दें सुबह खा लेंगे तो रुबाना बिदक कर बोली,

‘'यहां बासी खाने का कोई रिवाज़ नहीं है। जानती नहीं हम जैसा खाएंगे हमारा दिमाग वैसा ही बनेगा। और हमें थकी हुई बासी सोच का नहीं ताजी सोच का बिंदास बनना है। इसलिए जो बचा है वह डस्टविन के हवाले करो आखिर उसका भी तो कोई हक़ बनता है।'’

‘उसकी बातों से तो लगता है कि वह बहुत ही आज़ाद ख़याल की थी।’

‘आज़ाद ........ अरे! यह कहो परम आज़ाद। मैंने पहले ही कहा कि उसकी आदर्श अमृता प्रीतम, सीमोन बोउवार, निनोंद लिंकलोस थीं। वह उनके जैसा ही जीवन जीने की कोशिश करती थी। इस के चलते कोर्स को छोड़ कर न जाने क्या-क्या पढ़ती थीं। उस दिन खाने के वक़्त उसने केले को हाथ में लेकर छीलने से पहले जो अश्लील शब्द कहे वह अब भी मेरे कानों में मानों वैसे ही गूंजते हैं इतनी उम्र होने के बाद भी आज तक किसी लड़की से वह शब्द नहीं सुने। उस दिन की इसके अलावा अन्य कई बातें हैं जो आज भी एकदम तरोताजा हैं।'

‘वह कौन सी बातें है ? लेकिन हां पहले जो तुमने एक नाम लिया निनोंद का, बड़ा अजीब सा नाम है, यह कौन थी ?’

‘‘निनोंद! दरअसल इसके बारे में भी हमने रुबाना या काकी से मिली किसी किताब में ही तब पढ़ा था, जब इन दोनों ने इसके बारे में खूब बढ़-चढ़कर कई बार बातें कीं। मैंने कुछ पूछा तो रुबाना बोली '‘बहुत जानना है तो पूरी किताब पढ़ ले।'’ फिर किताब मुझे थमा दी। उसी में जहां तक मुझे याद आ रहा है लिखा था कि यूरोप में पंद्रहवीं-सोलहवीं शदी आते-आते महिलाएं साहित्य, कला आदि के क्षेत्र में भी आगे आईं। इसी समय जब महिलाएं अभिनय के क्षेत्र में उतरीं तो अभिनेत्रियों की जाति पैदा हो गई। यह निनोंद पहली अभिनेत्री मानी जाती है जो सन् पंद्रह सौ पैंतालीस में मंच पर आई। इसने बेहद स्वच्छंदतापूर्ण जीवन जिया। मूल्य मान्यता, नैतिकता-अनैतिकता को हमेशा जूती के तले रखा। ऐसा बिंदास जीवन जीया कि तब के लोग दांतों तले ऊंगली दबा लेते थे।’

‘तुम लोग वहां कोर्स की किताबें पढ़ने गई थीं कि यह सब ? खैर जो एकदम तरोताजा बातें बताने जा रही थी वह बताओ।’

***