Pal jo yoon gujre - 26 in Hindi Moral Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | पल जो यूँ गुज़रे - 26

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पल जो यूँ गुज़रे - 26

पल जो यूँ गुज़रे

लाजपत राय गर्ग

(26)

उपायुक्त महोदय ने एक लिखित शिकायत जाह्नवी को इन्कवारी के लिये दी। शिकायत पढ़कर उसे हँसी आई कि शिकायतकर्त्ता को इतना भी मालूम नहीं कि वह शिकायत में लिख क्या रहा है। हुआ यूँ कि दफ्तर के दो बाबुओं — महीपाल व अजय — के बीच किसी बात को लेकर तू—तू, मैं—मैं हो गयी। महीपाल ने अजय को कहा कि मैं तुझे ऐसा मज़ा छकाऊँगा कि तू भी याद रखेगा।

जाह्नवी ने पहले आरोपी अजय को बुलाया और वस्तुस्थिति जानने का प्रयास किया। उसने कहा — ‘मैडम जी, मैं अपने हाल ही में जन्मे बच्चे की कसम खाकर कहता हूँ कि मैंने महीपाल के लिये किसी जातिगत गाली का इस्तेमाल नहीं किया।'

उसके बाद जाह्नवी ने महीपाल को बुलाया और पूछा — ‘यह शिकायत तुमने स्वयं लिखी है या किसी से लिखवाई है?'

‘मैडम जी, मैंने खुद ही लिखी है।'

‘लो यह शिकायत पकड़ो और पढ़कर सुनाओ कि तुमने क्या लिखा है?'

महीपाल शिकायत पकड़कर देखता है और फिर पढ़ना शुरू करता है — ‘श्री मान डीसी साहब, आज मेरे और अजय के बीच किसी बात पर कहा—सुनी हो गयी। इसने मुझे धमकाते हुए ‘डेढ़' कहकर गाली दी। मेरी आपसे प्रार्थना है कि अजय के खिलापफ मुझे जातिगत गाली देने के लिये सख्त कार्यवाही की जाये। आपका धन्यवादी हूँगा।'

जाह्नवी— ‘इतना ही लिखा है या कुछ और भी लिखा है?'

‘बस इतना ही मैडम जी।'

‘इसमें गाली कहाँ है?'

‘मैडम जी, इसने मुझे ‘डेढ़' कहा। ‘डेढ़' गाली है।'

‘महीपाल, तुमने स्वयं की लिखी शिकायत पढ़कर सुनाई है। इसमें ‘डेढ़' लिखा और तुमने ‘डेढ़' ही बोला है। ‘डेढ़' का मतलब समझते हो? इसका मतलब होता है, एक से अधिक, एक प्लस आधा। यह तो कोई गाली न हुई। जैसा तुमने पढ़कर सुनाया है, उससे तो तुम्हारी इज्ज़त ही बढ़ती है।......बात शायद कुछ और थी और शिकायत में तुमने लिखा कुछ और है। है ना?'

महिपाल ने सोचा, मैडम उसकी चाल समझ गई है। बेहतर होगा कि माफी माँग करके शिकायत वापस ले लूँ। यही सोचकर उसने कहा — ‘मैडम जी, मुझे माफ कर दो। मैं अपनी शिकायत वापस लेता हूँ।'

जाह्नवी ने बयान लिखकर उसके हस्ताक्षर करवाये और बेल देकर अजय को बुलाया तथा दोनों को सम्बोधित करते हुए कहा — ‘देखो, तुम दोनों ने दफ्तर में इकट्ठे रहना है, इकट्ठे काम करना है। ऑफिस में साथ—साथ काम करते हुए तुम एक परिवार के सदस्यों जैसे हो। जैसे परिवार के सदस्यों के बीच मन—मुटाव होने पर भी वे एक—दूसरे से जुड़े रहते हैं, तुम लोगों को भी आपस में लड़ाई—झगड़े में नहीं पड़ना बल्कि भाईचारे से रहना है। एक—दूसरे की शिकायत करना अच्छा नहीं होता। दोनों हाथ मिलाओ।'

जाह्नवी के बातचीत करने के अन्दाज़ ने महिपाल के मन की मैल साफ कर दी। उसने धन्यवाद करते हुए एक बार फिर अपने कृत्य के लिये माफी माँगी तथा भविष्य में ऐसी बेबुनियाद शिकायत न करने का आश्वासन दिया। जाह्नवी ने उसे उसके उज्ज्वल भविष्य के लिये शुभकामनाएँ दीं। तदुपरान्त जाह्नवी ने अपनी रिपोर्ट बनाकर डीसी को भेज दी।

कमला के विवाह के पश्चात्‌ निर्मल तथा सभी रिश्ते—नातेदार वापस जा चुके थे। जाह्नवी पोस्टग ऑर्डर की प्रतीक्षा में थी कि एक रात ऐसा हादसा हुआ कि उसे अन्दर तक हिला गया। रात की नीरवता में लगभग एक—डेढ़ बजे उसके रूम के दरवाज़े पर दस्तक हुई, फिर किसी के लड़खड़ाते स्वर सुनाई देने लगे — ‘दरवाज़ा खोल, बाहर तेरा चाहने वाला खड़ा है....तू भी अकेली है, मैं भी अकेला हूँ.....' फिर दरवाज़ा खटखटाता है — ‘तेरा पुलसिया सैंकड़ों मील दूर है, क्यों जवानी बर्बाद करती है, आ, तू मुझे खुश कर दे, मैं तुझे खुश कर दूँ....'

जाह्नवी ने बिना बिजली जलाये टेलिफोन का रिसीवर उठाया, लेकिन डायल टोन नहीं थी। शायद एक्सटेंशन काट दी गयी थी। कुछ पल सोचा, क्या करूँ? दरवाज़ा खोलना बिल्कुल भी उचित नहीं था। इस गुण्डे ने, जो कोई भी यह है, चौकीदार को तो जरूर कहीं भेज दिया होगा वरना इसकी यह हिम्मत नहीं होती। मन ने सुझाया कि लॉन साइड के दरवाज़े से बाहर निकलकर रेस्ट हाउस से बाहर जाया जा सकता है, आहिस्ता से बाहर निकलो। वह नाईट ड्रैस में थी, उसी तरह बेड से उठी। शॉल लपेटी। बिना कोई आवाज़ किये आहिस्ता से लॉन साइड का दरवाज़ा खोला, बाहर आई। दरवाज़ा बन्द किया और चुपके से रेस्ट हाउस से बाहर हो गयी।

इधर वह दरवाज़ा पीटता रहा और बकता रहा। एकबार उसके मन में आया कि लात मार कर दरवाज़ा तोड़ दूँ, लेकिन उसे इतना होश था कि दरवाज़ा तोड़ना उसके विरुद्ध सबूत बन जायेगा। उसके दिमाग की बत्ती जली, हो—न—हो, वह पीछे के दरवाज़े से निकल गयी हो। वह भागकर पीछे की तरफ गया। उसका सोचना ठीक था। माथा पीट कर रह गया। शिकार हाथ से निकल चुका था। उसने सोचा कि बड़ी अफसर है, अब हाथ आनी मुश्किल है। बात और उलझे, उससे पहले तू भी यहाँ से खिसक ले।

रात की स्याह चादर चारों तरफ फैली हुई थी। जीवन में कई बार सतह पर विपरीत दिखने वाली परिस्थितियाँ भी वरदान सिद्ध होती हैं। रात का अँधेरा जाह्नवी के सुरक्षित जगह पहुँचने में अवरोधक की जगह सहायक बना। उसने बाहर आकर सोचा कि किधर जाऊँ, पुलिस स्टेशन या डीसी रेज़िडेंस? पुलिस स्टेशन दूर भी था और वहाँ आधी रात के समय क्या हालात हो सकते हैं, इसका उसे पूर्वानुमान था। अतः उसने डीसी रेज़िडेंस की राह पकड़ी। रात की ड्‌यूटी पर जो गार्ड था, उसे उसने अपना परिचय दिया। परिचय सुनते ही उसने सैल्यूट मारा और पूछा — ‘सर, इस समय आप यहाँ?'

‘तुम अन्दर जाकर डीसी साहब को सूचित करो कि मैं आई हूँ, अभी मिलना बहुत जरूरी है।'

गार्ड ने जाह्नवी को बिठाया और स्वयं सूचना देने के लिये अन्दर गया। जाते—जाते सोचने लगा कि इतनी रात में मेम साहब रात के कपड़ों में पैदल चलकर साहब से किस लिये मिलने आई हो सकती हैं? उसका दिमाग कुछ सोच नहीं पाया तो उसने अपने मन में कहा कि बड़े साहबों की बड़ी बातें, तू अपनी ड्‌यूटी बजा। डीसी साहब आँखें मलते हुए बाहर आये। पता लगने पर गार्ड के साथ आकर जाह्नवी से मिले। जाह्नवी ने नमस्ते की और कहा — ‘सॉरी सर, आधी रात को आपको डिस्टर्ब किया। अन्दर चलें, वहीं बताती हूँ कि इस समय आपको क्यों डिस्टर्ब किया है।'

आधी रात को नाईट ड्रैस में जाह्नवी को देखकर डीसी हैरान था। ड्राईंग रूम में बैठते ही डीसी ने पूछने के अन्दाज़ में हुंकार भरी — ‘हूँ......?'

जाह्नवी ने सारी दास्तान कह सुनाई। घटना का वृतान्त सुनने के बाद डीसी ने कहा — ‘जाह्नवी, अब तुम्हें रेस्ट हाउस जाने की जरूरत नहीं। मैं गेस्ट रूम खुलवा देता हूँ। तुम आराम करो, सुबह देखेंगे कि क्या करना है?'

जाह्नवी को गेस्ट रूम में छोड़कर डीसी तो अपनी नींद पूरी करने चला गया, लेकिन जाह्नवी से तो नींद कोसों दूर थी। उसे ऐसा मानसिक आघात लगा था कि उबरना इतना आसान न था। वह सोचने लगी कि कौन हो सकता है जो चौकीदार को कहीं भेजकर आधी रात में इस तरह की हरकत करने की जुर्रत कर सकता है? अवश्य ही किसी बड़े नेता का मुँह—लगा कोई बदमाश होगा वरना आम आदमी तो रेस्ट हाउस में इस तरह की हरकत करने की सोच भी नहीं सकता। एक ख्याल मन में आया कि कहीं वह दरवाज़ा तोड़कर अन्दर आ जाता तो मैं क्या करती? इस ख्याल मात्र से उसके सारे शरीर में सिहरन—सी दौड़ गयी। थोड़ा शान्त हुई तो मन ने कहा कि सुबह पहला काम भइया और निर्मल को सूचित करना होगा। निर्मल को कहूँगी कि कैसे भी करो, दो—चार दिन की छुट्टी लेकर तुरन्त आओ। इसी उधेड़बुन में करवटें बदलती रही और पंछियों के कलरव से ही पता लगा कि भोर हो गयी। उठकर बाथरूम गयी। बाल ठीक किये, चेहरे पर पानी के छींटे मारे। क्योंकि रात को जिस हालत में सो रही थी, उसी तरह उठकर, बचकर निकलना पड़ा था। सोचने लगी कि डीसी साहब ने पहली नज़र में मुझे देखकर क्या सोचा होगा? स्वयं को दुरुस्त किया। नाईट ड्रैस चेंज करने का तो कोई विकल्प नहीं था। सात बजे के करीब डीसी ने उसे ड्राईंग—रूम में बुलाया।

सेवक चाय रख गया। जाह्नवी ने एक कप उठाकर डीसी को दिया और वापस अपनी जगह बैठ गयी। थोड़ी देर बाद डीसी ने पूछा — ‘तुम नहीं चाय ले रही?'

‘सर, मन नहीं कर रहा।'

‘कोई बात नहीं, अभी तुम ट्रॉमा में हो। रिलैक्स। चाय पीओ, फिर देखते हैं, क्या करना है।'

मन न होते हुए भी जाह्नवी को चाय पीनी पड़ी।

चाय पीने के बाद डीसी ने रात की घटना की विस्तार से जानकारी ली और बेल देकर सर्वेंट को बुलाया और उसे रेस्ट हाउस से चौकीदार को बुलाने के लिये भेजा। साथ ही वहाँ का ‘एन्ट्री रजिस्टर' लाने को कहा।

जाह्नवी— ‘सर, मैं भी चली जाती हूँ। कपड़े चेंज कर आऊँ।'

‘नहीं, अभी बैठो। चौकीदार को आने दो। पता तो लगे कि आदमी कौन था?'

चौकीदार आया। हाथ जोड़े खड़ा था, शरीर उसका स्थिर नहीं था। घबराहट उसके चेहरे पर स्पष्ट थी। पहली बार में तो वह कह गया कि मैडम के अलावा कोई अन्य व्यक्ति रात को रेस्ट हाउस में नहीं था और वह स्वयं रेस्ट हाउस में ही था। उसने रजिस्टर डीसी के आगे कर दिया। लेकिन जब उसे नौकरी से निकालने की धमकी दी गयी और बाद में उसे पुचकार कर कहा गया कि यदि वह सच्चाई बता देगा तो उसपर कोई आँच नहीं आयेगी तो उसने बता दिया कि एक्सईएन साहब ने कह रखा था कि मन्त्री जी का साला जब भी आये, उसके लिये बिना एन्ट्री किये कमरा खोल दूँ। और अपनी अनुपस्थिति के बारे में बताया कि मन्त्री जी के साले के कहने पर वह अपने साथी के यहाँ चला गया था। जब सुबह पाँच बजे वापस आया तो वह आदमी नहीं था और मैडम का कमरा भी बन्द था।

डीसी ने एक्सईएन को फोन करके बुलाया। वह मँजा हुआ खिलाड़ी था। चौकीदार को ऐसी किसी हिदायत देने की बात से वह साफ इन्कार कर गया। उसके जाने के बाद डीसी ने जाह्नवी से कहा — ‘देखो, कोई भी सबूत तुम्हारे पक्ष में नहीं है सिवाय चौकीदार की स्वीकारोक्ति के। यदि एफआईआर लिखवाते हैं तो गाज़ चौकीदार पर ही गिरेगी। अन्ततः वास्तविक मुज़रिम का कुछ बिगड़ना नहीं। तुम्हारे कॅरिअर की शुरुआत है, बात को न बढ़ाने में ही अक्लमंदी है।....दूसरे, मैं चाहूँगा कि तुम रेस्ट हाउस तो आज से ही छोड़ दो और जब तक अन्य विकल्प नहीं होता, डिस्टिलरी के गेस्ट हाउस में शिफ्ट कर लो।'

जाह्नवी सोच में पड़ गयी। कुछ देर बाद बोली — ‘अच्छा सर, मैं चलती हूँ।'

‘वेट, मैं ड्राईवर को बुलाता हूँ, वह तुम्हें छोड़ आयेगा।'

***