Pal jo yoon gujre - 24 in Hindi Moral Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | पल जो यूँ गुज़रे - 24

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पल जो यूँ गुज़रे - 24

पल जो यूँ गुज़रे

लाजपत राय गर्ग

(24)

भारत भि—भि ऋतुओं का देश है। जुलाई—अगस्त—सितम्बर का समय मुख्यतः वर्षा ऋतु कहलाता है। इस कालखण्ड में प्रकृति एक ओर जहाँ अपने अनन्त खज़ाने से जल बरसाकर धरा की प्यास बुझाती है और लहलहाती फसलों के रूप में धन—धान्य का वरदान देती है, वहीं कभी—कभी प्राकृतिक आपदाओं के रूप में प्रकट त्रासद परिस्थितियाँ जनमानस को कभी न भूलने वाले घाव भी दे जाती है। यही कालखण्ड था जब देश के विभाजन स्वरूप निर्मल का परिवार अपना घरबार छोड़, अपनी जड़ों से उजड़ने के लिये विवश हुआ था। और ठीक पच्चीस वर्ष पश्चात्‌ उसके परिवार को एकबार फिर प्रकृति की असहनीय मार झेलनी पड़ी।

संसार में सुख और दुःख साथ—साथ चलते हैं। ऐसा प्राणी संसार में मिलना मुश्किल है, जिसने जन्म से मृत्यु तक केवल सुख ही भोगे हों, दुःखों का कभी सामना न किया हो। अलग—अलग व्यक्तियों के जीवन में सुख और दुःख के अनुपात में अन्तर हो सकता है। किसी व्यक्ति के जीवन में सुख के पल अधिक हो सकते हैं तो किसी अन्य के जीवन में दुःख के।

कहाँ तो जब से साल आरम्भ हुआ था, निर्मल के परिवार में एक के बाद एक खुशी के अवसर आ रहे थे और कहाँ एकदम कुदरत का ऐसा कहर टूटा कि देखने—सुनने वालों की आँखें भी नम हुए बिना न रहीं। अगस्त के आखिरी सप्ताह का एक निर्भाग दिन। निर्मल की बुआ की बेटी का ससुराल। आधी रात को उमड़ते, घुमड़ते, गरजते बादलों के साथ चमकती, कड़कड़ाती बिजली कौंधने लगी। साथ ही शुरू हो गयी मूसलाधर बरसात। बार—बार आसमानी बिजली धरती को छूने के प्रयास में। ऐसा लगता था कि आज कयामत आने वाली है। और कयामत आई; तीन पीढ़ियों के पाँच प्राणियों के प्राण एक—साथ लील ले गयी। निर्मल की बुआ अपनी बेटी की डिलिवरी के लिये उसके घर गयी हुई थी। कयामत वाली रात प्रसूता अपनी दस दिन की नवज़ात बच्ची के साथ एक चारपाई पर सोई हुई थी और उसकी बगल में दूसरी चारपाई पर निर्मल की बुआ चार और दो साल के अपने दोहतों के साथ सो रही थी। कमरे की छत लकड़ी की बल्लियों की बनी हुई थी। आसमानी बिजली छत फाड़ कर आई और पाँच प्राणियों के प्राण हर ले गयी।

पहले तो परमानन्द ने सोचा कि निर्मल को सूचना न दी जाये, किन्तु सावित्री के कहने पर कमला से पत्र लिखवा दिया। साथ ही लिखवा दिया कि जो होना था सो तो हो गया, अगर छुट्टियों की व्यवस्था न हो पाये तो बिल्कुल मत आना। निर्मल और जाह्नवी जब लंच करके कमरे पर पहुँचे तो कोने से फटा हुआ पोस्ट—कार्ड मिला। कोना फटा देखकर ही निर्मल घबरा गया था, पढ़ने के बाद तो जैसे उसके होश ही उड़ गये। दोनों हाथों में सिर पकड़ एकदम बेड पर गिर पड़ा और मुँह तकिये में छुपा कर रोने लगा। जाह्नवी कुछ देर ककर्त्तव्यविमूढ़—सी खड़ी देखती रही, फिर बेड पर बैठकर निर्मल का सिर अपनी गोद में ले लिया और एक हाथ से उसके आँसू पौंछने लगी। उसने अपने मन को बहुत कड़ा करने की कोशिश की, फिर भी उसकी आँखों से भी आँसू बह ही निकले।

लगभग आधे घंटे बाद निर्मल कुछ सामान्य हुआ। उसने कहा — ‘पापा ने चाहे लिखवा भेजा है कि छुट्टियाँ न मिलें तो मत आना, किन्तु मैं सोच रहा हूँ कि वकग डेज में वाकई ही छुट्टियाँ नहीं मिलेंगी, किन्तु वीकेन्ड में तो हम टैक्सी करके जा ही सकते हैं। हालात बताने पर उसके लिये तो परमीशन मिल ही जायेगी।'

‘हाँ, टैक्सी वाला आइडिया ठीक है। मैं भइया को टेलिफोन कर देती हूँ, वे भी आ जायेंगे।'

‘उनको क्यों तकलीफ देनी है?'

‘इसमें तकलीफ वाली क्या बात है? रिश्ते—नाते किस लिये होते हैं? गये हुओं को तो वापस नहीं लाया जा सकता, किन्तु पीछे वालों के दुःख में शरीक होकर उनका दुःख तो कम किया ही जा सकता है।'

‘मैं शाम को शनिवार—इतवार के लिये स्टेशन—लीव की एप्लिकेशन लगाता हूँ और टैक्सी का प्रबन्ध करता हूँ। तुम दो दिन के लिये सूटकेस तैयार कर लो।'

***