Pal jo yoon gujre - 21 in Hindi Moral Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | पल जो यूँ गुज़रे - 21

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पल जो यूँ गुज़रे - 21

पल जो यूँ गुज़रे

लाजपत राय गर्ग

(21)

अन्ततः मई के द्वितीय सप्ताह की एक खुशनुमा प्रातः ऐसी आई जब शिमला स्थित सभी प्रमुख समाचारपत्रों के सम्वाददाता अपने—अपने कैमरामैन के साथ मशोबरा के ‘मधु—स्मृति विला' के परिसर में प्रतीक्षारत थे, इस घर की बेटी — जाह्नवी का इन्टरव्यू लेने व उसका फोटो खींचने के लिये, जिसने न केवल यूपीएससी की परीक्षा पास की थी बल्कि राज्य की प्रथम महिला आईएएस अधिकारी बनने का गौरव हासिल किया था, और वह घर के अन्दर खुशी के मारे नर्वस अवस्था में तैयार हो रही थी। अनुराग ने बहादुर को लॉन में कुर्सियाँ लगाने को कहा। जैसे ही जाह्नवी को रिज़ल्ट का पता चला, उसने निर्मल से बात करने के लिये कॉल बुक करवाई और स्वयं प्रेस वालों के सामने आने के लिये तैयार होने लगी। तैयार होकर वह अनुराग के साथ बाहर आई। सभी उपस्थित प्रेस वालों ने उठकर अभिवादन किया तथा बधाई दी।

एक प्रेस संवाददाता — ‘मैडम, सबसे पहले हमारी ओर से बधाई स्वीकार करें। आप राज्य की प्रथम महिला आईएएस अध्किारी बनने जा रही हैं, कैसा लग रहा है आपको?'

‘जब मैंने इस परीक्षा के लिये मन बनाया था, तब तक मुझे नहीं पता था कि यदि मैं उत्तीर्ण हो जाती हूँ, तो मैं राज्य की प्रथम महिला आईएएस अधिकारी बनूँगी। वास्तव में, मैंने यह परीक्षा देने का मन अपने स्वर्गीय पापा के प्रोत्साहन पर ही बनाया था। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि मैं आईएएस अधिकारी बनूँ। काश! कि आज वे जीवित होते, तो उनको कितनी खुशी होती, आप उसकी कल्पना कर सकते हैं। मैं इसे अपने परिश्रम की सफलता कम, उनके आशीर्वाद का प्रताप अधिक मानती हूँ। पापा की डेथ के बाद मेरे भइया और भाभी ने जिस तरह से मुझे हौसला देकर सम्भाला, उसका भी बहुत बड़ा योगदान है मेरी सफलता में...' कहने के साथ ही उसकी आँखें नम हो गर्इं।

जैसे ही जाह्नवी संयत हुई, दूसरे संवाददाता ने पूछा — ‘आप युवाओं, विशेषकर महिलाओं के लिये कोई सन्देश देना चाहेंगी?'

‘आज जबकि देश की प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी हैं, जिन्होंने अपनी अद्‌भुत एवं चमत्कारी नेतृत्व क्षमता से बांग्लादेश को पाकिस्तान की क्रूरता व आतंक से स्वतन्त्र करवाने में अविस्मरणीय योगदान दिया है, जिनकी राजनीतिक सूझबूझ का सारी दुनिया लोहा मानती है, ऐसे समय में महिलाओं को, आबादी के आधे हिस्से को, अधिक—से—अधिक आगे आकर राष्ट्र को विकास के पथ पर ले जाने वाले यज्ञ में अपनी आहुति डालनी चाहिये।'

‘धन्यवाद मैडम।'

प्रेस वालों से फारिग होकर जाह्नवी घर के अन्दर चली गयी और अनुराग बहादुर को साथ लेकर सभी आगन्तुकों को चाय—नाश्ता करवाने में लग गया। जैसे ही जाह्नवी आई, श्रद्धा निर्मल से फोन पर बात कर रही थी। उसने फोन जाह्नवी को पकड़ाते हुए कहा — ‘लो, अब तुम दोनों बातें करो, मैं बाहर देख लूँ।'

‘जाह्नवी, पहले मेरी बधाई स्वीकार करो। मैं बता नहीं सकता कि मैं कितना खुश हूँ!'

‘निर्मल, तुम्हें भी हार्दिक बधाई। माँ जी और पापा जी के मेरी ओर से चरणस्पर्श करना और कमला दीदी को भी बधाई देना। लेकिन यह तो बताओ कि तुम्हारा रैंक क्या है?'

‘मेरा रैंक तुमसे नीचे है, शायद आईपीएस में नम्बर पड़ेगा। मेरा चयन हो गया, यही बहुत बड़ी उपलब्धि है, वरना मेरे अन्दर तो डर घर किये हुए था कि कहीं मैं रह ही न जाऊँ। दूसरे, तुम्हारे आईएएस में आने से मेरी खुशी का तो ठिकाना ही नहीं। मुझे भाभी जी ने बताया था कि प्रेस वाले आये हुए हैं। कल के अखबारों में तो तुम छाई रहोगी, यह सोचकर ही मेरा सीना चौड़ा हुआ जा रहा है। काश! कि हम इकट्ठे होते!'

‘तो आ जाओ ना, इसमें इतना सोचने वाली क्या बात है? कमला दीदी को भी ले आओ। वह भी घूम—फिर जायेगी।'

‘अभी तो नहीं, क्योंकि जैसे—जैसे लोगों को पता चलेगा, बधाई देने वालों का तांता लग जायेगा। छोटा शहर है, पापा जिन संस्थाओं से जुड़े हैं, सभी आयेंगे। यह बहुत बड़ी उपलब्धि है कि तुम अपने राज्य की पहली महिला आईएएस अध्किारी होगी और कन्सोलेशन प्राइज़ के रूप में मैं अपने शहर से पहला आईपीएस ऑफिसर।'

‘निर्मल, कहीं तुम्हें ईर्ष्या तो नहीं हो रही?'

‘अरे, ईर्ष्या किस बात की? मैं तो प्रसन्न हूँ कि मेरी होने वाली ‘बेटर—हाफ' मेरे से ‘बेटर' होगी।'

‘मैं कोशिश करूँगी कि हमारी प्रोफेशनल लाइफ का हमारे व्यक्तिगत जीवन पर कोई नकारात्मक प्रभाव न पड़े, पद और स्थान का अन्तर हमारे भावनात्मक सम्बन्धों में दरार न ला पाये .....लो भइया आ गये, उनसे भी बात कर लो।'

अनुराग — ‘निर्मल जी, आपको बहुत—बहुत बधाई। पत्रकार आये हुए थे। अभी उनको विदा करके आया हूँ। अंकल जी और आंटी जी को भी बधाई। अगर नज़दीक हों तो उनसे बात करवा दो।'

‘लो पापा आ गये, बात कर लो,' निर्मल ने फोन परमानन्द को पकड़ा दिया।

‘अंकल जी, आप सभी को निर्मल जी और आपकी बहू जाह्नवी के आईएएस में आने की हमारी ओर से बहुत—बहुत बधाई।'

परमानन्द — ‘बेटे अनुराग, यह सब परमात्मा की कृपा है कि हमारे परिवारों में एक—साथ दो—दो अफसर बन रहे हैं। जाह्नवी बिटिया को हमारी ओर से बधाई और आशीर्वाद, और आपको तथा जाह्नवी की भाभी को भी बधाई। हमारी पोती मीनू को ढेरों प्यार देना।'

ब्रेकफास्ट के लिये टेबल की ओर आते हुए अनुराग ने कहा — ‘आज तो हलवे की खुशबू आ रही है!'

श्रद्धा — ‘हमारे यहाँ शुभ अवसर पर हलवे से मुँह मीठा करने का रिवाज़ है और आज से बड़ा शुभ अवसर क्या होगा, सो मैंने हलवा बना लिया।'

अनुराग ने मज़ाक में कहा — ‘जाह्नवी के आईएएस में आने पर हलवा तो ठीक है, किन्तु कभी ये मेरी बॉस बन कर आ गयी तो......'

‘भइया, आप भी कैसी बात करते हैं? छोटी बहिन भी कभी बड़े भाई की बॉस बन सकती है। और फिर आप तो मेरे बड़े भाई ही नहीं, पापा के समान हो। अगर ऐसा कोई अंदेशा है तो मैं ज्वॉइन ही नहीं करूँगी।'

‘नहीं मेरी प्यारी गुडिया—सी बहिना, ऐसा कुछ नहीं। मैं तो मज़ाक कर रहा था।'

श्रद्धा — ‘अनुराग, अब हमें निर्मल जी के पैरेंट्‌स से बात करके सगाई की रस्म कर लेनी चाहिये। अगर उन्हें कोई विशेष असुविधा न हो तो उन्हें आने वाले रविवार को बुला लो।'

‘सोच तो तुम्हारी ठीक है श्रद्धा। उनकी दुकान पर फोन नहीं है वरना तो मैं अभी बात कर लेता। अंकल रात को जब घर आयेंगे तो उनसे बात कर लेंगे।'

अनुराग तो ब्रेकफास्ट करके ऑफिस चला गया और श्रद्धा घर के काम निपटाने में लग गयी। जाह्नवी अपने कमरे में आई, परदे सरकाये, वृक्षों की टहनियों के बीच से छनकर आती धूप आधे बेड तक पहुँच रही थी और उसी धूप का आनन्द लेने के लिये वह अलमस्त बेड पर पसर गयी। सोचने लगी कि निर्मल से प्रथम परिचय की तारीख को याद करूँ तो तब से अब तक के महीनों की सँख्या का जोड़ एक साल भी नहीं बनता। लेकिन अब तक के जीवन की यह सबसे अमूल्य अवधि है। इस अवधि में घटी एक—एक घटना ने मेरा भविष्य—पथ निर्धारित ही नहीं किया, उसे आलोकित भी किया है। निर्मल से परिचय — आदान—प्रदान के समय जो परिचय हुआ, उसकी परिणति इस रूप में भी हो सकती है, सोचा तक न था। निर्मल आम लड़कों जैसा लड़का था। लेकिन जैसे—जैसे दिन गुज़रते गये, उसके व्यक्तित्व की खूबियाँ सामने आने लगीं। उसके प्रति मन में कोमल भावनाएँ अंकुरित होने लगीं। फिर तो इन भावनाओं की जड़ें दिल की गहराइयों में उतरती चली गर्इं और इनकी गहराइयों का प्रथम बार तब अहसास हुआ जब दिल्ली भ्रमण के अगले दिन निर्मल ने मेरे इंडियन कॉपफी हाउस चलने के प्रस्ताव को बिना कोई कारण बताये बेरहमी से ठुकरा दिया था। वैसे तो पापा के निधन से बहुत पहले ही मैं निर्मल को अपना बना चुकी थी, किन्तु जब वह शिमला आया और मैं अपने गम में डूबी उसकी छाती से लगी रो रही थी और उसकी आँखों से टपक रहे आँसू मेरे कपोल पर पड़े तो — ‘तुम मेरे साथ, मेरे ही आँसू में गले' — जिस्मों के परे हमारी रूहें एक हो गर्इं। द्वैत—भाव तिरोहित हो गया। वह सािध्य एकात्म—भाव जाग्रत कर गया। और उस दुःख की घड़ी में भी आनन्द की अनुभूति हुई। क्या—क्या याद करूँ? कहते हैं कि विवाह दो अनजान प्राणियों को एक सूत्र में बाँधता है और शरीर के धरातल से आरम्भ होकर प्रेम अन्तर्मन में उतरने लगता है। लेकिन मेरे और निर्मल के बीच.... प्रेम का स्फुरण? उसका आधार शरीर का आकर्षण कतई नहीं था और न ही शरीर को सीढ़ी बनाकर यह परवान चढ़ा है। निर्मल के सद्‌व्यवहार ने मेरा ध्यान उसकी ओर आकर्षित किया और जैसे—जैसेे उसके चारित्रिक गुण सामने आते गये, उसके प्रति मेरा लगाव गहराता गया। इसे मीरा की गिरधर के प्रति तड़पन कहूँ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस तरह का गम्भीर मंथन करते—करते कब नींद आ गयी, उसे पता ही नहीं चला।

दोपहर के खाने के लिये बहादुर बुलाने आया, किन्तु जाह्नवी को सोये हुए देखकर बिना आवाज़ दिये वापस चला गया। श्रद्धा ने आकर देखा, उसे लगा कि जाह्नवी बहुत देर से सो रही है। उसने पहले हल्की—सी आवाज़ दी, लेकिन जवानी की नींद होती भी तो कितनी मस्त है, जाह्नवी की ओर से कोई हरकत का संकेत न मिला तो तो श्रद्धा ने थोड़ी गुदगुदी की। जाह्नवी आँखें मलती हुई उठी।

श्रद्धा — ‘आज दिन में इतनी गहरी नींद कैसे, मेरी लाडो?'

‘भाभी जी, आज सुबह चार बजे के लगभग नींद खुल गयी थी। हुआ यह कि उससे पहले मुझे एक स्वप्न आया। गली में एक रेहड़ी वाला सब्जी बेच रहा है। मैं उससे सब्जी ले रही हूँ कि डाकिया आता है और मुझे एक बड़ा—सा लिफाफा पकड़ाता है। आँख खुली तो मैं अपने बेड पर थी। फिर नींद नहीं आई। सोचती रही कि डाकिया कौन—सी चिट्ठी लाया और फिर जब पत्रकार आये तो लगा जैसे स्वप्न में डाकिया मेरे रिज़ल्ट की चिट्ठी ही मुझे दे गया था। इसलिये ब्रेकफास्ट के बाद सोई तो गहरी नींद आ गयी।'

‘और सपना सच हो गया। वैसे कहते भी हैं कि प्रभात—वेला का सपना कभी झूठा नहीं होता। चल आ, अब लंच करें।'

‘भाभी जी, आप चलो, मैं दो मिनट में आई।'

निर्मल ने सबसे पहले जितेन्द्र को फोन मिलाया। जितेन्द्र बाथरूम में था, इसलिये फोन सुनन्दा ने उठाया — ‘भाभी, बधाई हो, आपकी दुआएँ रंग लार्इं और मैं अफसर बन गया हूँ।'

‘बहुत—बहुत बधाई देवर जी, यह तो आपकी मेहनत का फल है। और आपकी वो दोस्त...?' निर्मल को आज सुनन्दा का इस तरह पूछना अच्छा लगा।

‘वो भी अफसर बन गयी है।'

‘अरे वाह देवर जी, क्या कहने! आज तो सुबह—सुबह यह खबर सुनाकर आपने खुश कर दिया। आपको दोहरी बधाई....लो ‘ये' भी आ गये, इनसे बात करो.....निर्मल, तूने बहुत बड़ा मोर्चा मार लिया है, बहुत—बहुत बधाई मेरे यार। हम तैयार होकर आते हैं।'

‘नाश्ता इकट्ठे ही करेंगे। चाची जी को भी लेकर आना, उनका भी आशीर्वाद लेना है।'

उसके बाद उसने अपने चाचा तथा प्रोफेसर वर्मा के घर फोन किये। पता चला कि प्रोफेसर वर्मा तो पिछले कुछ दिनों से अस्पताल में दाखिल हैं। यह सुनकर निर्मल की खुशियों को जैसे ब्रेक लग गया, किन्तु यह खबर उसने अपने तक ही रखी। और कमला को कहा कि माँ के साथ मिलकर पाँच—सात आदमियों के लिये नाश्ता तैयार कर ले। स्वयं बाज़ार से मिठाई लेने चला गया।

सावित्री — ‘कमला, निर्मल जब मिठाई ले आये तो ‘माता' को भोग लगाने के लिये पहले अलग निकाल कर रख देना। फिर जूठ डालना।'

‘माँ, मन्दिर भी तो प्रसाद चढ़ाकर आना होगा?'

‘मन्दिर शाम को चलेंगे।'

जैसी उम्मीद थी, सारा दिन कोई—न—कोई बधाई देने के लिये आता रहा। शाम को निर्मल मिठाई लेकर प्रोफेसर वर्मा को मिलने अस्पताल गया। जब निर्मल अस्पताल पहुँचा तो प्रोफेसर वर्मा निढालावस्था में बेड पर पड़े थे। होश तो उन्हें था, किन्तु शरीर में उठकर बैठने की ताकत नहीं थी। निर्मल ने उनके पैरों में सिर नवाया। उन्होंने लेटे—लेटे ही हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया। जब निर्मल ने अपने आईपीएस बनने की बात कही तो उनका चेहरा अंदरूनी प्रसन्नता से एकदम दमक उठा। उन्होंने उठने की कोशिश की, किन्तु उठ नहीं सके। निर्मल ने उनकी बाजू पकड़कर लेटे रहने का संकेत किया और लड्‌डुओं का डिब्बा उनकी ओर बढ़ाया। उन्होंने दबे स्वर में थोड़ा—सा लड्‌डू खिलाने को कहा। उनके पास बैठे अटैंडेंट ने कहा कि डॉक्टर ने मना किया है। निर्मल ने अपना हाथ पीछे खींच लिया किन्तु प्रोफेसर वर्मा ने निर्मल के हाथ को अपने मुख की ओर ले जाकर लड्‌डू खा लिया। एक तरह का सन्तोष उनकी समस्त काया से झलक रहा था। लेकिन निर्मल प्रकटतः खुश दिखाई देते हुए भी भीतर से बहुत टूटा हुआ अनुभव कर रहा था। प्रोफेसर वर्मा जिसने कभी चाय तक नहीं पी थी, सदा चुस्त—दुरुस्त रहने वाला शख्स, आज इतना निस्सहाय, इतना अशक्त! कुछ देर प्रोफेसर वर्मा के बेड के पास बैठे—बैठे निर्मल ने कुछ बातें कीं, लेकिन यह संवाद इकतरफा था। निर्मल बोल रहा था, प्रोफेसर सुन रहा था। घंटा—एक बैठने के बाद निर्मल प्रोफेसर वर्मा को नमस्ते कर तथा कल आने की बात कहकर उठ खड़ा हुआ।

***