पल जो यूँ गुज़रे
लाजपत राय गर्ग
(15)
दिल्ली जाने से दो दिन पहले जब निर्मल ने बीस दिन के अवकाश का प्रार्थना—पत्र डिपार्टमेंट के ऑफिस में दिया तो क्लर्क ने उसे एचओडी (विभागाध्यक्ष) से मिलकर अपना प्रार्थना—पत्र स्वयं स्वीकृत करवाने के लिये कहा। जब वह एचओडी के ऑफिस में गया और उसने अपना प्रार्थना—पत्र उनके समक्ष रखा तो एक नज़र डालने के बाद एचओडी ने कहा — ‘मि. निर्मल, कांग्रेचुलेशन्ज़ इन एडवांस। विश यू बेस्ट ऑफ लक्क फॉर द इन्टरव्यू। हैज ऐनी अदर ब्वाय फ्रॉम लॉ क्वालीपफाइड?'
‘सर, लॉ से तो मैं अकेला ही हूँ।'
‘वैरी गुड, आय एम प्राउड ऑफ यू,' कहने के साथ ही उन्होंने प्रार्थना—पत्र पर अलॉउड लिखकर साइन कर दिये और निर्मल के हाथ जोड़कर धन्यवाद और नमस्ते करने पर कुर्सी से उठकर उससे हाथ मिलाया।
निर्मल से अपनी प्रसन्नता ओटी नहीं जा रही थी। एचओडी का खड़े होकर हाथ मिलाना! मामूली बात नहीं थी; उस एचओडी का, जिसके कमरे में प्रवेष करते समय विद्यार्थियों के पसीने छूटने लगते थे। निर्मल ने नज़रें ऊपर उठाकर परमात्मा का लाख—लाख धन्यवाद किया।
तीन तारीख को जाह्नवी की बस ने साढे ग्यारह बजे चण्डीगढ़ पहुँचना था। निर्मल के मन में जाह्नवी से मिलने की इतनी उत्कंठा थी कि रात को वह ढंग से पूरी तरह सो भी नहीं पाया। वह सोचने लगा कि मन में यह कैसी बेचैनी है, क्यों है? जाह्नवी से वह कोई पहली बार तो नहीं मिलने जा रहा? फिर ऐसा क्यों? कौन—सी ग्रन्थियाँ हैं जो उसे सामान्य नहीं रहने दे पा रहीं? कभी सवा महीने बाद उसे देखने की ललक गुदगुदा जाती है तो कभी चेहरे पर मुग्ध भावों का संचरण होने लगता है। इन्हीं भाव—विचारों में विचरण करते हुए उसने अपनी दैनिक क्रियाओं को पूर्ण किया और साढे दस बजे हॉस्टल से बस स्टैंड के लिये निकल लिया।
जब बस आकर रुकी तो जाह्नवी सबसे पहले उतरी, क्योंकि बस के बस—स्टैंड में प्रवेष करते ही वह खिड़की पर आकर खड़ी हो गयी थी।
‘हैलो, कैसे हो निर्मल?'
‘फाइन, एण्ड यू, माय स्वीटी?.....क्या लोगी—चाय या कोल्ड ड्रक?'
‘पहले तुम सामान रखो, मैंने सीट रोक रखी है। फिर देखते हैं, समय हुआ तो चाय पी लेंगे वरना नेक्सट स्टॉप पर देख लेंगे।'
सामान रखने के उपरान्त निर्मल ने कंडक्टर से पूछकर जाह्नवी को टी—स्टॉल पर बुला लिया। बस चलने पर आरम्भ की कुछ देर की व्यक्तिगत बातों के पश्चात् दोनों के बीच अधिकांश बातचीत इन्टरव्यू—केन्द्रित ही रही। बातों—बातों में जाह्नवी ने बताया कि भइया के बॉस ने लगातार एक सप्ताह तक उसे अपने ऑफिस में लगभग एक घंटा प्रतिदिन इन्टरव्यू के टिप्स दिये तथा मॉक—इन्टरव्यू लेकर प्रेक्टिस करवाई। उनसे टिप्स लेने के बाद मेरा आत्मविश्वास कई गुणा बढ़ गया है। पिपली बस स्टैंड पर सवारियों को पन्द्रह मिनट का समय देकर ड्राईवर—कंडक्टर खाना खाने चले गये। जाह्नवी ने भी अपना पैक्ड—लंच खोला और दोनों ने मिलकर खाया।
दिल्ली कश्मीरी गेट आईएसबीटी पर उतरकर उन्होंने टैक्सी ली और होटल पहुँच गये। अपने—अपने कमरे में सामान रखकर जाह्नवी वाले कमरे में बैठकर उन्होंने चाय मँगवाई। चाय पीने के बाद जाह्नवी ने कहा — ‘निर्मल, मैं थोड़ी देर लेटकर रिलैक्स करूँगी क्योंकि मैं सुबह चार बजे उठ गयी थी और ऊपर से शिमला से यहाँ तक का सफर।'
‘वाह, क्या इत्त़फाक है, मेरी नींद भी सही चार बजे खुल गयी थी जबकि मेरा अलार्म पाँच बजे का लगा हुआ था। अच्छा, तुम आराम करो, मैं भी चेंज कर लूँ।' कहकर निर्मल अपने कमरे में आ गया।
रात को खाना खाने के पश्चात् दोनों अपने—अपने कमरों में सो गये। एक—डेढ बजे के करीब जाह्नवी को एक भयावह स्वप्न ने विचलित कर दिया। नींद में उसे लगा, जैसे रज़ाई के ऊपर से उसे किसी ने जकड़ लिया हो। जकड़न इतनी मज़बूत थी कि उसे अपनी हडि्डयों तक हाथों के पंजों की चुभन महसूस हुई। अपनी ओर से उसने पूरा जोर लगाकर शरीर को झटका दिया तो कहीं जाकर जकड़न से मुक्त हुई। उठकर बैठी। बेड—स्विच ऑन किया। चारों तरफ नज़र दौड़ाई। कहीं कोई नहीं था। लेकिन डर के मारे शरीर पसीने से तर—बतर था। बाथरूम में जाकर तौलिये से पसीना पौंछा। हाथ गीला कर चेहरे पर फेरा। वापस आकर बेड पर लेट गयी। याद करने लगी कि स्वप्न में क्या देखा था? उसे लगा जैसे आदमी के कंकाल जैसे लोहे के शिकंजे से उसे किसी ने जकड़ लिया था। मन से इस डर को दूर भगाने के लिये उसने गायत्री मन्त्र भी मन—ही—मन दोहराया, किन्तु मन में बैठा भय जस का तस रहा। लगभग आधा—पौना घंटा करवटें बदलते रहने के बाद भी जब नींद न आई तो उसने निर्मल को जगाने की सोची। मन दुविधा में पड़ गया। क्या इस तरह आधी रात को निर्मल के कमरे में जाना उचित होगा? मेरी नींद तो खराब हुई ही है, उसकी नींद क्यों डिस्टर्ब करूँ? मन ने कहा कि निर्मल कोई गैर थोड़े—ना है, उसे अपनी मानसिक अवस्था से अवगत नहीं करवाओगी तो अपनापन काहे का? इन्हीं परस्पर विरोधी विचारों के चलते वह उठी, कमरा बन्द किया और निर्मल के कमरे की बेल बजाई। बेल बजाने के बाद कुछ क्षण प्रतीक्षा की, जब दरवाज़ा नहीं खुला तो उसने दुबारा बेल बजाई। निर्मल को रत्ती—भर अंदेशा नहीं था कि इस समय बेल जाह्नवी ने बजाई होगी, सो बेड से बिना उठे पूछा — ‘कौन?'
‘निर्मल, मैं जाह्नवी।'
निर्मल ने महसूस किया कि जाह्नवी की आवाज़ सामान्य नहीं थी। उसने झट से रज़ाई परे हटाई, लाईट ऑन की और जैसे दौड़कर दरवाज़ा खोला।
जाह्नवी के चेहरे की उड़ी हुई रंगत देखकर पूछा — ‘इस तरह घबराई हुई क्यों हो?'
जाह्नवी ने कमरे में दाखिल होते हुए दरवाज़ा बन्द किया और निर्मल से लिपट गयी। निर्मल ककर्त्तव्यविमूढ़ कि यह क्या? निर्मल ने उसकी घबराहट को ध्यान में रखते कोई प्रष्न नहीं किया। कुछ पल यूँ ही गुज़रे। निर्मल ने उसे सहारा देते हुए बेड पर बिठाया। फिर पूछा — ‘क्या हुआ?'
निर्मल बेड के पैरों की तरफ बैठ गया। जाह्नवी ने रज़ाई पैरों के ऊपर लेते हुए आहिस्ता—आहिस्ता भयावह स्वप्न का वृतान्त कह सुनाया। बीच—बीच में निर्मल को लगा कि अभी भी उस भयानक स्वप्न से जाह्नवी पूरी तरह उबर नहीं पायी है। स्वप्न का पूरा विवरण सुन कर निर्मल ने पूछा — ‘पहले भी कभी ऐसा हुआ है?'
‘ऐसा डरावना स्वप्न तो कभी नहीं आया, किन्तु पापा की डेथ के बाद से मुझे अकेले सोने में डर लगता रहा है। इसलिये मैं हमेशा मीनू को अपने साथ सुलाती हूँ। निर्मल, मैं उस रूम में नहीं सो सकती। मुझे यहीं सो जाने दो।'
‘ठीक है, मैं गद्दा नीचे लगा लेता हूँ, रज़ाई तेरे वाले रूम से उठा लाता हूँ।'
‘तुम भी बेड पर ही लेट जाओ, इतना बड़ा तो बेड है।'
‘नहीं जाह्नवी, मैं तुम्हारे साथ एक बेड पर नहीं सो सकता। समझने की कोशिश करो,' कहने के साथ ही वह दूसरे कमरे से रज़ाई उठा लाया और एक गद्दा नीचे लगा लिया। फिर उसने जाह्नवी के चेहरे पर हाथ फेरते हुए उसके माथे को चूम कर कहा — ‘अब निश्चत होकर सो जाओ, अभी रात बहुत बाकी है।'
दूसरे दिन उन्होंने मॉक—इन्टरव्यू के लिये कोचग ज्वॉइन की। कोचग के दौरान सामान्य ज्ञान, दैनंदिनी समाचारों के विश्लेषण से लेकर अलग—अलग विषयों पर तैयार की हुई पाठ्य—सामग्री तो प्रत्येक विद्यार्थी को दी ही गयी, साथ ही उन्हें प्रतिदिन पन्द्रह—पन्द्रह मिनट के लिये प्रष्नोत्तर का सामना करने का अभ्यास भी करवाया गया। इस प्रक्रिया में प्रष्नकर्त्ता न केवल विद्यार्थी के सही उत्तर को देखता था बल्कि उसके आत्मविश्वास तथा जीवन के प्रति दृष्टिकोण पर भी नज़र रखता था। हर दिन नया विशेषज्ञ इन्टरव्यू लेता था। बाद में प्रत्येक विद्यार्थी के मूल्यांकन के आधार पर व्यक्तिगत रूप में उसे उसकी गलतियाँ बताकर सुधर करने के लिये टिप्स दिये जाते थे। इस प्रकार यह अभ्यास बहुत ही उपयोगी रहा निर्मल और जाह्नवी के लिये।
यह पन्द्रह—पन्द्रह दिन की अवधि का कोर्स था। निर्मल और जाह्नवी के कोर्स पूरा करते—करते उनके इन्टरव्यू की तारीखें भी आ गर्इं। उन्होंने इन्टरव्यू होने तक दिल्ली ही रुकने का निर्णय लिया और तदनुसार अपने—अपने घरवालों को सूचित कर दिया। परमानन्द का अपनी दुकान के सिलसिले में महीने—बीस दिन में दिल्ली आना जाना होता था। निर्मल ने जब घर फोन करके बताया कि उसे अभी दस दिन दिल्ली और रुकना पड़ेगा और उसे पैसों की जरूरत है तो कमला ने उसे बताया कि पापा आज दिल्ली आ रहे हैं और सीधे उसके होटल में ही उससे मिलेंगे। जब यह बात निर्मल ने जाह्नवी को बताई तो वह बहुत खुश हुई और मज़ाक में बोली — ‘चलो, इस बहाने मैं अपने होने वाले ससुर जी के दर्शन कर लूँगी। मैं तो उन्हें ‘अंकल जी' नहीं पापा जी बुलाकर आशीर्वाद लूँगी।'
निर्मल ने भी उसी अन्दाज़ में उत्तर दिया — ‘बड़ी आई ससुर जी के दर्शन करने वाली, पहले मुझे तो पति बना लो।'
शरारत से आँखें मटकाती जाह्नवी ने कहा — ‘मैं तो कब का समर्पण कर चुकी हूँ, तुम ही टाल—मटोल कर रहे हो तो मैं क्या करूँ?'
‘अरे, तुम्हारी इसी अदा ने तो मुझे दीवाना बना दिया है।'
‘और तुम्हारे इसी सेल्फ—कन्ट्रोल ने मुझे बिन—मोल खरीद लिया है।'
‘बिन—मोल कैसे? मैं भी तो देवी जी के चरणों में हृदय—पुष्प अर्पित कर चुका हूँ।'
‘इससे तो इन्कार नहीं कर सकती।'
‘बहुत हो गयी चुहलबाज़ी। अब थोड़ा गम्भीर होकर कमरे में नज़र घुमा कर अपनी चीज़ों को सहेजकर दूसरे कमरे में रख आओ ताकि पापा को यह आभास न होने पाये कि हम इकट्ठे रहते हैं, यद्यपि यह तो मैंने बताया हुआ है कि हम दोनों एक ही होटल में रहते हैं। अगर वे यहाँ आते हैं तो रात को रुक भी सकते हैं।'
‘मतलब कि मुझे आज रात को अकेले सोना पड़ सकता है!'
‘हाँ, अगर वे यहाँ आये तो यह तो करना ही पड़ेगा। और फिर एक रात की ही तो बात है।'
‘मान लो, पापा के यहाँ होने पर मुझे अकेले में कोई भयावना स्वप्न आया और मैंने तुम्हारा दरवाज़ा खटखटाया तो क्या मुझे सम्भालोगे नहीं?'
‘अरे, ऐसा—वैसा कुछ नहीं होगा। अब यहाँ रहते हुए बहुत दिन हो गये हैं। कोई सपना—वपना नहीं आयेगा।'
‘अच्छा बाबा, देख लेती हूँ। अपना सामान तो समेट लेती हूँ, लेकिन कमरे में से अपनी गंध कैसे समेटूँ जिसका तुम हर वक्त जिक्र किया करते हो।'
‘वह तो मुझे महसूस होती है, हर कोई थोड़े—ना महसूस कर सकता है ऐसी गंध?'
‘यह तो शायरों वाली बात कर दी।'
‘तूने खुद ही तो एक दिन कहा था कि हर प्रेमी दिल से कवि और शायर ही होता है। एक्स—रे की भाँति मन के भेद जान लेता है।'
वे ये बातें कर ही रहे थे कि रिसेप्शन से फोन आया कि तुम्हारी कॉल है। परमानन्द ने निर्मल को बताया कि क्योंकि उसके पास समय कम है, इसलिये वह होटल नहीं आ पायेगा और तुम ही सदर बाज़ार आ जाओ।
‘लो तुम्हारी मन की मुराद पूरी हो गयी। रात को तुम्हें अकेले नहीं सोना पड़ेगा। पापा ने मुझे सदर बाज़ार बुलाया है। मैं उन्हें मिलकर आता हूँ।'
‘मैं भी चलूँ?'
‘नहीं, तुम वहाँ क्या करोगी? बहुत भीड़—भड्डका होता है। मैं यह गया और यह आया। वापस आकर घूमने चलेंगे।'
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