पल जो यूँ गुज़रे
लाजपत राय गर्ग
(10)
जब निर्मल चण्डीगढ़ आया तो हॉस्टल में कई लड़कों ने उससे पूछा, अरे भई, इतने दिन कहाँ रहे? उस द्वारा दादी के देहान्त का समाचार देने पर सभी ने औपचारिक शोक जताया। डिपार्टमेंट में भी उसके करीबी दोस्तों ने इतने दिन की उसकी अनुपस्थिति के बारे में पूछा। शाम होने के करीब उसने जाह्नवी को पत्र लिखना आरम्भ किया। सम्बोधन कई बार लिखा, काटा। उसको समझ नहीं आ रहा था कि सम्बोधन में क्या लिखे? जाह्नवी के घर के पते पर यह उसका प्रथम पत्र जाना था, इसलिये सम्बोधन को लेकर उसका मन दुविधग्रस्त था। इससे पहले जो पत्र उसने जाह्नवी को लिखे थे, वे तब लिखे थे जब वह दिल्ली में थी। अन्ततः उसने लिखाः
जाह्नवी,
नमस्ते!
तुमने भी पता नहीं क्या सोचा होगा कि मैंने तुम्हारी दीवाली की शुभ—कामनाओं का जवाब क्यों नहीं दिया। चाह कर भी इससे पहले पत्र नहीं लिख पाया। तुम्हें जानकर दुःख होगा कि मेरी दादी जी अपनी सांसारिक यात्रा पूरी कर गोलोक सिधार गयी हैं। दीवाली से एक दिन पूर्व जब हम उनका दाह—संस्कार करके घर पहुँचे तो कमला ने तुम्हारा दीवाली ग्रीटग—कार्ड दिया। उस समय की मेरी मनोदशा को तुम समझ सकती हो! कार्ड पर सरसरी नज़र डालकर कमला को अलमारी में रखने के लिये कह दिया। आने—जाने वालों को अटैंड करने तथा ऐसे अवसरों पर घर में होने वाले सामान्य व्यवहारों में ऐसा उलझा रहा कि समय ही नहीं मिला कि तुम्हें पत्र लिख सकता। आज ही चण्डीगढ़ पहुँचा था, सो अब लिख रहा हूँ।
घर गया तो दो दिन तक उत्सव जैसा माहौल रहा। एक दिन माँ के कहने पर मैंने अपने दोस्त जितेन्द्र, जिसके विवाह के बारे में तुम्हें बताया था, और उसकी पत्नी सुनन्दा को डिनर पर बुलाया। इससे पहले अवसर ही नहीं मिला था उन्हें घर पर बुलाने का। ढाई—तीन घंटे सभी ने खूब गप्पबाजी की, हँसी—मज़ाक हुआ। बन्टु बेचारा तो दादी के देहान्त का समाचार सुनकर ही आ पाया था वरना तो उसे, बस, दीवाली वाले एक दिन की ही छुट्टी मिलनी थी। घर में सबसे छोटा होने के कारण सबसे अधिक गुमसुम रहा वह, क्योंकि दीवाली की अगली सुबह ही उसे कॉलेज के लिये लौटना था। वह किस मानसिक अवस्था में गया, किस तरह उसका पढ़ाई में मन लगा होगा, हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं।
इन पन्द्रह दिनों में उन कुछ रिश्तेदारों से मिलने का भी अवसर मिला, जिनके बारे में केवल सुना हुआ था, लेकिन देखा उन्हें कभी न था। हमारे समाज में इसे एक अच्छी परिपाटी भी कह सकते हैं कि दुःख के समय दूर—दराज़ के रिश्तेदार भी परिवार का दुःख बँटाने के लिये आते हैं। मृत्यु के बाद जो दस—बारह दिन के शोक की व्यवस्था है, यह भी बड़ी वैज्ञानिक है। मिलने—जुलने तथा रिश्तेदारों से बातें करके तथा अपना दुःख बाँटकर आदमी दुःख को भूलने लगता है। यह भूलना व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त आवश्यक है वरना तो कई तरह के मानसिक रोग उसे अपनी गिरफ्त में ले सकते हैं।
तुमसे इतनी बातें शेयर करके कुछ हल्का महसूस कर रहा हूँ वरना जब से कमरे में आया था, गुमसुम बैठा था। पढ़ने के लिये किताब उठाई तो पढ़ा ही नहीं गया।
अभी के लिये बस इतना ही, शेष फिर।
परिवार के सभी आदरणीय जनों को यथायोग्य नमस्कार!
भवदीय,
निर्मल
निर्मल ने पत्र लिखकर लिफाफे में डाला, बन्द किया, पता लिखा और लेटर—बॉक्स में डालने के लिये कमरे को ताला लगाकर सीढ़ियाँ उतर गया।
चौथे दिन जाह्नवी का पत्र आ गया। लिखा थाः
प्रिय निर्मल,
मधुर स्मरण!
दुःखद समाचार के साथ तुम्हारा पत्र मिला। पढ़कर बड़ा दुःख हुआ कि दादी जी नहीं रहीं। उनका दैहिक साथ छूट जाने पर तुम्हारा गमगीन होना स्वाभाविक है, यह मैं अच्छी तरह समझ सकती हूँ। चाहे उनके दर्शन करने का मुझे अवसर नहीं मिला, फिर भी उनके व्यक्तित्व के बारे में जिस तरह की बातें तुम बताया करते हो, उसके आधार पर मैं भली—भाँति अनुभव करती हूँ कि वे आपके परिवार की सशक्त धुरी थीं। उन्होंने अपने कठोर परिश्रम तथा अनुपम सूझ—बूझ से विभाजन के पश्चात् की विषम तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में परिवार को पुनःस्थापित करने में जो अहम रोल अदा किया था, वह साधारण स्त्रियों के बूते की बात नहीं होती। मैं समझती हूँ कि एक तरह से तुम सौभाग्यशाली हो कि तुम्हें अब तक दादी जी का प्रत्यक्ष आशीर्वाद मिलता रहा। मेरे दादा जी तो मेरे जन्म से पूर्व ही स्वर्ग सिधार गये थे। दादी जी की धुंधली—सी स्मृति है, क्योंकि जब उनका स्वर्गवास हुआ, तब मेरी आयु मुश्किल से ढाई—तीन वर्ष की रही होगी। मेरी मम्मी भी ब्रेन—ट्यूमर के कारण पाँच वर्ष पूर्व हमें अकेला छोड़ गर्इं। उनके बिछुड़ने के बाद से भाभी जी से ही माँ और बड़ी बहिन का स्नेह तथा जीवन के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण का मार्गदर्शन मिल रहा है।
निर्मल, हर इन्सान की एक शख्सियत होती है, दूसरा कोई व्यक्ति उसका स्थान नहीं ले सकता। दादी जी की क्षतिपूर्ति तो असम्भव है, फिर भी जैसे समय आने पर वृक्षों के पुराने पत्ते तथा पके हुए फल स्वतः ही झड़ जाते हैं, वैसे ही मनुष्य—जीवन की गति है। जो आया है, उसे जाना ही है। सांसारिक नियम को मानते हुए आगे तो बढ़ना ही पड़ता है। मैं तो प्रभु से यही प्रार्थना करूँगी कि उन्हें अपने श्रीचरणों में स्थान दें तथा आपको तथा आपके परिवार को इस क्षति को सहन करने की शक्ति प्रदान करें। जो हमारे प्रिय होते हैं, उनका सूक्ष्म अस्तित्व सदैव हमारे साथ रहता है। दादी जी का आशीर्वाद भी सदैव तुम पर बना रहेगा। पापा, भइया और भाभी की संवेदना भी स्वीकार करें। पापा ने मुझे लिखने के लिये कहा है कि तुम वीकेन्ड पर यहाँ आ जाओ, स्थान परिवर्तन से तुम्हारा मूड चेंज़ हो जायेगा।
मैं मानती और जानती हूँ कि इस गम को तुम्हारे लिये इतनी शीघ्रता से भूल पाना आसान नहीं होगा, फिर भी कहूँगी कि पढ़ाई पर ध्यान लगाना शुरू कर दो, धीरे—धीरे सब ठीक हो जायेगा।
तुम्हारी ही,
जाह्नवी
पत्र पढ़कर निर्मल के मन को बड़ी प्रसन्नता हुई। जाह्नवी के चरित्र तथा उसके परिवार के दृष्टिकोण को समझने में इस पत्र ने उसके समक्ष नये आयाम प्रस्तुत किये। पहली बार स्पष्ट हुआ कि जाह्नवी ने उसके साथ अपनी मित्रता और घनिश्ठ सम्बन्धों को लेकर परिवार से कोई बात छिपाई नहीं अपितु उन्हें सब कुछ बता रखा है। उसकी नज़रों में जाह्नवी के व्यक्तित्व के प्रति एक प्रकार का सम्मान—भाव जाग्रत हुआ। उसे जाह्नवी एक साधारण तथा पढ़ाई में निपुण लड़की के साथ—साथ एक ऐसी विलक्ष्ण नवयौवना प्रतीत होने लगी जिसका हृदय उसके प्रति प्रेम के अतिरिक्त दैवीय गुणों से लबालब भरा हुआ है। यह तो वह पहले ही परख चुका था कि जाह्नवी के प्यार में बचपना नहीं बल्कि एक खास किस्म की परिपक्वता तथा गाम्भीर्य है जो साधरणतः इस उम्र में बहुत कम, बल्कि न पाये जाने वाला गुण है।
इन विचारों से उसके मन को काफी सुकून अनुभव हुआ। इसके बाद वह पढ़ने बैठा तो निरन्तर तीन घंटे तक पढ़ने में मग्न रहा।
तीन—चार दिन पश्चात् उसने जाह्नवी को लिखाः
प्रिय जाह्नवी,
मधुर स्मरण!
तुम्हारा संवेदना से भरपूर पत्र मिला। पढ़कर उद्वेलित मन काफी हद तक शान्त हो गया है। दादी जी के व्यक्तित्व को लेकर तुमने जो लिखा है, शत—प्रतिशत सही है। तुम्हारे पापा जी, भाई साहब व भाभी जी का आभारी हूँ कि उन्होंने अपनी संवेदना प्रकट कर मुझे उदासी से उबरने में सहायता की है। उनके शिमला आने के आग्रह का भी दिल से आभारी हूँ, लेकिन अभी मैं आ नहीं पाऊँगा, क्योंकि लगभग दस दिन के लेक्चर मिस हो गये हैं, वीकेन्ड पर किसी दोस्त के साथ बैठकर उनकी क्षतिपूर्ति करना चाहता हूँ। हाँ, क्रिसमस की छुट्टियों में आने की कोशिश करूँगा।
मेरे पिछले पत्र में सम्बोधन को देखकर तुम्हें अवश्य अज़ीब लगा होगा। मैं दुविधा में था कि क्या लिखकर तुम्हें सम्बोधित करूँ? मेरे मन में शंका थी कि तुम्हारे परिवार के किसी सदस्य के हाथ पत्र लग गया और मेरे द्वारा लिखे आत्मीयता—भरे सम्बोधन को देखने पर कहीं तुम्हारे जीवन में कोई भूकम्प न आ जाये, इसलिये सीधा ‘जाह्नवी' ही लिखा था। लेकिन तुम्हारे पत्र को पढ़कर तुम्हारे परिवार के खुले विचारों से परिचित होेने पर मैं उनके सम्मान में श्रद्धा से नतमस्तक हूँ। असल में अब मेरी समझ में आया है कि जहाँ परिवार में छोटे—बड़े एक—दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हैं, वहाँ दुराव—छिपाव, सत्य पर पर्दा डालने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती और व्यक्तित्व के विकास में भी कोई अवरोध नहीं आते। इसीलिये तुम वैसी हो, जैसी तुम हो।
अब तो हर समय एक ही उत्सुकता मन में बनी रहती है कि कब रिजल्ट आये और कब सीढ़ी पर अगला कदम रखें! समय कैसे पास करती हो?
घर में सभी परिवारजनों को यथायोग्य नमस्ते व प्रणाम!
तुम्हारा,
निर्मल
पत्र लिखने वाले दिन रात को जब निर्मल बिस्तर में लेटा तो उसके मन—मस्तिष्क में जाह्नवी को लेकर भविष्य की अनेक तरह की कल्पनाएँ उमड़ती—घुमड़ती रहीं। सबसे पहले तो विचार आया कि यदि मैं क्रिसमस की छुट्टियों में शिमला जाता हूँ तो क्या वह मुझे अपने घर में रहने के लिये कहेगी या मेरे लिये किसी होटल में कमरा बुक करवायेगी। मन ने कहा कि जब वह तुम्हें चण्डीगढ़ में अपने कमरे में रात बिताने के लिये बिना किसी हिचकिचाहट के आमन्त्रित कर सकती है तो अपने शहर में तो हर हालत में अपने घर पर रुकने के लिये कहेगी। उसके पत्र से भी तो यही लगता है कि उसके घरवाले उसपर पूरा विश्वास करते हैं और जैसा उसने मेरे बारे में बताया होगा, उसके आधार पर वे मुझे एक कर्त्तव्यनिश्ठ और सच्चरित्र लड़का मानते हैं। अगला सवाल मन में उठा कि क्या मैं उसकी या उसके परिवार की बात एकबार में ही मान लूँगा या मुझे होटल में ठहरने की बात कहनी चाहिये। मन ने उत्तर दिया, औपचारिकता तो निभानी ही पड़ेगी। कल्पना में आगे आईएएस बनने के बाद के स्वयं के जीवन को लेकर तथा जाह्नवी के जीवनसंगिनी बन जाने के बाद की सुखद एवं मधुर कल्पनाओं को एकदम झटका लगा जब उसके कमरे के दरवाज़े पर अचानक दस्तक हुई। सोचने लगा कि रात के इस समय कौन होगा? उसका कोई दोस्त होता तो उसका नाम पुकारता। वह अभी सोच ही रहा था कि दुबारा दस्तक हुई। उसने उठकर दरवाज़ा खोला। सामने जो आदमी था, उसने कहा — ‘बाबू जी, आपका तार है,' कहने के साथ ही उस व्यक्ति ने एक लिफाफा उसे पकड़ाते हुए दूसरा पेपर हस्ताक्षर करवाने के लिये उसके सामने कर दिया। शिमला से इस समय टेलिग्राम के आने से लिफाफा खोलने से पहले ही उसका मन आशंकित हो उठा।
उसने लिफाफा खोला। पढ़ा, सन्देश था — थ्ंजीमत मगचपतमकण् ब्तमउंजपवद म्समअमद ।ड दृ श्रींदंअप (पिता गुज़र गये। दाह संस्कार ग्यारह बजे—जाह्नवी)। पढ़कर मन बेचैन हो उठा। मन में कबीर के शब्द गूँजने लगेः
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
देखत ही बुझ जाएगा, ज्यों तारा परभात।।
निर्मल सोचने लगा, क्या है यह जीवन? कुछ दिन पूर्व हुई दादी की मृत्यु को भूलने का प्रयास कर रहा था कि उसकी प्रियतम साथी के पिताजी की मृत्यु का समाचार आ गया। कहाँ तो जाह्नवी ने लिखा था कि पापा ने मुझे शिमला आने का निमन्त्राण दिया है और कहाँ अब उनकी मृत्यु का समाचार। जाह्नवी ने टेलिग्राम दिया है तो इसका सीधा—सा अर्थ है कि
वह चाहती है कि मैं उसके पिता के अंतिम संस्कार में सम्मिलित होऊँ। आदमी सोचता कुछ है, नियति चाहती है कुछ और। कुछ घंटे पूर्व जाह्नवी को लिखे पत्र में मैंने लिखा था कि उनके घर वालों के शिमला आने के आग्रह को अभी मैं नहीं मान पाऊँगा, लेकिन क्रिसमस की छुट्टियों में आने की कोशिश करूँगा। वह पत्र अभी मेरी पैंट की जेब में ही पड़ा है और अब सुबह मुझे शिमला जाना होगा। नियति की गुत्थी कौन सुलझा पाया है?
रात के बारह बजने वाले थे। उसने साढ़े चार बजे का अलार्म लगाया और सोने का उपक्रम करने लगा।
अलार्म बजने पर उठा। शौचादि से फारिग होकर स्नान किया, ब्रीफकेस में एक दिन के कपड़े रखे और बस स्टैंड जाने के लिये पीजीआई वाली सड़क पर आया। यहीं से ऑटो मिलने की उम्मीद थी और दसेक मिनट में ऑटो मिल भी गया। बस स्टैंड पर पहुँचा तो बस चलने को तैयार ही थी। बस ने दस बजे शिमला बस स्टैंड पर पहुँचा दिया। अब सवाल पैदा हुआ कि मशोबरा कैसे पहुँचा जाये? जैसा एकबार जाह्नवी ने बताया था, बस स्टैंड से मशोबरा की दूरी लगभग बारह किलोमीटर है। समय कम था, अतः उसने टैक्सी स्टैंड से बिना मोलभाव किये टैक्सी ली और समय से मशोबरा पहुँच गया। अर्थी उठाने की तैयारी हो रही थी। शवयात्रा के साथ जाने के लिये आये लोगों की अच्छी खासी भीड़ थी, क्योंकि जाह्नवी के पापा अभी सर्विस में थे और जाह्नवी का भाई भी शिमला में प्रांतीय सचिवालय में अच्छे प्रशासनिक पद पर कार्यरत है। निर्मल के लिये जाह्नवी को छोड़कर सभी अपरिचित थे, अतः उसकी आँखें जाह्नवी को ढूँढ़ने लगीं। अचानक जाह्नवी की निगाह हाथ में ब्रीफकेस पकड़े निर्मल पर पड़ी। उसने अपने भाई अनुराग के पास जाकर उसके कान में कुछ कहा। अनुराग ने निर्मल के पास आकर पूछा — ‘आप निर्मल?'
‘जी।'
‘मैं अनुराग, जाह्नवी का भाई।'
‘बहुत दुःख है बाबू जी के अचानक निधन पर।'
‘इधर आइये, जाह्नवी वहाँ है,' और अनुराग निर्मल को जाह्नवी के पास छोड़कर शवयात्रा के अधूरे काम पूरे करवाने के लिये चला गया।
जाह्नवी की आँखों से आँसू बह—बह कर आँखों का पानी भी सूख चुका था, उसकी आँखें सूजी हुई थीं, सारी रात जागते रहने की वजह से आँखें लाल भी हो रही थीं। निर्मल ने उसका हाथ पकड़कर दबाया। जाह्नवी ने उससे ब्रीफकेस पकड़ा, उसे घर के अन्दर ले गयी। कमरे में पहुँचने पर जाह्नवी की रुलाई का बाँध टूट पड़ा। वह निर्मल के गले लग गयी। निर्मल ने उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए ढाढ़स बँधाया। इस उपक्रम में उसकी अपनी आँखों से आँसू टपकने लगे। उसके आँसुओं की बूँदें जाह्नवी के कपोल पर पड़ीं तो उसने अपना मुख ऊपर उठाकर देखा। अपने आँसुओं की परवाह किये बिना वह अपने दुपट्टे से निर्मल के आँसू पौंछने लगी। बाहर की आवाज़ों से ऐसा लगा जैसे अर्थी उठाने लगे हैं। अतः जाह्नवी ने कहा — ‘निर्मल, आओ बाहर चलते हैं। बातें फिर करेंगे।'
अर्थी तैयार थी। चार आदमी उठाने के लिये तैयार खड़े थे। निर्मल ने आकर अर्थी के पैरों की तरफ झुक कर माथा टेककर जाह्नवी के पिता, जिन्हें जीवित रहते मिलने का अवसर ही नहीं आ पाया था, को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की।
दाह—संस्कार करके जब सभी घर आये तो घर में नाते—रिश्तेदार तथा कुछ बहुत ही करीबी मित्र रह गये थे, बाकी लोग तो श्मशान भूमि से अथवा घर के बाहर से ही विदा लेकर जा चुके थे।
रात के दस बजे के लगभग जाह्नवी के पिताजी को हॉर्ट अटैक हुआ था। अटैक इतना ज़बरदस्त था कि डॉक्टर के पहुँचने से पहले ही उनका शरीर शान्त हो चुका था। प्रारम्भिक शोक से उबरते ही कुछ रिश्तेदारों को टेलिग्राम से सूचित करने के लिये अनुराग और जाह्नवी टेलिग्राम तैयार करने लग गये थे। जाह्नवी ने इसी बीच एक टेलिग्राम निर्मल के नाम लिख दी थी। ड्राईवर को बुलाकर तैयार किये गये टेलिग्राम देकर डाकखाने के लिये रवाना कर दिया था।
निर्मल ने जब खाना खा लिया तो जाह्नवी उसे गेस्टरूम में ले गयी। वहाँ उसे छोड़कर जब वह जाने लगी तो निर्मल ने औपचारिकतावश कहा — ‘जाह्नवी, मैं तो वापस जाना चाहता हूँ, आधे घंटे बाद ड्राईवर मुझे बस स्टैंड छोड़ आयेगा।'
‘आज रात तुम यहीं रुको। अभी कोई बात भी नहीं हो पाई है। थोड़ी देर आराम कर लो। मुझे भी आराम करना है, सारी रात से जाग रही हूँ। शाम को बैठेंगे।'
निर्मल तो जैसे जाह्नवी के इस आग्रह की प्रतीक्षा ही कर रहा था, क्योंकि एक तो रात को बहुत कम सो पाया था, दूसरे सफर तथा शवयात्रा में जाने—आने की थकावट थी। इसलिये जाह्नवी के जाने के बाद उसने कपड़े बदले और कम्बल ओढ़कर लेट गया। उसे लेटते ही नींद आ गयी। छः बजे जाह्नवी उसके कमरे में आई। उसे सोया देखकर एकबार तो वापस जाने लगी, फिर उसकी बाजू हिलाकर उसे जगा दिया। उसने आँखें खोलीं। कमरे में बिजली जाह्नवी ने जलाई थी। खिड़की से बाहर देखा। बाहर अँधेरा हो चुका था।
जाह्नवी— ‘हाथ—मुँह धोकर ड्राईंग रूम में आ जाओ। गर्म पानी चाहिये तो गीज़र ऑन कर लेना। भइया ड्राईंग रूम में ही बैठे हैं।'
जब निर्मल ड्राईंग रूम में आया तो अनुराग के साथ दो—तीन और लोग भी बैठे थे। अनुराग ने उनमें से दो व्यक्तियों से निर्मल का परिचय करवाया। एक जाह्नवी के मामा और दूसरा उनका बेटा थे। इसी दौरान रसोइया चाय बना लाया। निर्मल को लगा, जैसे ये लोग चाय के लिये उसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। निर्मल ने अब औपचारिकता छोड़कर घर के सदस्य की भाँति बातचीत करना उचित समझा। उसने जाह्नवी के पापा की आकस्मिक मृत्यु
पर शोक जताने के बाद उनकी रिटायरमेंट में कितना समय रह गया था, अनुराग आजकल किस विभाग में कार्यरत है आदि—आदि प्रष्न पूछे। जाह्नवी के मामा ने निर्मल से उसके परिवार सम्बन्धी एक—दो प्रष्न किये, जिनके निर्मल ने संंक्षेप में यथोचित उत्तर दिये। इस बीच चार—पाँच वर्ष की बच्ची वहाँ आई। वह अनुराग से कुछ कहना चाहती थी, लेकिन अनुराग ने उसे बीच में रोककर निर्मल की ओर संकेत करते हुए उससे पूछा —‘मीनू, तूने अंकल को नमस्ते की?'
‘पापा, मैं अंकल को पहली बार देख रही हूँ। नमस्ते कैसे करती?'
‘बेटे, तुझे समझाया है ना कि जब किसी मेहमान को चाहे पहली बार देखो तो भी नमस्ते करनी चाहिये।'
‘सॉरी पापा,' कहकर वह निर्मल की तरफ मुड़कर बोली — ‘नमस्ते अंकल।'
निर्मल के पास ही वह खड़ी थी। उसने उसे बाँह से पकड़कर अपनी गोद में लेते हुए कहा — ‘नमस्ते हमारी प्यारी बिटिया। स्कूल जाती हो?'
‘हाँ।'
‘क्या नाम है आपके स्कूल का?'
‘सेंट जेवियर्स कॉन्वेंट पब्लिक स्कूल।'
‘आज स्कूल गयी थी?'
‘आज कैसे जाती? दादाजी की डेथ हो गयी थी ना।'
‘दादाजी तुम्हें प्यार करते थे?'
‘बहुत। दादाजी बहुत अच्छे थे।'
निर्मल कुछ और पूछता, इससे पहले ही मीनू उसकी गोद से निकलकर ‘यह जा, वह जा' भाग गयी।
उसके जाने के बाद निर्मल अनुराग की ओर मुखातिब होकर बोला — ‘आजकल बच्चे सब समझ जाते हैं। पहले इस उम्र में बच्चों को बहला—पुफसला कर कह देते थे कि मरने वाला भगवान् के पास गया है। लेकिन आजकल बच्चों को आप इस तरह नहीं बहला सकते।'
अनुराग — ‘ठीक कहते हो निर्मल। वैसे ठीक भी है, बच्चों को वस्तुस्थिति से सही ढंग से अवगत करवाने में हानि भी क्या है? इससे अनचाही दुविधा पैदा नहीं होती और बच्चों का विकास भी सही होता है।'
‘कोई शक नहीं। आप ठीक कहते हैं।'
रात को निर्मल जब सोने की तैयारी में था तो जाह्नवी ने उसके कमरे के दरवाज़े पर दस्तक दी। निर्मल ने बिना उठे ही कहा — ‘दरवाज़ा खुला है।'
जाह्नवी अन्दर आकर पैर नीचे लटकाये उसके पलंग पर ही बैठ गयी जबकि कमरे में कुर्सी—मेज़ भी पड़े थे। उसे ऐसा करते देख निर्मल भी उठ कर बैठ गया।
‘निर्मल, मुझे पक्का विश्वास था कि सूचना मिलने पर तुम अवश्य आओगे। मैं हृदय से आभारी हूँ।'
‘पगली, इसमें आभार वाली क्या बात है? मैं तुम्हें कैसे बताऊँ कि टेलिग्राम मिलने पर मेरी कैसी हालत हो गयी थी?'
‘कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। मैं तुम्हें अच्छी तरह से जान गयी हूँ। तुम तो मेरे से भी अधिक भावुक और संवेदनशील हो।'
‘जाह्नवी, तुम्हारे पत्र के जवाब में मैंने कल रात को सोने से कुछ देर पहले पत्र लिखा था। सोचा था कि सुबह पोस्ट कर दूँगा। और सुबह भी कैसी आई! भगवान् न करे, ऐसी सुबह फिर कभी आये या किसी के भी जीवन में आये!'
जाह्नवी उसकी बातों से अभिभूत हो गयी। निर्मल ने उठकर पैंट की जेब से लिफाफा निकाला और जाह्नवी की हथेली पर रख दिया। उसने पत्र खोलकर पढ़ा। पढ़कर कहा — ‘निर्मल, मैंने अभी जो तुम्हारे बारे में कहा था, गलत नहीं कहा था। तुम बहुत ज्यादा संवेदनशील हो।'
‘अच्छा जाह्नवी, कल मैं जल्दी ही जाना चाहूँगा।'
‘कल की क्लास तुम किसी भी सूरत में लगा नहीं पाओगे। इसलिये जल्दी भी क्या है? कल लंच के बाद चले जाना। भाभी जी से अभी तुम मिल भी नहीं पाये हो। वे भी तुमसे मिलना चाहती हैं। सुबह नाश्ते पर उनसे भी मुलाकात हो जायेगी।'
निर्मल ने जाह्नवी की बात को न काटते हुए कहा — ‘मीनू बड़ी प्यारी बच्ची है।'
‘अच्छा, वह तुमसे मिल ली?'
‘मिल ही नहीं ली, हमने बहुत—सी बातें भी कीं।'
जाह्नवी को अच्छा लगा। उठते हुए कहा — ‘अच्छा, अब चलती हूँ। कुछ चाहिये तो बता दो।'
‘एक लौटा पानी भिजवा देना, मुझे सुबह उठते ही कम—से—कम दो गिलास पानी पीने की आदत है।'
‘गर्म या नॉर्मल? अगर गर्म पीते हो थरमस में गर्म पानी दे जाती हूँ।'
‘गर्म ही ठीक रहेगा।'
पाँच—सात मिनट में जाह्नवी थरमस लेकर आ गयी। जब जाने लगी तो निर्मल ने कहा — ‘कल सारी रात भी तुम सो नहीं पाई। दोपहर बाद भी शायद ही सोई होगी। बाबू जी के जाने का दुःख बहुत बड़ा है, फिर भी खुद को सँभालना भी ज़रूरी है। अतः मेरी प्रार्थना है कि मन को शान्त रखने की कोशिश करना ताकि नींद आ जाये।'
इतनी बात सुनकर जाह्नवी की आँखें भर आर्इं। निर्मल ने उसे बगलगीर करते हुए उसकी पीठ थपथपाई। दुःख तो जाह्नवी को था ही, निर्मल के सान्त्वना के स्पर्श से आँखों में रुके आँसू बह निकले। निर्मल ने उसके आँसू पौंछते हुए कहा — ‘अब और नहीं। तुम्हें मेरी कसम जो एक भी और आँसू बहाया। जाओ और जाकर आराम से नींद लो।'
प्रातः निर्मल की नींद खुली तो घड़ी अभी पाँच ही बजा रही थी। कमरे से बाहर निकलकर देखा तो घर में नीरवता छाई हुई थी। रसोइया या बहादुर कोई भी नहीं उठा था अभी। बालकनी का दरवाज़ा खोला तो ठंडक अन्दर घुस आई। निर्मल ने केवल सूती नाईट—सूट पहना हुआ था, कोई गर्म कपड़ा नहीं। इसलिये ठंडक उसकी हडि्डयों को चीरती हुई सारे शरीर में कम्पन पैदा कर गयी। कृष्ण पक्ष के अंतिम दिन थे। दूसरे, ‘मधु—स्मृति विला' की चार दीवारी में बहुत पुराने तथा ऊँचे—ऊँचे वृक्ष अम्बर से बातें करते अपना उत भाल किये खड़े थे, जिसके कारण भी अँधेरा अधिक घना प्रतीत होता था। जाह्नवी ने बताया था कि उसके दादा, जो रॉयल ब्रिटिश आर्मी में थे तथा द्वितीय विश्व युद्ध में फ्रांस के मोर्चे पर लड़े थे, ने विभाजन से एक वर्ष पूर्व यह ‘विला' एक अंग्रेज़ ब्रिगेडियर से खरीदा था। इसका मूल नाम ‘रॉक विला' था, किन्तु मम्मी की मृत्यु के पश्चात् पापा ने इसका नाम बदल कर मम्मी की स्मृति में ‘मधु—स्मृति विला' कर दिया था। यह ‘विला' यूरोपियन स्थापत्य—कला का एक अनुपम नमूना है। इस ‘विला' में एक तरफ सर्वेंट—क्वाटर्स हैं। बाकी चारों तरफ विभि प्रकार के पेड़—पौधे व फूल इसकी शोभा बढ़ाते हैं। निर्मल ने दरवाज़ा बन्द किया और गेस्टरूम की अलमारी खोलकर देखने लगा। उसमें उसे ‘इलस्ट्रेटिड वीकली' के कुछ पुराने अंक मिल गये। निर्मल ने बेड—लैम्प ऑन करके सीलग लाईट बन्द कर दी तथा ‘वीकली' के दो अंक उठाये और रज़ाई में घुसकर पढ़ने लगा। ये 1969 के वे अंक थे जब अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक खुशवन्त सह ने ‘वीकली' के सम्पादक का कार्यभार सम्भाला था। बहुत से राज्यों में 1967 में बनी ‘संविद' सरकारें निहित स्वार्थों तथा आपसी मतभेदों के कारण लड़खड़ा रही थीं। हरियाणा से आरम्भ हुआ ‘आया राम गया राम' (विधायकों की खरीद—फरोख्त) का सिलसिला दूसरे राज्यों में फैलने लगा था। खुशवन्त सह ने अपने कॉलम ‘ॅपजी उंसपबम जवूंतके वदम ंदक ंससष् में इन राजनैतिक हालात पर तीखे प्रहार किये थे, लेकिन प्रधानमन्त्री द्वारा बेंकों के राष्ट्रीकरण तथा भूतपूर्व राजा—महाराजाओं के प्रिवी—पर्स बन्द करने जैसे नीतिगत व राजनैतिक फैसलों की जमकर तारीफ की थी। ‘वीकली' पढ़ते हुए समय व्यतीत होते पता ही नहीं चला। जाह्नवी दरवाज़ा खोलकर जब कमरे में आई तो निर्मल ‘वीकली' पढ़ने में इतना मग्न था कि उसे उसके अन्दर आने का आभास भी नहीं हुआ।
‘गुड मॉनग,... पढ़ने में तो ऐसे मग्न हो जैसे आज ही फाइनल एग्ज़ाम देने जाना हो!'
निर्मल को जाह्नवी के बात करने के ढंग से महसूस हुआ कि रात को वह पूरी नींद लेकर उठी है तथा इस बीच उसने स्वयं को अकस्मात् लगे सदमे से बहुत हद तक उबार लिया है। यह निर्मल के लिये प्रसन्नता की बात थी और जाह्नवी के स्वास्थ्य के लिये अति उत्तम।
निर्मल ने गुड मॉनग का उत्तर देते हुए कहा — ‘वैरी गुड मॉनग डियर।... नींद पूरी हो गयी थी और आदत के अनुसार पाँच बजे उठा तो देखा कि सभी सोये हुए थे। अलमारी खोलकर देखी तो ये पुरानी पत्रिकाएँ मिल गर्इं। इनमें बहुत कुछ है पढ़ने को।'
‘अच्छी लगी हैं तो कुछ रख लेना बैग में। यूनिवर्सिटी में फुरसत के वक्त पढ़ लिया करना। पापा को मैगज़ीन पढ़ने का बहुत शौक था।....चाय यहाँ ले आऊँ या ड्राईंग रूम में आओगे?'
‘भाई साहब उठ गये क्या?'
‘हाँ, वे उठे हुए हैं।'
‘फिर ड्राईंग रूम में ही चलते हैं।'
जब वे ड्राईंग रूम में पहुँचे तो अनुराग और जाह्नवी की भाभी श्रद्धा पहले से ही वहाँ बैठे हुए थे। हालात को देखते हुए निर्मल ने गुड मॉनग न कहकर हाथ जोड़कर दोनों को नमस्ते की।
‘निर्मल जी, जाह्नवी से आपकी बहुत तारीफ सुनी है। आपने हमारे दुःख में सम्मिलित होकर अपने उच्च चरित्र को सिद्ध कर दिया है। आप तो स्वयं अपनी दादी जी के बिछोड़े के गम से अभी पूरी तरह उबरे नहीं थे कि पापा की आकस्मिक मृत्यु के कारण आपको यहाँ आना पड़ा।'
‘भाभी जी, मुझे ‘निर्मल जी' कहकर मत बुलाइये। आप मेरे लिये आदरणीय हैं। मेरा केवल नाम ही लीजिये। मुझे अधिक अच्छा लगेगा। जाह्नवी बता रही थी कि माता जी के स्वर्गवास के बाद से आपसे उसे माँ जैसी छत्रछाया और बड़ी बहिन का प्यार मिल रहा है।'
‘जाह्नवी है ही इतनी प्यारी बच्ची, हमारे लिये तो बच्ची ही रहेगी, कि प्यार और स्नेह अपने आप उमड़ पड़ता है,' कहकर उसने रसोई की तरफ मुख करके आवाज़ लगाई — ‘महाराज जी, चाय लाने में और कितनी देर लगेगी?'
‘अभी लाया मालकिन।'
चाय पीने के पश्चात् अनुराग बोला — ‘जाह्नवी, जाओ निर्मल को अपने ‘एप्पल ऑर्चड' की सैर करवा लाओ और श्रद्धा, तुम नाश्ते का प्रबन्ध करवाओ।'
निर्मल — ‘भाई साहब, ‘ऑर्चड' फिर कभी देख लूँगा, अब तो मैं चण्डीगढ़ जाने की तैयारी करता हूँ।'
‘अरे भाई, इतनी भी क्या जल्दी है? लंच के बाद चले जाना। मैं देख रहा हूँ कि तुम्हारे आने से जाह्नवी को भी सहारा मिला है।'
श्रद्धा — ‘निर्मल, अनुराग ठीक कह रहे हैं। लंच तक रुकने में क्या हर्ज़ है।'
निर्मल कोई जवाब दे पाता, इससे पहले जाह्नवी ने श्रद्धा का ध्यान अपनी ओर खींचते हुए कहा — ‘भाभी जी, निर्मल तो स्वैटर ही पहनकर आया है। चण्डीगढ़ में इतनी ठंड नहीं होती ना, लेकिन यहाँ तो बाहर काफी ठंड होगी, इसलिये भइया की कोई जर्सी ला दो।'
‘ऑर्चड' दसेक मिनट की पैदल दूरी पर था। पहाड़ों में बाग समतल भू—भाग पर नहीं होते। ढलानों के कुछ—कुछ टुकड़े काँट—छाँट कर समतल कर लिये जाते हैं। पूरा बाग ऐसे लगता है जैसे नीचे से ऊपर को सीढ़ी के स्टेप्स हों। माली उन्हें देखकर दौड़ा आया। झुककर सलाम किया। ‘ऑर्चड' काफी बड़े भू—भाग में फैला हुआ था, निर्मल को बहुत अच्छा लगा। वातावरण में चारों तरफ भीनी—भीनी महक फैली हुई थी। जाह्नवी ने बताया कि पापा ने खाली जगह लेकर स्वयं अपनी देखरेख में यह ‘ऑर्चड' तैयार करवाया था। उन्हें बागवानी का बहुत शौक था।
निर्मल लंच के बाद चण्डीगढ़ के लिये रवाना हुआ। जाह्नवी अपने ड्राईवर गोपाल के साथ उसे आईएसबीटी (अन्तर्राज्यीय बस स्टैंड) शिमला तक छोड़ने आई। बस स्टैंड पर बस की प्रतीक्षा में खड़े हुए जाह्नवी ने कहा — ‘निर्मल, तुम्हारा जाना ज़रूरी है वरना मेरा दिल तो यह चाहता है कि तुम दो—चार दिन और यहाँ रुकते।'
‘पागलपन न करो जाह्नवी। लाइक ए गुड गर्ल ट्राई टु एडजस्ट इन द चेंज़ड सरकम्सटांसिज़। बाबूजी तो लौट नहीं सकते, धीरे—धीरे मन को समझाना। ‘रिकन्साईल' तो करना ही पड़ेगा।'
‘निर्मल, अब रस्म—पगड़ी पर मत आना।'
‘क्यों?'
‘भइया ने मुझे तुमसे कहने के लिये कहा था। वे सोचते हैं कि बिना वजह तुम्हारी पढ़ाई का नुकसान होगा। लेकिन पत्र अवश्य लिखते रहना।'
बस लग गयी थी। बस पर चढ़ते निर्मल ने कहा — ‘ठीक है।'
बस जब बस स्टैंड से बाहर चली गयी तो जाह्नवी अपने ड्राईवर के साथ घर वापस लौट आयी।
जाह्नवी का अपना स्टडी—कम—बेडरूम था। रात को वह पलंग पर लेट तो गयी किन्तु आँखों से नींद नदारद थी। सोचने लगी कि निर्मल की वृत्तियाँ नाम के अनुरूप ही निर्मल व किसी भी प्रकार के विकार से अछूती हैं। आजकल के लड़कों में इतना सच्चरित्र कहाँ मिलता है। अधिकतर तो मौज—मस्ती के बहाने सीमाओं का अतिक्रमण करने में एक सैकड भी नहीं लगाते। जब मैंं निर्मल को अपने फर्स्ट आने की सूचना देने गयी थी तो उसने मुझे हर्षातिरेक में अपनी बाँहों में उठा लिया था। उसकी इस हरकत, हरकत कहना कहाँ तक ठीक होगा चलो किसी अन्य उपयुक्त शब्द न मिलने की सूरत में इसे हरकत ही मान लें, तो भी उसमें लेशमात्र औछापन न था। जिस दिन कम्पल्सरी पेपर खत्म हुए थे, वह लंच लेने के बाद मेरे कहने पर मेरे रूम में सो गया था। ऐसा अवसर मिलने पर एक साधरण लड़का क्या कुछ न करने की कोशिश करता? लेकिन मज़ाल है कि निर्मल ने कोई शारीरिक स्पर्श तक करने की कोशिश की हो। आखिरी पेपर के बाद चण्डीगढ़ में आखिरी रात वह मेरे साथ अकेले में रहा, किन्तु मैं निश्चत थी, क्योंकि मैं उसे परख चुकी थी। कल जब वह आया और मैं उसे अन्दर कमरे में लेकर आई और अपने दुःख के वशीभूत उसके गले लग कर रोने लगी, क्योंकि उस समय मुझे किसी सहारे की ज़रूरत थी, तब उसकी आँखों से जो अश्रुधारा बही, वह उसकी पवित्र भावनाओं का प्रवाह नहीं तो और क्या था? चाहे मैंने भाई को बतलाये बिना निर्मल को टेलिग्राम दिया, किन्तु भाई और भाभी को निर्मल का आना अच्छा ही लगा, तभी तो भाई ने मुझे निर्मल के साथ ‘ऑर्चड' तक जाने के लिये भेजा। इसी तरह के विचारों तथा विगत क्रियाकलापों का मंथन व विश्लेषण करते—करते वह सो गयी।
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