Pal jo yoon gujre - 4 in Hindi Moral Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | पल जो यूँ गुज़रे - 4

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पल जो यूँ गुज़रे - 4

पल जो यूँ गुज़रे

लाजपत राय गर्ग

(4)

इकतीस जुलाई को निर्मल ने कोचग कोर्स बीच में ही छोड़कर वापस चण्डीगढ़ जाना था, बल्कि यह कहना अध्कि उपयुक्त होगा कि निर्मल ने कोर्स के लिये इकतीस जुलाई तक के लिये ही फीस दी हुई थी, क्योंकि इसके पश्चात्‌ एल.एल.बी. तृतीय वर्ष की कक्षाएँ आरम्भ होनी थी। जाह्नवी ने पूरा कोर्स समाप्त होने तक यानी सितम्बर अन्त तक दिल्ली रहना था, क्योंकि वह एम.ए. फाइनल की परीक्षा देकर आई थी। जाह्नवी और निर्मल ने तय किया था कि निर्मल की आखिरी दिन की क्लास के बाद वे किसी अच्छे होटल में डिनर करेंगे। संयोग ही कहना उचित होगा कि निर्मल के दिल्ली छोड़ने से दो दिन पूर्व जाह्नवी का एम.ए. का परीक्षा परिणाम आ गया और वह अपने विश्वद्यिालय में प्रथम स्थान पर रही। जैसे ही उसे यह शुभ समाचार मिला, वह सबसे पहले निर्मल के पास उसकी बरसाती में पहुँची। निर्मल दोपहर का खाना खाकर सोया हुआ था। जाह्नवी के दरवाज़ा खटखटाते ही उसने उठकर दरवाज़ा खोला। बिना कुछ कहे जाह्नवी ने अपने थैले में से लड्‌डुओं का डिब्बा निकाला और निर्मल के रोकते—रोकते भी एक पूरा लड्‌डू उसके मुँह में ठूँस दिया और डिब्बा मेज़ पर रख दिया।

जब लड्‌डू निर्मल के गले से थोड़ा नीचे उतरा तो उसने जाह्नवी के दमकते चेहरे को लक्ष्य कर कहा — ‘अरे रेे, यह क्या! इतनी खुश, वजह?'

जाह्नवी ने मटकते हुए कहा — ‘निर्मल, मैं यूनिवर्सिटी में फर्स्ट आई हूँ।'

यह सुनते ही निर्मल ने जोश में उसे बाँहों में उठा लिया और फिरकी की तरह घूम गया। पूरा एक चक्र लगाकर ही उसे छोड़ा। निर्मल की इस तात्कालिक हरकत से जाह्नवी को आश्चर्य तो हुआ, लेकिन प्रसता भी हुई। निर्मल ने टेबल पर रखे डिब्बे में से एक लड्‌डू निकाला और जाह्नवी को खिलाने लगा। जाह्नवी ने थोड़ा—सा टुकड़ा लेकर निर्मल द्वारा उसे उठाने पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा — ‘तूने तो मुझे वैसे ही इतनी खुशी दे दी है कि यदि मैं उसे शब्दों में व्यक्त करने लगूँगी तो कविता बन जायेगी।'

‘वाह, क्या बात कही है! तो तुम कविता भी करती हो?'

‘नहीं भई। मैं कोई कवि नहीं हूँ। लेकिन जब मन में उल्लास और प्रसता होती है या हृदय भग्न और उदास होता है, और उन भावों को जिन शब्दों का सहारा लेकर हम व्यक्त करते हैं तो वह कविता ही तो होती है।'

‘कविता की यह परिभाषा तो मैं पहली बार सुन रहा हूँ, लेकिन है बिल्कुल सटीक। जाह्नवी, आय एम रियली प्राउड्‌ ऑफ योर अचीवमेंट। मैनी मैनी कांग्रेचुलेशन्ज़। आज का डिनर मेरी ओर से।'

‘नहीं निर्मल, आज मैं तुम्हें अधिक डिस्टर्ब नहीं करना चाहती। दो दिन बाद तो हमने इकट्ठे डिनर करना ही है। अब मैं चलती हूँ।'

‘चलो, तुम्हारी बात मान ली, किन्तु कुछ देर तो बैठो। चाय पीते हैं।'

जब इकतीस जुलाई की रात को डिनर के पश्चात्‌ एक—दूसरे से विदा होने लगे तो जाह्नवी ने कहा — ‘निर्मल, मैं नहीं चाहती कि मेरी वजह से तुम्हारी पढ़ाई में व्यवधान पड़े, किन्तु मेरी इतनी—सी प्रार्थना अवश्य स्वीकार कर लेना कि दस—पन्द्रह दिन में एक बार बस इतना लिखकर कि ‘मैं ठीक हूँ, तुम कैसी हो?' पत्र जरूर डाल दिया करना।'

‘जब तुमने पत्र का मज़मून ही बना दिया है तो ऐसा क्यों नहीं करती कि चार—पाँच पत्र लिखकर दे दो, मैं उनपर अपने हस्ताक्षर करके डाक में डाल दिया करूँगा।'

निर्मल की ओर बनावटी गुस्से से ताकते हुए जाह्नवी ने कहा — ‘बहुत बुरे हो तुम, बात की गम्भीरता को एक क्षण में उड़ा देते हो।'

‘सारे समय गम्भीरता ओढ़े रखना कहाँ की अक्लमंदी है!......मेरी भी एक प्रार्थना है।'

‘कहो....'

‘तुम्हें एक काम करना होगा। क्लास में जो—जो विशेष पढ़ाया जाये, उसे संक्षिप्त रूप में लिखकर अपने पत्रों के साथ मेरे लिये भेज दिया करना।'

‘तुमने जो यह बात कही है, इसका तो दुहरा लाभ होगा मुझे। इस बहाने मेरी रीविज़न भी हो जाया करेगी। हर हफ्ते मैं तुम्हें अपडेट करती रहूँगी।'

‘मैं दिल से तुम्हारा आभारी हूँगा।'

‘इसमें आभार वाली क्या बात है, मैं किसी गैर के लिये थोड़े—ना यह करूँगी? तुम तो मेरे अपने हो।'

‘जाह्नवी, अगर हम वाणी को विराम नहीं देंगे तो बातों का सिलसिला चलता रहेगा। शेष चण्डीगढ़ में मिलने पर। तब तक के लिये अलविदा!' और जाह्नवी अपने पीजी वाले घर के अन्दर प्रवेष कर गयी।

***