पल जो यूँ गुज़रे
लाजपत राय गर्ग
(2)
चार दिन के अवकाश के पश्चात् निर्मल ने कोचग क्लास लगाई थी। जब क्लास समाप्त हुई और निर्मल अपने निवास—स्थान की ओर मुड़ने लगा तो जाह्नवी ने उसे रोकते हुए उलाहने के स्वर में पूछा — ‘निर्मल, बिना बताये कहाँ गायब हो गये थे इतने दिन?'
‘सॉरी जाह्नवी! मैं घर चला गया था। घर भी क्या, मेरे बचपन का एक मित्र है, उसका विवाह था। उसका आग्रह टाल नहीं सकता था, क्योंकि उसके साथ मित्रता ही नहीं, बल्कि पारिवारिक सम्बन्ध हैं। उसकी बारात में जाना ही था। जाने वाले दिन सोचा था कि क्लास के बाद तुझे बताऊँगा, किन्तु उस समय तुम्हारे साथ उर्मिला थी। इसलिये मैंने सोचा कि शाम को तेरे साथ चाय पीने आऊँगा, तब बता दूँगा। कमरे पर जाकर जब पैकग करने लगा तो देखा कि एक नाईट सूट तथा दो जोड़ी बनियान और अण्डरबीयर ही धुले हुए थे। गर्मी में चार दिन के लिये नाकाफी थे। सो, मार्किट जाना पड़ा। मार्किट से वापस आते—आते सात बज गये। स्टेशन तक पहुँचने में भी टाइम लगना था, इसलिये भागदौड़ में न तुमसे मिल सका, न ही चार दिनों तक तुम से दूर कैसे रहूँगा, बता पाया।'
‘बातें बनाना तो कोई तुम से सीखे। अगर मेरी इतनी ही फिक्र होती तो कहीं से भी मेरी लैंड—लेडी के फोन पर सूचना दे सकते थे।'
दोनों बाजुओं को क्रॉस करते हुए कानों को पकड़कर निर्मल ने कहा — ‘सॉरी यार, इस बार माफ कर दो, आगे कभी ऐसी गलती भूल से भी नहीं करूँगा।'
‘अब यह ड्रामेबाज़ी छोड़ो। चलो, बतौर सज़ा आज का लंच तुम्हारी ओर से।'
‘क्यों, आज पीजी में लंच की छुट्टी है क्या?'
‘नहीं। तुम्हें सज़ा जो देनी है।'
‘क्यों गरीब मार करती हो?'
‘सज़ा सुना दी है तो अब भुगतनी ही पड़ेगी।'
‘ठीक है जज साहिबा, आपका हुक्म सिर—माथे। अब लगे हाथ यह भी बता दो कि लंच कहाँ करना है?'
‘रीगल के साथ वाले रेस्तरां में चलते हैं।'
खाना खाने के पश्चात् जाह्नवी जब जाने के लिये बॉय करके जाने लगी तो निर्मल ने कहा — ‘जाह्नवी, यदि तुम्हें तकलीफ न हो तो तुम मेरे साथ कमरे पर चलो, मैं इन चार दिनों में पढ़ाये गये कोर्स को भी तुमसे डिस्कस कर लूँगा और शाम को तुम्हें तुम्हारे यहाँ छोड़ दूँगा।'
‘निर्मल, तुम तो इस तरह छोड़ने की बात कर रहे हो जैसे तुम मेरे गार्जियन हो। भई, मैं यहाँ दिल्ली में अकेली रहती हूँ। घर से कोचग सेंटर, कोचग सेंटर से घर अकेली आती जाती हूँ। कभी—कभार मार्किट भी जाना पड़ता है। घर वालों को मुझ पर विश्वास था कि अनजान जगह में मैं स्वयं को सँभाल लूँगी, तभी उन्होंने मुझे यहाँ अकेली छोड़ा है। और कल मैं ऑफिसर बन जाऊँगी तो क्या कोई—न—कोई व्यक्ति हर समय मेरे साथ लगा रहेगा।'
निर्मल को समझ नहीं आया कि जाह्नवी कहना क्या चाहती है। क्या उसे मेरा उसके जीवन में अनाधिकारिक दखल देना अखर गया है या वह मूडी है? इसी असमंजस की स्थिति में उसने कहा — ‘सॉरी यार, मैंने तो शिष्टाचार के नाते कहा था, तुमने तो पूरा लेक्चर झाड़ दिया। मेरा वैसा मतलब कतई न था, जैसा तुमको लगा। अब अगर मूड ठीक है तो मेरे कमरे पर चलें।'
‘चलो,' जाह्नवी ने ऐसे कहा जैसे अभी—अभी कुछ हुआ ही न था।
पिछले लगभग डेढ़ महीने से निर्मल और जाह्नवी इकट्ठे कोचग ले रहे थे। कोचग सत्र आरम्भ होने पर जो परस्पर परिचय का आदान—प्रदान हुआ था, उससे निर्मल और जाह्नवी एक—दूसरे के नज़दीक आये थे। नज़दीक आने का पहला कारण तो यह था कि कम्पीटिशन केे दो पेपरों के लिये दोनों ने एक समान विषय ले रखे थे — हिन्दी साहित्य और राजनीति शास्त्र। दूसरे, जाह्नवी हिन्दी साहित्य में एम.ए. अन्तिम वर्ष की परीक्षा देकर आई थी। निर्मल चाहे स्कूली दिनों से हिन्दी साहित्य पढ़ता रहा था और उसने स्नातक स्तर तक भी हिन्दी विषय लिया हुआ था, फिर भी एम.ए. कोर्स के दौरान विषय की जो तकनीकी बारीकियाँ समझने का अवसर मिलता है, उन्हें जानने के लिये उसने जाह्नवी के अनुभव का लाभ उठाने के लिये उससे मित्रता बढ़ाई थी। जाह्नवी भी निर्मल से संविधान तथा सामान्य प्रशासन सम्बन्धी जानकारियाँ प्राप्त करने की इच्छुक थी। यह भी कह सकते हैं कि प्रारम्भ में इनमें निकटता महज़ स्वार्थ के धरातल से शुरू हुई थी, किन्तु बहुत जल्द ही दोनों में व्यावहारिक स्तर पर औपचारिकता की जगह अनौपचारिकता ने ले ली थी। दोनों वेस्ट पटेल नगर में रहते थे। जाह्नवी एक कोठी में पीजी के तौर पर रहती थी। पीजी की व्यवस्था तो एक कमरे में दो लड़कियों के साझा रहने की थी, किन्तु जाह्नवी के परिवारवालों ने डबल रेंट देकर एक कमरा केवल उसके लिये बुक करवाया हुआ था ताकि उसे पढ़ाई में किसी प्रकार की दखलअंदाज़ी न सहनी पड़े। दोपहर और रात का खाना लैंड—लेडी मुहैया करवाती थी। सुबह—शाम का चाय—नाश्ता अगर वे चाहतीं तो लड़कियों को स्वयं बनाना पड़ता था। निर्मल को लड़कों के किसी पीजी में जगह न मिली थी। विवश होकर उसे एक कोठी की बरसाती में रहना पड़ा था। वह हॉट प्लेट पर चाय—दूध तो वहीं बना लेता था, किन्तु खाना उसे ढाबे पर ही खाना पड़ता था। दोनों के ठिकानों में लगभग एक—डेढ़ किलोमीटर की दूरी थी। निर्मल तो कोर्स डिस्कस करने के बहाने दो—तीन बार जाह्नवी के यहाँ शाम की चाय पी आया था, किन्तु जाह्नवी पहली बार निर्मल के कमरे पर आई थी। कमरे पर पहुँचकर निर्मल चाय बनाने लगा तो जाह्नवी बोली — ‘निर्मल, तुम बैठो, चाय मुझे बनाने दो।'
उसकी यह बात सुनकर निर्मल के मन में जो थोड़ी देर पहले असमंजस की स्थिति बनी थी, तिरोहित हो गयी और उसने कहा — ‘बड़ी खुशी की बात है कि तेरे हाथ की बनी चाय मिलेगी।'
‘मेरे हाथ की बनी चाय तो पहले भी पी चुके हो।'
‘मैं कौन—सा मुकरता हूँ? मैं तो बस इतना ही कह रहा हूँ कि मेरे कमरे पर तेरे हाथ की बनी चाय मिलेगी।'
‘बात को बड़ी सहजता से घुमाने में माहिर हो।'
इस प्र संग को और तूल न देते हुए जाह्नवी चाय बनाने लग गयी और निर्मल चारपाई पर पसर गया। थोड़ी देर में ही जाह्नवी ने चाय बना ली। चाय बनी देखकर निर्मल उठकर बैठ गया। चाय का कप उसे पकड़ाने के बाद जाह्नवी अपने लिये बैठने की जगह देखने लगी। उसे इस तरह देखते हुए देखकर निर्मल बोला — ‘चारपाई पर बैठने में दिक्कत न हो तो यहीं आ जाओ, वरना कुर्सी खींच लो।'
जाह्नवी कुर्सी चारपाई के पास खींच कर बैठ गयी। जब ये लोग कमरे में आये थे तो बाहर तपती दोपहर की गर्मी थी, अतः कमरे में टेबल फैन की हवा से भी राहत महसूस हुई थी, किन्तु चाय पीने के बाद जाह्नवी को एकदम गर्मी त्रस्त करने लगी। आखिर उसने पूछ ही लिया — ‘निर्मल, इतनी गर्मी में तुम कैसे पढ़ लेते हो?'
‘बहुत गर्मी लग रही है तो ठंडक का जुगाड़ करूँ?'
‘हाँ, गर्मी तो बहुत लग रही है, लेकिन क्या जुगाड़ करोगे?'
‘देखती जाओ, पाँच मिनट में कमरा ठंडा हो जायेगा,' कहने के साथ ही निर्मल ने एक बेड—शीट अलमारी से निकाली और बाथरूम की ओर चला गया। दो—तीन मिनट में चादर को पूरी तरह से भिगो लाया। जाह्नवी कुतूहलवश देख रही थी। निर्मल ने पँखा बन्द करके टेबल दरवाज़े के बीचों—बीच रखा। पँखा उसपर रखकर दरवाज़े के दोनों पल्ले आधे—आधे उढ़का दिये और गीली चादर पल्लों के ऊपर लटका कर पँखे का बटन चालू कर दिया। कुछ ही पलों में कमरे में ठण्डी हवा आने लगी।
राहत की लम्बी साँस लेते हुए जाह्नवी बोली — ‘मान गये भई तुम्हारे जुगाड़ को। लेकिन यह कितनी देर चलेगा?'
‘आधे—आधे घंटे बाद पानी का एक—एक मग ऊपर की ओर से डालते रहकर जब तक चाहो कमरे को ठण्डा रख सकते हैं।'
‘चलो यह तो हुआ। कुछ अपने ट्रिप के बारे में बतलाओ।'
संक्षिप्त में बताकर निर्मल ने उसे पिछले चार दिनों की पढ़ाई के बारे में बताने को कहा। इस प्रकार अगले लगभग तीन घंटे वे अपने कोर्स की डिस्कशन में व्यस्त रहे। पढ़ाई की किताबें बन्द करते हुए एक मुद्रा में बैठे रहने के कारण हुई शरीर की अकड़न को अंगड़ाई लेकर दूर करते हुए जाह्नवी ने पूछा — ‘निर्मल, तुम तो दिल्ली पहले भी आये होगे? मैं तो पहली बार दिल्ली आई हूँ।'
‘हाँ, मैं पहली बार अपने दादा जी के साथ दिल्ली तब आया था जब मैं छठी कक्षा में पढ़ता था। तब दादाजी ने दो दिन में लाल किला, जामा मस्ज़िद, शीशगंज गुरुद्वारा, कुतुब मीनार, चिड़िया—घर, संसद भवन (केवल बाहर से), जंतर—मंतर दिखाये थे। जब मैं कॉलेज में पढ़ता था, तब हमारे स्कूल—टाइम के एक टीचर ने स्कूल और कॉलेज के कुछ विद्यार्थियों, जिनकी सामाजिक कार्यों में रूचि थी, को लेकर ‘गांधी—विचार मंच' नाम की एक संस्था बनाई हुई थी। मैं भी इस संस्था का मेम्बर था। ये टीचर कोई बड़ी आयु के नहीं थे, बल्कि पच्चीस—छब्बीस वर्ष के युवा थे, लेकिन थे पूरे गांधीवादी, विचारों से ही नहीं, अपने पहरावे से भी जोकि सदैव खादी का सफेद पायज़ामा और खादी सिल्क का क्रीम कलर का कुर्त्ता होता था। दूसरी बार यही टीचर संस्था के सभी सदस्यों को लेकर दिल्ली आये थे। तब हम ‘गांधी स्मारक निधि' में ठहरे थे। दो दिनों के प्रवास के दौरान हम कुछ गांधीवादी विचारकों से मिले — जैसे श्री काकासाहेब कालेलकर जो गांधी जी के अन्यतम निकट सहयोगी थे तथा गांधी—चतन के प्रवर्तक सन्त हैं, हिन्दी के प्रतिश्ठित लेखक व गांधीवादी विचारक श्री जैनेन्द्र जैन, श्री वियोगीहरि, संरक्षक हरिजन सेवा संघ, कग्सवे कैम्प, प्रतिश्ठित लेखिका अमृता प्रीतम, डॉ. सुशीला नैयर, तत्कालीन हेल्थ मिनिस्टर आफ इण्डिया, प्रतिश्ठित हिन्दी कवि डॉ. हरिवंश राय ‘बच्चन' व श्रीमती सुचेता कृपलानी एम.पी.। हमारे ग्रुप में एक विद्यार्थी — परमिन्द्र साईंस साईड का था। जब हम अमृता प्रीतम के हौज खास स्थित निवासस्थान पर गये तो अमृता जी ने जींस और टी—शर्ट पहनी हुई थी। उनका हेयर—स्टाइल भी बॉबकट था। इकहरे बदन की अमृता जी की छवि एक युवती की—सी थी। उनके साथ साहित्य पर चर्चा हो रही थी कि हमारे टीचर बाथरूम जाने के लिये उठे। उनकी अनुपस्थिति में परमिन्द्र ने अमृता जी से पूछा — ‘मैडम, आपका विवाह हो गया है या नहीं?' अमृता जी ने बड़े गम्भीर लहज़े में कहा — ‘नहीं,' कुछ क्षण रुककर कहा — ‘मेरी बेटी पंजाब यूनिवर्सिटी से एम.ए. कर रही है और बेटा इंजीनियरग की पढ़ाई कर रहा है।' इतना कहते ही अमृता जी सहित सारे विद्यार्थी खूब हँसे किन्तु परमिन्द्र अपना—सा मुँह लेकर रह गया। इसी तरह डॉ. हरिवंश राय ‘बच्चन' के निवास स्थान पर चर्चा के दौरान एक अन्य विद्यार्थी ने उनसे पूछ लिया — ‘बच्चन साहब, आपने मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश की रचना की है। इन सभी काव्य—कृतियों में बार—बार मदिरालय, साकी, मय, प्याला, हाला का ही जिक्र आता है। लगता है कि आप शराब बहुत पीते हैं। तब ‘बच्चन' साहब ने जवाब—रूप में अपनी यह रुबाई सुनाई थीः—
मैं कायस्थ कुलोद्भव मेरे पुरखों ने इतना ढाला,
मेरे तन के लोहू में है पचहत्तर प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,
मेरे दादों—परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।
इस प्रकार हमारा यह टूर बड़ा ही ज्ञानवर्धक तथा मनोरंजक रहा था।'
‘तब तो तुम्हारे साथ दिल्ली—दर्शन का प्रोग्राम बनाना पड़ेगा।'
‘नेकी और पूछ पूछ। परसों संडे है। क्लास जाने का कोई झंझट नहीं। सुबह जल्दी तैयार हो लेना। डीटीसी की बस में दैनिक पास लेकर जब तक चाहेंगे, घूमेंगे।'
‘हाँ, यह ठीक रहेगा', कहते हुए जाह्नवी अपनी किताब—कापियाँ इकट्ठी करके उठ खड़ी हुई।
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