पल जो यूँ गुज़रे
लाजपत राय गर्ग
(1)
अपना आखिरी पीरियड लगाने के बाद जैसे ही निर्मल ने डिपार्टमेंट से बाहर कदम बढ़ाये कि उसका सामना बेमौसम की बारिश की हल्की—हल्की बूँदों से हुआ। इसकी परवाह किये बिना कि हॉस्टल तक पहुँचते—पहुँचते भीग जायेगा, वह वहाँ से चल पड़ा। हॉस्टल तक चाहे रास्ता अधिक न था, किन्तु बूँदाबाँदी एकाएक तेज़ बौछारों में बदल गयी। रास्ते में रुक तो सकता था, किन्तु सर्दी की बरसात कितनी देर तक चले, कुछ कहा नहीं जा सकता, यही सोचकर निर्मल बिना रुके चलता रहा और इस प्रकार हॉस्टल के पोर्च तक पहुँचते—पहुँचते वह पूरी तरह भीग गया। फरवरी के अन्तिम दिनों में सामान्यतः मौसम इतना ठंडा नहीं रहता, किन्तु बरसात की वजह से ठंडक बढ़ गयी थी। ऊपर से गीले वस्त्र। अतः उसे शरीर में कँपकँपी अनुभव होने लगी। इसलिये अच्छी भूख लगी होने पर भी वह सीधा मेस की ओर न जाकर अपने कमरे में गया। जैसे ही उसने ताला खोला, फर्श पर एक अन्तर्देशीय पत्र उसकी राह रोके पड़ा था। उसने पत्र उठाया। प्रेषक का नाम और पता उसके अभि मित्र जितेन्द्र का था। पत्र मेज़ पर रखा और गीले वस्त्र उतारकर सूखे वस्त्र पहने। शरीर को थोड़ी—सी राहत महसूस हुई। तदुपरान्त पत्र खोलकर देखा तो पढ़कर बड़ा प्रस हुआ, क्योंकि जितेन्द्र ने उसे अपनी सगाई की सूचना दी थी और लिखा था कि तुम्हारी होने वाली भाभी का परिवार हिन्दुमल कोट में रहता है। आगे लिखा था कि मैं तो चाहता था कि विवाह अक्तूबर—नवम्बर यानी सर्दियों के आरम्भ में हो, किन्तु लड़की वाले इतनी लम्बी प्रतीक्षा करने को तैयार नहीं थे, इसलिये विवाह जून—जुलाई तक होगा। साथ ही लिखा था कि तारीख पक्की होते ही सूचित करूँगा। बारात में जाने के लिये आग्रह अभी से किया गया था।
हिन्दुमल कोट — राजस्थान के श्री गंगानगर जिले का एक छोटा—सा कस्बा जिसका मानचित्र पर उल्लेख इसलिये मिल जाता है कि यहाँ का रेलवे स्टेशन पाकिस्तान से लगती भारतीय सीमा का आखिरी रेलवे स्टेशन है। बुजुर्ग बताते हैं कि यहाँ के रेलवे स्टेशन का आऊटर सिग्नल देश के विभाजन से पूर्व आज की अन्तर्राष्ट्रीय सीमा के दूसरी ओर यानी आज के पाकिस्तानी क्षेत्र में पड़ता था। वैसे तो अंग्रेजों के जुल्मों—सितम देश के इस भू—भाग के लोग जलियाँवाला—नरसंहार के समय से ही सहते आये थे, लेकिन अंग्रेजों ने भारत छोड़ने केे समय जो ‘विदाई उपहार' — पंजाब और बंगाल का विभाजन — दिया, पश्चिमी और पूर्वी पंज़ाब के दस लाख से अधिक लोगों की ज़िन्दगियाँ उस ‘विदाई उपहार' यानी विभाजन की भेंट चढ़ गर्इं और एक करोड़ अस्सी लाख के लगभग लोग प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रभावित हुए। लाखों परिवारों को अपनी धरती से उजड़ना पड़ा। कहते हैं कि सदियों से भाईचारे तथा अपनेपन के हसीन रंगों में रँगा इतिहास '47 की नफरत की आँधी ने मटियामेट कर दिया। नफरत की ऐसी आँधी चली कि इन्सानियत को कुचलती जमीन पर अपने अमिट निशान छोड़ गयी। फिरकापरस्त फसादों ने सामाजिक सौहार्द छि—भि कर दिया। इतिहास के इस काले अध्याय तथा कभी न भूलने वाले अब तक के सबसे वीभत्स, नृशंस एवं पैेशाचिक नरसंहार तथा दुनिया में आबादी की सबसे बड़ी इस अदला—बदली का निर्मल का परिवार भी भुक्त—भोगी रहा होने के कारण उसकी स्मृतियों में भी हिन्दुमल कोट का नाम गहराई तक अंकित है। बचपन में दादा जी बताया करते थे कि उनका गाँव भोलेवाला हिन्दुमल कोट से दो—ढाई मील की दूरी पर था। निर्मल ने मन में सोचा कि जितेन्द्र के विवाह के बहाने उस धरती के, दूर से ही सही, दर्शन करने का अवसर मिलेगा, जहाँ से उसके परिवार को विभाजन के समय अपनी भरी—पूरी दुकान और तत्कालीन हर प्रकार की सुख—सुविधा से सम्प घरबार को छोड़कर जान बचाते हुए पूर्वी पंजाब की ओर आना पड़ा था। इसलिये मेस में भोजन करने के पश्चात् कमरे में आते ही उसने पहला काम जितेन्द्र को बधाई देते हुए पत्र लिखने का किया तथा उसे आश्वस्त किया कि मैं बारात में जरूर चलूँगा।
जितेन्द्र और निर्मल स्कूल तक इकट्ठे पढ़े थे। दोनों में पारिवारिक स्तर तथा पढ़ाई के मामले में दिन—रात का अन्तर था, फिर भी दोनों का एक—दूसरे के घर बहुत अधिक आना—जाना था। वे अभि मित्र थे, उनमें दाँत—काटी रोटी थी। दोनों के माता—पिता उन्हें समान—रूप से प्यार करते थे। स्कूल की प्रत्येक गतिविधि में दोनों इकट्ठे रहते थे, यहाँ तक कि अगर कभी एक—आध पीरियड ‘बंक' करना होता तो भी दोनों साथ होते थे। कक्षा के अन्य विद्यार्थियों में इनकी मित्रता ईर्ष्या का विषय थी। जितेन्द्र ने मैट्रिक करने के बाद कॉलेज में प्रवेश तो लिया था, किन्तु पढ़ाई में उसका मन नहीं लगा। घर की आर्थिक तंगी के चलते भी उसके लिये कॉलेज—जीवन को जारी रखना सम्भव न था। अतः वह अपने पिताजी के साथ दुकान सँभालने लगा। दुर्भाग्य कि एक वर्ष के भीतर—भीतर जितेन्द्र के पिताजी भगवान् को प्यारे हो गये। जितेन्द्र पर अतिरिक्त बोझ आन पड़ा, किन्तु उसने हिम्मत से काम लिया और अपने कारोबार को अपनी मेहनत व लगन से काफी बढ़ा लिया। इधर निर्मल अपनी पढ़ाई में निरन्तर अग्रसर रहा। फिर भी दोनों की मित्रता में कोई कमी नहीं आई। जब निर्मल कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर एल.एल.बी. करने के लिये चण्डीगढ़ चला गया तो भी महीने—बीस दिन में जब भी सिरसा आता तो उसका अधिकांश समय जितेन्द्र के साथ ही व्यतीत होता था। उसके घर वालों को हमेशा शिकायत रहती थी कि चण्डीगढ़ से आने—जाने के बीच का बहुत कम समय ही वह घर पर बिताता था। इसलिए जब उसे जितेन्द्र के विवाह की सूचना मिली और बारात हिन्दुमल कोट जाने का पता लगा तो उसकी प्रसता का द्विगुणित होना स्वाभाविक था।
जून का महीना। गर्मी अपने यौवन पर। सिरसा से हिन्दुमल कोट का लम्बा रास्ता। बारात बस में। रास्ते में कई जगह ऐसी आईं जहाँ दूर—दूर तक आबादी का नामो—निशान न था, ऐसी जगहों पर चलती हवाओं की साँय—साँय की आवाज़ें सुनसान बियावान का अहसास करवाती थीं। रास्ते—भर धूल—भरी गर्म हवाओं को सहते—सहते दोपहर ढलने के बाद तथा सँध्या होने से कुछ समय पूर्व बारात अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँची। कस्बा छोटा था, अतः कूलर अभी वहाँ अपनी उपस्थिति दर्ज़ नहीं करा पाये थे। बारात को एक स्कूल में ठहराया गया था, क्योंकि स्कूल गर्मी की छुट्टियों के कारण बन्द था। घरातियों ने बारातियों की आवभगत ठंडाई और मिश्ठान आदि से की। शायद ही कोई बाराती होगा जिसने ठंडाई का एक के बाद दूसरा गिलास न लिया हो। कई ऐसे भी थे जिन्होंने तीन—तीन चार—चार गिलास लेने में भी संकोच नहीं किया। तपती लू के थपेड़ों को सहते हुए आये बारातियों ने ठंडाई पीने के पश्चात् कुछ राहत अनुभव की। शरीर के अन्दर ठंडक पहुँचने के बाद प्रत्येक बाराती ठंडे—ठंडे पानी से स्नान करके पसीने से तर—बतर कपड़े बदलने के लिये व्याकुल था, किन्तु स्नान का कोई प्रबन्ध दिखाई नहीं देता था। अतः बारातियों में कानाफूसी होने लगी। बात लड़कीवालों तक पहुँची। उन्होंने बारात में आये हुए एक बुजुर्ग रिश्तेदार को एक तरफ ले जाकर समझाया कि यहाँ शहर की तरह गुसलखाने तो नहीं हैं, किन्तु स्कूल के एक कोने में एक कूआँ है, उसपर चरखड़ी चढ़ी हुई है। गाँव के एक—दो आदमी पानी निकालने के लिये लगा देते हैं, बारी—बारी से बाराती वहाँ स्नान कर लेंगे।
औरों का तो पता नहीं, निर्मल बचपन में अपने घर में हाथ वाले नल के नीचे तो अक्सर नहाया करता था, किन्तु कूएँ पर स्नान करने का उसके जीवन का यह प्रथम अनुभव था। कूएँ के ठंडे—ठंडे जल से स्नानकर निर्मल के रोम—रोम में ताज़गी व स्फूर्ति की लहर दौड़ गयी। स्नानोपरान्त निर्मल ने बारात में आये अपने हमउम्र एक—दो अन्य साथियों को साथ लिया और वे लोग समय बिताने तथा घूमने के इरादे से रेलवे स्टेशन की ओर निकल पड़े। उन दिनों छोटे कस्बों तथा शहरों में रेलवे—स्टेशन ही एकमात्र घूमने—फिरने की जगह हुआ करते थे। प्लेटफॉर्म पर चलते—चलते जब प्लेटफॉर्म समाप्त हो गया और निर्मल ने रेलवे लाईन के साथ—साथ चलना जारी रखा तो उसके साथियों ने टोका कि आओ, अब वापस चलते हैं। निर्मल ने प्रकटतः अपना मन्तव्य बताये बिना कहा, चलो यारो, आज जहाँ तक जाया जा सकता है, सीमा—क्षेत्र देखकर आते हैं। थोड़ी दूर चलने पर ही ‘भारत—पाक सीमा चौकी' का साईनबोर्ड दिखाई दिया। उससे आगे प्रतिबन्ध्ति क्षेत्र आरम्भ होता था, इसलिये आगे जाने की मनाही थी। निर्मल ने वहाँ खड़े होकर पश्चिम की दिशा में दूर तक दृष्टिपात करने की कोशिश की जैसे कि भोलेवाला गाँव की अदृश्य धरती को आँखों—ही—आँखों में प्रणाम कर रहा हो! उसके साथी उसके मनोभावों से अनभिज्ञ थे। जब कुछ मिनटों तक निर्मल निश्चल अवस्था में वहाँ खड़ा रहा तो उसके साथियों ने उसकी बाजू को हिलाते हुए कहा, चलो भाई, अब तो वापस चलें, आसमान में तारे दिखने लगे हैं। तब निर्मल बिना कुछ बोले उनके साथ लौट पड़ा। लेकिन सारे रास्ते '47 के समय की दादा व दादी से सुनी हुई बातें उसे याद आती रहीं।
रात के भोजन के उपरान्त सभी बारातियों के लिये स्कूल के प्राँगण में अच्छी तरह छिड़काव करके चारपाइयाँ लगा दी गयी थीं। राजस्थान की दिन की बर्दाश्त से परे की गर्मी के बावजूद रातें ठंडी होती हैं, क्योंकि रेत जल्दी ठंडा हो जाता है। खुले आसमान के नीचे साँस लेना आसान हो जाता है। निर्मल अपनी चारपाई पर जब लेटा तो दृष्टि स्वतः नीलिमा लिये आकाश की ओर स्थिर हो गयी। शुक्ल पक्ष की द्वादश तिथि के यौवन के उठान पर चन्द्रमा के किसी भी प्रकार की बाधा से मुक्त प्रकाश ने आकाश में लाखों—करोड़ों तारों की रोशनी को लगभग शून्य कर रखा था। लगभग सभी बाराती दिनभर की थकावट की वजह से ठंडी—ठंडी हवा का आनन्द लेते हुए जल्दी ही सो गये, किन्तु पता नहीं कब तक यादें निर्मल के मन—मस्तिष्क को झंझोड़ती रहीं। तेईस—चौबीस वर्ष पूर्व घटी घटनाओं के वृतान्त
जैसे उसके दादा—दादी ने सुनाये थे, उसकी मन की आँखों के आगे चलचित्र की भाँति चलते रहे।
विभाजन के समाचार चारों ओर हवा में फैले हुए थे। मुस्लिम—बहुल इलाकों से रोज़—रोज़ समाचार आते कि आज यहाँ मुसलमानों ने हिन्दुओं और सिक्खों के घर लूट लिये, कल वहाँ दंगे—फसाद हो गये। साम्प्रदायिक—भावना विषैली सर्पिणी की भाँति लोगों को डस रही थी। गुण्डे तथा साम्प्रदायिक वैमनस्य से ग्रसित तत्व अमानवीय कृत्यों द्वारा मज़हब के मुँह पर कालिख पोत रहे थे। अधिकतर मुसलमान इस फिराक में थे कि कब पाकिस्तान बनने की घोषणा हो और कब वे हिन्दुओं और सिक्खों के मकानों, दुकानों तथा जमीनों पर कब्ज़ा करें। कइयों ने तो मन—ही—मन तय कर लिया था कि फलाँ—फलाँ दुकान—मकान हम लेंगे। दिन के उजियारे में तो नहीं, सुबह के धुँधलके में और रात के अँधेरे में मति—भ्रष्ट, रक्त—पिपासु मुसलमान हाथों में खंजर—तलवार लिये भूत—प्रेतों की तरह हर जगह मँडराते फिरते रहते थे। मार्च में रावलपड़ी में हिन्दुओं और सिक्खों के विरुद्ध भड़की हसा के बाद से तो इस आग की लपटें गाँव—गाँव, शहर—शहर फैलने लगी थीं। इलाके के सभी हिन्दुओं और सिक्खों के दिलों में भय समाया हुआ था। आम आदमी बहुत जरूरत पड़ने पर ही घर से बाहर निकलता था। कुछ माह पहले तक जहाँ गाँव—कस्बे की दुकानें मुँह—अँधेरे ही खुल जाया करती थीं, अब हिन्दुओं और सिक्खों ने अपनी दुकानें बहुत दिन चढ़ने पर ही खोलनी और सूरज ढलने से पहले ही बन्द करनी शुरू कर दी थीं। शाम गहराते ही हर तरफ श्मशान जैसा साटा पसरने लगता था। रात के वक्त यदि कोई आदमी आम रास्ते पर दिखाई देता था तो देखने वाले के मन में भय का संचार ही करता था जब तक कि परिचय का कोई संकेत न मिल जाता। हर आदमी आतंकित था, पता नहीं, कब किसके साथ क्या हो जाये।
निर्मल के पिता परमानन्द का विवाह एक वर्ष पूर्व ही हुआ था। निर्मल अपनी माँ सावित्री के पेट में आ चुका था। पाकिस्तान बनने की घोषणा तो अगस्त, 1947 में हुई, परन्तु कई महीने पहले से ही विभाजन की विभीषिका का पूर्वानुमान होने लग गया था, क्योंकि बंगाल से साम्प्रदायिक दंगों की खबरें तो महीनों पहले से आ रही थीं। लेकिन पंजाब में आम जनता को अभी यह पता नहीं था कि कौन—कौन से इलाके हिन्दुस्तान में रहेंगे और कौन—कौन से पाकिस्तान में शामिल होंगे, क्योंकि दो देशों — भारत और पाकिस्तान — की सीमाओं का निर्धारण उच्च—स्तर पर केवल पाँच सप्ताहों में ही पूरा किया गया था। हवाओं का रुख भाँपते हुए निर्मल के दादा जी ने उसकी माँ को उसका गहना—गट्टा देकर जून में ही उसके मायके बल्लुआना, जिला बठिण्डा भेज दिया था। पीछे रह गये थे दादा—दादी, पिता, व चाचा जो उस समय तक अविवाहित थे।
हालात दिन—प्रतिदिन बिगड़ते जा रहे थे। तेरह अगस्त की सुबह सूरज आम दिनों की तरह ही निकला था, धरती को अपने प्रकाश से आलोकित कर रहा था, लेकिन उस इलाके में रहने वाले हिन्दुओं और सिक्खों के मनों में अँधेरा छाया हुआ था, उनकी मनःस्थिति सामान्य न थी। निर्मल के दादा जी भी उसी मनःस्थिति में से गुज़र रहे थे। दुविधाग्रस्त मन ने अन्ततः निश्चय किया कि अब निर्मल की दादी, पिता व चाचा को रामां मण्डी में रहने वाले अपने भाई के पास भेज देना चाहिये। माल—असबाब लेकर स्टेशन तक जाना खतरे से खाली न था। दादाजी ने अपने पड़ोसी नूर मुहम्मद, जिसका परिवार और निर्मल के पड़दादा बुटर, बठिण्डा के पास का एक गाँव, से आकर जब से यहाँ बसा था, तब से वे पिछले लगभग पचास वर्षों से गाँव—बसे भाई थे, सुख—दुःख के हमराही थे, को बुलाकर सारी बात समझाई तथा कहा — ‘नूरे, तू आपणी चाची ते भरावाँ नूँ स्टेशन तक छड्ड आ।'
नूर मुहम्मद — ‘चच्चाजान, आप बिल्कुल भी फिक्र ना करो। मैं चाची, परमानन्द और जुगल के साथ स्टेशन तक चला जाऊँगा। अल्लाह खैर करे, रास्ते में कोई भी दिक्कत नहीं आने दूँगा।'
चलने से पूर्व निर्मल की दादी ने कुछ गहने कपड़े के एक टुकड़े में लपेटकर अपनी कमर से बाँध लिये तथा चाँदी के सौ के करीब रुपये एक गुत्थली में डालकर गुत्थली अपनी घघरी के अन्दर नेफे से लटका ली। गर्मी होने के बावजूद फुल्कारी से अपने आपको पूरी तरह से ढँक लिया। परमानन्द और जुगल ने जितने हो सके, नोट अपने पायज़ामों के नेफों में डाल लियेे। चाची को इस तरह लिपटी देखकर नूर मुहम्मद ने पूछा — ‘चाची, इतनी गर्मी में फुल्कारी क्यों ओढ़ रखी है?'
‘पुत्तर, तेरे तों की छिपोना! मैं कुझ—ऐक गहने आपणी कमर नाल बन्हे होये ने।'
‘इन्शा अल्लाह, चाची, वैसे तो सब ठीक—ठाक ही रहेगा। फिर भी अगर रास्ते में कोई रोक ले तो मैं कह दूँगा कि बुढ़ी माई को निमोनिया है, इसलिये फुल्कारी ओढ़ रखी है।'
‘ज्योंदा रह वे पुत्तरा! ऐह तू ठीक सोच्या ऐ।'
स्टेशन से आध—एक मील पहले कुछ दंगाइयों ने उन्हें घेर लिया। निर्मल की दादी, पिता व चाचा घबरा गये, काटो तो उनकी देह में खून नहीं। किन्तु आठ—दस गुंडों के होने पर भी नूर मुहम्मद ने हौसला रखा। अकेला तो वह उनसे भिड़ नहीं सकता था, अतः उसने मित—मलामत से काम लेना ही उचित समझा। उसने दंगाइयों को बहुत समझाया कि वह अपने रिश्तेदारों को स्टेशन तक छोड़ने जा रहा है, बुढ़ी माई निमोनिया की मरीज़ है, उन्हें जाने देें। उसके कहने और मितों का इतना असर ही हुआ कि दंगाइयों ने दादी को एक तरफ कर दिया और पहले तो कपड़ों के ट्रंक जिसमें पहनने वाले जनाना—मर्दाना कपड़े थे, को खोलकर देखा। सारे कपड़े तहस—नहस कर धरती पर फेंक दिये। जब कोई पैसा—टका या गहना हाथ नहीं लगा तो परमानन्द और जुगल की तलाशी लेने लगे। दंगाइयों ने उनके पायज़ामों के नेफे से जब सारे नोट निकाल लिये तो उनके चेहरे पर रंगत आ गयी। नूर मुहम्मद ने उनसे कुछ रुपये तो छोड़ देने की मित की, हाथ जोड़े। एक आदमी जिसने सारे नोट अपनी जेबों में ठूँस लिये थे, दस—दस के पाँच—छः नोट निकाले और नूर मुहम्मद के हाथ में पकड़ा कर अपने साथियों को इशारा किया और वे चम्पत हो गये। इस प्रकार नूर मुहम्मद के साथ होने के कारण निर्मल की दादी, पिता व चाचा बिना किसी प्रकार की शारीरिक क्षति के स्टेशन तक पहुँच गये। लेकिन इस हादसे ने उनके मन को दहला दिया, पहले से मनों में बैठा डर दहशत में बदल गया। स्टेशन पर सुरक्षा के इन्तज़ाम होने के बावजूद लोग सहमे हुए थे। ट्रेन तीन घंटे देरी से आने की घोषणा हो चुकी थी। तीन—चार और पाँच घंटे भी गुज़र गये, किन्तु ट्रेन नहीं आई। प्लेटफॉर्म पर एकत्रित भीड़ में से किसी ने रेलवे कर्मचारी से सुनी बात फैला दी कि पीछे कहीं ट्रेन पर दंगाइयों ने कातिलाना हमला कर दिया था। खबर थी कि पिछले स्टेशन से थोड़ी दूर आने पर किसी ने चैन खींची, गाड़ी के आहिस्ता होते ही दंगाइयों का एक ग्रुप जिनके हाथों में बर्छे—छुरे थे, एक डिब्बे में घुसा। सवारियों की तलाशी ली, जो नकदी या गहना—गट्टा मिला, लूट लिया। कुछ सवारियों ने उनका विरोध किया और बदले में छुरे—बर्छे उनपर पड़ने लगे। इस तरह कुछ लोग मारे गये, कई हताहत हुए। गार्ड उस डिब्बे तक आया भी, किन्तु निहत्था वह भी क्या कर सकता था! फुर्ती से दंगाइयों ने अपना काम किया और डिब्बे से कूद गये और यह जा वह जा। इस तरह पहले से ही देरी से चल रही ट्रेन और लेट हो गयी थी। यह बात सुनकर सभी जाने वाले लोग और दहशत में आ गये, चारों तरपफ खौफ का आलम छा गया, सभी के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। आखिर साढे छः घंटे बाद ट्रेन आई। ट्रेन के डिब्बे तो खचाखच भरे हुए थे ही, बहुत—से यात्री डिब्बों की छतों पर भी चढ़े हुए थे। एक डिब्बे की छत पर तो तीन—चार चारपाइयाँ उल्टी कर उनपर जनानी सवारियाँ भी एक—दूसरे से सटकर बैठी हुई थीं। एक डिब्बे में कुछ कम सवारियाँ दिखीं। परमानन्द उसकी तरफ लपका। तभी निर्मल की दादी की निगाह डिब्बे से टपकती खून की बूँदों पर पड़ी। उन्होंने परमानन्द का हाथ पकड़कर रोका। उसे अगले डिब्बे की ओर खींचा। चढ़ने को बेताब सभी लोग जल्दी मचा रहे थे। हर डिब्बे में धक्कमपेल मची हुई थी। बड़ी मुश्किल से दादी जी को एक डिब्बे में धकेलकर चढ़ा पाया परमानन्द, और जुगल के साथ खुद रेलग का हत्था पकड़कर लटक गया। जब तक गार्ड ने चलने की सीटी नहीं बजाई, उनकी साँसें गले में अटकी रहीं। र्इंजन की छुक—छुक के साथ ही गाड़ी सरकने लगी। तब जाकर पसीने से तर—बतर लोगों ने खिड़कियों के रास्ते आने वाले हवा के झोंकों से कुछ राहत की साँस ली।
इस ट्रेन के बाद उधर से कोई ट्रेन हिन्दुस्तान नहीं आई। यही आखिरी ट्रेन रही। श्री गंगानगर तक का सफर इसी तरह कटा। श्री गंगानगर में गाड़ी काफी खाली हो गयी। यहाँ से चढ़ने वाली सवारियों की सँख्या नगण्य थी। अपने—अपने घरों से उजड़कर आये अधिकाँश लोग, जिनका हिन्दुस्तान में कोई सगा—सम्बन्ध्ी नहीं था, श्री गंगानगर में स्थापित शरणार्थी शिविरों में शरण मिलने की उम्मीद लेकर उतर गये थे। इस प्रकार परमानन्द और जुगल डिब्बे के अन्दर अपनी माँ के पास बैठने की जगह पा गये।
रात के साटे में भी दादी द्वारा सुनाई गयी आगे की लोमहर्षक घटनाओं के स्मरण से ही निर्मल के रौंगटे खड़े हो गये। गाड़ी जब अबोहर जंक्शन पर पहुँची तो वहाँ पाकिस्तान को जाने वाली गाड़ी पहले से खड़ी थी। पश्चिम से आने वाली गाड़ियों की तरह ही पश्चिम को जाने वाली गाड़ियों के हालात थे। गाड़ी के कई डिब्बों में कत्ल किये गये लोगों की लाशें थीं। कुछ डिब्बों से लहू टपकता साफ दिखाई दे रहा था। इन खौफनाक घटनाओं को याद करते—करते ठंडी हवा के झोंकों ने कब निर्मल को नींद के आगोश में पहुँचा दिया, उसे पता ही नहीं चला।
वार्षिक परीक्षा हो चुकी थी। अतः यूनिवर्सिटी लौटने की तो कोई जल्दी नहीं थी, किन्तु निर्मल ने प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के लिये दिल्ली में कोचग ज्वॉइन की हुई थी, इसलिये विवाह से वापस आने के पश्चात् निर्मल केवल एक रात के लिये ही सिरसा रुका। सूरज ढलने के बाद रात्रि होने से पूर्व छत पर पानी का छिड़काव किया होने के कारण फर्श की तपिश काफी—कुछ कम हो गयी थी। चाहे हवा नहीं चल रही थी और दिन की गर्मी का असर अभी भी बाकी था, फिर भी त्रयोदश के चन्द्रमा की निखरी छटा शीतलता का अहसास करवा रही थी। छत पर चारपाइयाँ बिछी हुई थीं। निर्मल दादी के साथ वाली चारपाई पर लेटा हुआ हाथ वाली पंखी से हवा लेता हुआ गर्मी के अहसास को कम करने की कोशिश कर रहा था। घर का सब कामकाज निपटा कर दादी छत पर आई। अपनी चारपाई के साथ वाली चारपाई पर निर्मल को लेटा हुआ देखकर पूछा — ‘सो गया के पुत्तर?'
‘नहीं अम्मा, मैं तो जाग रहा हूँ। तुमसे कुछ बातें करनी थी।'
‘बोल, की गलां करनियाँ ने? तेरी माँ दस रही सी कि तू आपणे दोस्त दी बरात नाल हिन्दुमल कोट जा के आएआ हैं। विआह तां ठीक—ठाक होआ होउ? हिन्दुमल कोट दा नां सुनके मैनूँ बीह—पच्ची साल पुरानियाँ गलाँ याद आ गइयाँ ने। ओन्हाँ गलाँ नूँ याद करके अज वी क्लेजे ‘च हौल पैन लग पैंदे ने।'
‘अम्मा, विवाह तो बहुत बढ़िया रहा, किन्तु जब मैं रात को वहाँ सोया था तो तुमसे सुनी उस समय की बातें दिमाग में घूमने लगीं। यह सोचकर भी डर लगने लगता है कि तुम लोगों ने कितने कष्ट झेले होंगे! तुम्हारा नूर मुहम्मद के साथ स्टेशन तक आना, रास्ते में दंगाइयों का सामना और तुम्हारा जान बचाकर निकल आना आज सचमुच चमत्कार जैसा
लगता है, ये बातें सुनने में सपनों की बातें लगती हैं। अम्मा, यहाँ आकर तुम लोग कहाँ रहे?'
‘पुत्तर, तेरे छोटे दादे दे घरे ही रहना सी, होर कित्थे रहन्दे! ओन्हाँ दा वी भरया—पुरया परिवार सी। लेकिन मुसीबत दे वेले जिवें—तिवें गुज़ारा तां करना ही सी। तिन—चार महीनियाँ मगरों तेरे फुफड़ दे कहन ते आपां एत्थे आ गये। ओन्हां ने ही एह घर ते नाल वाला घर आपां नूँ रहन वास्ते दवाया। लेकिन दोनाें घरां च रहन दी थां आपां ऐस्से घर च ही रअे। नाल वाला घर बन्द रख्या। दो—तिन महीने होए होनगे कि हरिराम ने तेरे दादे नूँ आके कह्या कि ओह् मुल्तान तों उजड़ के आये ने, ओन्हाँ कोल सिर छुपान नूँ छत वी नहीं अ। जे बन्द पेया मकान ओन्हाँ नूँ रहन वास्ते दे देन तां बड़ी मेहरबानी होऊगी। आपां वी सब कुछ छड्डछुड़ के आये सी, जमीन—जायदाद दा मोह मर चुक्या सी। तेरे दादे ने घर दी चाबी ओन्हाँ हवाले कर दित्ती। नेकी दा फल बदी च मिल्या। ओने अफसरां नूं कुझ दे—दा के मकान आपने नां करा लेआ। ना केवल ओन्हाँ ने मकान ते कब्जा कर लेआ, जदों तक हरिराम ते ओह्दा परिवार नाल आले मकान च रह्या, हर छोटी—मोटी गल ते आपां नूँ तंग करना ही जिवें ओन्हाँ दे जीवन दा मकसद रह्या। ओह् अखीर तक आपणे लई नासूर बनके रअे।'
‘यह तो मैं देखता आ रहा हूँ। दादाजी ने आत्म (हरिराम का पुत्र, निर्मल का हमउम्र), के पिता को यह मकान मुफ्त में दे दिया था?'
‘हाँ पुत्तर।'
‘आज तो कीमत पचास हजार से भी ऊपर होगी?'
‘तिन साल पहलां हरिराम ने चाली हजार च बेच्या सी।'
‘अम्मा, दादा जी तो तुम्हारे साथ आये नहीं थे। यह तो तुमने कभी बताया नहीं कि दंगे हो गये, फिर दादाजी कब और कैसे पाकिस्तान से आये?'
‘तेरा दादा लगभग इक महीना ओत्थे रह्या। रब्ब भला करे नूरे ते ओह्दे परिवार दा, जो तेरे दादे नूँ ऐने दिनाँ तक खाना आदि ददे रअे।'
‘अम्मा, दादाजी उनके घर का खाना खा लेते थे?'
‘हाँ पुत्तर, नूरे दा परिवार बड़ा चंगा सी। ओन्हाँ दा खाना—पीना वी आपने वरगा ही सी। ओ ऐने सफाई पसन्द सन कि ओन्हाँ दे घर ड्योडी तों ॲगे चप्पल—जूता वी नइ सी जांदा।'
‘पर वे मीट आदि तो खाते होंगे?'
‘ओन्हाँ दे घरे कदे माँस नइ बनेया। ऐसे लई वार—त्योहार इक—दुजे दे घरे खान—पीन दीआँ चीजाँ दा अदल—बदल हुंदा रहदां सी।'
‘दादाजी के वहाँ से आने की बात तो बीच में ही रह गयी।'
‘पुत्तर, असीं जेहड़ी गड्ड़ी ‘च आये सी, उसतों बाद ओदरों ऐदर नूँ गड़िआँ आनीआँ तां बन्द हो गइआँ। हिन्दू ते सिक्ख आपदे घर—वार छड्ड के कोई पैदल, कोई गड्डेआँ ते ओथों निकलन लगे। भोलेवाला ‘च पहुँचन आले मुस्लमानाँ दी तादाद हर दिन बधदी जा रई सी। ओन्हाँ चों कुझ लोग हनेरे—सबेरे पिच्छे रह गए हिन्दुआँ—सिक्खाँ दे घराँ ते हमला कर ददे जाँ रात दे हनेरे ‘च लुट—पट कर लैंदेे। रोज चोरी, लुटां, मरन—मारण, राहजनी, जनानीआँ नूँ बेइज्ज़त करण दीयाँ वारदाताँ होण लगीयाँ। सब तों बध अत्याचार होए हिन्दू ते सिख जनानीआं ते। इक बारी इक पड ‘च दंगाइयां ने कई घरां ते इकदम हमला कर दित्ता। बीह जनानीआं ने आपनी इज्जत बचाउन लई पड दे खूह विच छाल मारके आपनी जीवन—लीला समाप्त कर लई। ऐह सब वेख—सुन के नूरे ने तेरे दादे नूँ कह्या — ‘चाचाजी, हुण तुहानुँ जान जोखम ‘च नहीं पाउनीं चाहीदी, क्योंकि मैं वी होर हिफाज़त नहीं कर पावाँगा। हुण तुसीं वी बच्चेआँ कोल चले जाओ। जदों तक मेरा बस चलूगा, तुहाड़े घर दी हिफाज़त करूँगा। अगर कदे हालात सुधर गये ताँ वापस जरूर आइयो। जो पैसा—टका है, सँभाल लओ, मैं बार्डर तक तुहाडे नाल चलाँगा।' तेरा दादा वी वेख रह्या सी के हुन ओत्थे रहना मुश्किल सी। ऐस तराँ इक दिन ओन्हाँ ने घर नूँ ताला ला के चाबी नूरे नूँ दिन्देआँ होय कह्या — ‘नूरे, जे साडा वापस आना मुमकिन ना होएआ ताँ तूँ ही साडे घर ‘च रहीं, किसे होर नूँ कब्जा ना करन देईं।' तेरे दादे दी एह गल सुनके नूरे दीआँ अखाँ भर आइयाँ। ओह्ने कह्या — ‘चाचाजी, ऐह तुसीं की कहंदे हो? सारी उम्र आपां इकट्ठे रअे आं, मैं कवें तुहाडे मकान च रअ पावाँगा?' तेरे दादे ने ओह्नूँ हौसला दित्ता ते फेर दोवेंं पैदल घरों चल पये। रास्ते च मिलटरी आले सी कि पुलसआले, ओन्हाँ ने नाके ते तेरे दादे नूँ रोक लएआ ते तलाशी लई। पंजाहकु रुपये छड़के बाकी सारे पैसे खो लये। नाके तों अगे तेरे दादे नूँ कल्आँ ही पैदल हिन्दुमल कोट तक आना पएया। चार दिन ओह् ओत्थे टेशन ते बने इक कैम्प च रअे। चार दिनां बाद इक गड्डी आई तां ओह् पंजवें दिन साडे कोल पौंचे।'
‘अम्मा जी, दादा जी की छाती पर दो गहरे ज़ख्मों के निशान हैं। मेरे पूछने पर वे हमेशा टाल जाते हैं। क्या ये ज़ख्म भी उन दंगों की देन हैं?'
‘हुण पुत्तर, तूं सारीआं गल्लां जानणा चाहुंदा हैं तां, ऐह वी दॅस दिंदी आं। हुणे जो मैं दसिया सी, ओह अद्ध सॅच सी। जदों तेरा दादा ते नूरा आ रह्ये सन तां राह विच ओन्हाँ नूँ पुलसआलिआं ने नहीं, कुझ सिरफिरे मुसलमानां ने घेर लिआ सी। ओह् तेरे दादे दी तलाशी लैन लॅगे। तेरे दादे ते नूरे ने ओन्हाँ नूँ ऐह करन तों रोक्आ तां हत्था—पाई हो गई। ऐस्से हत्थापाई ‘च इक बंदे ने छुरे नाल वार कित्ता। छुरा तेरे दादे दी छाती ‘च लगेआ। ऐने ‘च नूरे ने जमीन ते पई इट्ट ओन्हाँ वॅल मारी। इट्ट इक बंदे दे सिर ते लग्गी। नूरे नूँ दुजी इट्ट चक्क के आपणे वॅल ओंदे वेख के ओह सारे आपदे ज़ख्मी साथी नूँ लै के खिसक गए। नूरे ने तेरे दादे दी पॅग फाड़ के ज़ख्म ते वन्ही ते ओन्हाँ नूँ घर वापस चल्लन लई कह्आ, पर तेरे दादे ने नूरे दी गल्ल ना मण के ओह्नूँ टेशन वल्ल चल्लन लई कह्या। नूरा ओन्हाँ नूँ टेशन ते बने कैम्प तक छड्ड के गएआ। कैम्प ‘च डागदर ने ज़ख्म साफ करके पट्टी किती ते दबाई दिती। फेर नूरा वापस गया। गड्डी आउण तक चार दिन तेरा दादा कैम्प ‘च ही रह्या।'
‘दादा जी ने तो बहुत कष्ट झेले!'
‘हां पुत्तर, रब्ब दा शुकर है कि जान बच गई।'
‘अम्मा, बहुत रात हो गई। अब नींद आ रही है, बाकी बातें फिर कभी सुनूँगा', कहकर निर्मल ने करवट बदल ली। सारे दिन के सफर की थकावट और दिनभर की गर्मी के बाद रात के बदलते मौसम ने निर्मल को शीघ्र ही नींद के हवाले कर दिया। दादी भी आसमान की ओर देखती हुई सोने की कोशिश करने लगी।
सुबह जब निर्मल की नींद टूटी तो रात को सोने से पूर्व के मौसम के पूर्णतः विपरीत ठण्डी—ठण्डी हवा चल रही थी। एक मन तो किया कि थोड़ी देर और इस आनन्दमयी मौसम में चारपाई न छोड़ी जाये, किन्तु सुबह की सैर के नियम के सामने उसके मन की यह कमजोरी टिक नहीं पायी और वह उठकर शौचादि से फारिग होकर सैर करने को निकल पड़ा। रास्ते में उसने सोचा, क्यों न जितेन्द्र के घर हो आऊँ, वरना तो बात महीने—बीस दिन पर जा पड़ेगी। यही सोचकर उसने अपना सैर का रूट बदला और जितेन्द्र के घर जा पहुँचा। बेल देने पर दरवाज़ा जितेन्द्र की माँ ने खोला। निर्मल को देखते ही बोली — ‘आ पुत्तर, इतनी सुबह कैसे?'
निर्मल ने ‘पैरी पैना' कहकर उनके चरण—स्पर्श किये और उन्हें बधाई दी। उत्तर दिया — ‘चाची जी, मैंने आज वापस दिल्ली जाना है। कल बारात के वापस आने पर तो आप लोगों के साथ कोई बातचीत हो नहीं पायी थी, इसलिये सोचा कि आप लोगों से मिलता चलूँ। रिश्तेदार सब चले गया क्या?'
‘हाँ पुत्तर, किसके पास टाइम है? शाम वाली गाड़ियों से सभी चले गये। तू बैठ, मैं जीते को बुलाती हूँ।'
इतना कहकर जितेन्द्र की माँ ने आँगन में जाकर आवाज़ लगाई — ‘जीते, नीचे आ। निर्मल आया है।'
कुछ क्षणों में ही जितेन्द्र सीढ़ियाँ उतरता हुआ नीचे आया और बैठक में बैठे निर्मल ने उठ कर उसे बाँहों के घेरे में जकड़ लिया। जितेन्द्र ने कहा — ‘निर्मल, मैं तो कल रात तेरी इन्तज़ार करता रहा।'
‘आना तो चाहता था यार, लेकिन सारे दिन की थकावट तथा गर्मी की वजह से घर से बाहर निकलने की हिम्मत ही नहीं हुई।'
उनकी बातचीत के बीच जितेन्द्र की माँ ने हँसते हुए कहा — ‘जीते, आज तो निर्मल हमें मिलने थोड़े—ना आया है, यह तो अपनी भाभी को मिलने आया है। जा, बहू को बुला ला। फिर मैं तुम लोगों के लिये चाय बना दूँगी।'
जितेन्द्र फुर्ती से सीढ़ियाँ चढ़ गया। थोड़ी देर में नीचे आकर बोला — ‘माँ, तू चाय बना, सुनन्दा फ्रैश होकर आ रही है।'
दसेक मिनट गुज़रे होंगे कि सीढ़ियों से पायल के घुँघरूओं की खनखनाहट सुनाई दी और दो—चार पलों में ही सुनन्दा ने बैठक में प्रवेश किया। उसने आते ही दोनों हाथ जोड़कर निर्मल को नमस्ते की, प्रत्युत्तर में निर्मल ने भी खड़े होकर नमस्ते करते हुए कहा — ‘स्वागत है भाभी जी आपका इस शहर में। मैं और जितेन्द्र ज़िगरी दोस्त हैं।' एक तीर से दो निशाने साधते हुए आगे कहा — ‘इसे तो कहाँ फुरसत मिली होगी मेरे बारे में बात करने की?'
‘नहीं भाई साहब, ये तो आपके साथ अपनी दोस्ती की इतनी बातें करते रहे, यदि मैं अब उन्हें दुहराने लगूँ तो पता नहीं कितना समय लग जाये!'
जितेन्द्र की ओर मुँह करके निर्मल बोला — ‘क्यूँ बे, तेरे पास सुहागरात के समय मेरे बारे में बात करने के सिवा और कोई बात नहीं थी क्या करने को......?'
चाची जी को चाय लेकर आते हुए देखकर निर्मल ने हँसी—ठिठोली बीच में ही छोड़ दी। सुनन्दा ने उठकर चाय की ट्रे पकड़ी, टेबल पर रखी और सासु—माँ के चरणस्पर्श करके आशीर्वाद लिया। फिर चारों ने बैठकर चाय पी। चाय पीने के बाद जब निर्मल ने उठते हुए जाने की आज्ञा चाही तो सुनन्दा ने कहा — ‘इन्होंने मुझे बताया था कि आप सैर को निकले थे और इधर आ गये। आप सैर करके तैयार होकर आ जाओ, नाश्ता इकट्ठे ही करेंगे।'
‘आज नहीं भाभी जी, आज तो मुझे दिल्ली जाने की जल्दी है। फिर जब मैं आया तो नाश्ता ही नहीं, खाना भी आपके हाथ का बना ही खाऊँगा। दूसरे, आज तो चाची जी ने अभी आपको रसोई में भी नहीं घुसने देना, क्योंकि चौका चढ़ाने की विधिवत रस्म के बाद ही आप रसोई की मालकिन बन पायेंगी। क्यों चाची जी, ठीक है ना?'
जवाब सुनन्दा ने दिया — ‘भाई साहब, विवाह हुआ नहीं, फिर भी आप तो घर—गृहस्थी के रस्मो—रिवाज़ की पूरी जानकारी रखते हो।'
बात को और न बढ़ाकर निर्मल ने हाथ जोड़ते हुए कहा — ‘अच्छा चलता हूँ। थोड़ी सैर कर आऊँ।' और उसने कदम घर से बाहर की ओर बढ़ा दिये। जितेन्द्र उसे बाहर तक छोड़ने आया।
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