खट्टी मीठी यादों का मेला
भाग – 20
(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे, अपना पुराना जीवन याद करने लगती हैं. उनकी चार बेटियों और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी दो बेटियों की शादी हो गयी थी. बड़ा बेटा इंजिनियर था, उसने प्रेम विवाह किया. छोटा बेटा डॉक्टर था, एक अमीर लड़की से शादी कर, उसके विदेश चला गया. तीसरी बेटी नमिता ने दूसरी जाति के लड़के से घर से विरोध होने पर, घर से भागकर शादी कर ली)
गतांक से आगे
नमिता के जाने के बाद घर बिलकुल भुतहा लगने लगा था. लोगों का आना-जाना वैसे ही कम हो गया था. ये दोनों बाप-बेटी किताबों में खोये रहते. ना घर में रेडियो पर गाने गूंजते और ना टी. वी. चलाने का ही किसी को शौक था. अक्सर बैटरी चार्ज करने का ही ध्यान नहीं रहता. वे ही याद करके मीरा को बोलतीं, तो लगा देती चार्जर या फिर भूल जाती. ज़िन्दगी ठहर गयी सी लगती थी. ममता और स्मिता जब विदा होकर गयीं तो उनके बाकी बच्चे छोटे थे, अम्मा-बाबूजी भी जिंदा थे, काम में बेटी का विछोह भूली रहतीं.
पर अब तो चारो तरफ उन्हें नमिता ही दिखती. कभी सीढियों से उतरती हुई, कभी तेज तेज हैंडपंप चला चेहरे पर छींटे मारती हुई तो कभी चारपाई पर लेटी तारों में जाने क्या खोजती हुई सी... जब दुबारा फिर देखती, तो सूनी सीढियाँ, शांत हैंडपंप और खाली चारपाई ही नज़र आती. अंदर के सन्नाटे से घबराकर बाहर देखती तो एक बार लगता जैसे, अमरुद के पत्तों के बीच कोई लाल रिबन झाँक रही है, फिर ठंढी सांस भर कर रह जाती, पता नहीं शहर में कैसी होगी, उनकी बिटिया इन पेड़-पौधों, खेत-खलिहानों के बिना.
पर एक दोपहर स्मिता का फोन आया. वे डर ही गयीं क्यूंकि स्मिता तो हमेशा, रात ग्यारह के बाद ही फोन करती थी, तब पैसे कम लगते थे. भरी दोपहर को फोन किया कुछ अघटित तो नहीं घट गया. मन आशंका से काँप उठा. स्मिता ने धीरे से पूछा, "कोई आस-पास तो नहीं?" उनके 'ना' कहने पर उसने ख़ुशी से चीखते हुए बताया, "माँ, नमिता का फोन आया था, नरेंद्र ने भी बात की. नमिता बहुत रो रही थी... सबका हाल-चाल पूछ रही थी..... दोनों ठीक है, गृहस्थी बसा ली है. मुझे बुलाया है... मैं तो यहाँ नहीं बुला सकती.. मेरे सास-ससुर हैं पर मैने संजीव से बात की, वे मान गए हैं.... जाकर एक बार दोनों को देख आउंगी"
उनकी आँखों से आँसू बह चले, चलो ठीक है लड़की. अब स्मिता से उसकी खबर मिलती रहेगी.
उनका चेहरा ख़ुशी से इतना खिला-खिला था कि शाम को पति ने भी दो बार नज़रें उठा कर देखा, पर वे जल्दी से किसी काम में लग गयीं.
रात में चुपके से मीरा को बताया वो भी बहुत खुश हुई... 'माँ कुछ दिन बाद पापा जी का गुस्सा शांत हो जायेगा तब दीदी घर आ सकेगी, ना ?"
"क्या पता बेटा...." एक गहरी सांस ली उन्होंने. पति तो कभी नाम भी नहीं लेते उसका. और जो बातें उन्होंने नमिता को फोन पर बोली हैं, कैसे बताएं इस नन्ही लड़की को जो बातें बस बड़ी बड़ी करती है.
नमिता के जाने के बाद मीरा भी बहुत अकेली पड़ गयी थी. गाँव में, कॉलेज में, यूँ भी उसका कोई दोस्त और सहेली नहीं थे. सब उस से थोड़ी दूरी रखते थे. हमेशा फर्स्ट आती क्लास में. टीचर्स भी बोलते कि ये तो प्रकाश, प्रमोद से भी ज्यादा तेज है. अंग्रेजी की किताबें धडाधड पढ़ जाती, स्कूल, कॉलेज में कोई जरूरी चिठ्ठी लिखवानी हो तो शिक्षक भी उसे बुलाते, लिखने को. टी. वी. पर देर रात तक वो अंग्रेजी की बहस देखा करती.
सिवनाथ माएँ, कलावती सब उसे टोकती रहतीं... "क्या करोगी इतना दिन-रात पढके?... सादी के बाद तो रोटी पकाने और बच्चे ही संभालने होंगे... उहाँ ई किताब का ज्ञान काम नहीं आएगा.. "
मीरा सिर्फ हंस देती.. "तुम देखो, काकी मैं क्या क्या करती हूँ.... "
"बस बिटिया भगवान जिंदा रखें... तुम्हारे बच्चे खिला लूँ, गोद में... फिर ले जाए, जमदूत "
"चुप रहो..... भरी सांझ को क्या बोल रही हो.. " वे टोक देतीं, पर देखती सचमुच कितनी बूढी लगने लगी हैं.. उनसे २, ३ साल ही बड़ी होंगी. इनलोगों की १२, १३ वर्ष की उम्र में तो शादी हो जाती, १४-१५ साल में माँ बन जातीं, फिर कड़ी मेहनत और रुखा सूखा खाना, ३० में ही बुढ़ापा आ घेरता और ५० तक पहुँचते पहुँचते झुरकुट बुढ़िया लगने लगतीं.
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मीरा के बी. ए. के इम्तहान हो गए फिर भी वह पढ़ाई में वैसे ही गुम रहती, अब प्रकाश उनलोगों के अकेलेपन का ख़याल कर कभी कभी घर आने लगा था. उसके बच्चों को गाँव बहुत अच्छा लगता. इतनी खुली जगह... दौड़ने खेलने की छूट, पढ़ाई से छुट्टी, बहुत भाती उन्हें. बेटा राज़, तो अपने लाये खिलौनों को हाथ भी नहीं लगाता और टूटी टहनी, रस्सी के टुकड़े, टोकरी किन किन चीज़ों से वह नए नए तरीके से नहीं खेलता. एक लकड़ी के टुकड़े पर रस्सी बाँध किसी ऊँची जगह पर चुपचाप बैठ जाता. वे पूछतीं,
"यूँ अकेले चुपचाप बैठकर क्या कर रहा है??"
तो कहता, "फिशिंग कर रहा हूँ "
वे नहीं समझ पातीं तो प्रकाश हँसता हुआ समझाता, "माँ, वो मछली मार रहा है"
" राम राम... ये कौन सा खेल है... यही बनेगा क्या बड़ा होकर"
"माँ, लोग शौक से भी मछली मारते हैं.. "
"शौक से क्यूँ... "
"वो सब छोडो बताओ खाने में क्या है.... " प्रकाश बस जैसे खाने और सोने को ही आता. शहर की भागदौड़ वाली ज़िन्दगी से दूर यहाँ बहुत सुकून मिलता उसे. शाम होते ही छत पर चला जाता और एक चटाई पर लेट आकाश देखता रहता.
बिटिया 'रिनी' सारे घर में ठुमक ठुमक घुमा करती. जब वे रात में उसके पैरों में तेल लगा मालिश करती हुई उसे राजा-रानी और परियों की कहानी सुनातीं. तो वह अपनी नींद भरी आँखें खुली रखने की कोशिश करती रहती. "अब सो जा, कल सुनाउंगी कहानी, "कहने पर भी वो अपनी अधमुंदी आँखों से ही 'ना' का इशारा करती.
एक प्रीति का मन शायद उतना नहीं लगता पर बच्चे जिद करते.. "... मम्मा कुछ दिन और यही रहेंगे" और उसे रुकना पड़ता. वह भी मीरा की किताबें उलट पुलट करती रहती और मीरा से ही बातें करती रहती.
मीरा के बी. ए. का रिजल्ट आया और वह कॉलेज में ही नहीं, यूनिवर्सिटी में प्रथम आई. मीरा को भी विश्वास नहीं होता. बार-बार कहती, "अच्छे नंबर मिलेंगे ये तो सोचा था पर फर्स्ट क्लास फर्स्ट... ये नहीं सोचा था कभी"
पति भी बड़े खुश थे, बड़ी सी हंडिया में रसगुल्ले लेकर आए और बहुत दिनों बाद शाम को कुर्सी निकाल अहाते में बैठे.
कॉलेज में भी सारे प्रोफ़ेसर बड़े खुश थे. उन्होंने कॉलेज के वार्षिक उत्सव में मीरा को पुरस्कार देने की योजना बनायी.... माता-पिता दोनों को बुलाया. वे तो कभी जानने वालों के सामने यूँ मुँह उघारे नहीं गयीं. उन अजनबी लोगों के बीच कैसे बैठेंगी? उनके तो पैर काँप रहें थे.
पति से कहा तो उन्होंने घुड़क दिया, "क्या गंवारो जैसी बातें कर रही हो... इतनी उम्र हो गयी.... बेटा विदेस में, बेटी मुंबई में और तुम्हे डर लग रहा है??"
"मन हुआ कहें.. सारी उम्र तो गाँव में रहीं तो शहरियों जैसी बातें कैसे करेंगी.... और उम्र से डर का क्या रिश्ता?"... पर चुप रहीं.
मीरा उनकी घबराहट भांप गयी. और काफी देर तक उनका हाथ पकड़ कर बैठी रही. थोड़ी देर में वे भी सहज हो गयीं और कार्यक्रम का आनंद लेने लगीं. जब मीरा के नाम की घोषणा के साथ प्रिंसिपल ने उसकी तारीफों के पुल बांधे तो आँखें भर आई उनकी. कभी कभी कितना धोखा दे देती हैं, आँखें. दुख हो, सुख हो, नाराज़गी हो , बेबसी हो, गर्व हो जब देखो भर आती हैं.
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प्रकाश, अब जब घर आने लगा था तो उन्होंने मीरा के लिए लड़का देखने की बात उसी से कही. कहने लगा, "माँ अब जमाना बदल रहा है... मीरा इतनी तेज़ है पढने में... आगे पढना चाहती है... पढने दो, नौकरी करने दो.... फिर देखेंगे उसके लिए लड़का... आजकल अच्छे लड़के भी खूब पढ़ी लिखी लड़की ही चाहते हैं जो जरूरत पड़ने पर नौकरी कर घर भी संभाल सके. "
यह नई बात थी उनके लिए, पर जब पूरा घर ही एकमत है तो वे क्या कह सकती थीं. पति भी बेटे की हाँ में हाँ मिलाते रहते. जैसे अपनी जिम्मेदारियां उसके सर पर डाल निश्चिन्त हो गए हों. रिटायर होने के बाद, पूरा ध्यान बागवानी में ही रहता. नई नई किस्मों के फूल और अलग-अलग सी सब्जियां लगाते. कुछ सब्जियां तो तो उन्हें बनानी भी नहीं आतीं. किताबों में पढ़कर मीरा बताती, कैसे बनाते हैं.
अब बस किताबें ही उसकी साथी थीं. कुछ बिजनेस मैनेजमेंट करेगी, ऐसा कहती. वे समझ नहीं पाती, पढ़-लिख कर कैसे बिजनेस करेंगे. कुछ खरीदने -बेचने के लिए पढ़ाई की क्या जरूरत... पर होगा कुछ. नए जमाने की बहुत सारी बातें उन्हें समझ में नहीं आतीं. प्रकाश मोटी मोटी किताबें भेजता रहता उसके लिए. डाक से भी कुछ कागज़-पत्तर आते. कहती डाक से कोचिंग कर रही है. अब पढ़ाई भी चिट्ठी-पत्री से शुरु हो गयी. अब इसी ज़िन्दगी में पता नहीं और क्या क्या देखेंगी वे.
मीरा परीक्षा देने शहर गयी. रिजल्ट आया तो पता चला उसका अच्छे कॉलेज में चयन हो गया है. वे डर रही थीं. अब उसे हॉस्टल में रखने का खर्चा कहाँ से आएगा?? एम. बी. ए. की फीस भी लाखों में थी. बेटों के सामने मुहँ तो नहीं खोलना पड़ेगा?? पर मीरा ने पहले से ही सब कुछ तय कर रखा था. प्रकाश से बात कर ली थी और बैंक से लोन के लिए अप्लाय कर दिया था. उन्हें अफ़सोस हुआ, बेटों को खेत बेच कर पढ़ाया और बिटिया को कर्जा लेना पड़ रहा है. मीरा ने उसे समझाया कि जब उसकी नौकरी लग जायेगी तब वह अपने वेतन से कर्ज चुका देगी. वे चकरा जातीं आखिर कितना वेतन मिलेगा कि कर्जा भी चुक जाए. 'अरे बहुत मिलेगा माँ' सारे कर्जे चुक जायेंगे तुम निश्चिन्त रहो. अब वे चुप ही रहतीं ये नए जमाने का कुछ भी उन्हें समझ भी नहीं आता. प्रकाश के शहर वाले कॉलेज में ही एडमिशन लिया. वह प्रकाश के घर ही रहने वाली थी. हॉस्टल के पैसे बचाने के लिए मीरा ने ये फैसला किया था पर उनकी छाती से चिंता का बोझ उतर गया. लड़की बड़े भाई की सुरक्षा में रहेगी. अब और क्या चाहिए.
(क्रमशः )