Khatti Mithi yadon ka mela - 18 in Hindi Love Stories by Rashmi Ravija books and stories PDF | खट्टी मीठी यादों का मेला - 18

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खट्टी मीठी यादों का मेला - 18

खट्टी मीठी यादों का मेला

भाग – 18

(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे, अपना पुराना जीवन याद करने लगती हैं. उनकी चार बेटियों और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी दो बेटियों की शादी हो गयी थी. बड़ा बेटा इंजिनियर था, उसने प्रेम विवाह किया. छोटा बेटा डॉक्टर था, एक अमीर लड़की से शादी कर वह भी, उसके पिता के पैसों से अब विदेश जा रहा था, तीसरी बेटी नमिता अब कॉलेज जाने लगी थी. उसमें आये परिवर्तन से उन्हें आशंका हो रही थी )

दो तीन दिन यही सोचते गुजर गए कि बात शुरू कैसे की जाए. और एक दिन यूँ ही तबियत नहीं ठीक लग रही थी और वे अपने कमरे में लेटी थीं कि नमिता आई. उन्होंने कहा, "लालटेन लेती आ, अँधेरे में क्यूँ आ रही है?"

"ना माँ रहने दो... मुझे तुमसे कुछ बात करनी है ?" नमिता की आवाज़ की गंभीरता से वे चौंक जरूर गयीं, पर कुछ बोलीं नहीं.

उनके पास पलंग पर बैठ, नमिता ने ही शुरुआत की, "माँ, नरेंद्र मुझसे शादी, करना चाहता है "

"हम्म... "

"जब से उसकी नौकरी लगी है, उसके घर वाले बहुत दबाब डाल रहें हैं, मुझे कब से कह रहा है, तुमलोगों से बात करने को... पर मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी. "

"नरेंद्र शादी करना चाहता है... और तुम ?"

पर नमिता चुप रही, अँधेरे में उसका सल्लज चेहरा तो नहीं देख सकी, पर उसकी ख़ामोशी ने ही सब कह दिया.

"नमिता तुझे पता है, ना... वे लोग अलग जाति के हैं... पापाजी ज्यादा पसंद भी नहीं करते उन्हें... वे मानेंगे??"

"माँ, भैया लोगों की शादी भी तो हमारी जाति में नहीं हुई "

"हम्म... " वे कैसे बताएं कि उनके पैसों की चमक में उनकी जाति का नाम धुंधला पड़ गया था.

" बड़के भैया को तो पापाजी ने मना नहीं किया... और छोटके भैया की शादी के लिए तो खुद ही, हाँ कहा.... और माँ तुमको पता है, नरेंद्र भी इंजिनियर है, अच्छी कंपनी में काम करता है.... फिर क्यूँ मना करेंगे?"

"मैं बात करती हूँ... " उन्होंने कह तो दिया पर आशंका थी कि पति को मना पाएंगी या नहीं.

"माँ आज ही करना.. नरेंद्र बहुत परेशान है... उसके परिवार वाले उसकी शादी के पीछे पड़े हैं.... यहाँ से हाँ हो तब वो अपने घर में बात करे" नमिता ने कहा और बाहर चली गयी.

उन्होंने भी सोचा दुविधा में रहने से क्या फायदा.... और उसी रात पति से कह डाला पर जो हुआ उसकी अपेक्षा तो उन्होंने कभी नहीं की थी. शांत-चित्त, किताबों में खोये रहने वाले, मित-भाषी पति का ऐसा रौद्ररूप पहली बार देखा. चीखने -चिल्लाने लगे, "सब तुम्हारी शह है.... इस लड़की के लच्छन तो शुरू से ही नज़र आ रहें थे. जब देखो.. पूरे गाँव में घूमती रहती थी और अब ये हाल है... तुम्हे तो नज़र रखना चाहिए था... अब भुगतो, अपनी छूट का नतीजा. मैं तो दिन भर घर से बाहर रहता हूँ, एक लड़की नहीं संभाल सकी तुम"

"अरे धीरे बोलिए... "

"क्या बोलूं धीरे... अब कल को गाँव में फैलेगी ये बात, कहीं मुहँ दिखाने के लायक नहीं रहेंगे... जमीन-जायदाद गयी, बाग़-बगीचे गए... एक इज्जत बची थी, उसे भी यह लड़की नीलाम करने पर तुली है"

"इज्जत क्यूँ नीलाम होगी... अगर बाजे-गाजे से लड़की को विदा करेंगे तो... किस का मुहँ रहेगा, कुछ कहने का... आखिर प्रकाश, प्रमोद की शादी भी तो दूसरे जात में हुई. "

"वे हमारे बराबर की जात के थे... और उनकी लड़की लेकर आए हम.. अपनी लड़की नहीं दी... और वो भी उस छोटी जात में... ये कब्भी नहीं होगा... कह दो उसे... हाथ-पैर तोड़ के घर में बिठा दूंगा.... नहीं तुम क्या कहोगी... तुम्हे समझ होती तो बेटी को संभाल कर नहीं रखती... बुलाओ उसे... नमिताss... नमिताsss... " जोर से गरजने लगे.

नमिता आई और सर झुका कर खड़ी हो गयी, पर कंधे बिलकुल तने हुए थे. मीरा भी उसके पीछे कांपती हुई सी आकार खड़ी हो गयी

"इसीलिए तुम्हे कॉलेज भेजा?.... मैं उतनी दूर भेज सकता हूँ तो कमरे में बंद करके भी रख सकता हूँ... खबरदार जो तुझे देखा है, घर से बाहर कदम रखते... यही सब देखना बाकी था खानदान की इज्ज़त मिटटी में मिला दी... " पति गुस्से से काँप रहें थे.

"जब भैया लोगों का दूसरी जात में ब्याह हुआ तब खानदान की इज्जत नहीं खराब हुई. ??. " नमिता ने सर झुकाए ही पर सधे शब्दों में कहा. और पति गुस्से से पागल हो उठे.

"जुबान चलाती है.... बाप को जबाब देती है... हाँ कॉलेज में पढ़ी, है ना... यही सीखा है... देखता हूँ मैं भी.. ये सब टेलीफोन और टी. वी का असर है... देखता हूँ अब कौन इस घर में टी. वी. देखता है. अभी फोड़ देता हूँ टी. वी..... कहाँ है टेलीफोन मैं अभी तार काट देता हूँ... "और दूसरे कमरे की तरफ बढे. उन्होंने रोकना चाहा तो इतनी जोर से उन्हें धक्का दिया कि गिरते गिरते बचीं. मीरा रोती हुई उन्हें आकर संभालने लगी. नमिता वैसे ही सीधी अपनी जगह पर खड़ी रही.

पति ने टेलीफोन के तार खींच कर निकाल डाले... टी. वी. के तार नोच डाले. फिर हताश पलंग पर गिर पड़े.

वे डर के मारे दूर ही बनी रहीं. दोनों लडकियाँ भी अपने कमरे में चली गयीं. वे समझ रही थीं, पति की हताशा ये सब हरकतें करवा रही थी, उनसे. लड़कों को पढ़ाने में जमीन-जायदाद बिक गए. लड़के अपनी गृहस्थी में मगन थे. दो अनब्याही लडकियाँ घर बैठी थीं. अच्छा लड़का वे खोज नहीं पा रहें थे, रिटायरमेंट का समय नजदीक आ रहा था. मन में चल रही यही सब परेशानी लावा बनकर फूट निकली और बहाना नमिता बन गयी.

दोनों लडकियाँ अपने कमरे में चली गयीं. आज तो चार जोड़ी आँखें छत देखते ही रात बिताने वाली थीं.

दूसरे दिन पति ने हमेशा की तरह, सुबह सब्जियों की क्यारियाँ ठीक की.. पीले पत्ते तोड़े.. फिर नहा-धोकर बिना खाना खाए स्कूल चले गए. मीरा ने देखा और उन्हें आश्वस्त किया, "माँ वे चपरासी से मँगा कुछ खा लेंगे... तुम चिंता मत करो... मुझे खाना दो... कॉलेज के लिए देर हो रही है" बेटियाँ बिना बोले ही समझ जाती हैं, माँ के दिल का दर्द.

नमिता अब तक बिस्तर से उठी नहीं थी. सो तो क्या रही होगी. वे पास में बैठ उसका सर सहला कर उठाने लगीं. वह उनका हाथ झटक कर पलंग से उतरी और कमरे से बाहर चली गयी. मन रुआंसा हो गया, दोनों उस पर ही गुस्सा हैं..... जबकि दोनों तरफ से वे ही बात संभालने की कोशिश कर रही हैं. फिर मन को समझाया, आखिर किस पर गुस्सा उतारेंगे ये लोग, जिसे अपना समझेंगे उसी पर, ना. अब राह चलते लोगों पर तो गुस्सा नहीं उतार नहीं सकते.

घर में शान्ति छाई रहती, पति फिर समय से खाना खाने लगे थे. पर बात बिलकुल नहीं करते. बस अखबार और किताबें पढ़ते रहते. नमिता भी घर से बाहर नहीं निकलती, दिन भर छत वाले कमरे में रेडिओ लिए पड़ी रहती. खाना भी बस टूंगती भर. टेलीफोन और टी. वी. के तार वैसे ही नुचे हुए पड़े थे. टेलीफोन की घंटी ही बजती तो किसी से बात तो होती. टी. वी. भी नहीं चलता. नहीं तो घर के सारे लोगों के एक साथ बैठने का बहाना तो था एक.

सब अपने में गुम से रहते. सिवनाथ माएँ भी टोक देती. ". का बात है सबलोग ऐसे चुप्पा काहे लगाए बैठे हो. " पर उनकी बात हवा में ही खोकर रह जाती.

चार-पांच दिनों बाद फिर नमिता ने बाहर निकलना शुरू किया तो उन्हें थोड़ी राहत हुई. बाग़, नहर की तरफ कभी मीरा के साथ, कभी अकेली घूम कर आ जाती. एक दो बार उन्होंने उसे समझाने की कोशिश भी की, " हमेशा मनचाहा कहाँ हो पाया है, मुझे नहीं लगता नरेंद्र के घरवाले भी तैयार होते. उन्हें भी अच्छा दहेज़ मिलेगा... वे कब्भी ये मौका नहीं छोड़ेंगे... सबको पैसे का लालच होता है... नरेंद्र भी समझ जायेगा. ये सब बचपना है, ज़िन्दगी में कई समझौते करने पड़ते हैं. " नमिता कुछ जबाब नहीं देती पर उनकी बात भी नहीं सुनती, वहाँ से उठ कर चली जाती.

रामजस जी का आना जाना बढ़ गया था और शनिचर, इतवार को पति उनके साथ बाहर चले जाते. उन्हें लग रहा था. अब वे जोर-शोर से नमिता के लड़के के लिए तैयारी की खोज में हैं. पर उन्हें कुछ नहीं बताते और उन्हें रामजस जी से पूछना अच्छा नहीं लगता. क्या कहते वे कि उन्हें अपने घर की ही बातें नहीं पता. पर नमिता के मामले में पति अभी भी उन्हें ही दोषी समझ रहें थे कि उन्होंने ही नज़र नहीं रखी.

नमिता को भी कई बार, पति के ब्रीफकेस के कागज़-पत्तर देखते हुए देखा, उन्होंने. सोचा, चलो अच्छा है, नमिता को भी पता तो होना चाहिए कि कहाँ बात चल रही है. अगर उसे कुछ नहीं अच्छा लगे तो वो बता सकती है. पर उन्हें ये नहीं पता था कि नमिता के इन कागजों को टटोलने का कुछ और ही नतीजा निकलेगा.

सुबह की तैयारियों में ही लगी थीं, कि मीरा दौड़ी हुई आई, "माँ.... माँ ये देखो... "

उसके हाथों में एक कागज़ था. "क्या हुआ.. इतना घबराई हुई सी क्यूँ है... ??"

"माँ.. माँ दीदी... "और मीरा के आँसू छलक आए.

उनका कलेजा बैठ गया, मीरा का कन्धा थाम लिया.. "क्या हुआ.... जल्दी बोल.. "

"माँ.... दीदी, घर छोड़ कर चली गयी... "

“क्याssss..... " वे वहीँ जमीन पर ही धम्म से बैठ गयीं.

लिखा है... "माँ, मैने बहुत कोशिश की लेकिन अब और कोई रास्ता नहीं था.... नरेंद्र के घरवाले भी नहीं मान रहें. मैं नरेंद्र के साथ, उसकी नौकरी पर जा रही हूँ..... हो सके तो माफ़ कर देना. ' माँ, बस दो लाइन ही लिखा है "... मीरा के आँसू बह चले.

उसी समय पति सुबह की बागबानी कर अंदर आ रहें थे. उन्हें यूँ जमीन पर बैठे और पास खड़ी रोती मीरा को देख उसके हाथों से कागज़ ले पढ़ा और सर पे हाथ मार वहीँ कुर्सी पर गिर पड़े.

थोड़ी देर बाद उठे और अंदर चले गए, वे घबरा कर पीछे से गयीं तो देखा, पलंग की पाटी पर सर झुकाए हुए हिलक हिलक कर रो रहें हैं. उन्होंने डरते हुए उनके कंधे पर हाथ रखा... तो दिल को चीर कर रख देने वाली आवाज़ में बोले... "इस लड़की ने कहीं का नहीं छोड़ा, ममता की माँ... क्या मुहँ दिखायेंगे हम गाँव में"

वे क्या कहती वे भी रोती हुई पलंग पर बैठ गयीं.

(क्रमशः )