खट्टी मीठी यादों का मेला
भाग - 17
(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे, अपना पुराना जीवन याद करने लगती हैं. उनकी चार बेटियों और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी दो बेटियों की शादी हो गयी थी. बड़ा बेटा इंजिनियर था, उसने प्रेम विवाह किया. छोटा बेटा डॉक्टर था, एक अमीर लड़की से शादी कर वह भी, उसके पिता के पैसों से अब विदेश चला गया)
गतांक से आगे
कॉलेज जाने के साथ ही वे नमिता में परिवर्तन देख तो रही थीं. अब ये उम्र का प्रभाव था या कॉलेज जाने का या फिर घर में टी. वी. आ जाने का. पर वह अब अपने रख रखाव के प्रति सजग दिखती थी. वरना पैरों में चप्पल पहनने के लिए कितनी डांट सुनती थी. डांटने पर, घर से तो पहन कर निकलती पर किसी पेड़ के नीचे छोड़ कर आ जाती. बालों में तेल डालने को चोटियाँ बनाने को हमेशा, उसे घेर कर बिठाना पड़ता पर अब पेड़ पर चढ़ना, पुआल के ऊँचे ढेर पर बैठ ईख चबाना तो नहीं छूटा पर पैरों में चप्पल अब नहीं भूलती वह. उन्हें वह नज़ारा भी नहीं भूलता, जाड़ों की धूप में नमिता उसी पुआल के ऊँचे ढेर पर बैठी, ईख चबाती, हर आने जाने वालों से जोर जोर से बतियाती रहती... किसी के कंधे पर पड़े गमछे के एक किनारे पर बंधी पोटली को देख टोक देती, "क्या काका, लाई कचरी ले जा रहें हो मुनिया के लिए?" और मीरा उसी पुआल के ढेर के नीचे अधलेटी सी दिन-दुनिया से बेखबर किसी किताब में खोयी होती.
एक दिन उन्होंने नमिता के हाथों के लम्बे नाखून देखे और चौंक पड़ी, "अरे चलो तुम्हारे नाखून काट दूँ, इतना भी होश नहीं इस लड़की को".
"मैं खुद काट लूंगी" नमिता टाल गयी.
इस पर मीरा हंस पड़ी, " माँ, दीदी ने फैशन में नाखून बढाए हैं,
" नाखून तो बस चुड़ैलों के लम्बे होते हैं, ये चुडैलों वाला कौन सा फैशन आ गया ?" उन्हें आश्चर्य हुआ.
" हा हा... चुडैलों का फैशन.. माँ, टी. वी. में नहीं देखा... अच्छा रुको तुम्हे किसी पत्रिका में दिखाती हूँ... " मीरा हंसी से लोट-पोट हो रही थी.
और उन्हें अब माजरा समझ में आया कि नमिता लालटेन, लैम्प साफ़ करने से क्यूँ कन्नी कटाने लगी है, आजकल. गाँव में बिजली थी पर फिर भी नियम से कलावती, लालटेन और लैम्प के शीशे साफ़ किया करती थी. क्यूंकि शाम होते ही जो बिजली जाती वह सुबह चार-पांच बजे आया करती. लेकिन नमिता को उसका काम पसंद नहीं था और अम्मा जी के जमाने से ही यह काम उसने अपने जिम्मे ले लिया था. बाल्टी में सर्फ़ घोल कर सारे लालटेन लैम्प के शीशे ऐसे चमकाती की झक झक रोशनी निकलती उनसे. शाम होते ही अम्मा जी सारे लालटेन, लैम्प जलातीं और किसी बच्चे को आवाज़ देती, सांझ दिखाने को. अम्मा जी के गुजर जाने के बाद वे ही यह काम करतीं और उनकी आँखें भर आतीं, बरसों से अम्मा जी का यह नियम था. पर शाम का ख़याल कर वे अंदर ही अंदर आँसू पी मीरा को आवाज़ देतीं.
मीरा लालटेन ले घर के हर कमरे में, कोठी और गोदाम वाले कमरे में भी सांझ दिखा आती. फिर बाहर जाकर 'हनुमान जी के पताके' के पास लालटेन रख हाथ जोड़ती. फिर लालटेन को तुलसी चौरा, गाय के बथान, बैलों के पास, उनकी नाद, चारा काटने की मशीन, घूरा (जहाँ अहाते को बुहार कर पत्ते लकड़ी इकट्ठा किया जाता और उसे जला दिया जाता. जाड़े के दिनों में तो कई सूखी लकड़ियाँ, टूटी टोकरी सब इकट्ठा कर जलाया जाता, और आस-पास के लोग जमा हो आग तापते और किस्से कहानियाँ सुनाया करते एक दूसरे को. ) सब जगह दिखा आती.
पर आजकल अपने हाथों और नाखून का ख्याल कर नमिता ने लालटेन और लैम्प की कालिख साफ़ करनी बंद सी कर दी थी और आजकल गाँव में काम करने वालों का मिलना भी मुश्किल हो गया था. अब नई उम्र के लड़के सब पंजाब और असाम कमाने जाने लगे थे और वहाँ से पैसे भेजते. अब उनके घर मे भी चौकियां थीं, सब मच्छरदानी लगा के सोते, ट्रांजिस्टर पर गाना बजता रहता. और उनकी पत्नियां अब काम नहीं करती. बगीचे से जलावन भी इकट्ठा नहीं करतीं बल्कि जलाने की लकडियाँ भी पैसे देकर खरीदतीं. वरना पहले किसी को भी आवाज़ दे, ये छोटे मोटे काम करवा लिए जाते थे और बदले में थोड़ा अनाज भी दे दिया जाता था.
इन सबके साथ, नमिता की नीना से दोस्ती भी बढती जा रही थी. शहर से आई नीना की दोस्ती का भी असर लगता ये सब. वरना नमिता जैसी लड़की खुद आगे बढ़कर, नीना से सखी लगाने को कहती, कभी?
सावन में एक ख़ास दिन गाँव की लडकियाँ जिसे पक्की सहेली बनाना चाहतीं. उस से चूड़ी, रिबन, नेलपॉलिश के उपहार की अदला बदली करतीं और फिर एक दूसरे को किसी फूल के नाम से पुकारतीं. एक दूसरे का नाम नहीं लेतीं. ज्यादातर लड़कियां एक दूसरे को गुलाब, चमेली, जूही, जैसे नामों से बुलातीं. पर नमिता ने कभी किसी को ख़ास सहेली नहीं बनाया. लड़कियां उस से सिफारिश करतीं,
"चाची उसे कहिये ना... मुझसे सखी लगाए"
"मुझे नहीं अच्छा लगता ये सब..... आज सखी लगाती हैं और कल लड़ाई हो जाती है तो उसी का नाम लेकर जोर जोर से चिल्लाती है" वह हाथ में कोई छड़ी या रस्सी का टुकड़ा लहराते हुए बोलती और गिल्ल्ली डंडा खेलने भाग जाती.
वही नमिता आज खुद से कह रही थी, "माँ इस सावन में नीना से सखी लगाऊं?"
नीना अच्छी लड़की थी, कई बार अपने भाई के साथ मोटरसाइकिल पर उनके घर आ चुकी थी. भाई छोड़कर तो चला जाता पर जब उसे लेने आता तो तीनो काफी देर तक बाहर बातें करते रहते या बाग़ में घूमने चले जाते. यह सब उन्हें नहीं सुहाता. उसकी नौकरी लग गयी थी लेकिन अभी इंजीनियरिंग का रिजल्ट नहीं आया था. वह गाँव में रहकर अपने रिजल्ट का इंतज़ार कर रहा था. अक्सर ही नीना को छोड़ने लेने आ जाता. और अब अगर 'सखी लगाने की इजाज़त दे दी, तब तो आना जाना और बढ़ जायेगा. पर मना भी कैसे करें?
पति को यह परिवार ख़ास पसंद नहीं था, एक तो वे लोग बैकवर्ड जाति से थे, दूसरे नीना के पिता, पति के सहपाठी थे. किसी तरह खींच-खांच कर पास होते थे पर रिजर्वेशन के बल पर अच्छी नौकरी पा गए थे और अब बड़े अफसर बन चुके थे. पति को यह बात खलती थी.
कुछ ऐसा नज़र भी नहीं आ रहा था कि वह नमिता को उसके घर जाने से रोकें, वैसे भी कॉलेज के रास्ते में ही नीना का घर था. अब नमिता ने इंटर पास कर बी. ए. में एडमिशन ले लिए था और उनकी व्यग्रता अब बढ़ने लगी थी, पति से कहतीं कि लड़का देखना शुरू करिए, मनपसंद लड़का ढूँढने में समय भी तो लगना था. ममता और स्मिता का हाथ तो, मांग कर ले गए. पर अब वह पहले वाला ज़माना नहीं रहा. रिश्ते अब सिक्कों में तुल रहें थे और अब उनलोगों के पास ज्यादा पैसे भी नहीं थे.
पर पति यह बात समझते नहीं, उन्हें कोई भी लड़का पसंद नहीं आता. कही लड़के का रूप, तो कहीं नौकरी और कहीं उसका घर. जहाँ सब कुछ पसंद आता वहाँ, दहेज़ की इतनी मांग होती कि उसे चुकाना उनके सामर्थ्य के बाहर की बात थी. एक बेटा तो विदेश ही चला गया था और एक अपनी गृहस्थी में मस्त था. दो अनब्याही बहनें घर बैठी हैं, इसकी कोई चिंता ही नहीं. प्रकाश, एक बेटा और एक बेटी का बाप भी बन चुका था. दोनों के जन्म पर वे गयी थीं. पर मेहमान सी ही रहीं. बहू के मायके के लोगों का ही दबदबा था. बच्चे के लिए शौक से ले गयी चीज़ों को भी निकालने में उन्हें हीनता महसूस होती. किसी तरह रस्म निबटा चली आयीं वापस. बहू भी गाँव में दो दिन से ज्यादा नहीं रूकती, गर्मी, मच्छर, ठंढ का बहाना बना वापस चली जाती.
पति निश्चिन्त थे कि उनकी बेटियाँ भाग्य्वाली हैं, अच्छा लड़का, घरबार मिल ही जायेगा. पर उन्हें बेटी में आते परिवर्तन के लक्षण कुछ अच्छे नहीं लग रहें थे.. घंटों अँधेरे में बैठी गाने सुनती रहती. एक दिन तो वे कमरा बंद कर रही थी कि कहीं बिल्ली आकर दही ना खा जाए तो बोली.. 'माँ, मैं अंदर ही हूँ. " खिड़की से थोड़ी चांदनी छिटक कर कमरे में फैली थी और वह उसी में गुमसुम बैठी, खिड़की से चाँद निहार रही थी. एकदम डर गयीं वे. दूसरे दिन ही रामजस जी, जो उन्हें ख़ास पसंद भी नहीं थे, से कहा, " आप ही जरा अच्छे लड़के का पता कीजिये" पर बात पैसों पर आकर रुक जाती, शादी का खर्चा, दान -दहेज़ सब कैसे पूरा होगा. अब अच्छी जमीन भी नहीं बची थी जिसे बेच कर सारे खर्चे पूरे किए जाएँ.
पति कहते, दो साल में मैं रिटायर हो रहा हूँ, बस उसके बाद जो पैसे मिलेंगे. उस से एक का ब्याह तो निबट जाएगा. पर उनका दिल धड़कता रहता इस बीच कोई अनहोनी ना हो जाए कहीं.
नीना के पिता का ट्रांसफर हो गया. नीना भी बी. ए. के इम्तहान तक रुकी थी, उसके बाद उसका परिवार वहाँ से चला गया तो उनकी जान में जान आई. दोनों सहेलियां ऐसे गले मिल कर रोयीं जैसे सगी बहनें भी कभी क्या रोयेंगी.
पर अब तो मुश्किल और बढ़ गयी. नीना के फोन और ख़त आते रहते. जिस तरह से ख़त लेकर नमिता, छत पर भागती, उन्हें शुबहा तो होता, पर क्या कहतीं. आजतक कभी उसके पत्रों की जांच-पड़ताल की ही नहीं. एकाध बार मन कड़ा कर किया भी तो कुछ नहीं मिला. इतने बड़े घर में वो कहाँ छुपा कर रखती, पता ही नहीं चलता. नीना के फ़ोन भी आते और घंटो बातें होती उनकी. कभी दूर से नमिता का लाल होता चेहरा और पैर से जमीन कुरेदते देख वे समझ जातीं कि फोन पर नीना नहीं है. किसी बहाने कमरे में जातीं तो नमिता अचानक जोर जोर हंस कर बाते करना शुरू कर देती. सब उनकी समझ में आ जाता. एक दिन उन्होंने सोचा, पानी सर से ऊपर जाए इस से पहले, अब नमिता से साफ़-साफ़ पूछ ही लेना चाहिए.
(क्रमशः )