खट्टी मीठी यादों का मेला
भाग – 13
(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे, अपना पुराना जीवन याद करने लगती हैं. उनकी चार बेटियों और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी दो बेटियों की शादी हो गयी थी. बड़ा बेटा इंजीनियरिंग और छोटा बेटा, मेडिकल पढ़ रहा था. सास-ससुर के निधन के बाद पति बिलकुल अकेले पड़ गए थे )
प्रकाश की इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी हो गई और कॉलेज से ही उसे एक अच्छी कंपनी में नौकरी लग गई थी.
प्रकाश की एक बड़ी कंपनी में नौकरी लगने की खबर से घर में आनंद की हिलोरें मचल उठीं. वे हर आने जाने वाले का मुहँ मीठा करातीं. पति भी जानबूझकर शाम को बाहर बैठने लगे थे. राह से गुजरते लोग, आकर बधाई दे जाते. और पति मीरा को आवाज़ देते, "अरे जा मिठाई लेकर आ, चाचा का मुहँ मीठा करा दे. " अंदर से भले जल-भुन कर ख़ाक हो रहें हों... पर ऊपर से ढेरों आशीष दे जाते.
कोई -कोई व्यंग कर ही जाते, "क्या मास्साब अब तो अगुआ झूलेगा दरवाज़े पे.... जम के दहेज़ लोगे अब तो... "
पति हाथ जोड़ लेते... "ना ना भगवान का दिया सब कुछ है.. बस सुशील लड़की और संस्कारी घर मिल जाए"
पर लोगों का कहना सच हो गया.... जंगल की आग भी क्या फैलेगी, जैसी प्रकाश की नौकरी लगने की खबर फैली... रोज कोई ना लड़की के पिता, फोटो, टीपन लेकर हाज़िर हो जाते. पति कितनी बार कह देते अभी शादी नहीं करनी.. दो साल बाद करेंगे. पर लोग जबरदस्ती मेज पर फोटो. टीपन रख कर चले जाते.
पति ने डब्बे भर भर के बिस्कुट और शहर से सरबत की बोतल लाकर रख दी थी. सख्त हिदायत दी कि ख़तम होने के पहले ही बता दिया जाए और लाकर रख देंगे. कोई भी दरवाजे से बिना सरबत पानी के नहीं लौटना चाहिए. दूर से आने वालों के लिए तो बाकायदा नाश्ता और कभी कभी खाना भी बनता. वे भी रसोई के डब्बे हमेशा देख लेतीं, कि सूजी, घी चीनी सब हमेशा मौजूद रहें.
मीरा और नमिता का अच्छा मनोरंजन होता. लड़कियों के फोटो देख मीन-मेख निकालती, इसकी नाक मोटी है, इसकी आँखें छोटी हैं.
वे फोटो छीनकर घुड़क देतीं, " ई मत भूलो, तुमलोग का फोटो भी अईसही कहीं जाएगा और लोग मीन-मेख निकालेंगे. "
दोनों एक सुर से बोलतीं, "हमें नहीं करनी सादी"
अबकी सिवनाथ माएँ, बोलतीं, "त का.. माँ -बाप के छाती पे मूंग दलोगी जिंदगानी भर?"
"क्यूँ.. पढेंगे लिखेंगे बड़ा आफिसर बनेंगे... पर तुमको क्या पता.. तुमको तो बस लड़की लोग सादी के लिए ही जनम लेती है... ये ही लगता है.. चल मीरा बाहर चलते हैं... इन्हें समझाने का कोई फायदा नहीं. " और नमिता उछलती कूदती बाहर चल देती.
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पति कहते, अभी कुछ दिन उसे मौज करने दो.. तुरंत ही गृहस्थी में मत जोतो. एक बार मन में आता, कहीं ये कारण तो नहीं कि 'अभी से अपनी गृहस्थी बसा लेगा तो फिर पैसे कैसे भजेगा.. और कुछ बाग़ बगीचे बस प्रकाश की नौकरी लगने की बाट जोह रहें थे कि कब आज़ाद हों अपने असली मालिक के पास लौटें. ' पर पति से यह सब पूछने की हिम्मत नहीं हुई. कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं कि खुद भी जिनका सामना करने की हिम्मत नहीं होती, मन में आए विचार को भी झट से झटक दिए जाते हैं. जुबान पर लाकर पति से कैसे पूछतीं?
प्रकाश सिर्फ एक दिन के लिए घर आया. हॉस्टल का समान घर पर रखा. दुनिया भर का अल्लम गल्लम समान था. बोरी भर कर तो किताबें थीं. सिर्फ एक अटैची और बेडिंग ले कर चला गया. इतना समय भी नहीं दिया की वे ज्यादा कुछ बना पातीं. निमकी खजूर बना कर बाँध दिए. चिवड़ा देने लगीं तो मना कर दिया, फिर से एक नई चिंता सवार हो गयी. पता नहीं कहाँ रहेगा, रोज होटल में खायेगा. क्या सेहत रहेगी?
नमिता ने लड़कियों की तस्वीरें दिखानी चाहीं तो प्रकाश ने एक नज़र नहीं डाली. और उन से बोला,
"माँ ये फोटो वगैरह ना लिया करो और किसी से कोई वादा मत किया करो"
"अरे हमलोग कहाँ लेते हैं... वे लोग जबरदस्ती रख के चले जाते हैं. "
"तो उठाकर वापस पकड़ा दिया करो.. मुझे ये सब नहीं पसंद.. ".. उसे क्या पता.. कितना मुश्किल है, ये... कितने लोग तो इतनी दूर से बार बार आते हैं और कहते हैं... बस आपलोगों से मिलने का मन हो आया... शादी की कोई बात नहीं करते, इधर उधर की बातें करके चले जाते हैं.... कोई कोई तो घंटों गाड़ी में ही बैठ, पति का इंतज़ार करते कि कब वे स्कूल से आएं. मीरा, किसना.. गाँव के और बच्चे बताते कि दूर एक पेड़ के नीचे गाड़ी लगा कोई अंदर बैठा है"
इसे क्या पता बेटी का बाप होना क्या होता है... वे मन ही मन सोचतीं.
प्रकाश के पत्र आते, एक दोस्त के साथ मिलकर घर ले लिया है. होटल में खाता हूँ. बहुत ही महंगा शहर है, एक पैसा नहीं बचता. पति कहते, 'बेचारे के खुद के ही खर्च पूरे नहीं पड़ रहें, घर पर क्या भेज सकेगा... और मुझे चाहिए भी नहीं... बस वो सुखी रहें"
छः महीने के बाद प्रकाश घर आया, उपहारों से लदा फंदा. बहनों के लिए सुन्दर सी घड़ी लाया था. उनके लिए कीमती साड़ी, पति के लिए बढ़िया पोलिस्टर के शर्ट-पैंट का कपडा. यहाँ तक कि सिवनाथ काकी, राम-खिलावन काका के लिए भी साड़ी और कुरता लेकर आया था. बहुत खुश लग रहा था. उसकी पसंद की सारी चीज़ें बनाईं. जब दोपहर को वो उनके पास आकर लेटा तो मन भर आया उनका. अब तक ये सब लाड़ वो दादी से ही करता था. उनसे ही अपनी फरमाईश की चीज़ें बनवाने को कहता. शहर की चीज़ों की बखान करता. मालूम है दादी, वहाँ दूध कैसे आता है???... मशीन से..
“लडकियां कैसे कैसे कपड़े पहनती हैं, बताऊँ?"
और अम्मा जी डाँटती रहतीं, "तू यही सब करने गया है शहर में... पराई लड़की का केवल पैर का अंगूठा देखना चाहिए... "
"क्या दादी.... मैं कहाँ देखता हूँ..... अब आँखें बंद कर चलूँ क्या सड़क पे... किसी गाड़ी के नीचे आ गया तो,... ”
"भाग तू यहाँ से... जो मुहँ में आता है.. बोलता है.. " अम्मा जी सचमुच नाराज़ हो जातीं.
आज उनके पास लेटा नए शहर, अपने ऑफिस अपनी नौकरी के बारे में बता रहा था. फिर अचानक बोला, "अभी भी लड़कियों के फोटो लेकर लोग आते हैं?"
"आते तो हैं ही बेटा.. लड़की वाले भी मजबूर हैं.. कहाँ बात बन जाए, क्या पता, इसलिए कोशिश करते रहते हैं "
"माँ... असल में मैने इसलिए मना किया था क्यूंकि मैने एक लड़की पसंद कर ली है. उसके माँ-बाप भी मान गए हैं.... और जब से नौकरी लगी है... शादी के लिए जोर दे रहें हैं "
अब बेटे के सारे लाड़ की वजह समझ में आ गयी. वो उसकी साड़ी, घड़ी लाने की ख़ुशी एकदम से तिरोहित हो गयी. क्या क्या सपने देखे थे... अब पता नहीं... कहाँ की , किस जात की, किस बिरादरी की लड़की है"
"तुम्हारे पिताजी मानेंगे?"
"पापा जी क्या अनपढ़ गँवार हैं जो नहीं मानेंगे.... टीचर हैं.... टीचर तो समाज को नया रास्ता दिखाता है... मुझे पता है... वो ना नहीं करेंगे, पर ये बात तुम्हे ही वहाँ तक पहुंचानी होगी... मुझे अच्छा नहीं लगेगा... बात करते"
"ठीक है बेटा... चलूँ जरा आँगन में देखूं... मिर्चा सूखने को डाला था.. शाम होने से पहले उठा लूँ".... कहती वे उठ आयीं.
रात में जब पति को बताया... तो वे चौंक गए फिर एकदम हताश हो, सर पर हाथ रखकर बैठ गए, "अब क्या कर सकते हैं... कोई बच्चा तो है नहीं... अगर मना करेंगे तो बेटा भी हाथ से जायेगा... अब जो करे... हमने अपना धरम निभाया.. अच्छी शिक्षा दी... अभी तक एक पैसा उसका नहीं जाना.. खेत-बाग़-बगीचा सब गिरवी रख दिए, का उसको पता नहीं कि खाली टीचर की तनखाह में ई सब नहीं हो सकता. जब वो अपनी जिम्मेवारी खुद नहीं समझता तो हमारे समझाने से क्या समझेगा.. जाने दो.. सबूर करो, ममता की माँ... हम अपने कर्त्तव्य से नहीं चुके... बस यही संतोष है"
फिर थोड़ी देर बाद पूछे... "कौन जात है?"
"मैने नहीं पूछा "
"हाँ ठीक है..... क्या फरक पड़ता है. "... और थके क़दमों से बिस्तर पर चले गए सोने, पर उन्हें पता था आज नींद उनकी आँखों से दूर ही रहेगी.
प्रकाश ने कुछ नहीं पूछा, कि बाबूजी ने क्या बोला... बस इतना बताया कि कुछ दिनों में लड़की के पिता आयेंगे. सब बात कर लेना. यानि कि उनलोगों की सहमति-असहमति की कोई गुंजाईश ही नहीं छोड़ी थी. दूसरे दिन ही वह चला गया, यह कहते कि छुट्टी नहीं है और फिर छुट्टी बचानी भी है. उसका इशारा वे समझ गयीं थीं.
उसके जाने के बाद, नमिता उनके पास आई और बड़े गहरे राज़ भरे स्वर में बोली, " माँ नाराज़ तो नहीं होगी... कुछ दिखाऊं तुम्हे ?"
उनके 'क्या' का इशारा करने पर पीछे छुपे हाथ आगे कर दिए, "ये देखो अपनी बड़की पुतोह का फोटो... "
सुन्दर सी शहरी लड़की लग रही थी, जैसे शहर में खाने को नहीं मिलता.. सींक सलाई सी
उन्होंने कुछ नहीं बोला, तो नमिता बोली... "माँ भैया कह गए हैं... माँ को मनाना तुम्हारी जिम्मेवारी... क्या फर्क पड़ता है, माँ ज़िन्दगी तो भैया को बितानी है, ना... "
"मैने कहाँ मना किया है.. प्रकाश को भी कुछ नहीं बोला... "
"ओह्ह तो तुम्हे सब मालूम है... " वो अपने ऊपर से इतना जिम्मेवारी वाला काम हट जाने से दुखी हो गयी..
"हाँ सब मालूम है... और अब जरा घर दुआर को साफ़ सुथरा रखा कर... बाहर टेबल पर भी ममता का कढाई किया हुआ टेबल क्लॉथ बिछा दिया कर. कभी भी लड़कीवाले बात करने आ सकते हैं.
"अरे वाह... तब तो भैया का ब्याह जल्दी ही होगा... कितना मजा आएगा... " कहती खुश होती वो चली गयी.
(क्रमशः )