खट्टी मीठी यादों का मेला
भाग – 10
(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे, अपना पुराना जीवन याद करने लगती हैं. उनकी चार बेटियों और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी बेटी ममता की शादी गाँव में ही हुई थी और दूसरी बेटी स्मिता की बम्बई. दोनों बेटे मेडिकल और इंजीनियरिंग पढने शहर चले गए. उनकी पढाई के लिए जमीन और बगीचे गिरवी रखने पड़े. ससुर जी की तबियत खराब हो गई और उनकी मृत्यु हो गई)
गतांक से आगे
पति पर बहुत जिम्मेदारी आ गयी... सब कुछ अकेले संभाल रहे थे. उन्होंने घोषणा कर दी... बाबू जी का श्राद्ध इतने धूमधाम से करूँगा कि पूरा गाँव देखेगा. वे कुछ बोली नहीं, पर सोचने लगीं... पैसे का इंतज़ाम कैसे होगा? और जब फिर से लोगों का जमघट बाहर के कमरे में देखा और पति को कागज़ पत्तर समेटते तो टोक बैठीं. आखिर दो बेटियाँ ब्याहनी बाकी थीं. दोनों बेटे की पढ़ाई अधूरी थी. पति का पिता प्रेम वे समझ रही थीं पर इस तरह आंखों के सामने, ऐसी लापरवाही वे नहीं देख पायीं. पर पति नाराज़ हो गए,
"मेरे बाबू जी थे, मुझे पता है, क्या करना है क्या नहीं?.. तुम्हारे घर में यह सब होता होगा कि आदमी दुनिया से गया और भुला दिया. मैं तो ऐसा भोज दूंगा कि बरसों तक गाँव वाले बाबू जी का श्राद्ध, याद रखेंगे. "
काठ मार गया, उन्हें... मेरे बाबू जी ??... तुम्हारा घर??.. सारी ज़िन्दगी गुज़ार दी यहाँ और आज एक पल में पति ने पराया कर दिया. आँसू भरी आँखों से कुछ कहने को सर उठाया पर आजकल तो पति के पैर घर में टिकते ही नहीं. बोलने के बाद दनदनाते हुए निकल गए. उनका दुख दूना-चौगुना हो गया. एक तो सर पर से बाबू जी का साया उठ गया और आज तो लगा भरी दुपहरिया में किसी ने बीच राह पर छोड़ दिया है, और दूर तक बस जलती हुई राह पर नंगे पैरों, अकेले ही चलना है.
इसके बाद होठ सिल लिए उन्होंने. पति पैसे लाकर देते, कहते, "संभाल कर रख दो"... वे रख देतीं. कहते "इतने निकाल कर दो"..... वे दे देतीं. पूछतीं कुछ नहीं पर देखती रहतीं, बड़ा सा पलंग बनवाया गया, कपड़े लत्ते, बर्तन बासन की तो बात ही नहीं. घर में जन्मी, पली गाय भी जब अपने नवजात बछड़े के साथ दान करने की बात सुनी तो आँखें भर आयीं, उनकी. मीरा बिना उसे रोटी खिलाये खाना नहीं खाती थी और जब से बछड़ा जन्मा था.. उसका नाम "भोला " रखा था और भोला के साथ खेलते थकती नहीं थी वो. बस सोच रही थीं, मीरा को कैसे, समझायेंगी.
पति का इस तरह पैसे लुटाना, अम्मा जी को भी खटक गया. तीसरे दिन जब साधुओं को जीमाना था और हर साधू अलग से दक्षिणा मांग रहा था, पति उनकी मांग पूरी करते जा रहें थे तब अम्मा जी ने ननद को आवाज दी, "परमिला जाकर बबुआ के हाथ से बैग छीनो..... का जाने का मन में है उसके.. बीवी बच्चों की कोई फिकर ही नहीं... तुमरे बाबू जी का बहुत खुस होते, अपना अरजा हुआ धन दौलत ऐसे लुटते देख? "
वे भी जानती थीं., बाबू जी भले ही किताबें नहीं पढ़ते थे पर उनके व्यावहारिक ज्ञान के आगे सब किताबी ज्ञान तुच्छ था. वे समय के अनुसार काम करते थे. बेटी के घर का पानी पीना, पोते के पढ़ाई के लिए आम का बगीचा तक गिरवी रखने में ना हिचकिचाना, नमिता की सारी लड़के जैसी बदमाशियां उन्होंने खुले मन से स्वीकार कर लीं थीं. पति का जीवन कुछ सूत्र वाक्यों के इर्द गिर्द घूमता था. इस से अलग वे नहीं देख पाते. और अपन जीवन उसी ढर्रे में ढाल लिया था.
श्राद्ध में तो अगल बगल के गाँव के लोग भी शामिल हुए. पगड़ी की रस्म के समय आँगन दालान सबमे तिल धरने की भी जगह नहीं थी. जब पति के सर पर पगड़ी बांधी जाने लगी तो एक भी आँख ऐसी नहीं थी कि सूखी हो. बाबू जी के रौब से ज्यादा लोग उनका सम्मान और स्नेह करते थे. किसी दुकान वाले ने एक बात नहीं पूछी, और घी के पीपे, शक्कर की बोरी, मिठाई की टोकरी, पता चलने की देर थी और घर पहुंचा दी.
पर सब शांत हो जाने के, सबके चले जाने के बाद रोज कोई ना कोई लेनदार दरवाजे पर खड़ा होता. अब पति के माथे की लकीरें, गहरा जातीं. पर पैसे तो उन्हें देने ही थे. फिर से लोगो के जमघट के बीच, कागज़ पत्तर की उलट पुलट शुरू हो गयी.
(क्रमशः)