खट्टी मीठी यादों का मेला
भाग – 9
(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे, अपना पुराना जीवन याद करने लगती हैं. उनकी चार बेटियों और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी दो बेटियों की शादी हो गयी थी. बड़ा बेटा इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा था और छोटा बेटा मेडिकल की तैयार)
गतांक से आगे
प्रमोद की मेहनत रंग लाई और उसे मेडिकल कॉलेज में एडमिशन मिल गया. नमिता ने यह खबर सुनते ही कहा, "चलो अच्छा हुआ, डॉक्टर की फीस बची... अब छोटके भैया अपना इलाज़ खुद कर सकेंगे, एकदम फूलकुमार है, जरा सी हवा चली और बीमार पड़े. "
"अरे सुभ सुभ बोल.... जब देखो उटपटांग ही बोलेगी" अम्मा जी ने डांटा. पर प्रमोद इतना खुश था कि बुरा नहीं माना, बोला, " ना मैं तो दिमाग का डॉक्टर बनूँगा और सबसे पहले तेरा दिमाग खोल के देखूंगा... उसमे कुछ भी काम का है या नहीं?"
"माँ... देखो, ना.. फिर से चिढाना शुरू.. "
"अरी चुप कर... ये भी प्रकाश की तरह अब होस्टल में पढने दूर चला जायेगा... एक बात करने को भी तरसेगी... और झगड़ रही है. ?" वे उदास हो गयीं... ये बेटा भी अब परदेसी हो जायेगा.
फिर से एडमिशन और हॉस्टल के खर्च की चिंता सताने लगी. अब तो जैसे यह जानी-बूझी बात हो गयी थी कि पैसे का इंतज़ाम पुरखों के विरासत में छोड़े खेतों से ही होगा. प्रकाश की भी जब फीस की बात आती, कोई ना कोई खेत गिरवी रखी जाती या निकाल दिया जाता. लेकिन अब गाँव वाले भी उनकी ये मजबूरी समझने लगे थे और बाज़ नहीं आते, मौके का फायदा उठाने से. अच्छे से अच्छे खेत के कम दाम लगाते.
इस बार तो हद ही हो गयी, जब गाँव के नामी गिरामी रामनिवास बाबू ने कह डाला, "खेतों में तो इतना लगाओ तब जाकर थोड़ा सा अन्न उपजे है. वो आम का बगीचा क्यूँ नहीं गिरवी रख देते. छुड़ा लीजियेगा जब जी चाहे. अब तो दूनो पोता डॉक्टर, इंजिनियर बनने वाला है. आपको क्या फिकर"
पर बाबूजी नाराज़ हो गए थे, "कैसी बातें करते हैं?.. उस बगान का आम ही पसंद है सबको... रामावतार जी को तो बचपन से बस उसी बाग़ के किसनभोग और तोतापुरी आम के पेड़ का आम पसंद है. उसे कैसे हटा सकते हैं"
"सोच लीजिये... इस बार तो हमारा खेत पर पैसा लगाने का कौनो मन नहीं है" कहते रामनिवास बाबू उठ गए.
रात भर लगता है बाबू जी सोए नहीं.. सुबह होते होते... किसना को रामनिवास बाबू के घर भेज दिया. अम्मा जी भी उदास थीं. उन्होंने ही एक बार फिर हिम्मत की, "बाबू जी रहने दीजिये ना... कोई और रास्ता सोच लेंगे"
" ना बहू, वे ठीके कहते हैं... तीन साल में तो परकास नौकरी में आ जायेगा.. फिर का डर?.... और अब घर में लरिका सब रहेगा कहाँ आम खाने को??... भगवान की दया से और भी तो बगान है... आम की कौनो कमी नहीं रहेगी. समझो कुछ दिन के लिए उनलोगों को दे दिए हैं आम खाने को... बस"
पर बहुत ही भारी दिल से किए होंगे हस्ताक्षर उन्होंने. क्यूंकि तन कर चलने वाले बाबू जी, कचहरी से लौटते समय बड़े कमजोर लगे.. कंधे झुके हुए, थके थके से. अब ये उनकी आँख का भरम था या सच्चाई, क्या पता. पर बड़ी ग्लानि हो आई, उन्हें. बच्चों के लिए ऊँचे अरमान रखने की क्या कीमत चुकानी पड़ती है. बच्चे समझ पाएंगे कभी?
छोटा बेटा भी प्रकाश की तरह ही एक अजनबी शहर में अपने सपनो को सच करने चला गया. इसके लिए मन में और चिंता थी. थोड़ा बीमार रहता था. सर्दी जुकाम लगा ही रहता था. बस चैन की यही बात थी कि ननद उसी शहर में थीं, जरूरत पड़ने पर अपने घर ले जायेंगी.. इतना संतोष था. बेचारे को कभी कभी घर का खाना नसीब हो जायेगा. नहीं तो प्रकाश जैसा ये भी कहेगा,
"वहाँ तो आलू -बैंगन हो या गोभी मटर सब की एक सड़ी सी महक. स्वाद ही भूल गया हूँ, सब्जी का" और हंस के बताता, " इतवार को दाल भात और आलू का भुजिया मिलता है... उस दिन तो हमलोग भात घटा देते हैं और फिर खूब हल्ला मचाते हैं मेस में"
पति उसका एडमिशन कराने गए और इधर बाबू जी बीमार पड़ गए. पेट में दर्द और बुखार रहता. गाँव के डॉक्टर साब को बुलवा भेजा. जब तक दवा का असर रहता, आराम रहता फिर दर्द शुरू हो जाता.
पति वापस आए तो घबरा गए. बार बार कहते.. "बाबू जी को उस बगीचे को गिरवी रखने का दर्द समा गया है. मैने देखा था, उस दिन उन्होंने वो खिड़की बंद कर दी जिस से वो बगीचा दिखाई देता था... मैने क्यूँ देने दिया... कोई इंतज़ाम करता... लोन ले लेता, पर बगीचा नहीं देना चाहिए था" भर आई पति की आँखें.
"अब यह सब सोचने का बखत नहीं है... आप कल ही बाबू जी को शहर ले जाने का इंतज़ाम कीजिये. " उन्होंने ही जी कड़ा कर पति को ढाढस बंधाया.
अम्मा जी, बाबू जी को लेकर पति, शहर चले गए. साथ में एक नौकर भी गया. दोनों बेटियों के साथ वे दरवाजे पर टकटकी लगाए रहतीं. आखिर दूसरे दिन गाँव का ही.... एक आदमी संदेसा लेकर आया कि बाबू जी को अस्पताल में एडमिट कर लिया है, बहुत सारी जांच होनी है. तीन दिन बाद थके हारे पति कुछ घंटों के लिए ही आए. वह भी पैसों का इंतज़ाम करने.
अब तो जैसे टोह लेने के लिए गाँव के लोग मक्खियों की तरह भिनभिनाते रहते घर के आस-पास. देख वितृष्णा सी हो जाती जिन बाबू जी के गुण गाते नहीं अघाते थे कि कैसे अकाल पड़ा था तब बाबू जी ने अनाज की कोठियां खोल दी थीं.... सबको टोकरी भर भर के अनाज बांटा था और आज जब उन पर मुसीबत आई है तो वही गांववाले, जिन खेतो के अन्न ने उनकी जठराग्नि को शांत किया... आज उन्हीं खेतों पर दांत पिजाये बैठे हैं.
पति के साथ, जिद करके बाबा की दुलारी नमिता भी चली गयी. बेचैन हो रही थी, अपने बाबा से मिलने के लिए.
घर में बस वे और मीरा थीं. मीरा शुरू से ही कम बोलती अब तो और भी उसकी हिरणी सी बड़ी बड़ी आँखें डरी डरी सी रहतीं. उन्हें दया भी आती, इस बच्ची का बचपन छिना जा रहा है. जब से समझने लायक हुई है.. कोई ना कोई झंझट घर में लगा ही हुआ है.
नमिता के जाने से अच्छा ही हुआ. गाँव के ही एक लड़के के साथ, सास वापस आ गयीं. उन्हें लगा, चलो अस्पताल में दिन रात के जागरण से थक गयी होंगी. एक-दो दिन आराम कर लेंगी. पर वे तो आने के साथ ही कहीं चली गयीं. और हैरान रह गयीं वे अम्मा जी का ये
रूप देखकर. सुबह से शाम वे किसी बाबा, फ़कीर, ओझा के दरवाजे भूखी-प्यासी भटकती रहतीं. कभी कभी कोई बाबा आते और तीन तीन घंटे पूजा करवाते. अपने चेलों के साथ.. पूरी, मिठाई, खीर का भोग लगाते, मोटी दक्षिणा लेते और चलते बनते.
पहले संदूक से कुछ भी निकलवाना हो, उन्हें चाभियाँ थमा देती थीं. अब खुद ही कमरा बंद कर के गहने निकालतीं. वे समझ रही थीं, औने पौने दाम में इसे बेच ओझा-फ़कीर को चढ़ावे चढ़ाए जायेंगे. क्या पता, गहने भी दिए जाते हों. पर वे मन मलिन नहीं करतीं. ये अम्मा जी के गहने थे और ऐसे समय में जब पति बीमार हो... कोई भी स्त्री किसी भी तरह, चाहे उसे ओझा, गुणी, बाबा की शरण में ही क्यूँ ना जाना पड़े, कोई उपाय नहीं छोड़ती, बस अपने पति को भला चंगा देखना चाहती है.
पर एक दिन उन्हें अम्मा जी को बहुत देर तक समझाना पड़ा. जब हमेशा एक आभिजात्य ओढ़े रखने वाली शख्सियत, गाँव की स्त्रियों के ऊपर एक रुआब, एक दबदबा रखने वाली अम्मा जी, एक आम औरत की तरह बब्बन की माँ से झगड़ पड़ीं. गाँव की किसी औरत ने अम्मा जी कान भर दिए कि खेलावन की माँ डायन है और उसी ने बाबू जी को कुछ 'कर' दिया है. उस शाम वे उनकी घर की तरफ से लौट रहें थे, तभी जानबूझकर मंगलवार के दिन को खेलावन की माँ ने सांझ के बखत उन्हें टोका.
खेलावन की माँ, बाबू जी का हालचाल पूछने आई थीं, अचानक जोर की आवाज़ सुन वे बाहर आयीं तो देखा, अम्मा जी हांफ रही हैं और जोर जोर से बोल रही हैं, " भौजी कहते थे आपको.... कुछ तो लेहाज़ करती... कौन बात के जलन है.. का मिल जाएगा... कुछ बिगाड़े हैं, आपका... जहाँ तक हुआ है मदद ही किए हैं.. आपकी बेटी के बियाह में केतना हंगामा हुआ था.... रामवतार बबुआ के बाबू जी नहीं संभालते तो बरात चली जाती लौट के"
" का बोल रही है... भलाई का तो ज़माना नहीं... हम आए थे हाल चाल पूछने और हमी को गरिया रही हैं"
एक तरह से खींच कर वे, अम्मा जी को कमरे में ले गयीं... उनसे भी माफ़ी मांगी.. " चाची जी.. अम्मा जी बहुत परेसान हैं.. इनके कहने का बुरा मत मानियेगा"
ये सुनकर अम्मा जी का गुस्सा और बढ़ गया... " अरे ऊ का मानेगी बुरा... गाँव के दो दो लोग को खा के बैठी है.. ऊ त खुस होगी"
" का बोली.. किसको खाए हैं हम.... तनका बताओ तो?" खेलावन की माँ जोर से गरजीं
" सिवनाथ माएँssss.... " जोर से चिल्लाईं वे. मामले की नजाकत समझते हुए. सिवनाथ माएँ खेलावन की माँ को खींच कर जबरन उनके घर ले गयी. वे अम्मा जी के लिए पानी लेकर आयीं. पर तब तक अम्मा जी का सारा गुस्सा, सारा तनाव आंसुओं की शक्ल ले चुका था. मुहँ पर पल्ला रख, वे जोर जोर से रोने लगीं. अम्मा जी को चुप कराते कराते उनके आंसुओं का बाँध भी टूट गया. और उनके गले से लग देर तक वे रोती रहीं. मीरा कब सहमी सी आकर परदे पकड़ कर खड़ी हो गयी... और भरी भरी आँखों से कांपती हुई सी उन्हें निहारने लगी... उनलोगों को पता भी नहीं चला.
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बाबू जी का जांच पर जांच होता गया. काया क्षीण होती गयी. पर बीमारी का पता नहीं चल रहा था. अब बारी बारी से वे, नमिता, अम्मा जी शहर आते जाते रहते. प्रमोद, प्रकाश के पढने के लिए जो घर लिया था, उसी घर में लोग रहने लगे. बेटी दामाद सब आ गये. पति आए दिन गाँव जाते और ढेर सारे रुपये लेकर आते. सहम जातीं वे, पता नहीं इस बार कौन से खेत का अन्न अब उनकी कोठी का मुहँ नहीं देख पायेगा?
बाबू जी की बीमारी ने सास का रुख नमिता के प्रति बहुत नरम कर दिया था और कैसे ना हो... नमिता ने बाबू जी का सिरहाना एक पल के लिए नहीं छोड़ा था. पूरी पूरी रात जाग, उनके तलवे सहलाती, पानी पिलाती, इधर उधर की बात कर उनका जी बहलाती. जरूरत पड़ने पर, बिना किसी का इंतज़ार किए दवा लाने भी चल देती. अम्मा जी का पूजा पाठ बहुत बढ़ गया था. रोज चार चार घंटे कोई ना कोई जाप करती रहतीं. बाबूजी तो बीमारी के कारण अपनी पुरानी काया की छाया भर दिखते पर अम्मा जी उनकी बीमारी की चिंता में घुल कर ही आधी रह गयी थीं.
आखिर जब, दूसरे सहर से बड़े डॉक्टर आए, उन्होंने जांच करके बताया कि कैंसर है. पति तुरंत उनको दिल्ली बम्बई ले जाकर इलाज़ कराने का सोचने लगे पर उस डॉक्टर ने बताया कोई फायदा नहीं. अंतिम स्टेज है, अब कोई दवा असर नहीं करेगी. पूरा रोना -पीटना मच गया. सबको सम्भालना मुस्किल. फिर भी पति ने ननदोई के साथ मिलकर दिल्ली ले जाकर दिखाने का इंतज़ाम किया. बाबू जी बार बार कहते, "मुझे बस गाँव ले चलो.. अंतिम दिन वहीँ गुजारने का मन है... " पर जबतक सांस तब तक आस.. उन्हें ले जाने का सब इंतज़ाम हो गया, दूसरे दिन निकलना था और रात में ही बाबू जी के प्राण ने शरीर त्याग दिया. उनका नश्वर शरीर ही गाँव आ पाया. पूरा गाँव उमड़ पड़ा.
(क्रमशः )