खट्टी मीठी यादों का मेला
भाग - 7
(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे, अपना पुराना जीवन याद करने लगती हैं. उनकी चार बेटियों और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी बेटी ममता की शादी ससुर जी ने पति की इच्छा के विरुद्ध एक बड़े घर में कर दी. दूसरी बेटी की शादी सुदूर मुंबई में हुई. बड़े बेटे को इंजीनियरिंग पढाने के लिए, खेत गिरवी रखने पड़े. तीसरी बेटी नमिता बहुत शैतान और चंचल थी.... किसी से नहीं डरती )
मुम्बई से स्मिता की चिट्ठी हर हफ्ते, दस दिन पर आ जाती. चार पन्नों की चिट्ठी में वो वहाँ का सब हाल लिखती. उसकी चिट्ठी आती और सबलोग हर काम छोड़ एक जगह जुट जाते. दरवाजे के अंदर सर पर पल्ला खींचे वे खड़ी होतीं. बाबूजी दरवाजे के बाहर कुर्सी पर बैठ जाते, अम्मा जी चौकी पर बैठी होतीं. पति कहते कि वे खुद बाद में पढेंगे पर खुद भी आँगन से लगे बरामदे में रखी मेज कुर्सी पर बैठ जाते. नमिता दरवाजे के बीचोबीच खड़ी, जोर जोर से चिट्ठी पढ़ती. मीरा अपनी बड़ी बड़ी आँखें उस पर टिकाये ऐसे सुनतीं जैसे सारी बातें आँखों से ही पी रही हो. कोई बीच में जरा सा कुछ बोलता और नमिता के नखरे शुरू हो जाते. चिट्ठी वाला हाथ पीछे कर लेती, "मैं नहीं पढ़ती अब... आपलोग हल्ला करते हैं "
फिर दादी के उलाहने, दादा की प्यार भरी झिड़की, उनकी डांट और मीरा के बार बार उसके फ्रॉक खींच कर मनाने "दीदी जल्दी जल्दी पढो, ना " के बाद ही वो शुरू करती... बीच बीच में कोई बात अपनी तरफ से भी जोड़ देती, पर वो सबलोग पकड़ लेते, "जा स्मिता नहीं लिख सकती ऐसा... तेरे जैसी शैतान नहीं रही वो कभी" और नमिता जोर से हंस पड़ती. चिट्ठी सुनने में व्यवधान पड़ता देख सास बोल पड़तीं, " "खुद दीदे फाड़ रही है, तब डिस्टरब नहीं हो रहा.. हम बोलें तो कहती है... हल्ला काहे करते हैं " स्मिता पड़ोस वाले फुलेसर चाचा के दमे और गाये के बछड़े से लेकर पूरे गाँव भर का हाल पूछती.
उसके बाद चिट्ठी के जबाब देने का सिलसिला शुरू होता. तीन दिन तक सब अपनी अपनी बातें याद कर नमिता को बताते, ये लिख देना... ये भी लिख देना. यहाँ भी उसके नखरे सहने पड़ते. कलम बंद कर के रख देती. एक बार सारी बातें याद करके बताओ तब लिखूंगी. दोनों बहनों को वो अलग से चिट्ठी लिखती जिसे वे कमरे में जाकर पढ़तीं और खी खी करके हंसतीं. वे कुछ नहीं पूछतीं, ये बहनों की आपस की बात है. पर नमिता के पेट में तो पानी भी नहीं पच सकता... सारी बातें उगल देती, "माँ वहाँ. गणेश जी की पूजा होती है... विसर्जन में सड़क पर औरतें भी नाचती हुई जाती हैं.. वहाँ सब बालों में फूल लगाते हैं... औरतें भी क्या मोटरगाड़ी भगाती हैं... " एक दिन दोनों बहनें चिट्ठी लेकर अंदर गयीं और उलटे पैर ही चीखतीं हुईं निकलीं... "माँ.. माँ छोटकी दी ने लिखा है... हम मौसी बनने वाले हैं. " स्मिता को उन्हें लिखते हुए लाज आई थी पर बहनों के माध्यम से बता दिया था. तुरंत अपने गिरधर गोपाल को माथा टेकने चली गयीं वे.
ममता के बेटे के जन्म पर टोकरी भर भर कर मिठाई, फल, घर भर के कपड़े लेकर सबलोग ममता की ससुराल गए थे, बस उन्हें और अम्मा जी को छोड़. पर इतनी दूर बम्बई सबलोग तो नहीं जा सकते. लेकिन किसी का जाना भी जरूरी है. अगर बेटा हुआ तब तो ठीक वरना, बेटी हुई तो फिर पिता, बेटी के घर का पानी कैसे पियेंगे? और बम्बई में वे रहेंगे कहाँ? लोग मानते हैं कि अगर बेटा हुआ तो फिर वह सारा धन नाती का हो गया, इसलिए पिता, बेटी के घर भोजन, जल ग्रहण कर सकते हैं. सब बड़े पेशोपेश में थे लेकिन ससुर जी ने ही समस्या का हल निकाला, कहने लगे, "अब लड़की सब कॉलेज जा रही है, बेटी का ब्याह इतना दूर कर दिए हो.... तब पुरानी बात कैसे चलेगी... कोई हर्जा नहीं है बेटी के यहाँ का अन्न-जल ग्रहण करने में. "
और अच्छा हुआ कि ये सारी मंत्रणा पहले ही हो गयी क्यूंकि स्मिता ने एक प्यारी सी बेटी को ही जन्म दिया. पति, छोटे बेटे प्रमोद के साथ बम्बई जाने की तैयारी करने लगे. पर प्रमोद बीमार पड़ गया और प्रकाश की परीक्षा चल रही थी. इतनी दूर का सफ़र पति अकेले कैसे करें और ना जाएँ तो बेटी की क्या नाक रह जायेगी ससुराल में कि ऐसे मौके पर भी मायके से कोई नहीं आया.
ऐसे में ससुर जी ही आगे आए, बोले, "ई नमिता रानी को काहे नहीं ले जाते... सौ लड़कों के बराबर है... रास्ता भर चौकस, चौकन्नी रहेगी एक बिलाई की तरह... तुमको भी कोई दिक्कत नहीं होगा. "
नमिता जोर से पलंग पर से कूद कर, दौड़ कर बाबू जी से लिपट गयी.... "अच्छे बाबा..... मेरे अच्छे बाबा “
बाबू जी की पूरी जिंदगानी में कोई उनसे इस तरह नहीं लिपटा होगा. उनके बेटा- बेटी तो उनसे भर मुहँ कभी बोलते भी नहीं थे. पर बाबू जी हँसते रहें... "अरे छोड़... गिराएगी क्या "
नमिता बंबई जाने की तैयारी में लग गयी. शहर से नए डिजाईन का कपडा भी खरीद कर ले आई कि कहीं दीदी के ससुराल वाले उसकी बहन को गँवार ना बोले. रोज मीरा को सामने बैठा तरह तरह से बाल बनाती.
ढेरों साज-समान और स्मिता और उसकी बिटिया के लिए पूरे गाँव भर का आशीर्वाद लेकर दोनों बाप-बेटी बंबई के लिए रवाना हो गए.
दस दिन बाद जब वे लौटे तो निचुड़े हुए आम से निस्तेज दिख रहे थे. लगा शायद सफ़र की थकान है. पर ये सफ़र से ज्यादा मन की थकान थी. हमेशा के मितभाषी पति ने तो बस पूछी गयी बातों का जबाब दिया.. "स्मिता और उसकी बिटिया ठीक है.... उनलोगों को समान बहुत पसंद आया... अच्छी खातिरदारी की हमलोगों की.... दामाद जी को जैसे ही छुट्टी मिलेगी वे स्मिता को लेकर गाँव आयेंगे" और " बहुत थक गया हूँ... आराम करने जा रहा हूँ " और ये कहते वे कोठरी में चले गए.
पर चरखी जैसा मुहँ चलाने वाली नमिता बिना पूछे ही बोलती गयी.... "माँ कैसे रहती है.. छोटकी दीदी वहाँ... बाप रे! एक कमरे का मकान है माँ, एक कमरे का... और तुम्हारी बेटी कहाँ सोती है पता है?... रसोई में जमीन पर "
"जमीन पर. ??.. क्या कह रही है तू".... उन्होंने आश्चर्य से पल्ला मुहँ पर ले लिया.... अब तो गाँव में खेतों में काम करने वाले खेतिहर भी चौकी और चारपाई पर सोते हैं... और उनकी बेटी बम्बई जैसे शहर में जमीन पर सोती है?... यकीन नहीं कर पा रही थीं वे.
"हाँ... माँ... और वो भी चटाई जितनी जगह पर... और पता है, वो भी चैन से नहीं... रात के दो बजे उठकर बड़े बड़े ड्रम में पानी भरती है. वहाँ, नल में रात में पानी आता है... छत पर जिस कमरे में मीरा गुड़िया खेलती है ना, वह कमरा भी दीदी के घर से बड़ा है... कहाँ ब्याह दिया तुमने छोटकी दी को.... " कहते गला भर आया उसका.
पर तुरंत ही आँसू गटक कर बोली... "तुम पूछती थी ना, ऐसी पीली काहे पड़ गयी है... पीली नहीं पड़ेगी तो और क्या, ना उस घर में धूप आती है, ना बयार... बस दिन भर एक पंखा टुक टुक करके हिलता रहता है. इतनी गर्मी सारा बदन चिप चिप करता रहता है... और नहाने को पानी नहीं... माँ जीजाजी को बोलो ना, नौकरी छोड़ कर गाँव में आकर हमारे साथ रहें... उनको भी तो गाँव कितना पसंद है... दीदी की बिटिया चलना कैसे सीखेगी वहाँ.. इतना छोटा तो घर है... किधर चलेगी वो.. "
"अच्छा चल.. अब कल सुनाना अपना बंबई पुराण... कुछ खा-पीकर आराम कर ले "... उनसे यह सब सुना नहीं जा रहा था. वे उठ कर चली गयीं.
मीरा बंबई के और भी किस्से सुनने को बेताब थी.. "दीदी बताओ ना कहाँ कहाँ घूमी.. समंदर देखा? "
"अरे क्या घुमूंगी, वहाँ केवल पानी का समंदर ही नहीं, आदमी का भी समंदर है... जिधर देखो खाली सर दिखता है... इतना धक्का-मुक्की..... फिलम जैसा कुछ नहीं है रे... सब झूठ दिखाते हैं.. फिलम में"
मीरा भी निराश हो चली गयी.
वे दीवार का सहारा लिये चुपचाप ढलते सूरज को देख रही थीं.. ये क्या लिखा है उनकी बेटियों के भाग में... एक के पास धन धान्य सबकुछ है तो घरवाले इतने कड़क हैं. एक के घर वाले अच्छे हैं पर उसका जीवन इतना कष्टमय और आँचल की कोर से आँसू पोंछ लीं उन्होंने.
(क्रमशः)