खट्टी मीठी यादों का मेला
भाग – 6
(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से जग कर वे, अपना पुराना जीवन याद करने लगती हैं. उनकी चार बेटियों और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी बेटी ममता की शादी ससुर जी ने पति की इच्छा के विरुद्ध एक बड़े घर में कर दी. वे लोग ममता को तो कोई कमी नहीं महसूस होने देते पर उसे मायके नहीं आने देते. दो भाइयों के बाद जन्मी नमिता, बहुत निडर थी, साइकिल चलाती, पेड़ पर चढ़ जाती और गाँव भर में घूमती रहती.) दोनों भाई बहुत मन लगाकर पढाई करते, उन्हें पता था, सिर्फ पढाई के बल पर ही वे इस गाँव से निकल पायेंगे )
स्मिता भी दसवीं पास कर गयी और उसके भाग्य से पास के गाँव में ही एक कॉलेज भी खुल गया. पति बहुत प्रसन्न थे. बेटियों के कॉलेज में पढने का सपना अब साकार होता दिख रहा था. बार बार कहते, "पता नहीं शहर भेजने को अम्मा-बाउजी तैयार होते या नहीं, अब तो झंझट ही ख़त्म. "
उन्होंने आशंका जताई, "वो गाँव भी तो इतना पास नहीं, बाबू जी मान जायेंगे? "
"हाँ, बिलकुल मानेंगे कोई स्मिता अकेली थोड़े ही ना जाएगी, शिवशंकर बाबू की बिटिया भी जाएगी, रामबाबू मास्टर साहब की बेटी भी है, कुल पांच लडकियां हैं, हँसते बतियाते चली जाएँगी.... सबसे बात हो गयी है. इसे तो जरूर बी. ए. तक पढ़ाऊंगा, किस्मत की धनी है... इसके इंटर करते ही बी. ए. की पढ़ाई भी शुरू हो जानी चाहिए"
बाबूजी, अनिच्छा से मान गए, अम्मा जी ने जरूर बहुत विरोध किया, "अरे लड़िका खोजने में चप्पल घिस जायेगी, पढ़ी लिखी लड़कियों से कोई ना चाहे है, शादी करना... क्या करेगी ई. ए., बी. ए. कर के... आखिर घर संसार ही तो चलाना है"
"तुम नहीं समझोगी अम्मा, पढ़ लिख कर, घर संसार भी बढ़िया से चलाएगी... अब ज़माना बदल रहा है... "
"हाँ, बेटा ऊ तो देखिए रहें हैं... बेटी दूसर गाँव पढने जायेगी... जमाना तो बदल ही गया है. "... अम्मा जी बेटे के इस तरह मुहँ उठा कर जबाब देने से ही आहत थीं. अब बिलकुल ही हथियार डाल दिए... "जो हरि इच्छा " कहतीं बाहर चली गयीं.
पर पति ने खुद ही स्मिता को बी. ए. कराने का सपना देखा और खुद ही उसमे खलल डाल दिया. स्मिता बारहवीं में थी, तभी उनके साथी, शिक्षक ने अपन भतीजे के लिए स्मिता का हाथ मांग लिया. उनका भतीजा बम्बई में रहता था. पति तो बस इस बात से ही रोमांचित हो रहें थे कि उनकी बेटी इतने बड़े शहर में जा रही है. वे कुछ आशंकित हो रही थीं, इतनी दूर कैसे ब्याह दे बिटिया को. अम्मा -बाऊ जी ने भी टोका पर पति के उत्साह के आगे किसी कि ना चली, एक ही तर्क था 'क्या ज़िन्दगी भर कूप मंडूक बने रहेंगे बच्चे. बाहर निकलने दो उन्हें दुनिया देखने दो.... हम ना देख सके तो क्या, उनकी आँखों से ही देखेंगे"
लड़के की भी बड़ी तारीफ़ करते कि उन शिक्षक की बेटी की शादी में आया था बंबई से, सारा दिन काम करता रहता. शहर के होने का कोई रौब नहीं. बहुत सुसंस्कृत लड़का है. परिवार भी बहुत बढ़िया है.
***
पति अति-उत्साहित थे. सारा इंतजाम खुद देख रहें थे. वरना ममता की शादी में तो खुद ही मेहमान जैसे लगते थे. बाबूजी के हाथ में उस समय सारी बागडोर थी. अपने जमा किए हुए पैसे भी निकाल लाते बैंक से. उन्हें ही टोकना पड़ता, अभी दो बेटियाँ और हैं... दो बेटों की पढ़ाई -लिखाई है. हुलस कर कहते, "अरे ममता की माँ, सब अपना भाग लेकर आते हैं... तुमने कभी सोचा था, बेटी बम्बई में रहेगी... कभी सपना भी देखा था. ई तो स्मिता का भाग है"
खाना-पीना, कपड़े लत्ते, इंतजाम बात सब नए ढंग का. पर बाराती इतने सीधे थे, कोई हंगामा नहीं किया, कहीं नाक-भौं नहीं सिकोड़ी... चढ़ावे में कोई नुक्स नहीं निकाले. लड़के वाले का कोई रौब था ही नहीं. वे लोग जैसा कहते झट से मान लेते. लड़का भी चाय-बिस्कुट पर पला, दुबला-पतला बिलकुल शहरी ही लग रहा था. पर मुस्कुराते हुए अदब से सबके पैर छू रहा था.
वरना ममता के पति, की अब सारी असलियत दिख रही थी. बिलकुल दामाद वाले नखरे. इतने दिनों में ममता को मुश्किल से तीन बार मायके आने दिया. बाहर से ही मोटरगाड़ी से छोड़कर चले जाते. जब लेने आते तो सौ मनुहार के बाद घर में कदम रखते और बस एक टुकड़ा मिठाई और एक गिलास पानी पीते और जल्दी मचाते जाने को. ममता के गुलगोथाने से बेटे को भी वे स्मिता की शादी में ही देख पायीं. मन भर गोद में खिला भी नहीं पायीं. शादी का घर, सौ काम में बझी रहतीं और वह, कभी इसकी गोद में कभी उसकी गोद में चढ़ा, काजल लगाए उन्हें टुकुर टुकुर निहारा करता. बस काम करती उस से बतियाती रहतीं... बेटियाँ हंसती, "माँ को कुछ हो गया है... ".. उन्हें क्या पता, नाती को जी भर कर नहीं खिला पाने का दुख क्या होता है और दुख और बढ़ गया जब सुबह स्मिता की विदाई हुई और शाम को ममता को लेने दामाद आ गए.
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प्रकाश का मैट्रिक का रिजल्ट आया और उसे जिला भर में पहिला स्थान मिला. कितने सारे ईनाम मिले. गाँव वाले तो उनकी किस्मत से सिहाने लगे... आते जाते तंज कस देते... "का हो मास्टर बाबू.... भगवान तो छप्पर फाड़ के खुसी दे रहें हैं... बटोर लो दोनों हाथों से"
पति कभी खीझ कर, कभी मुस्कार कर, अनसुनी कर जाते ये बातें.
ससुर जी को कोई कुछ कहने की हिम्मत तो नहीं करता पर वे खुद ही शाम को चौपाल लगाए बैठे होते. हर आने जाने वाले को बिठा कर जोर शोर से सुनाते, "अरे बड़की पोती इतना बढ़िया घर में गयी है, छोटकी का बंबई बियाह हुआ... और अब देखो पोता जिल्ला भर में परथम इस्थान लाया. " और फिर जोर से आवाज़ लगाते.. "परकासsss...... ओ परकासsss..... चलो पैर छू कर आसिरबाद लो, यही काम आएगा, आगे जीबन में "
प्रकाश भुनभुनाता हुआ, वापस आता, "नुमाईश की चीज़ हूँ जैसे मैं... हाथ धुलाओ, इतने धूल धूसरित, कीचड़ लगे पैरों को हाथ लगा कर आ रहा हूँ "
"ऐसा नहीं कहते बेटे... मन से सब आशीर्वाद देते हैं.. "
पर वो नहीं सुनता, गमछा से हाथ पोंछते भुनभुनाता रहता... "कब कॉलेज में एडमिशन हो और मैं शहर जाऊं... मन नहीं लगता अब यहाँ, मेरा"
सोचतीं, अभी तो शहर गया नहीं और गाँव से मन उबने लगा... वहाँ जाने पर क्या होगा. और हुआ भी यही. एक घर लेकर एक नौकर, राशन पानी सबका इंतज़ाम हुआ और प्रकाश, पास के शहर में पढने लगा. शुरू शुरू में इतवार सनीचर आ जाता, अब तो दो दो महीने गुजर जाते और राम जाने सच या झूठ पर वो पढ़ाई और ट्यूशन का बहाना कर घर नहीं आता. पिता, प्रमोद और कभी कभी बहनें भी जाकर मिल आतीं. बस वे और अम्मा- बाउजी उसकी बाट जोहते रह जाते. पर जब स्मिता बम्बई से आई तो दौड़ा दौड़ा चला आया बहन से मिलने.
स्मिता शादी के छः महीने बाद दस दिन के लिए आई थी. देखकर एक बार तो चौंक ही गयीं... एकदम दुबली पतली... चेहरा पीला पड़ गया था... आँखों के नीचे काले गड्ढे... घबरा गयीं वे.... "बीमार थी क्या...
"ना माँ... बस ऐसे ही ".
साथ में दामाद जी भी थे. बोल पड़े, "इसीलिए तो लेकर आया हूँ.. इन्हें वहाँ का खाना रुचता ही नहीं. अब थोड़ा अपने हाथ का बना खिलाइए कि इनके चेहरे की रंगत लौटे. "
पहले तो उन्हें लगा... शायद ससुराल में, ठीक व्यवहार नहीं करते. पर एक दिन में ही शंका निर्मूल सिद्ध हुई. जिस तरह दामाद उसका ख्याल रखते... देख मन को शांति मिलती. लगता बरसों बाद घर में इतनी हंसी ख़ुशी आई है. दामाद, अपने साले -सालियों से खूब घुल -मिलकर बातें करते. सुबह सकारे ही गाँव में घूमने निकल जाते. बच्चे भी उन्हें दिन भर बगीचे, नहर, पोखर घुमाते रहते. कितनी सारी तो फोटो खींच डाली. उनका बनाया भी छक कर खाते और एक एक चीज़ की तारीफ़ करते. इतना तो कभी उनके बेटों ने भी नहीं की. सास ससुर से भी खूब गाँव के किस्से सुनते. पति से उनके स्कूल की सारी खबर ली. फिर स्मिता को मायके छोड़ अपने गाँव चले गए और उन्हें बार बार ताकीद कर दी... "अच्छे से खिलाइयेगा इन्हें "
उन्हें हंसी भी आई... आज लगा बेटी पराई हो गयी है... उसका ख़याल रखने को उन्हें, कोई और बता रहा है. सारे बच्चे स्मिता के आगे पीछे घूमते रहते... "छोटकी दी.. बंबई के किस्से सुनाओ ना... फिर सब उसे घर कर बैठ जाते और वो वहाँ की बातें बताया करती... "इतने ऊँचे ऊँचे घर है... थक जाओगे पर गिन नहीं पाओगे, कितना मंजिला मकान है?? इतनी तेज ट्रेन चलती है. लोग ऑफिस भी ट्रेन से जाते हैं... चारो तरफ बिजली रात तो कभी लगता ही नहीं... समंदर में इतनी ऊँची ऊँची लहरें "
सब आँखें फैला कर सुनते रहते और उनकी आँखों में बंबई एक सुनहरा सपना बन सज जाता.
जब दामाद जी, स्मिता को लेने आए तो वे भी उसे देख हैरान रह गए... इन आठ दिनों में ही उसके चेहरे का गुलाबीपन लौट आया था. चेहरे पर रौनक आ गयी थी. उसके विदा होते फिर से सबकी आँखें गीली हो गयीं. एक ही गुहार थी सबके मुहँ पे.. "बेटी चिट्ठी लिखती रहना "
(क्रमशः )