Khatti Mithi yadon ka mela - 4 in Hindi Love Stories by Rashmi Ravija books and stories PDF | खट्टी मीठी यादों का मेला - 4

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खट्टी मीठी यादों का मेला - 4

खट्टी मीठी यादों का मेला

भाग – 4

(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से वे जग जाती हैं, और पुराना जीवन याद करने लगती हैं. उनकी चार बेटियों और दो बेटों से घर गुलज़ार रहता. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी बेटी ममता की शादी ससुर जी ने पति की इच्छा के विरुद्ध एक बड़े घर में कर दी. वे लोग ममता को तो कोई कमी नहीं महसूस होने देते पर उसे मायके नहीं आने देते )

गतांक से आगे

ममता की शादी के बाद घर जैसे बिखर सा गया. छोटे भाई बहनों को ना जाने किस अनुशासन के डोर से ममता ने बाँध रखा था कि उसके जाने के बाद ही सब छुट्टे बैल से आपस में भिड़ने लगे. पर वे सबसे ज्यादा नमिता के व्यवहार से परेशान थीं. दोनों भाई उस से बड़े थे, और 'लड़के' थे लिहाजा दादा-दादी के ज्यादा दुलारे थे. नमिता ने बचपन से इस भेदभाव को समझा था. शायद ममता उसे समझा-बुझा लेती पर अब उसके जाने के बाद वह किसी समझौते के लिए तैयार नहीं होती और हर बात में भाइयों की बराबरी चाहती.

वे कनस्तर से आटा निकाल कर काकी को दे रही थीं, गूंधने को. इसी बीच बाहर प्रमोद की जोर जोर से चिल्लाने की आवाजें सुनीं तो आटे सने हाथों से ही दरवाजे की तरफ भागीं और सामने जो नज़र गयी तो हतप्रभ रह गयीं, ध्यान भी नहीं रहा और वही आटे सने हाथ आश्चर्य से होठों पे रख लिए. दूर से पीले छींट की फ्रॉक पहने, कानों के पास लाल रंग के रिबन के दो फूल लगाए, नमिता साईकिल चलाती, उसकी घंटी टुनटुनाती हुई चली आ रही थी. यहाँ प्रमोद, गुस्से से पागल हुआ जा रहा था, क्यूंकि उसके ट्यूशन जाने का समय हो रहा था और नमिता, साइकिल ले चली गयी थी. पर इस लड़की ने साइकिल चलाना कब सीखा? प्रमोद के शब्द उनके कानों तक जा ही नहीं रहें थे वे मंत्रमुग्ध सी नमिता को देख रही थीं, ऐसा लग रहा था, किसी मल्लिका की तरह वो राजहंस पर बैठी तैरती हुई चली आ रही है.

अहाते में पहुँचते ही, नमिता साइकिल से ठीक से उतरी भी नहीं थी की प्रमोद ने धक्का दे, उसे गिरा कर साइकिल छीन ली. नमिता ने भी उठकर उसे जोर का धक्का दिया पर प्रमोद ने उसके बाल खींच दो धौल पीठ पर जमा दिए और साइकिल ले चलता बना. नमिता वहीँ जमीन पर बैठ कर पैर पटक पटक कर भाँ भाँ करके रोने लगी. उन्होंने इशारे से उसे बुलाया. क्या विवशता थी, वे देहरी लांघ, अपनी रोती बेटी को चुप भी नहीं करा सकती थीं. आँगन में काम करती, शिवनाथ माएं को आवाज दे, नमिता को चुप करा लाने को कहा. वो उठाने गयी तो नमिता ने उसके हाथ झटक दिए और खुद ही चल पड़ी पर अंदर नहीं आई, बाहर ही चौकी पर आँसू पोंछती बैठ गयी.

थोड़ी ही देर में बच्चों का झुण्ड "नमता नमता " की पुकार लगाते हुए आया और वो उठ कर चल दी, गुल्ली-डंडा खेलने. बेटे गाँव के लड़कों के साथ ज्यादा घुलते मिलते नहीं थे. खुद को जरा विशिष्ट समझते पर नमिता, गाँव के हमउम्र लड़कों के साथ, "गुल्ली डंडा", कभी "कंचे" तो कभी "डेंगा पानी" खेला करती. कभी भाइयों के जतन से छुपाये, गेंद-बल्ला ढूंढ निकालती और गाँव के लड़कों के साथ जम कर खेलती लेकिन उसे वापस उसी जगह पर रखने की बजाय लापरवाही से बाहर बरामदे में ही छोड़ देती. जब बेटे देख लेते फिर तो आँगन में जो महाभारत मचती कि लगता किसी का तो सर फूट कर रहेगा.

प्रमोद कहता, " इसी बल्ले से एक दिन तेरा सर फोड़ दूंगा... अगर फिर से छुआ है कभी?"

नमिता कमर पे हाथ रख कर कहती, "हिम्मत है तो आगे बढ़ के देख... सौ बार छूँऊँगी "

" पापा जी मेरे लिए शहर से लेकर आए हैं... लडकियां नहीं खेलतीं क्रिकेट... जा जा कर गुड़िया की शादी रचा... "

"नाम लिखा है उस पे तुमहरा?... और किस किताब में लिखा है लडकियां नहीं खेलती क्रिकेट... जाओ जाकर किताबों में माथा रगडो... "

"माँ समझा दो, वरना सच में बहुत मारूंगा.. "

"और जैसे मैं छोड़ दूंगी... "

किसी तरह नमिता को पकड़ कमरे में ले जातीं.

आज भी, उनका मन हो रहा था, उसे अपने से चिपटा खूब दुलार करें और पूछे, "ये साइकिल चलाना कहाँ से सीखा?" पर नमिता, दादी की तरह उन्हें भी अपना विरोधी ही मानती थी. दो भाइयों के बाद उसका जनम था. बचपन से ही वह नौकरानियों की गोद में ही पलती आई. पांच साल के प्रमोद को सास गोद में उठाये रहतीं पर तीन साल की रोती नमिता को कलावती, सीला के हवाले कर देतीं. उनकी गोद में छोटी मीरा थी. ये विद्रोह के बीज तब से ही नमिता के मन में पड़ गए. जिसे आगे की रोज रोज घटती घटनाओं ने खूब खाद पानी दिया. स्कूल जाने से पहले सारे बच्चे खाना खाने बैठते और सास कलावती को अंदर से घी का डब्बा लाकर प्रकाश और प्रमोद की दाल में घी डालने को बोलतीं. उनके विचार से लड़कों को ही घी खाने का हक़ था. नमिता का जब ध्यान गया तो उसने दाल खाना ही छोड़ दिया, सब्जी चावल खा कर उठ जाती, कहती मुझे दाल नहीं पसंद. उनका मन कसमसा कर रह जाता, पर वे सास के विरुद्ध नहीं जा सकती थीं. यह बात पतिदेव ने भी गौर की और उन्हें अलग बुलाकर कहा, लड़कियों के शरीर को भी उतनी ही पौष्टिकता की जरूरत है, किसी बहाने उन्हें पौष्टिक भोजन दिया करो.

उन्होंने कहा, "आप ही क्यूँ नहीं कहते?"

"मैने आजतक माँ के विरुद्ध कुछ कहा है? कहेंगी, औरत की बातों में आ गया है. तुम रसोई संभालती हो, कोई उपाय निकालो. "

पर वे क्या करतीं, घर में एक पत्ता भी सास की मर्जी के बिना नहीं खड़कता था.

गाँव में आए दिन किसी की बेटी ससुराल से, तो बहू मायके से आती रहतीं. और घर घर बैना भेजा जाता. लाल क्रोशिये से बुने मेजपोश से ढके डगरे में मिठाइयों की अलग अलग छोटी छोटी ढेरियाँ बनीं होतीं, जिसे कोई कामवाली, घर घर बांटने के लिए जाती. उस से बहू, बेटी के हालचाल पूछे जाते और कुछ पैसे दिए जाते. किस घर से कितने पैसे मिले हैं, यह लेखा-जोखा भी लिया जाता. सास हमेशा अच्छी मिठाइयां पोतों के लिए रख देतीं. यहाँ भी नमिता कह देती मुझे मीठा नहीं पसंद. एक बार दुपहरिया में सास सो रही थीं. उन्होंने ही बैना लिया और जल्दी से कमरे में पैर फैलाए मीरा के साथ, गोटी खेलती नमिता के पास मिठाई ले कर गयीं.

"ले आज तेरे लिए अच्छी वाली मिठाई छांट कर लाई हूँ "

"जिस दिन दादी के सामने देने की हिम्मत हो, उस दिन देना" नमिता ने टका सा जबाब दे दिया.

जब उन्होंने जबरदस्ती खिलाने की कोशिश की तो जमीन पर फेंक दी, मिठाई. ओह!! काँप जातीं वो, कितना गुस्सा भरा है, इस लड़की के मन में. बोलीं, " गिरा क्यूँ दिया कम से कम मीरा को ही दे देती.. "

"अच्छा है मीरा को इसका स्वाद ही ना पता चले... वरना उसका भी मन होगा खाने का.... ले मीरा तेरी बारी" और उसने गोटियाँ मीरा के हाथों में पकड़ा दीं.

मन उदास हो गया, उनका और उस दिन तो कमरे में जाकर रो ही पड़ीं, जब प्रकाश ने दादी से खीर खाने की फरमाइश की थी.

उन्होंने बताया, "अम्मा जी, चीनी ज्यादा नहीं है, खीर कल बना दूंगी".

इस पर सास ने कहा, " घर के मर्दों के लिए चीनी वाली खीर बना दो और औरतों, लड़कियों के लिए गुड़ वाली"

उन्होंने प्रतिवाद भी किया, "कल चीनी, मंगवा कर सबके लिए, चीनी की खीर बना दूंगी"

"आज लड़के का मन है तो खीर कल बनेगी?... ये क्या बात हुई... आज बनाओ".. सास ने गुस्से से कहा.

और जब नमिता ने उनकी कटोरियों में सफ़ेद खीर और अपनी कटोरी में लाल खीर देखी तो

बहाने से पूरी कटोरी ही थाली में गिरा दी, और "अब खाने का मन नहीं है" कहती उठ कर चली गयी.

"एकदम कोई शऊर नहीं है इस लड़की को, इसके लच्छन तो देखो"... सास जोर से चिल्लाईं पर नमिता ने कभी परवाह की ही नहीं.

वे कमरे में जाकर रो पड़ीं, उनकी आँखों के सामने ही उनकी बेटियों के साथ ये अन्याय हो रहा है और वे मुहँ सिल कर बैठी हैं. पर वे विरोध करतीं, तो उनके घर का आँगन भी, गाँव के हर आँगन की तरह महाभारत में तब्दील हो जाता और चूल्हे चौके अलग हो जाते. जो ना उन्हें गंवारा था ना उनके पति को.

ममता, स्मिता भी ये सब झेलतीं पर भाइयों के 'लड़के' होने की वजह से विशिष्टता का भान उन्हें था. इसे खुले मन से स्वीकार कर लिया था उन दोनों ने. वैसे भी, भाई उनसे छोटे थे और वे समझतीं, भगवान ने उनकी पुकार पर ही भाइयों को उनके घर भेजा है. जबसे चलने बोलने लायक हुई, किसी मंदिर या किसी भी पूजा में सास उनका सर जमीन से लगा देतीं और कहतीं, "भाई मांगो, भगवान से"

एक नमिता, इस विशिष्ट दर्जे को बिलकुल स्वीकार नहीं कर पाती और सबसे उलझती रहती.

(क्रमशः )