Khatti Mithi yadon ka mela - 3 in Hindi Love Stories by Rashmi Ravija books and stories PDF | खट्टी मीठी यादों का मेला - 3

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खट्टी मीठी यादों का मेला - 3

खट्टी मीठी यादों का मेला

भाग – 3

(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से वे जग जाती हैं, और पुराना जीवन याद करने लगती हैं कि कैसे वे चौदह बरस की उम्र में शादी कर इस घर में आई थीं.. दादी सास, सास-ससुर, ननदों से भरा पूरा घर था. उनकी भी चार बेटियाँ और दो बेटे पूरा घर गुलज़ार किए रहते. पति गाँव के स्कूल में शिक्षक थे. बड़ी बेटी ममता की शादी ससुर जी ने पति की सम्मति लिए बगैर तय कर दी थी. )

गतांक से आगे.

वे चुपचाप अपने कमरे में लौट आयीं. लेकिन एक दिन शाम को सहेलियों के साथ खेतों में घूमने गयी ममता तेजी से दौड़ती हुई आई और सीधा कमरे में जाकर पलंग पर गिर कर रोने लगी. वे घबराई हुई सी पीछे भागीं. तब तक स्मिता भी आ गयी और कहने लगी कि "वे सब साथ में घूम रही थीं, पर दीदी तो हमेशा की तरह प्रकृति के रूप निहारती खोयी हुई सी थोड़ा आगे निकल गयी. तभी जीप पर वो लड़का जिससे दीदी की शादी होने वाली है, चार लड़कों के साथ आया और खेत की मेंड़ पर पता नहीं दीदी से क्या पूछा कि दीदी तो रोते हुए भागी और वे सब लड़के ठठा कर हंस पड़े " ममता रोये जा रही थी, उन्हें पता था ममता का आभिजात्य मन कभी भी पूरी बात बताने की इजाजत नहीं देगा. लेकिन वे ऐसे लड़के से अपनी बेटी की शादी नहीं होने देंगी और वे तेज क़दमों से सीधा ससुर जी के कमरे तक पहुँच गयीं.

उन्होंने कभी बाबूजी से मुहँ भर बात नहीं की थी. उनके कदम, कमरे के दरवाजे पर जाकर ठिठक गए. बाबूजी कुछ बही-खाता देख रहे थे. बाबूजी ने आहट सुन, सर घुमाया फिर तुरंत ही नज़र फेर दरवाजे पर टिका दीं. कभी कभार बच्चों की या सास की बीमारी के समय दो बात करते तो यूँ ही सर, ऊपर की तरफ कर या दीवार की ओर मुहँ करते और आँखें मींचे उनकी बात का जबाब धीरे धीरे एक एक शब्द पर जोर देते हुए देते. आज भी उसी अंदाज़ में पूछा, "क्या बात है बहू ?" और उनका गला भर आया, बोल पड़ीं, "बाबूजी वो लड़का ममता के लिए. ठीक नहीं है, " और वे उन्हें समझाने लगे, "देखो बहू, जमाना बदल रहा है, अब सीधे सादे लोगों का गुजारा नहीं है. सब लोग रामावतार जी की तरह नहीं हो सकते. ( वे अपने बेटे के नाम के आगे भी जी लगाया करते थे) उनके जैसा लड़िका खोजोगी तो मेरी पोती सबकी शादी कभी नहीं होगी. देखो जमीन जायदाद बचाने के लिए थोड़ी बदमासी दिखानी ही पड़ती है. ये तो पुरुखों का मान है और गाँव में मेरी इज्जत है कि सब बचा हुआ है. उस लड़के का बाप, हमेसा अपने बाप के पीठ पर खड़ा रहता था, देखो केतना तरक्की कर गया, चमचम घर, मोटरगाड़ी सब है. और हम, जो है खाली उसी को बचाने में लगे हुए हैं. वो तो हमारे खानदान का इतना मान और इज्जत है, इसलिए अब तक कोई बखेड़ा नहीं हुआ. मेरे बाद क्या होगा, राम जाने. रामावतार जी को तो खाली किताब से मतलब है. तुम चिंता ना करो. जरा लड़ीकपन है, नया उम्र है.. शादी होते ही सब ठीक हो जायेगा"

वे थके क़दमों से लौट आयीं. पहली बार ससुर जी के दिल का दर्द जाना, ससुर जी के मन में भी शायद दबी हुई चाह थी कि उनका बेटा उनका साथ देता, जब उन्हें रात-बिरात खेतों में जाना पड़ता है तो उनके साथ चलता, जब बहस मुसाहिबा होता है तो उनके पीठ पर बोलता. पर उनके बेटे तो कभी पूरा एक वाक्य भी पिता क्ले सामने शायद ही बोले हों.

अब कोई चारा ना देख वे ममता को समझाने में जुट गयी, "बेटा, सबलोग दुनिया में एक जैसे नहीं होते, उनके घर का रहन सहन अलग होगा, तू तो इतनी समझदार है, अच्छे से निभा लेना. हो सकता है वो तुझे देखना चाहता हो, इसलिए इस गाँव में आया हो. ऐसा कई लोग करते हैं " शायद कई बार वे ये बातें दुहरा गयी क्यूंकि एक बार जब फिर से ममता के बालों में तेल लगाते यही सब कह रही थीं तो स्मिता बोल पड़ी, " माँ लगता है तुम्हे दीदी की समझ पर भरोसा नहीं है, तभी एक ही बात रटे जा रही हो" उन्होंने देखा, ममता ने धीरे से स्मिता का हाथ दबा दिया. ओह, इतनी छोटी सी लड़की समझ रही है कि माँ बहुत परेशान है, और ये सब कह कर अपनी परेशानी से उबरना चाहती है. वे चुप हो गयीं और ख़याल आ गया अब तक ममता के बालों में वही तेल लगाती आई हैं, कभी कभी चोटियाँ भी बना देतीं अब ससुराल में कौन इसकी कंघी चोटी करेगा और साड़ी की कोर से उन्होंने आँसू पोंछ लिए.

धूमधाम से बारात दरवाजे आई, लड़के को देखा तो आँखें जुड़ा गयीं. सिल्क के कुरते, पीली धोती और सर पर मौरी में एकदम राजकुमार लग रहा था. ननदोई की बात याद आ गयी कि, "लड़की की माँ को तो बस सुन्दर दामाद चाहिए. सुन्दर चेहरा देखते ही वे रीझ जाती हैं" परिछावन करते, मन ही कितनी बार भगवान के आगे गुहार लगाई.. "हे भगवान तन के जैसा इसका मन भी सुन्दर रखना”

शादी की रस्मे होती रहीं और दूसरे दिन लाल चुनरी में सजी गठरी बनी ममता ससुराल चली गयी. मेहमानों से घर भरा था फिर भी, एक ममता के बिना सब सूना लगता. अपने नन्हे नन्हे पैरों में पायल पहने छमछम करती मीरा, हर कमरे में घूमती और बड़ी बड़ी आँखें फैला कर पूछती, "दीदी?" और उनका ह्रदय विदीर्ण हो जाता. वे उसे उठा कलेजे से लगा लेतीं तो उनकी आँखों में आँसू देख वो अबूझ सा उन्हें देखती रहती.

चार दिन बाद फिर से हलवाइयों का मजमा लगा, रात भर मिठाइयां बनी. अब दोनों भाई कलेवा लेकर ममता के ससुराल, उसे विदा करा लाने के लिए जाने वाले थे, लडकियां घर सजाने में जुटी थीं. 'मेहमान' पहली बार घर आ रहें थे. सुन्दर परदे, ममता के कढाई किए तकिये के गिलाफ, चादरें सब बिछाई गयीं. गाँव की ममता की सहेलियां स्मिता के साथ मिलकर तरह तरह के उपाय सोचने लगीं कि कैसे 'मेहमान' को छकाया जाए. कभी चाय और खीर में नमक डालने की जुगत सोची जाती तो कभी पत्तों के पकौड़े बनाने की. वे भी खीर, दाल भरी पूड़ी, पांच तरह की सब्जी बनाकर पलक पांवड़े बिछाए बेटी -दामाद का इंतज़ार करने लगीं.

सब लोग अच्छे अच्छे कपड़े पहने, नए नवेले दामाद के इंतज़ार में थे. पति खिड़की के पास रास्ते की तरफ टकटकी लगाए बैठे थे. सासू माँ बाहर बरामदे में चौकी पर बैठीं पंखा झल रही थीं. पर कान किसी मोटरगाड़ी की आवाज़ के लिए सतर्क थे. बाबूजी भी गाय-भैंसों को देखने भालने के बहाने बाहर अहाते में ही चहल-कदमी कर रहे थे. पूरे घर की व्यग्रता ने ऐसा सन्नाटा कर दिया था कि लगता था चिड़िया भी इस सन्नाटे से घबराकर, बिना चहके ही आँगन में से उड़ जातीं.

पर दोनों बेटे अकेले लौट आए. ममता के ससुराल वालों ने उनकी खातिरदारी तो बहुत अच्छी की. और विदाई में बड़े कीमती कपड़े और १०० रुपये दिए. पर बहाना ये बनाया कि अभी बहुत सारे मेहमान हैं जो नई बहू के साथ रहना चाहते हैं. ममता को बाद में भेजेंगे. दोनों बेटे उनके घर, और वहाँ से मिले कपड़े और पैसे पर इतने मुग्ध थे कि, बहन कैसी है, यह बता ही नहीं पा रहे थे. पूछने पर यही कहते, "चिंता ना करो... दीदी बहुत खुश है... इतने जेवर और कीमती कपड़े पहने हुए थी. वहाँ मुंहदिखाई में बहुत सारा गहना मिला है. हमें इतनी मिठाई खिलाई दीदी ने" वे ठंढी सांस भर कर रह जातीं, एक तो लड़के उसपर से इतने छोटे, क्या समझ पाए होंगे.

इसके बाद से ही हर पंद्रह दिन पर, सासू माँ, पंडित को बुलवातीं, वे पतरा देखकर अच्छा दिन बतलाते और ममता को मायके लाने की तैयारियां शुरू हो जातीं. मिठाइयां बनतीं, टोकरी पर लाल कागज़ चिपकाए जाते और दोनों भाई चल देते बहन को विदा कराकर लाने. पर हर बार अकेले ही लौटते. पड़ोस की निर्मला को भी ससुराल वालों ने भेजने में आनाकानी की थी तो उसके भाई ने वहाँ जाकर डेरा जमा दिया था और अड़ गया था कि जबतक वे उसकी बहन को विदा नहीं करेंगे, वो वहाँ से नहीं जायेगा. पर वे अपने बेटों से ऐसा नहीं कह सकती थीं. यूँ जबरदस्ती बार बार भेजे जाने पर वे चिढने भी लगे थे. उनकी पढ़ाई का हर्जा होता और अब पहले की तरह वहाँ खातिरदारी भी नहीं होती. खीझ कर कहते, "पता नहीं माँ को इतना बुलवाने की क्यूँ पड़ी है, इतने बड़े घर में अच्छे कपड़े, जेवरों से लदी दीदी कितनी खुश है. " आखिरकार ममता के ससुर ने एक बार कह ही दिया, ‘यूँ बिना वजह वे अपनी बहू को नहीं भेजेंगे. कोई बड़ा पूजा, अनुष्ठान हो या शादी-ब्याह, तब ही भेजेंगे व’. तब से वे श्रावणी पूजा की राह देखने लगीं. शायद इस अवसर पर वे भेजने को तैयार हो जाएँ. और भगवान ने उनकी सुन ली, इस बार बेटे बहन को साथ लेकर लौटे.

और जब छः महीने बाद ममता मायके आई तो उनकी गाड़ी देखते ही यह भूल कि दिन के उजाले में वे देहरी से बाहर पैर नहीं रखतीं. दौड़ कर अहाते में निकल आयीं. ससुर जी को देखा तब जल्दी से पूरे सर तक साड़ी का आंचल खींचा. पति, सास, बच्चे सब जमा हो गए. ममता की आँखें छलक रही थीं और लाल साड़ी, बिंदी, सिंदूर से घिरे उसके मोती से दांत, चमकीली हंसी बिखेर रहे थे. ससुर जी के पैरों पर झुकी तो बिना कुछ बोले देर तक उसके सर परहाथ फेरते रहे. सास ने तो बढ़कर अंकवार में भर लिया. पति ने भी देर तक गले से लगाए रखा. आँखें गीली हो आई थीं, सबकी. उनसे तो ममता ऐसे चिपटी जैसे नन्ही बच्ची हो. और उसकी नज़र मीरा पर पड़ी, झपटकर उसे उठाने को बढ़ी. पर मीरा थोड़ी दूर हो गयी उस से. उ सकी दीदी तो सीधीसादी सलवार कुरता पहनती थी. साड़ी;गहनों में सजी, बड़ी सी बिंदी लगाए इस दीदी को वह नहीं पहचान रही थी. जबरदस्ती ममता ने उसे गोद में उठाया तो उसे दोनों हाथों से धकेलते वो जोर जोर से रोने लगी. छोटी नमिता ने आगे बढ़कर उसे संभाला. इतनी देर से अकेले गाड़ी के पास खड़े मेहमान पर अब सबका ध्यान गया. ससुर जी कंधे पर हाथ रखकर बोले, 'चलो बेटा अंदर चलो" पर वो अंदर नहीं आए, कहा" जरूरी काम है, कल आऊंगा ममता को लिवाने". वे हतप्रभ रह गयीं, "कल??... इतनी जल्दी??"..... "हाँ पूजा तो सुबह ही है ना... मैं शाम को आऊंगा" ममता भी सर झुकाए खड़ी थी. पर वे लोग कुछ और कहते इसके पहले ही वो सबको हाथ जोड़ते हुए गाड़ी में बैठ गए. ससुर जी ने कहा, "जरूरी काम होगा कोई"

दो दिन तो दो घंटे जैसे भी महसूस ना हुए. ममता से मिलने को घर में मेला सा लगा रहा. दो बातें करने का भी मौका ना मिला. बस रात को सोते वक़्त, बेटी के सर पर हाथ फेरते हुए पूछा, " तेरा मन तो लगता है वहाँ, दामाद बाबू, घर के सारे लोग तुझसे अच्छा व्यवहार तो करते हैं?".. "हाँ, माँ " ममता ने बस यही कहा और पता था इसके सिवा वह कुछ कहेगी भी नहीं.

दूसरे दिन वायदे अनुसार, मेहमान शाम को आए, दो घंटे ही रुके पर सबकी शिकायतें दूर कर दीं, उसके भी पैर छुए, सालियों से हंसी मजाक किया. मीरा को बार बार अपने पास बुलाना चाहा. पर उस नन्ही लड़की में ना जाने कैसी दहशत बैठ गयी थी, जीजा के नाम से, इतना डर गयी थी, उसे लगता बस वो सबको रुलाते हैं. आस-पड़ोस में भी किसी शादी में जाने के नाम से रोने लगती कि सबलोग रोयेंगे और दीदी चली जाएगी.

मेहमान सबसे इतनी अच्छी तरह पेश आए वे एक बार सोचने लगीं, उनकी शंका गलत थी क्या?. पर फिर सोचा दो घंटे में कोई भी अपना सबसे अच्छा रूप ही दिखायेगा ना. असली रूप तो बस ममता ही देखेगी.

इस बार तो ममता विदाई से भी ज्यादा रोई. अब उसे भी लग गया था, पता नहीं फिर कब देखना नसीब हो यह घर बार.

(क्रमशः )