Das Darvaje - 31 - Last part in Hindi Moral Stories by Subhash Neerav books and stories PDF | दस दरवाज़े - 31 - लास्ट प्रकरण

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दस दरवाज़े - 31 - लास्ट प्रकरण

दस दरवाज़े

बंद दरवाज़ों के पीछे की दस अंतरंग कथाएँ

(चैप्टर - इक्तीस)

***

दसवाँ दरवाज़ा (कड़ी -3)

बंसी : मैं तेरी पहली मुहब्बत

हरजीत अटवाल

अनुवाद : सुभाष नीरव

***

हम पूरी धूमधाम से बारात लेकर छोटे-से शहर लूटन में ज्ञान सिंह के घर प्रदीप को ब्याहने पहुँचते हैं। प्रकाश के सभी रिश्तेदार आते हैं। बारात में हमारे भी कुछ मित्र और रिश्तेदार जाते हैं। विवाह अच्छा हो जाता है। सभी खुश है, ख़ास तौर पर बाराती। दूसरी तरफ ज्ञान सिंह भी खूब सेवा करता है। मेरा खर्च तो काफ़ी हो जाता है, पर मैं इस बात से ही बहुत खुश हूँ कि सब कुछ ठीक ठाक पूरा हो गया है। मैं फोन करके प्रकाश और बंसी को बधाई देता हूँ। मुझे लगता है कि प्रदीप किसी बात पर खुश नहीं, पर वह कह कुछ नहीं रहा।

लड़की हरप्रीत बहुत सुन्दर है, अक्लमंद भी प्रतीत होती है। काउंसिल के दफ्तर में काम करती है। ज्ञान सिंह यद्यपि एक साधारण फैक्टरी में ही काम करता है, पर पढ़ा-लिखा व्यक्ति है। लड़का-लड़की को हनीमून पर भेजने की बात चलती है तो मैं कह बैठता हूँ कि वो कोई फिक्र न करे, मैं इन्हें एक सप्ताह के लिए ब्लैकपूल भेज रहा हूँ। ब्लैकपूल जाने का खर्चा झेलने के लिए ज्ञान सिंह तैयार भी है, पर मैं उसको ऐसा नहीं करने देता।

अंजू को इस बात का पता चलता है तो वह मेरे से युद्ध छेड़ बैठती है।

“किसके लिए चादर से बाहर जाकर पैसे खर्च कर रहे हो? इ्नसे हमारी रिश्तेदारी ही क्या है? तुम्हारी मौसी की देवरानी का बेटी का लड़का!... आदमी तो यह रिश्तेदारी बताते बताते ही सोने लगता है और तुम हो कि इस पर घर लुटाये जात रहे हो।”

“देख, तू ज़रा शांत रह। सब कुछ कर-कराकर सिर पर मिट्टी न डलवा लेना।”

“ऐसे लोग सिर में मिट्टी तो डाला ही करते हैं, जब तक इनका किए जाओ, ठीक रहेंगे और जब करने से हट जाओ तो पिछले किए को भी भूल जाएँगे। हमें नहीं चाहिए ऐसा मोह-प्यार! दोबारा अगर कोई पैसा इस लड़के पर खर्च किया तो मेरे से बुरा कोई नहीं होगा।”

वह धमकी दे जाती है।

इधर पत्नी तो कह रही है कि हमारी रिश्तेदारी ही क्या है, उधर बंसी कहती है कि मैं तेरी पहली मुहब्बत हूँ, पहली मुहब्बत से बड़ा और कौन-सा रिश्ता हो सकता है। मुझे लगने लगता है कि मुहब्बत के अर्थ मुझे अभी तक समझ नहीं आए। शायद इसीलिए मैं उम्र के इस पड़ाव पर बैचन-सा हुआ फिरता हूँ। मेरा मित्र करमजीत कहने लगता है कि हमने बहुत भागदौड़ करके देख ली, अब तक तो हमें समझ आ जानी चाहिए कि असल में खुशी हमारे घर में ही बसा करती है और हम कस्तूरी हिरन की तरह इधर-उधर दौड़े फिरते हैं। हो सकता है कि वह ठीक हो, पर इस समय तो प्रदीप के मामले में निपटना मेरे लिए कठिन हो रहा है।

प्रदीप और हरप्रीत हनीमून से वापस लौट आते हैं। बहुत प्रसन्न हैं। उनको देखकर मेरा मन भी खुश होने लगता है। खर्च किए गए पैसे बिसरने लगते हैं।

वह सप्ताहभर हमारे साथ रहते हैं, पर फिर हालात खराब होने लगते हैं। हरप्रीत को हमारे घर में से अपनी माँ के घर-सी गरमाहट नहीं दिख रही। प्रदीप भी उखड़ा-उखड़ा रहने लगता है। मैं उसको कभी-कभी पब ले जाया करता हूँ। एक दिन कहने लगता है -

“अंकल जी, मैंने देख लिया, आपकी भी घर में ज्यादा नहीं चलती।”

कहते हुए वह मसखरी-सी में है, पर मुझे उसकी बात बहुत बुरी लगती है। फिर मैं सोचने लगता हूँ कि कहीं अंजू ने ही उसको कुछ कह न दिया हो। यह भी तो सच है कि जब तुम किसी को पसंद नहीं करते तो मुँह से कुछ कहने की ज़रूरत नहीं होती, तुम्हारा व्यवहार ही सब कुछ बोल जाता है। किसी को शर्मिंदा करने में अंजू है भी बहुत तेज़।

एक दिन प्रदीप कहता है -

“अंकल जी, मैंने सोच लिया है कि हम लूटन ही मूव हो जाएँगे, एक तो वहाँ लंदन की अपेक्षा घर भी बहुत सस्ते हैं और दूसरे हरप्रीत का यहाँ दिल भी नहीं लग रहा। वहाँ इसकी जॉब भी है। पहले तो हम सोचते थे कि इस बौरो में इसकी बदली करवा लेंगे, पर हरप्रीत का यहाँ दिल नहीं लग रहा।”

एक दिन ज्ञान सिंह उनको आकर ले जाता है। सप्ताहभर तो प्रदीप मुझे कोई फोन नहीं करता, पर बाद में लगभग रोज़ ही उसके फोन आने लगते हैं। उसको काम मिल जाता है। वह कार का लायसेंस लेने की भी कोशिश करता है। पहली बार में ही टैस्ट पास कर जाता है। एक दिन वह कहता है -

“अंकल जी, टैस्ट तो पास कर लिया, अब कार लेनी हे।”

“ले ले, तू काम करता है। हरप्रीत भी करती है। कार लेना कौन-सी बड़ी बात है।”

“वो तो आपकी बात ठीक है, पर हमारे डैडी पीछे पड़े हैं कि पहले घर लो।”

“बात तो ज्ञान सिंह की भी बिल्कुल सही है। पर तू रहा यंग ब्लॅड, मुझे पता है कि तू अब कार के बग़ैर रह नहीं सकता, तू उसे धीरे-धीरे मना।”

“अंकल जी, जब आदमी सयाना हो जाता है, जिद्दी हो जाता है। इसको यंग लोगों की बात समझ नहीं आती।” वह हँसते हुए कहता है।

मैं सोचने लगता हूँ कि यह ताना मुझ पर मारा गया है कि ज्ञान सिंह पर। बंसी का फोन आता है तो मैं उसको कहता हूँ -

“तेरा बेटा तो बहुत तेज़ है भई।”

“मेरा क्यों, यह तेरा ही है, मैं तेरी पहली मुहब्बत! ”

करीब छह महीने बाद एक दिन प्रदीप मुझसे मिलने आता है। मैं उसको पब में ले जाता हूँ। वह कहने लगता है -

“अंकल जी, मैं घर ले रहा हूँ।”

“यह तो बहुत अच्छी बात है।”

“अब तो घर किस्तों पर ले लेंगे, पर मुझे किस्तें अच्छी नहीं लगतीं। मैं जल्दी ही उसे फ्री करवा लूँगा।”

“वह कैसे?”

“ऊपर वाले तीन कमरे किराये पर दे दूँगा, मैं और हरप्रीत नीचे वाले दो से काम चला लेंगे।”

“स्कीम तो बहुत बढ़िया है।”

“अंकल जी, घर लेने में बस एक बाधा है।”

“वो कौन सी?”

“डिपोजिट के पैसे कुछ कम पड़ रहे हैं। हरप्रीत के पास भी पड़े थे, हमने जोड़े भी थे, इसके डैडी ने भी कुछ दिए हैं और अब इंडिया से डैडी भी कुछ भेज रहे हैं।”

“फिर बात बन गई कि नहीं?”

“जो पैसे डैडी ने इंडिया से भेजने हैं, वे अभी ठहरकर आएँगे, हमारा दस हज़ार पौंड कम पड़ता है, डैडी कहते हैं कि भेज देंगे, पर इतनी फॉरन करेंसी इकट्ठी करने में टाईम लगेगा।”

मैं समझ जाता हूँ कि अब वह क्या कहेगा। मैं आगे की बात घेरने के लिए कहता हूँ -

“प्रदीप, मेरे पास तो कोई जमापूंजी है नहीं, बस जैसे-तैसे चल रहा है।”

“अंकल जी, अब मैं काम करता हूँ। मैं आपके ऊपर किसी तरह का बोझ नहीं बनना चाहता। मैं यह चाहता हूँ कि आप मुझे दस हज़ार का पर्सनल लोन ले दो। डैडी के पैसे आते ही मैं लौटा दूँगा और जब तक डैडी के पैसे नहीं आते, मैं आपके लोन की किस्त भरता रहूँगा।”

मैं सोच में पड़ जाता हूँ कि इसका क्या जवाब दूँ। वह फिर कहता है -

“मैं आपसे कभी नहीं कहता, मैं तो मोर्टगेज़ और बढ़ा लेता, पर बैंक हमें इतनी ही मोर्टगेज़ दे रहा है। मैंने और भी कई जगह ट्राई किया है। मैं प्लीज़... मम्मी कहती थी कि वह भी आपको फोन करेगी।”

मैं अजीब स्थिति में फंस जाता हूँ। अंजू को पता चलेगा तो वह तो मुझ कच्चे को ही चबा जाएगी। यदि प्रदीप की मदद न की तो बंसी के ताने सारी उम्र सुनने पड़ेंगे। मैं बहुत सोच-विचार के बाद बैंक मैनेजर से मिलता हूँ। दस हज़ार पौंड का इंतज़ाम कर देता हूँ। लेकिन अंजू से पूरी तरह छिपाकर। पाँच वर्ष के लिए मुझे कर्ज़ा मिल जाता है। इसकी किस्त तीन सौ पौंड महीना है। मैं प्रदीप से कहता हूँ -

“बेटा देख, मेरी आमदनी तो थोड़ी ही है, ये तीन सौ की किस्त मेरे से नहीं भरी जाएगी। तू खुद ही समय से देता रहना, मुझे कहना न पड़े।”

“आप फिक्र न करो अंकल जी।”

वह बड़े यकीन के साथ कहता है।

वह घर खरीद लेता है। अगले महीने की पाँच तारीख को दस हज़ार के कर्ज़े की पहली किस्त आ जाती है। मैं फोन करके बताता हूँ -

“परसों पाँच तारीख है प्रदीप।”

“अंकल जी, इस बार आप दे दो। अभी मेरा हाथ कुछ तंग है। मैं सारा हिसाब कर दूँगा, यूँ ही न चिंता किए जाओ।”

अगले महीने प्रदीप फिर टरका जाता है। मेरी लिए तीन सौ पौंड महीने का निकालना कठिन हो रहा है। तीसरे महीने भी प्रदीप कुछ नहीं करता। मैं बंसी को फोन करके सारी बात बताता हूँ। वह बोलती है -

“क्या बकरी की तरह मैं-मैं किए जाता है। तू यहाँ आ जा, तेरा दस हज़ार पूरा कर देती हूँ, जहाँ कहेगा, चली चलूँगी तेरे साथ, और बता!... कितने साल हो गए, मैंने तेरे से कभी कुछ मांगा? ”

“अगर मेरे हालात अच्छे होते तो मैं कभी भी न मांगता।”

“मुझे पता है तेरी सिच्युएशन का, पर दस हज़ार पौंड होता ही क्या है! तेरी पहली मुहब्बत का बेटा है आखि़र! ”

“मुझे तो यह बात समझ में आती है, पर मेरी वाइफ़ के पल्ले नहीं पड़ती।”

“उसको समझा न सारी बात।”

वह हँसते हुए बोलती है और फोन रख देती है। मैं ठगा-सा खड़ा फोन की ओर देखने लगता हूँ।

न मैं घर में बताने लायक हूँ और न ही यह फालतू का बोझ सहने योग्य। मेरी रातों की नींद खराब होने लगती है। मेरी हालत देखकर पत्नी को मेरी चिंता हो जाती है और डॉक्टर के पास जाने की सलाह देने लगती है। कुछ मित्रों के साथ यह दुख साझा करता हूँ, सभी यही कहते हैं कि प्रदीप से सख़्ती से पेश आना पड़ेगा। छह महीने बीत जाते हैं। मेरे सब्र का प्याला छलकने लगता है। एक दिन मैं प्रदीप को फोन करता हूँ -

“ओ बेटा, मेरे पैसे कब लौटाने हैं?”

“अंकल जी, यूँ ही क्यों दिल छोड़े जाते हो! कहीं हार्ट अटैक न करवा लेना।”

“देख, तू मजाक कर रहा है और इधर मेरी जान पर बनी पड़ी है।”

“अंकल जी, मैं कहीं भागा तो नहीं हूँ। जब होंगे तो सबसे पहले आपके ही लौटाऊँगा।”

“बेटा, देख, ऐसे झूठे वायदों से बात नहीं बनेगी।”

“अंकल जी, ये दस हज़ार तो कुछ भी नहीं, मेरा हक़ तो इससे भी ज्यादा का बनता है।”

“क्या मतलब है तेरा?”

“तुम्हारी मेरी मम्मी के साथ जो निकटता है, इसके कारण।”

मैं सोच में पड़ जाता हूँ कि वह क्या कहने की कोशिश कर रहा है। वह फिर कहता है -

“मुझे सब पता है अंकल जी... दीवाली को जब आप हमारे घर आए थे... आपने क्या सोचा, मैं सोया पड़ा था!”

कहता हुआ वह हँसने लगता है और फिर फोन रख देता है। मैं अपने पीछे खड़ी हमारी बातचीत सुन रही अंजू की तरफ देखने लगता हूँ।

(समाप्त)