दस दरवाज़े
बंद दरवाज़ों के पीछे की दस अंतरंग कथाएँ
(चैप्टर - तीस)
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दसवाँ दरवाज़ा (कड़ी -2)
बंसी : मैं तेरी पहली मुहब्बत
हरजीत अटवाल
अनुवाद : सुभाष नीरव
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चार साल बाद मैं इंडिया आता हूँ। उनसे विशेष रूप से मिलने जाता हूँ। इस दौरान उन्होंने अपनी कोठी बना ली है। खुश हैं। प्रकाश की शराब पीने की आदत और अधिक बढ़ चुकी है। वह दिन रात रुपया-पैसा इकट्ठा करने के चक्कर में पड़ा हुआ है। नहर का नाका खोलने के बदले किसान उसकी जेबें भर रहे हैं। बंसी वैसे तो आदत के अनुसार बनी-संवरी रहती है पर उसकी आँखें खाली-सी है। मैं उससे पूछता हूँ -
“बहुत खुश नहीं लगती, क्या बात है?”
“प्रकाश की तरफ देख, हर समय शराबी हुआ रहता है।”
“पर बंदा अच्छा है, स्वभाव बढ़िया है इसका।”
“यह स्वभाव का भी बहुत खराब है। जितना यह अच्छा दिखाई देता है, उतना ही खुंदकी है। मुझे प्यार-व्यार कुछ नहीं करता, बस रिश्ता ही निभाता है।”
“बंसी, पति-पत्नी में प्यार होता ही कब है! यह तो रिश्ते की मज़बूरी ही होती है। यह निभता रहे, यही बहुत होता है।”
मेरी बात पर ध्यान दिए बग़ैर वह पूछती है -
“कभी मेरी भी याद आती है?”
“बहुत... हर समय आती है। ऐसा कोई गीत है न - शीशा-ए-दिल में बसा है सितमगर तेरा प्यार, जब ज़रा गर्दन झुकाई देख ली, देख ली तस्वीर-ए- यार!”
मैं गाकर सुनाता हूँ। वह खुश हो जाती है और कहती है -
“मैं तेरी पहली मुहब्बत जो हूँ।”
“हाँ बंसी, वे भी क्या दिन थे! मैं तेरे प्यार में उड़ा फिरता था।”
“कोई पछतावा?”
“हाँ बंसी, पछतावे तो कई हैं, पर एक बहुत बड़ा है। हमारा प्यार अधूरा रह गया।”
“वह कैसे?” वह पूछती है।
मैं उसके करीब होकर कहता हूँ -
“हम दोनों एक-दूजे को बहुत प्यार करते थे, हमारे मन मिल गए, पर तन नहीं। बस, यही बात अधूरी रह गई।”
“चलो, अच्छे रहे न, नहीं तो और तड़फते।”
“तड़फना क्या था, हम तो असली प्रेम से वंचित ही रह गए।”
“क्या मतलब?”
“असली प्यार मन में से ही नहीं उमगता, तन के माध्यम से रूह तक भी पहुँचता है। मैं हिन्दी फिल्में देखते-देखते कुछ अधिक ही आदर्शवादी बन गया था। मैं अब अपनी उस गलती को सुधारना चाहता हूँ।”
कहते हुए मैं उसका हाथ पकड़ लेता हूँ। वह गुस्से में बोलती है -
“अक्ल कर, अक्ल! ”
मैं उसकी बात पर ध्यान दिए बग़ैर उसको अपनी बांहों में ले लेता हूँ। फिर उसका चेहरा अपने हाथों में पकड़कर अपने सामने करता हूँ। उसकी आँखें नम हो जाती हैं।
अगली बार मैं इंडिया आता हूँ तो उससे कहता हूँ -
“बंसी, अधूरे रह गए काम पूरे करें... कोई बहाना घड़ और चल शहर चलें। होटल का कमरा बुक करवा लेंगे।”
वह शरमा-सा जाती है और सोचने लगती है। फिर कहती है -
“यहाँ नहीं जोगी...यहाँ कोई परिचित मिल सकता है... मेरा चंडीगढ़ का टूर बनता रहता है, पर शाम तक लौटना पड़ेगा।”
हम चंडीगढ़ जाते हैं। होटल का कमरा हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। वह कहती है -
“मैं ऐसी औरत नहीं। यह सब अपनी पहली मुहब्बत के लिए किया।”
“आज तूने अपनी पहली मुहब्बत पवित्र कर ली है।” मैं हँसता हुआ कहता है।
अगली बार इंडिया आता हूँ तो उसकी गोदी में गुरसेव खेल रहा है। मैं उससे गुरसेव को लेते हुए मजाक में पूछता हूँ -
“इसके साथ मेरा तो कोई वास्ता नहीं न?”
“नहीं जोगी, पहला बेटा ही मित्रों का हुआ करता है।”
कहकर वह दूर खेल रहे प्रदीप को आवाज़ लगाती है।
प्रदीप अब स्कूल जाता है। वह दिनोंदिन सुन्दर निकल रहा है। मैं जब भी इंडिया आता हूँ तो वह इतना बढ़ चुका होता है कि पहचान में लाने के लिए मुझे उसकी ओर ध्यान से देखना पड़ता है।
वक्त की एक और करवट से प्रदीप कालेज में पढ़ने लगता है। मैं जाता हूँ तो वह मेरा बहुत मोह करता है। मुझे भी वह अच्छा लगता है। हमारी परस्पर खूब बनती है। कई बार मुझे कहीं घूमने जाना हो तो उसको संग ले जाया करता हूँ। किसी से मिलने आसपास जाना हो तो वह मुझे मोटर साइकिल पर ही ले जाया करता है। बातचीत में काफ़ी तेज़ है। यद्यपि प्रकाश ने उसको रुपये-पैसे की पूरी छूट दे रखी है, पर वह बिगड़ा हुआ लड़का नहीं है। बहुत ध्यान से खर्च करता है।
इस बार जाता हूँ तो दीवाली के दिन होते हैं। मैं घूमता-घुमाता नकोदर पहुँच जाता हूँ। प्रकाश किसी पार्टी में है। उसका फोन आ जाता है कि वह रात में घर नहीं आ सकेगा। मैं प्रदीप और गुरसेव के साथ मिलकर पटाखे छुड़ाता हूँ। प्रदीप मेरे लिए बियर का प्रबंध भी करता है। बंसी भी उमंगित-सी घूमती-फिरती है। मेरी ओर देखती है तो उसकी आँखें चमकने लगती हैं।
देर रात मैं बंसी के कमरे में जाता हूँ। बंसी आहिस्ता-से कहती है -
“मैं लड़कों को देख लूँ, गुरसेव तो जल्दी सो जाता है, पर बड़ा कई बार जाग रहा होता है।”
वह देखकर आती है और कहती है -
“गहरी नींद में सोया पड़ा है, अब नहीं उठता अलार्म बजने तक।”
“फिर आजा मेरी पहली मुहब्बत।”
मैं उसको बांहों में पकड़कर अपनी ओर खींचता हूँ।
एक दिन मुझे इंग्लैंड में बंसी का फोन आता है। कहने लगती है -
“प्रदीप को इंग्लैंड से रिश्ता आ रहा है। इनकी बहन करवा रही है।”
“यह तो अच्छी ख़बर है, पर लड़की देखभाल कर लेना। लड़का तेरा हैंडसम है। इसे लड़कियों की कमी नहीं होने वाली। लड़की इसके बराबर की ही देखना।”
“देख ली है, बहुत सुन्दर है। हमें लड़की भी पसंद है और बंदे भी।”
“फिर ज्योतिषी से पूछो!”
“पर लड़की वाले कहते हैं कि विवाह इंग्लैंड में ही करना होगा।”
“इसमें कौन-सी बड़ी बात है, इंग्लैंड में कर दो।”
“इसमें बड़ी बात यह है कि हम तो विवाह करने इंग्लैंड आ नहीं सकेंगे, सो विवाह तुझे करना पड़ेगा।” वह कहती है।
मैं एक पल के लिए सोचता हूँ और कहता हूँ -
“इसमें कौन-सी बात है। मैं कर दूँगा, पाँच आदमी ले जाकर फेरे डलवा देंगे।”
“नहीं, ऐसा नहीं जोगी, प्रकाश चाहता है कि विवाह ज़रा धूमधाम से हो, इसके उधर के सारे रिश्तेदार बुलाए जाएँ।”
“यह तो शायद ज़रा मुश्किल हो क्योंकि मेरा हाथ भी इतना खुला नहीं, जॉब भी छोटी है मेरे पास, पर सोच लेते हैं।”
“सोच नहीं लेते, कह देते हैं! मैंने तेरी तरफ से हाँ भी कर दी है और तू इसकी तैयारी अभी से शुरू कर दे।”
वह पूरे रौब से कहती है और फोन रख देती है। मैं इस बारे में सोचता हूँ और चिंताओं में घिर जाता हूँ। मेरे में धूमधाम से विवाह करने की सामर्थ्य नहीं। बात सिर्फ़ विवाह पर ही खत्म नहीं होगी, प्रदीप को अपने घर में भी रखना पड़ेगा और मेरे घर में तो कोई फालतू कमरा है ही नहीं। उसको घर में रखने का खर्च भी उठाना पड़ेगा। दूसरी तरफ मेरी पत्नी अंजू ऐसी है कि वह मेरे इस काम में कभी साथ नहीं देगी। मैं सोचने लगता हूँ कि यह सारी बात पत्नी के साथ कैसे करूँ। एक बात अच्छी यह है कि अंजू की बंसी के साथ अच्छी निभती है। जब वह इंडिया जाती है तो बंसी उसकी खूब सेवा करती है। इसके अलावा, आते-जाते के हाथ उसको सूट आदि भी भेजती रहती है।
मैं उसको सारी बात बताता हूँ तो वह बोलने लगती है -
“मैं समझती हूँ कि तुम्हारे रिश्तेदार है और हमारे जाने पर भी खातिर सेवा खूब करते हैं, पर किसी के बच्चे का विवाह कर देना इतना आसान नहीं होता। विवाह कहने को ही सरल शब्द है, पर करते समय इसका पता चलता है। आज तो अपने बच्चे ब्याहने के लाले पड़े हुए है!”
“अब मैं क्या करूँ? उसको क्या जवाब दूँ?”
“अपनी सारी हालत उन्हें साफ-साफ बता दो। कहते हैं न कि सखी से कंजूस अच्छा जो तुरत दे जवाब!”
“मैं यह बात नहीं कर सकूँगा, अगर जवाब ही देना है तो तू दे।”
“यानी कि बुरी मैं बनूँ।” पत्नी गुस्से में कहती है।
मेरा मित्र करमजीत कहा करता है कि पत्नी को खुश करने के लिए उसके स्वभाव में कुछ बटन हुआ करते हैं। तुम्हें उन बटनों की निशानदेही करके रखनी चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने पर उन्हें इस्तेमाल कर सको। मैं ऐसे एक बटन को दबाते हुए किसी न किसी तरह पत्नी को मना लेता हूँ। दूसरी तरफ मैं बंसी को तो किसी बात पर जवाब दे नहीं सकता क्योंकि वह तो मेरी पहली मुहब्बत है।
प्रदीप इंग्लैंड पहुँच जाता है। बातचीत में वह बहुत तेज़ है ही। हरेक से ज़रूरत से बढ़कर मोह दिखा रहा है। अंजू कहती है -
“यह शहरी तो कुछ ज्यादा ही चालाक लगता है।”
“चल, अब तो गले पड़ा ढोल बजाना ही पड़ेगा, इसका विवाह करना ही पड़ेगा। दो दिन रहना है इसने, तू यूँ ही न सारी उम्र के लिए बुरी बन जाना।”
मैं अंजू को मनाता हूँ। दोनों लड़कियों को एक कमरा देकर प्रदीप के रहने का प्रबंध करते हैं। एक बात अच्छी होती है कि विवाह पर बंसी या प्रकाश में से कोई नहीं आ रहा, नहीं तो मेरे लिए और अधिक मुश्किल हो जाती। मैं प्रदीप को घर में पड़ा एक मोबाइल फोन दे देता हूँ ताकि उसका काम चलता हो सके। लेकिन उसको वह फोन पसंद नहीं आता। मैं उसको अपना फोन दिखाता हूँ जो उसके फोन से भी पुराना है। वह कहने लगता है -
“अंकल जी, अब आप पुराने लोग हो तो पुरानी चीज़ से ही गुज़ारा करना पड़ेगा, पर मुझे कोई डैशी-सा फोन चाहिए।”
“तेरी बात ठीक है बेटा, पर मैंने तो इसके साथ ही गुज़ारा कर लिया...अब तू इंग्लैंड आ गया, अपना कमा और खा, जैसी तेरी इच्छा पहन-ओढ़, जैसे चाहे फोन और कंप्यूटर खरीद।”
मेरी बात उसको पसंद नहीं आती, पर वह कोई टिप्पणी भी नहीं करता।
वह पाचसेक लोगों की सूची अपने संग लाया है जिन्हें विवाह पर आमंत्रित करना है। इनके लिए कोच करनी पड़ेगी। इनकी दारू तथा और दूसरी खाने-पीने की चीज़ों का भी प्रबंध करना पड़ेगा। वह कहता है -
“अंकल जी, विवाह से पहले जो पार्टी करनी है, ज़रा तगड़ी-सी होनी चाहिए।”
मैं उसी वक्त फैसला कर लेता हूँ कि उसको कुछ बातें स्पष्ट कर दूँ। मैं कहता हूँ -
“बात यह है यंग मैन, मेरी आर्थिक स्थिति इतनी बढ़िया नहीं। ऊपर से मेरे अपने खर्चे बहुत है... हम ऐसा कुछ करें कि अपनी इज्ज़त भी बनी रहे और खर्चे भी कम हों।”
“ऐसा कैसे करेंगे?”
“विवाह हम अब कर लेते हैं, पर रिसेप्शन बाद में देंगे। जब तक मैं भी कुछ पैसे जोड़ लूँगा।”
मेरी बात सुनकर उसका मुँह अजीब-सा हो जाता है।
एक दिन वह कहता है -
“अंकल जी, ज़रा कार की चाबी दो, मुझे दुकान तक जाना है।”
“बेटा, तेरे पास लायसेंस नहीं है।”
“अंकल जी, मेरे पास इंटरनेशनल लायसेंस है, किसी भी देश में चल सकता है। इस देश की ड्राइविंग तो बहुत आसान है। मैं तो इंडिया में भी ट्रैफिक के बीच से कार मक्खनी के बाल की तरह निकाल ले जाता हूँ।”
“वो तो मैं मानता हूँ कि तेरी ड्राइविंग बढ़िया होगी, पर इस मुल्क में बिना इंश्योरेंस के कार चलाना बहुत बड़ा जुर्म है, जगह जगह पुलिस खड़ी होती है, एक बार पकड़ा गया तो काम कठिन हो जाएगा।”
“आज तक पुलिस मुझे नहीं पकड़ सकी।”
“यह यहाँ की पुलिस है, मैं ये रिस्क नहीं ले सकता।”
मैं साफ़ इन्कार कर देता हूँ। वह बहुत बुरा मनाता है। उसी दिन ही हम घर से निकलकर मेन रोड पर आते हैं कि पुलिस का एक सिपाही मेरी कार रोक लेता है। मैं प्रदीप से कहता हूँ -
“इसी बात से डरकर मैंने तुझे कार नहीं दी थी। एक बार फंस गया तो तेरे लिए यहाँ का लायसेंस लेना मुश्किल हो जाएगा। अच्छी बात तो यह है कि तू जल्दी से जल्दी ड्राइविंग टैस्ट पास कर ले।”
मैं उसको ड्राइविंग लायसेंस लेने और टैस्ट देने के बारे में अधिक कुछ नहीं बताता। वह इसलिए कि कहीं वह अभी ही लायसेंस लेने में न लग जाए और सारा खर्चा मेरे सिर पर आ पड़े।
कुछ दिन पश्चात वह पूछता है -
“अंकल जी, हनीमून पर हमें कहाँ भेज रहे हो?”
मेरे से पहले ही अंजू जवाब देती है -
“बेटा प्रदीप, हनीमून पर तो तुझे तेरी ससुराल वाले ही भेजेंगे। आखि़र इतना सुन्दर लड़का यूँ ही तो नहीं मिल जाता। कुछ न कुछ तो खर्च करेंगे ही।”
प्रदीप कुछ नहीं बोलता। मैं कहता हूँ -
“सोचते हैं, तेरे फॉदर-इन-लॉ ज्ञान सिंह के बात कर लेते हैं, कहीं सी-साइड पर चले जाना।”
“अंकल जी, मैं यूरोप जाना चाहता हूँ।”
“तुझे वीज़ा की प्रॉब्लम आएगी। अभी तो तेरे पास इंग्लैंड का ही टेम्प्रेरी वीज़ा होगा।”
मैं दलील देते हुए कहता हूँ, पर मुझे लगता है कि हमेशा की तरह प्रदीप को मेरी यह बात भी पसंद नहीं आई।
(जारी…)