दस दरवाज़े
बंद दरवाज़ों के पीछे की दस अंतरंग कथाएँ
(चैप्टर - अट्ठाइस)
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नौंवाँ दरवाज़ा (कड़ी -3)
मीता : मुझे भी ले चल साथ
हरजीत अटवाल
अनुवाद : सुभाष नीरव
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उससे अगले वर्ष मैं पिता को अपने साथ इंग्लैंड ले जाने के लिए जाता हूँ। मीता कहती है -
“अब बाबा यहाँ नहीं होगा, हम भी माहिलपुर चले जाएँगे। वहाँ बच्चों के लिए स्कूल अच्छे हैं। और फिर अपना घर भी तो संभालना है। वह कस्बा भी रहने के लिए यहाँ से ठीक है।”
“अगर वो जगह रहने के लिए ठीक थी तो पहले आए ही क्यों थे?”
“काम नहीं था न। हम काम की तलाश में आए थे, पर अब टिककर एक जगह बैठना भी तो है। तुम फिक्र न करो, जब तुम्हारा इधर आना होगा, हम उतने समय के लिए यहाँ आ जाया करेंगे। हम महीने बाद आकर तुम्हारा घर देख जाया करेंगे और सफ़ाई भी कर दिया करेंगे।”
कुछ देर रुक कर पुनः बोलती है -
“सच्ची बात तो यह है कि अगर यहाँ रहने की हमें तनख्वाह मिलती रहे तो हम रह भी लें।”
“यह तो भई मेरे वश की बात नहीं, इसके बारे में तो पिता ही कुछ कह सकते हैं।”
मेरे पिता पहले ही उन्हें मुफ़्त में तनख्वाह देने से इन्कार कर चुके हैं।
मीता अपने बच्चों और माँ के साथ माहिलपुर जाकर रहने लग पड़ती है। मुझे वह अक्सर फोन करती रहती है। उसके हर दूसरे फोन में कोई फरमाइश होती है, किसी चीज़ या पैसों की मांग होती है। मैं उसको प्रीती की फीस भेज देता हूँ।
एक दिन उसका फोन आता है।
“कुछ पैसे भेजो, प्रीती की फीस देनी है।”
“पर मैंने तो एक साल की इकट्ठी फीस दे रखी है।”
“स्कूल वाले पूरे साल की फीस एकबार में नहीं लेते। बाकी पैसों से मैंने इसे कपड़े ले दिए थे।”
मैं उसका और फीस भेज देता हूँ।
करीब दो वर्ष बाद मैं इंडिया जाता हूँ। मेरे गांव में पहुँचने पर घर के दरवाज़े खुले मिलते हैं। यही मेरे लिए बड़ी बात है। मीता ने घर की पूरी साफ़-सफ़ाई की हुई है। खाने-पीने का सारा प्रबंध किया हुआ होता है। आए-गए मेहमानों की भी पूरी आवभगत हो रही है। मुझे यह सब बेहद अच्छा लगता है।
मेरा एक मित्र जरनैल मुझे मिलने आता है। व्हिस्की पीते हुए वह मीता के विषय में मुझसे पूछता है तो मैं बताता हूँ -
“यह अपना एक मेहरबान परिवार है। इनके सिर पर ही मैं इस घर में सीधा आ घुसा, नहीं तो किसी होटल में रहना पड़ता।”
“मुझे पता है यार, यह बहुत बड़ी प्रॉब्लम है। तुम जो लोग उधर जा बसे हो, उनके घर तो ढहते जा रहे हैं।”
“यही हमारा दुखांत है!”
“पर एक बात और बताऊँ, तुम एन.आर.आई. लोग मजे बहुत मारते हो।”
“क्या बात हो गई?”
“साठ साल का आदमी होता है और आकर पच्चीस साल की नौकरानी रख लेता है! सारे गांव के एन.आर.आई. सर्दियों में आते हैं, मेरे साले ऐश ही ऐश करते हैं! ”
उसकी बात मुझे अच्छी नहीं लगती, पर मैं जवाब देने के लिए कहता हूँ -
“जरनैल सिंह, यह तो दिल मिले की बातें हैं। यहाँ भी तो बहुत सारे लोग हैं जो अकेले रहते हैं और ऐसी ऐश करते हैं।”
“तेरी बात तो ठीक है, पर आम आदमी नौकरानी रखे तो गांव के लोग उसके नाक में दम कर देते हैं, पर एन.आर.आई लोगों को कोई नहीं टोकता।”
वह अपना पैग खत्म करते हुए धीमे स्वर में फिर कहता है -
“वैसे यह भी बुरी औरत नहीं, बस ज़रा खेली खाई है... तुझे इससे भी यंग मिल सकती है अगर तू चाहे तो।”
“अरे नहीं भाई, मैं ज्यादा लालची नहीं... मैं इससे ही तीन-चार हफ़्ते काम चला लूँगा।”
मैं हँसने की कोशिश करते हुए कहता हूँ।
उससे अगले वर्ष मैं इंडिया नहीं जा पाता, परंतु प्रीती की फीस का इंतज़ाम कर देता हूँ। एक दिन मीता का फोन आता है। कहने लगती है -
“प्रीती ने आठवीं पास कर ली है। पूछती है कि अंकल मुझे पास होने पर क्या लेकर देंगे।”
“उसको समझा कि अंकल ने तो अपने बच्चों को भी कभी कुछ नहीं लेकर दिया।”
“वो भोली है न, बेचारी आस रखती है। कहती थी, मोबाइल फोन मिल जाए तो कितना अच्छा हो।”
“मोबाइल फोन? मैं तो तुझे पहले ही दो दो देकर आया हूँ।”
“वो तो पुराने थे।”
“मीता, इतना सब मुझसे नहीं हो सकता, मेरी मज़बूरियाँ भी समझ। मैं तो तेरी लड़की की फीस ही बड़ी कठिनाई से कर रहा हूँ।”
कहते हुए मैं सोचने लगता हूँ कि शायद प्रीती की फीस देकर मैंने गलती की है। इससे उसकी आशाएँ और बड़ी हो गई हैं।
एक दिन उसका फोन आता है। वह कहती है -
“मुझे जल्दी फोन करो, बहुत ज़रूरी काम है।”
इंडिया से आए हर फोन करने वाले की भाँति मीता भी फोन करके वापस फोन करने के लिए कह दिया करती है। कई बार मैं कहीं व्यस्त होता हूँ या कार चला रहा होता हूँ तो रिटर्न कॉल भी नहीं कर पाता। उसकी उतावली से लग रहा है कि अवश्य कोई ख़ास काम होगा। मैं फोन करता हूँ। वह कहने लगती है -
“बात ध्यान से सुनना, मुझे एक रिश्ता आ रहा है, डांसीआल से।”
“अच्छा! ”
“एक बंदा है जीत सिंह। मैंने कुछ दिन उसके घर में काम किया था। उसके लड़के-लड़कियाँ ब्याहे हुए हैं। घरवाली पिछले साल मर गई थी। वह मेरे साथ विवाह करवाने को तैयार है।”
“अच्छा!”
“उसकी बहन ही करा रही है यह रिश्ता। बहुत अच्छी है बेचारी। मेरी किसी सहेली की वह बहन बनी हुई है।”
“अगर हो जाए तो अच्छी बात है, तेरे भी चाव पूरे हो जाएँ।”
“मैंने उसको तुम्हारे बारे में बताया था। प्लीज़, तुम जीत सिंह को फोन कर लो। उधर से तुम ज़ोर लगाओ और इधर से हम... प्लीज़, मेरा यह काम पूरा करवा दो।”
वह मुझे एक नंबर लिखवाती है। यह नंबर बर्मिंघम का है। मैं सोचने लगता हूँ कि भला कौन है ये जीत सिंह।
इस सबके बारे में सोचकर मुझे अजीब-सा लगने लगता है। मैं इस जीत सिंह को कैसे फोन करूँगा। यदि करूँगा भी तो क्या कहूँगा। कई दिन मुझे इस बारे में सोचते हुए ही निकल जाते हैं। तब तक मीता का फिर फोन आ जाता है और वह पूछने लगती है कि जीत सिंह को मैंने फोन किया या नहीं।
मैं काफ़ी देर सोचकर फोन करता हूँ। उधर से कोई बुजु़र्ग-सा आदमी ‘हैलो’ कहता है।
“मुझे जीत सिंह के साथ बात करनी है।”
“बोलो जी, मैं ही हूँ जीत सिंह।”
“मुझे इंडिया से फोन आया है, मीता के बारे में।”
“हाँ, उसने तुम्हारा जिक्र तो किया था, कोई रिश्तेदारी है?”
“नहीं, रिश्तेदारी नहीं। वह हमारे घर काम किया करती है। जब भी मैं इंडिया जाता हूँ, वह खाना बनाती है। मुझे पता चला कि आपके साथ कोई बात हुई है।”
“देखो जी, वहाँ तो लोग इंग्लैंड आने के लिए हर हथकंडा इस्तेमाल करना चाहते हैं। पागलों की तरह पीछे पड़ जाते हैं। इसे भी पता लग गया कि मेरी पत्नी पूरी हो गई है। बस, यह लड़की तो मेरे पीछे ही पड़ गई।”
“मुझे तो पता चला कि रिश्ते के लिए आप हाँ कह आए हो।”
“रब का नाम लो जी। मैं पोतों-दोहतों वाला बंदा, इस लड़की ने चार दिन मेरी रोटी क्या बना दी, मेरा वहाँ रहना कठिन कर दिया।”
कहते हुए वह फोन रख देता है। मैं सारी बात मीता को बता देता हूँ। उसके हुंकारे से लगता है जैसे उसे मेरी बातों पर यकीन न हो।
अगली बार मैं इंडिया जाता हूँ। मीता और उसका लड़का दीपा मेरे पहुँचने से पहले ही घर खोलकर बैठे होते हैं। मीता अब बूढ़ी हो रही है, पर देह उसकी पहले जैसी ही है। इस बार मैं सबके लिए कुछ न कुछ ले जाता हूँ। प्रीती के लिए नई किस्म का टच फोन भी। फोन देखकर मीता खुश हो जाती है और कहती है -
“प्रीती तो देखकर खूब खुश होगी, यही फोन वो मांगती थी।”
अगले दिन वह ज़रा गुस्से-से में कहती है -
“कल से तुमने एकबार भी प्रीती के बारे में कुछ नहीं पूछा कि क्या हाल है उसका, पढ़ाई कैसी है उसकी।”
“देख मीता, ये चिंताएँ तेरी हैं। तू उसकी माँ है। मैं तो यही चाहता हूँ कि वह पढ़ जाए, इससे ज्यादा और कुछ नहीं।”
“पर वो बेचारी तो तुम्हारी ही राह देखे जाती है। तुम मेरे साथ माहिलपुर चलो। उसने घर की पूरी सफ़ाई की हुई है। कहती है कि अंकल के आने पर घर चमकना चाहिए।”
“देखेंगे, अगर वक्त मिला।”
“बहुत सुन्दर निकल आई है, छमक जैसी।”
मैं उसकी बात पर अधिक ध्यान नहीं देता।
एक दिन वह कहने लगती है -
“मेरी तो उम्र निकल गई इंग्लैंड जाने का सपना देखते हुए...।”
“मीता, तुझे पचास बार बता चुका हूँ कि अगर मेरे वश में होता तो ज़रूर कुछ करता।”
“पर देखो, मैंने तुम्हारे साथ वफ़ा निभाई है। इतने साल हो गए तुम्हारे सिवा किसी दूसरे की ओर देखा तक नहीं।”
“तूने फिर वही कहानी शुरू कर ली।”
मैं गुस्से में आकर कहता हूँ। वह बोलती है -
“मैं सब जानती हूँ, जो कुछ तुम कहना चाहते हो। जो भी तुम्हारे दिल में है।”
“क्या?”
“यही कि तुम्हारा-मेरा संबंध ज़रूरत का है। तुम्हें मेरी देह की ज़रूरत है और मुझे पैसे की... मैं समझती हूँ यह सब, पर मेरे हालात अब बहुत बदल गए हैं।”
पहली बार मीता इतनी गंभीर होकर बात कर रही है। वह फिर कहती है -
“मेरे हालात पहले जैसे नहीं रहे। अब मैं बूढ़ी हो गई हूँ। ये देखो, बालों में सफे़द चाँदी चमकने लगी है।”
वह बालों की एक लट हाथ में पकड़कर दिखलाती है। मैं कहता हूँ -
“यह उम्र की घड़ी तो सभी तरफ एक जैसी ही टिक-टिक किया करती है।”
“पर जो औरत होती है, वह अंदर से जैसी मर्ज़ी हो, पर जल्दी ही बूढ़ी दिखने लग पड़ती है और मर्द को पसंद आनी बंद हो जाती है। लेकिन मर्द बूढ़ा होकर भी बूढ़ा नहीं होता।”
“नहीं, मर्द के साथ भी होता है। अब मेरे बच्चे भी बड़े हो गए हैं। मेरा बेटा तो मेरे से भी एक बिलांद ऊँचा हुआ पड़ा है।”
“चलो, तुम्हारे बच्चे तो इंग्लैंड में है। यहाँ की बातें और हैं। अब मैं इस लड़के का क्या करूँ, एकदम निकम्मा, बिल्कुल अपने बाप जैसा निकला।”
“इसे समझा-बुझाकर लगाओ किसी तरफ।”
“बड़ा माथा मार चुकी हूँ... ऊपर से मेरे खर्चे बढ़ गए हैं। लड़की भी अब शादी लायक हुई खड़ी है।”
“मीता, तेरी बेटी ब्याहने में मैं थोड़ी-बहुत मदद कर दूँगा, तू इसके लिए कोई लड़का तलाश।”
“मेरा तो तुमने कुछ नहीं किया, प्रीती को ही किसी तरीके से बाहर ले जाओ।”
बात करती वह दोनों हाथ जोड़ लेती है। मुझे गुस्सा भी आ रहा है और दया भी। मैं उसकी बात का कोई उत्तर नहीं देता।
मीता की बातों में से अब हँसी-मजाक लुप्त हो चुका है। यूँ तो गंभीर बनी मीता अच्छी लगती है, पर उससे एक भय-सा भी आता है कि पता नहीं वह क्या कह दे, पता नहीं वह कौन-सी मांग रख दे। एक शाम मैं खाना खाने की तैयारी कर रहा हूँ। रोटी तैयार करके मीता मेरे करीब आ बैठती है। अपने हाथ से मेरे लिए एक पैग बनाती है। मैं रोटी खाने लगता हूँ। वह मेरे कंधे पर हाथ फेरते हुए कहती है -
“मेरे खर्चे बहुत हैं और आमदनी कोई है नहीं और तुम भी पूरी मदद नहीं कर रहे।”
“मीता, मैं इतना ही कर सकता हूँ, इससे ज्यादा नहीं।”
“तुम्हारी यह बात मैं नहीं मानती। इंग्लैंड में तो खाली बैठों को भी तनख्वाह मिलती है। तुम मुझे सौ पौंड भी महीने के भेजो तो तुम्हारे लिए कोई मायने नहीं रखते, पर मेरा घर पूरा हो जाएगा।”
“ऐसा कुछ भी नहीं है। पता नहीं ये फिजूल की कहानियों तुझे कौन सुनाता रहता है।”
“मैंने सारे हिसाब लगा रखे हैं। तुम शराब की बोतल रोज़ पीते हो, दस पौंड की बोतल, महीने में तीन सौ पौंड की शराब, उस तीन सौ में से काटकर कुछ मुझे क्यों नहीं भेज सकते?”
“बंद कर ये मूर्खों वाली बात।”
मैं क्रोध में आकर कहता हूँ। लेकिन वह मेरे गुस्से की परवाह न करते हुए अपनी बात जारी रखती है -
“मैं समझती हूँ कि मैं पहले जैसी नहीं रही। तुम्हारे जैसा मर्द जो रंग-बिरंगी दुनिया देखता हो, मुझे कैसे पसंद करेगा।”
मैं उसकी बात का कोई जवाब नहीं देता। कुछ देर बाद वह फिर बोलती है -
“एक बार तुम चलकर प्रीती को देखो तो सही, मेरे से कहीं अधिक जवान और सुन्दर! मेरे से चार उंगल लंबी होगी, शहतूत की छमक जैसा पतला शरीर!... एक बार देखोगे तो उस पर से आँख न हटा सकोगे... तुम एक बार हाँ करो... मैं तुम्हारे लिए प्रीती को...।”
वह बात बीच में ही छोड़ देती है। मेरे हाथ वाला पैग हाथ से छूटकर नीच गिर पड़ता है और हिचकी आ जाने से खाया-पिया सब निकल जाता है।
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तो ‘मातृभारती’ के प्रिय पाठको… आख़िर आप ‘दस दरवाज़े’ के अंतिम दरवाज़े तक पहुँच ही गए। यह दर्शाता है कि आपको इन बंद दरवाज़ों के पीछे की अंतरंग कथाएँ खूब भा रही हैं… तभी तो आप चलकर यहाँ तक पहुँचे… तो अब देर किस बात की… अगली किस्त में हम खोलने जा रहे हैं अंतिम दसवाँ दरवाज़ा और उसके पीछे की दिलचस्प अंतरंग-कथा आपसे मुखातिब होगी… क्या है वह, जानने के लिए अवश्य पढ़ें अगली किस्त…