दस दरवाज़े
बंद दरवाज़ों के पीछे की दस अंतरंग कथाएँ
(चैप्टर – सत्ताइस)
***
नौंवाँ दरवाज़ा (कड़ी -2)
मीता : मुझे भी ले चल साथ
हरजीत अटवाल
अनुवाद : सुभाष नीरव
***
मैं पिता से मिलने अस्पताल जाता हूँ। उनकी सेहत में सुधार हो रहा है। अब मीता अस्पताल नहीं जाती और वहाँ रुकने वाले लड़के भी पता नहीं किधर उड़न-छू हो जाते हैं। गांव के एक निठल्ले-से लड़के को मैं अस्पताल में रहने के लिए पैसे देता हूँ। दसेक दिन बाद पिता अस्पताल से घर आ जाते हैं, पर अभी वह चलने-फिरने योग्य नहीं हैं। मीता उनकी सेवा में व्यस्त हो जाती है। मैं देखता हूँ कि वह काफ़ी काम कर रही है, पर साथ ही साथ कुछ दिखावा भी करने लगती है।
एक शाम इकबाल आता है और हँसते हुए पूछता है -
“क्यों बड़े भाई, तोता टाहली(शीशम का पेड़) पर टहकता है?”
“खूब! आ जा बैठ जा। मैं सोचता था कि मीता को भेजकर तुझे बुला लूँ, दोनों भाई बैठकर दो दो पैग लगाते हैं।”
तब तक मीता हमारे पास आ जाती है। मैं उसको गिलास और पानी लाने के लिए इशारा करता हूँ। इकबाल कहता है -
“तेरे तो भाई ये काबू में आ गई।”
“इस बात में तेरा भाई माहिर है।”
“वैसे गांव में इस पर कई लोग ट्राई मार चुके हैं, पर हाथ नहीं आई।”
इकबाल बात करते हुए चली आती मीता की ओर भी देखे जाता है। वह हमारे खाने-पीने का सामान मेज़ पर रख जाती है। मैं पैग बनाते हुए कहता हूँ -
“ बाहर से जितना मुश्किल दिखाई देती है, उतना ही इसे वश में करना आसान है।”
इकबाल व्हिस्की का बड़ा-सा घूंट भरता है और उसकी नज़रें एकबार फिर मीता का पीछा करने लगती हैं। मैं उससे पूछता हूँ -
“कोई सहेली-वहेली रखी हुई है कि नहीं?”
“कहाँ यार! और फिर ये कौन-सा लंदन है कि कोई कुछ कहेगा नहीं। यहाँ लोग पीटते भी बहुत हैं।”
कहकर वह हँसने लगता है। कुछ देर बाद वह फिर कहता है -
“बाकी बड़े भाई, कुछ किस्मत की भी बातें होती हैं। अब तेरे जैसी किस्मत तो सबकी हो नहीं सकती।”
वह फिर हँसता है। मैं भी उसका साथ देता हूँ। कुछ देर बाद वह बताने लगता है -
“पिछले साल ऊँचे टीले वालों का बलवंत मुझे मिला था। तेरे बारे में कहता था कि जब भी तुम्हारा बंदा मिलता है, उसके साथ एक नई ही औरत होती है।”
मैं मन ही मन बलवंत को बड़ी-सी गाली देता हूँ। इकबाल अपनी बात कहकर चुप हो जाता है। शायद वह मेरा उत्तर सुनना चाहता है। मैं अपना पैग खत्म करता हूँ और अपने हाथ की लकीरों को देखते हुए कहने लगता हूँ -
“छोटे भाई, देख मेरे हाथ की ये लकीरें... देख, गिनी नहीं जातीं। कहते हैं कि ये तुम्हें मिलने वाली औरतों की लकीरें होती हैं।”
इकबाल अपना हाथ देख हँसते हुए कहता है -
“यार, दो-एक मेरे हाथ में भी बना दे! ”
उसकी बात पर हम दोनों ही ताली बजाकर हँसते हैं। फिर मैं बताने लगता हूँ -
“पता नहीं, साली किस्मत है या कुछ और, मेरे हालात ही ऐसे रहे कि कोई न कोई औरत खुद चलकर मेरे तक पहुँचती रही है... छोटे भाई, इसके बारे में मैं तुझे एक कहानी सुनाता हूँ।”
इकबाल मेरी बात को ध्यान से सुनने के लिए मेरी तरफ मुँह कर लेता है। मैं बताने लगता हूँ -
“कहते हैं कि जब ईश्वर ने महकमे बांटे तो पानी का महकमा इंदर को दे दिया। इसी तरह प्रकाश का महकमा सूरज देवता को और विद्या का सरस्वती को, धन का लक्ष्मी को और ऐसे ही काम-देवता कृष्ण को बना दिया गया। कृष्ण के बाद उसने इसके कई मंत्री बदले, पटियाला का राजा भी ऐसा ही एक मंत्री था। अब ईश्वर ने ‘काम’ की अधिकता देखकर इसका महकमा कई मंत्रियों में बांट रखा है। बस, समझ ले कि मैं भी ईश्वर का इसी तरह का छोटा-सा मंत्री हूँ।“
इस बात पर हम दोनों खूब हँसते हैं। मीता अंदर आती हुई पूछती है-
“क्या हुआ?”
हम उसकी बात का कोई उत्तर नहीं देते। इकबाल कहता है -
“बड़े भाई, और तो कुछ नहीं, ये ऐसी लकीरें तो मेरे हाथ में भी डाल ही दे।”
मैं मीता को बांह से पकड़कर चारपाई पर बिठाते हुए कहता हूँ -
“देख, मेरे छोटे भाई का ध्यान रखा कर।”
“लो जो, मैं तो इकबाल भाजी की बहुत इज्ज़त करती हूँ, बिल्कुल सगे भाइयों जैसी।”
एकबार फिर कमरे में हँसी बिखर जाती है। इकबाल कहता है -
“लो जी, कर लो घी को घड़ा! वो कहते हैं न कि वो तो कान फड़वाने को घूमता है और वो राखी बाँधने को।”
इकबाल के चले जाने के बाद मीता मेरे पास आती है और आँखें भरकर कहती है -
“तुमने मुझे क्या समझा है! मैं कोई ऐसी लड़की हूँ! ”
“ओ पगली, मजाक की बात थी, तू यूँ ही गुस्सा कर गई।”
उसका गुस्सा मैं बड़ी मुश्किल से ठंडा करता हूँ।
एक दिन मीता की माँ कहती है -
“काका, कल हम सभी ने अपने गांव जाना है, अपना घर देखने। बरसात का मौसम करीब है, कहीं टपकने ही न लग जाए।”
“कोई बात नहीं, आप चले जाओ, हम काम चला लेंगे।”
मैं कहता हूँ। कुछ देर बाद मीता आकर कहती है -
“मम्मी तो यूँ ही मारे जाती है, हमें कहीं नहीं जाना। तुम्हारे जाने के बाद ही जाएँगे।”
मैं जितने दिन वहाँ रहता हूँ, मीता हर समय घर पर ही रहती है। मेरी पूरी सेवा करती है। पिता की भी बढ़िया देखभाल हो रही है। मुझे लगता है कि उन लोगों के होते किसी किस्म की चिंता की ज़रूरत नहीं। मैं उसको स्कूटरी ले देता हूँ। पिता की देखरेख के बदले कुछ तनख्वाह भी बाँध देता हूँ।
एक दिन वह कहने लगती है -
“वापस जाने से पहले मुझे कहीं घुमा ही लाओ।”
“कहाँ?”
“कहीं भी, शिमला, दिल्ली, गोवा।”
“नहीं मीता, इसबार मेरे पास इतना वक्त नहीं... फिर घूमने जाने के लिए मूड भी होना चाहिए।”
“मूड! मेरा तो बहुत मूड है। सब जाते हैं, सिर्फ़ में ही कहीं नहीं गई।”
“अगली बार देखेंगे।”
मैं टरकाने के उद्देश्य से कहता हूँ। सोचता हूँ कि इसको कहाँ लेता घूमूँगा। कोई दोस्त देखेगा तो क्या कहेगा।
मेरे जाने का दिन निकट आता है तो वह कहती है -
“मैं तुम्हें छोड़ने के लिए एअरपोर्ट जाऊँगी।”
“नहीं, यह नहीं हो सकेगा।”
“क्यों, तुम मुझे पसंद नहीं करते?”
“बात पसंद की नहीं, वहाँ मेरे बहुत सारे दोस्त होंगे। वे सब तुझे लेकर तरह तरह के सवाल पूछेंगे।”
कुछ देर बाद वह पूछती है -
“इंग्लैंड जाकर मुझे याद करोगे?”
“शायद।”
“शायद क्यों? मैंने तुम्हें इतना खुश किया है।”
“वो तो तेरा शुक्रिया, पर मेरी लाइफ बहुत बिजी है। हर समय दौड़ भाग।”
“अगर किसी को याद करना हो तो बंदा काम करते करते भी कर लेता है।”
“तेरी यह बात भी ठीक है, फिर तो तू याद आएगी ही।”
“मुझे इंग्लैंड भी बुलाओगे?”
“नहीं मीता, मुझसे ऐसी कोई आस न रखना।”
“क्यों?”
“जो बात मेरे वश में ही नहीं, वह कैसे कर सकता हूँ।”
“आलिया को ले गए थे, मैं उससे बुरी तो नहीं हूँ।”
“आलिया के समय तो पैर नीचे बटेर आने वाली बात हो गई थी।”
“मैं जानती हूँ, पागल बंदा था, पर वो अभी भी तो होगा ही।”
“वो मेरा ख़ास दोस्त था। हम इस बारे में बात न करें तो ही ठीक होगा।”
मुझे उस पर गुस्सा आने लगता है। चलते समय मेरा गुस्सा ठीक हो जाता है। मैं सोचने लगता हूँ कि शेष स्त्रियों की अपेक्षा इसमें ऐसा कौन-सा फर्क़ है जो इसको विशेष बना रहा है। फिर सोचता हूँ कि मुझे तो हर औरत ही विशेष लगती है।
अगले वर्ष मैं फिर इंडिया की तैयारी करने लगता हूँ। आमतौर पर मैं हर वर्ष नहीं जाया करता, पर अब मीता मेरे लिए इंडिया जाने का कारण बन जाती है। मैं अपने पिता को फोन पर अपने आने के बारे में बताता हूँ। मीता का फोन आ जाता है। वह अपने लिए और अपने बच्चों के लिए ढेर सारी वस्तुओं की मांग रख देती है। इतना कुछ ले जाना मेरे लिए संभव नहीं। मैं उसका मुँह रखने के लिए कुछ चीज़ें ले जाता हूँ।
मीता और उसके बच्चे बेसब्री से मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। मेरे गांव पहुँचते ही वे खुश हो जाते हैं। वे मेरे अटैची के इर्दगिर्द घूमे जा रहे हैं। मैं अटैची खोलकर मीता को उसका सामान दे देता हूँ। वह उसको देखकर अधिक प्रसन्न नहीं है। कहने लगती है -
“मेरे बच्चों के लिए तो कुछ नहीं लाए... लड़के के लिए न सही, पर प्रीती के लिए कुछ ले आते, यह बेचारी तुम्हारी बहुत बातें किया करती है।”
“देख मीता, मेरी भी मज़बूरियाँ हैं, मेरी सारी शॉपिंग मेरी घरवाली किया करती है। फिर तुझे पता है कि पत्नियाँ भी पचास सवाल किया करती हैं और उनकी सुननी भी पड़ती है।”
वह चुप-सी है मानो मेरी बात का उसको यकीन न हो। मैं जेब में से कुछ पैसे निकालकर देते हुए कहता हूँ -
“जा, अपने बच्चों को कुछ ले दे, शहर जाकर। आजकल यहाँ भी वो सब चीज़ें मिलती हैं जो वहाँ हैं।”
वह खुशी-खुशी पैसे पकड़ लेती है।
मैं एक महीना रहता हूँ। सबकुछ पिछली बार जैसा ही है। वह मेरे नहाने के लिए पानी गरम करती है, दातुनें घड़कर रखती है, खाने-पीने का ध्यान रखती है। एक दिन मेरे पिता कहते हैं -
“इन्हें ज्यादा पैसे न देते रहना, इनका रहना, रोटी-पानी सब मुफ्त है और ऊपर से तनख्वाह भी।”
मीता बार-बार अपने बच्चों को मेरे पास लाकर छोड़ देती है। बच्चे भी बहुत तेज़ हैं। मुझसे छोटे-छोटे सवाल पूछकर मेरा ध्यान खींचने की कोशिश करते रहते हैं। नशे की रौ में तो बेशक मैं उनके साथ बात कर लूँ, परंतु दिन के समय मैं उन्हें अपने पास से चले जाने के लिए कह दिया करता हूँ।
मीता की बाकी बातें तो ठीक हैं, पर इंग्लैंड जाने की उसकी मांग अभी भी ज्यों की त्यों है। वह यह मांग इतनी बार दोहराती है कि मुझे उकताहट होने लगती है। एक दिन वह कहती है -
“अब तुम मुझे खर्चा लगातार भेजा करो।”
“मेरे लिए यह इतना आसान नहीं मीता।”
“देखो, मैंने तुम्हारे लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। मैं तुम्हारे आने की बेसब्री से प्रतीक्षा करती हूँ। तुम मुझे अगर रखेल भी समझो तो भी मेरे कुछ हक़ बनते हैं।”
उसकी बात सुनकर मुझे झटका-सा लगता है। ऐसा तो मैंने कभी सोचा ही नहीं। मैं कहता हूँ -
“मीता, मेरे साथ किसी किस्म का रिश्ता न जोड़।”
“अपने बीच कुछ न कुछ तो है, फिर उसको क्या कहें?”
“मीता, ये ज़रूरतें हैं, कुछ तेरी और कुछ मेरी।”
“मैं तो समझती हूँ, पर प्रीती नहीं समझती। वह मुझसे बहुत सवाल करती है।”
“मीता, मुझे नहीं पता कि तू दिल में क्या सोचे बैठी है, पर न तो तू अपने दिल में किसी प्रकार का भ्रम पाल और न ही बच्चों के मन में।”
मैं कहता हूँ। वह आँखें भर लेती है। कुछ देर बाद कहती है -
“मेरे बच्चों ने अपना बाप नहीं देखा, वे तुम्हें ही अपना सब कुछ समझे बैठे हैं।”
“मीता, ज़रा अक्ल कर! तू कैसी बातें किए जाती है! ”
वह कुछ बोले बग़ैर उठकर चली जाती है। मुझे लगता है, वह किसी ढंग से मुझे बंधन में बाँध लेना चाह रही है। मुझे उस पर गुस्सा भी आने लगता है। दिल करता है कि इससे एकदम पीछा छुड़ा लूँ।
एक दिन वह कहती है -
“अगले साल प्रीती हाई स्कूल में चली जाएगी। हाई स्कूल की फीस ही बहुत है।”
“ठीक है मीता, मैं तेरी लड़की की फीस देता रहूँगा। उसकी हाई स्कूल की पढ़ाई मैं करवा दूँगा।”
इस पर वह खुश तो है, पर अधिक नहीं।
एक दिन मुझसे कहती है -
“मुझे एक बात पूछनी है, अगर गुस्सा न करो।”
“पूछ ले जो पूछना है, कोई अक्ल की बात तो तू करेगी नहीं। इंग्लैंड जाने के अलावा तुझे कुछ सूझता नहीं।”
मैं हँसता हुआ कहता हूँ। वह कहती है -
“सच बात है, भूखे के सामने रखी हर बात का जवाब रोटी ही होता है।”
“जल्दी पूछ, क्या पूछना है।”
“कसम खाओ कि गुस्सा नहीं करोगे।”
“यार, तू चुप होकर पूछ जो पूछना है।”
मैं खीझकर बोलता हूँ। वह डरी-सहमी-सी कहने लगती है -
“हमें तुम्हारी बड़े भाई के ससुरालवालों से पता चला था कि तुम्हें अपनी घरवाली पसंद नहीं, इसलिए तुमने बाहर दूसरी औरतें रखी हुई हैं।”
“अच्छा! और क्या क्या पता चला मेरे बारे में?”
“यह कि जब तुम्हारी घरवाली इंग्लैंड गई तो तुमने एक गोरी रखी हुई थी।”
“और?”
“और यह कि अगर एक दिन मुझे भी ले जाओ तो सारी उम्र सेवा करूँगी।”
कहकर वह जल्दी से उठकर चली जाती है। मैं अपना सिर पकड़कर रह जाता हूँ। मैं मीता से बहुत खफ़ा हूँ, पर साथ ही साथ यह भी सोच रहा हूँ कि ये मेरे अपने बोये हुए कांटे ही तो हैं।
(जारी…)