Das Darvaje - 26 in Hindi Moral Stories by Subhash Neerav books and stories PDF | दस दरवाज़े - 26

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दस दरवाज़े - 26

दस दरवाज़े

बंद दरवाज़ों के पीछे की दस अंतरंग कथाएँ

(चैप्टर - छब्बीस)

***

नौंवाँ दरवाज़ा (कड़ी -1)

मीता : मुझे भी ले चल साथ

हरजीत अटवाल

अनुवाद : सुभाष नीरव

***

मेरा फोन घनघनाने लगता है। इंडिया का नंबर है। मैं चिंतित हो जाता हूँ। मन ही मन दुआ करता हूँ कि पिता ठीक हों। मेरा चचेरा भाई इकबाल उदास आवाज़ में बोलता है -

“जल्दी आ जा भाई, ताया सीरियस है।”

“क्या बात हो गई?”

“कोई दौरा-सा पड़ गया है और आवाज़ बंद हो गई है। हम अस्पताल लेकर आए हुए हैं। डॉक्टर ज्यादा यकीन नहीं दिला रहा।”

कहकर वह फोन बंद कर देता है। मैं उसी वक्त ट्रैवल एजेंट को फोन करके सीट बुक करवा लेता हूँ। मेरा ध्यान तो पहले ही पिता की ओर रहता है। उनसे मैं अक्सर कहता रहता हूँ कि यहाँ हमारे पास इंग्लैंड में आ जाओ, पर यहाँ आकर रहना उन्हें पसंद नहीं है। उन्हें रहने के लिए अपना गांव, अपना भाईचारा ही अच्छा लगता है। मैं ऐसे वक्त से ही डरता हूँ कि अचानक उनकी तबीयत खराब हो गई तो मैं क्या करूँगा।

फगवाड़े का एक अस्पताल। पिता नीम बेहोशी की हालत में पड़े हैं। आसपास सारे गांव के कई लड़के इकट्ठा हुए खड़े हैं। इनमें से अधिकांश को मैं जानता भी नहीं हूँ। मेरे से बाद की पौध है, पर मुझे बहुत अच्छा लगता है कि गांव वाले मेरी अनुपस्थिति में पिता की इतनी देखरेख कर रहे हैं। वे सभी मेरे से पिता के बीमार होने का दुःख साझा करते हैं। मैं भी इस सेवा करने के लिए उनका धन्यवाद करता हूँ। इन लड़कों में एक अनजान-सी लड़की भी है जो कि बहुत ही हँस-हँसकर बातें कर रही है। बीच-बीच में वह मेरी ओर भी ध्यान से देखने लगती है। मैं डॉक्टर से पिता की स्थिति के बारे में जानकारी लेता हूँ। वह बताता है कि संकट की घड़ी टल गई है, पर कमज़ोरी बहुत है। आहिस्ता-आहिस्ता ही जाएगी। इकबाल बताने लगता है -

“बड़े भाई, समय पर देखभाल हो गई। सारा गांव ही इकट्ठा हो गया था। हम एकदम यहाँ ले आए, पर जब लाए तो डॉक्टर भर्ती करने से आना-कानी करने लगा... चलो, रब ने हाथ देकर ताया को बचा लिया।”

“बढ़ी थी किस्मत में। अब नहीं छोड़ना यहाँ, ज़रा चलने-फिरने लायक हो जाएँ तो संग ले जाऊँगा।”

“अब फिर से खड़े होने में तो टाइम लगेगा।”

“चलो, जब भी सेहत ठीक हुई तो देख लेंगे... पर ये अपने गांव के लड़के बड़े अच्छे हैं, बुजु़र्ग की खूब सेवा करते हैं।”

“किस बात के अच्छे हैं साले!... ये रेवड़ तो मीता की वजह से है।”

उसका संकेत उनके बीच घूमती-फिरती लड़की की ओर है। मैं पूछता हूँ -

“यह क्या चीज़ है भई?”

“तुझे नहीं पता?”

“नहीं।”

“मुझे तो लगा शायद ताया ने तुझे बता रखा होगा। यह साथ वाले गांव में पढ़ाती है, नर्सरी में।”

“पर यहाँ क्या करती है?”

“इसको ताया ने किराये पर रखा हुआ है, घर में एक कमरा दिया हुआ है। वही जो रामलाल के पास हुआ करता था, वो काम छोड़ गया था और ताये को रोटी पकाने के लिए किसी की ज़रूरत थी। बस, सबब बन गया। ये मीता कहीं से चलती-फिरती आ गई।”

“फिर तो घर की मुर्गी ही हुई! पर ये इतने लड़के इसके पीछे क्यों घूमते फिरते हैं! तुझे क्या हुआ? तू क्यों नही संभालता इसे? ”

“ट्राई तो मारी थी यार, पर मानी नहीं साली।”

“ये लड़के तो साले गुड़ के इर्दगिर्द मक्खियों की तरह चिपटे फिरते हैं।”

“इन लड़कों को भी यह मुस्कराकर टरकाने का काम करती है, किसी के हाथ नहीं आई अभी तक।”

“अपने गांव की ही है?”

“नहीं, माहिलपुर से आई है। इसका पति होशियारपुर में किसी के लिए दुकान पर काम करता था, छोड़ आई। दो बच्चे हैं, एक माँ भी साथ है”

इकबाल उसके विषय में मुझे पूरी जानकारी दे देता है।

पिता की सेहत अभी पूरी तरह ठीक नहीं है। कुछ दिन और अस्पताल में रहना पड़ेगा। मैं वहाँ बैठे लड़कों से कहता हूँ -

“लो भई छोटे भाइयो, तुमने बुजु़र्ग की सेवा की, इसके लिए शुक्रिया। अब तुम आराम करो। मैं बुजु़र्ग के पास रह लूँगा, रात को भी।”

“नहीं भाजी, हमारे होते आप रात में क्यों रहेंगे। आप घर जाकर आराम से सोओ, हम जो हैं। आज की रात मैं और गोपाल यहाँ रहेंगे।”

एक लड़का बड़े अपनत्व में कहता है। मुझे वह अच्छा लगता है। अन्य करीब चारेक लड़के भी एक तरफ बैठे हुए हैं। मैं उन्हें दो बोतलों और रोटी खाने लायक पैसे देता हूँ। उनसे अलविदा लेता गांव की ओर चलने लगता हूँ तो मीता कहती है -

“भाजी, मैं भी तुम्हारे साथ ही जाऊँगी। तुम्हारी रोटी भी पकानी है और सोने का इंतज़ाम भी करना है।” कहकर वह कार में आ बैठती है। सभी लड़कों का मुँह अजीब-सा हो जाता है। मैं और इकबाल एक-दूजे की ओर देखकर मुस्कराने लगते हैं।

मैं मीता की ओर गौर से देखता हूँ। वह लड़की नहीं बल्कि तीसेक साल की औरत है, पर लगता है, उसने अपने जिस्म को संभालकर रखा हुआ है। ठोस और सुडौल शरीर मानो कपड़ों में से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा हो। घुंघराले बालों की दो-एक लटें उसके चेहरे पर गिर रही है जिन्हें वह सिर हिलाकर बार-बार पीछे फेंकने का यत्न करने लगती है। वह मेरे संग ऐसे बातें करने लगती है जैसे कोई पुरानी परिचित हो। घर पहुँचकर वह मेरे नहाने के लिए पानी गरम करती है। मेरा बिस्तर लगा देती है। पीने के लिए पानी का गिलास मेरी मेज़ पर रख जाती है और साथ ही सलाद की प्लेट भी। फिर, मेरे से पूछकर खाना तैयार करने में व्यस्त हो जाती है।

उसकी बूढ़ी माँ मुझे आशीषें देती फिरती है। उसके बेटा और बेटी दोनों दौड़े फिरते हैं। वे मेरे पास भी बेझिझक आ बैठते हैं मानो मुझे जानते हों, पर मैं बच्चों के साथ अधिक नहीं खुलता। बच्चों के संग बातें करना मुझे वैसे भी पसंद नहीं, ख़ासतौर पर पराये बच्चों के साथ। मीता घर में काम करती ऐसी दौड़े फिरती है मानो चाबी देकर छोड़ रखी हो। खाना भी बढ़िया तैयार करती है। काम करती कभी-कभी वह मेरी ओर देख लेती है। उसकी दृष्टि से मैं अंदाज़ा लगाने लगता हूँ कि उसके दिल में क्या है। जब मैं खाना खा रहा होता हूँ, वह मेरे करीब आकर बैठ जाती है और मेरे परिवार को लेकर बातें करने लगती है। मेरे बड़े भाई के बारे में विशेष तौर पर पूछती है। वह ऐसे खुलकर बातें कर रही है जैसे बहुत पुरानी परिचित हो। बात करते-करते कोई अन्य बात याद आ जाने की तरह कहने लगती है -

“भाजी, जो तुम हमीदे की लड़की इंग्लैंड ले गए थे, तुम्हारे पास ही रहती है?”

“नहीं, किसी और शहर में रहती है।”

“अब तुम्हें मुझे लेकर जाना पड़ेगा।”

“नहीं मीता, यह कैसे हो सकता है?”

“यह मुझे नहीं पता, बाबा ने हमारे साथ वायदा किया हुआ है।” वह कहते हुए पानी लेने चली जाती है।

भोजन करके मैं सोने की तैयारी करने लगता हूँ। मीता बैठक में मेरा बिस्तर लगा देती है। पानी का जग मेरे सिरहाने रखने आती है तो मैं उसको धीमे-से कहता हूँ -

“बच्चे सो जाएँ तो आ जाना, बातें करेंगे।”

“नहीं जी नहीं, लोग तो मुझे पहले ही टिकने नहीं देते। मेरी मम्मी भी जागती रहती है और बच्चे मेरे बग़ैर सोते नहीं।”

“चल, तूने नहीं आना तो न आ, पर अपने बच्चे तो अपनी माँ के साथ सुलाया कर ताकि तेरी रात खाली रहे।”

मेरी बात पर वह हँसने लगती है और कहती है -

“तुम तो बड़े खराब हो। बाबा तो कहता था कि मेरा बेटा बड़ा भोला है।” बात करते हुए वह बर्तन उठाकर ले जाती है।

करीब आधी रात को मैं महसूस करता हूँ कि मेरे साथ कोई लेटा है।

सवेरे नींद खुलती है तो बाहर बर्तन बज रहे हैं। मैं गुसल जाकर वापस आता हूँ तो मीता कहने लगती है -

“अपने आँगन में कागज़ी नींबुओं का बूटा है, कहो तो शिकंजवी बनाऊँ?”

“और क्या चाहिए। बना ले जग भरकर, थोड़ी कसक ठीक हो।”

वह मिनटों में शिकंजवी बनाकर लाती है और फिर पूछती है -

“तुम कीकर के दातुन करना चाहोगे?”

“कीकर के दातुन! वाह!”

मेरा मन खुश हो जाता है। कितने बरस हो गए होंगे कीकर का दातुन किए। हमारे आँगन में ही कीकर भी है और नीम भी, पर दातुन को लेकर मैंने कभी सोचा ही नहीं। वह दरांती लेकर कीकर पर चढ़ने लगती है। कीकर के कांटे उसे तंग कर रहे हैं, पर वह अच्छी-सी कुछ दातुनें घड़ लाती है। ये दातुनें कुछ देर के लिए मुझे अपने पुराने दिनों की ओर ले जाती हैं। मैं अपने उन दिनों की तरह घंटाभर दातुन करता रहता हूँ।

मैं नहा-धोकर तैयार हो जाता हूँ। वह पूछती है -

“नाश्ता किसका करोगे? ब्रेड-अंडे या परांठे? जो कहोगे, मैं दुकान से पकड़ लाऊँगी।”

मैं उसको कुछ पैसे देता हूँ ताकि वो जो चाहे, ले आए। वह दो झोले सामान के भर लाती है और कहती है -

“बाकी तो सब मिल गया, पर मूलियाँ नहीं मिलीं। कोई फेरीवाला आया तो उससे ले लेंगे। मैं सोचती हूँ कि तुमने अस्पताल जाना होगा इसलिए कुछ जल्दी नाश्ता चाहिए होगा।”

वह सामान को फ्रिज में टिकाती है। अचानक गली में सब्ज़ी वाला हांक लगाता है। वह घोड़ी की तरह गली की ओर भागती है। उसकी चाल में फुर्ती है और हाथों में उतावलापन। मैं उसको अपने पास बिठाकर पूछता हूँ -

“तेरा आदमी ज्यादा ही निकम्मा था जो तूने छोड़ दिया?”

“कुछ न पूछो जी, कभी काम पर जाता था और कभी नहीं। दिनभर नशा करके पड़ा रहता था। मैंने भी सोचा कि ऐसे गन्दे आदमी से मुझे क्या लेना।”

“अब क्या काम करती है?”

“आजकल तो मैंने बाबा के बीमार होने के कारण काम से छुट्टी की हुई है। वैसे मैं नर्सरी में बच्चों को ए.बी.सी. पढ़ाती हूँ, पर तनख्वाह बहुत थोड़ी देते हैं। यह तो बाबा के सिर पर मेरा घर चले जाता है। रहने को हो गया और घर का सारा खर्च भी बाबा ही देता है, पर हम बाबा की सेवा भी बहुत करते हैं। करते भी दिल से हैं, अपना समझ कर।”

वह घर के काम करते-करते एकबार फिर मेरे पास आ बैठती है और कहने लगती है -

“मेरे बच्चे कहते हैं कि अंकल हमें पसंद नहीं करता।”

“यह कैसे कह दिया उन्होंने! मैंने तो कभी कुछ नहीं कहा।”

“वे चाहते हैं कि तुम उनके साथ बातें करो, उनके साथ खेलो।”

“मैं उनकी माँ के साथ जो खेले जा रहा हूँ, उनके संग खेलने की क्या ज़रूरत है।” कहकर मैं हँसता हूँ। वह शरमाने लगती है। कुछ देर बाद वह कहती है -

“तुमने जो खाना हो, मुझे बता दिया करो। जो भी कपड़ा धोने धाने वाला हो या प्रैस करने वाला, यहाँ कुर्सी पर रख दिया करो।”

“तू ज्यादा चिंता न कर।”

“चिंता तो करनी ही पड़ेगी, बाबा रोज़ तुम्हारी बातें किया करता था। कहता था कि जब मेरा बेटा आया तो उसकी सेवा में कोई कसर नहीं रहनी चाहिए।”

मैं उसकी बात का अधिक जवाब नहीं देता। कुछ देर बाद वह कहती है -

“शहर की एक नर्सरी में मुझे काम मिलता था, बच्चों को पहाड़े और अंग्रेजी पढ़ाने का। तनख्वाह यहाँ से ज्यादा, पर आना-जाना बहुत मुश्किल है। मैंने बाबा से कहा कि अगर वह स्कूटरी लेने में मेरी मदद कर दें तो मैं वहाँ काम कर सकती हूँ।”

“कितने की आती है स्कूटरी।”

“मेरे पास पैसे तो हैं पर हज़ार की कमी है।”

“चल, तू सौदा कर, दो हज़ार मैं दे दूँगा।”

वह खुश हो जाती है और कहती है -

“मेरे पास स्कूटरी हो तो मैं तुम्हें शहर से बढ़िया मीट भी ला दूँ और साथ में व्हिस्की भी। टाइम ही क्या लगता है स्कूटरी पर जाने में।”

(जारी…)