दस दरवाज़े
बंद दरवाज़ों के पीछे की दस अंतरंग कथाएँ
(चैप्टर - चौबीस)
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आठवाँ दरवाज़ा (कड़ी -2)
आलिया : मैं सबसे ऊपर
हरजीत अटवाल
अनुवाद : सुभाष नीरव
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उस रात मुझे सोई हुई आलिया की सांसें सुनाई देने लगती हैं। मैं हैरान हूँ कि मेरे कमरे और उसके कमरे के मध्य टी.वी. वाला कमरा है। बारह फीट की यह दूरी उसकी सांसें सहजता से पार कर रही हैं। वह तो सोई पड़ी है, पर मुझे नींद नहीं आ रही। मेरे दिल की धड़कन तेज़ हो रही है।
एक रात मेरी नींद खुल जाती है। मैं घड़ी देखता हूँ। एक बजने को है। मुझे पता है कि अब मुझे नींद नहीं आएगी। मैं उठकर लाइट जला देता हूँ और किताब उठाकर पढ़ने लगता हूँ। कुछ देर बाद मेरे कमरे के दरवाज़े पर दस्तक होती है। आलिया अन्दर आती है। मैं पूछता हूँ -
“नींद खुल गई? ”
“हाँ, लाइट खिड़की के रास्ते मेरी आँखों में पड़ रही थी।”
उसकी उनींदी आँखें और भी अधिक खूबसूरत लग रही हैं। मैं उसकी ओर हाथ बढ़ाता हूँ। वह अपना हाथ मेरे हाथ में दे देती है। मैं उसको अपनी ओर खींचकर अपने बिस्तर पर गिरा लेता हूँ। वह बोलती है -
“नहीं जी, ऐसा न करो, अकरम जाग जाएगा।”
“अगर धीमे नहीं बोलेगी तो ज़रूर जाग जाएगा।”
वह मेरे संग लगकर सिकुड़कर बैठ जाती है। मैं कहता हूँ -
“उठ, लाइट बंद कर आ।”
वह बत्ती बुझाकर आ जाती है।
रात में पता नहीं वह किस वक्त उठकर चली जाती है। सवेरे वह मेरे कमरे में आती है। बहुत खुश दिखाई दे रही है, पर लज्जाते हुए मुझसे आँखें नहीं मिला रही। मैं उसको अपने करीब बुलाकर पूछता हूँ -
“तेरा कोई ब्वॉय-फ्रेंड है? ”
“था, जट्टों का लड़का, पर वो मुझे छोड़कर दुबई चला गया।”
“दुबई से तो वो लौट आएगा।”
“लौट आए... कुएँ में गिरे!... अब मैंने उससे क्या लेना! ”
वह अपने दोनों हाथ झाड़ती हुई बोलती है। दोपहर में पूछती है -
“जोगी जी, रोटी बनाऊँ? ”
“अब मैं भाजी से जोगी हो गया? ”
“हमें रिश्तों की कद्र करनी चाहिए, अब तुम जोगी जी ही हो।”
अब वह रात में अक्सर मेरे साथ आ लेटती है। बहुत ही मोह दिखाती है। उसका अल्हड़ प्यार मुझे नशीला बना देता है। मुझे अपनी दुनिया बदलती नज़र आती है। मुझे इंडिया में रहना अच्छा लगने लगता है। एक दिन पता नहीं मैं किस आलम में होता हूँ, कहता हूँ -
“आलिया, अपना पासपोर्ट बनवा ले। अब मैं तुझे यहाँ नहीं रहने दूँगा। मैं चाहता हूँ कि तू मेरे दिल के आसपास रहे।”
यह बात मैं आलिया से ही नहीं, हमीदे से भी कह देता हूँ। हमीदा के तो खुशी में पैर ही ज़मीन पर नहीं लग रहे। बाद में मुझे महसूस भी होता है कि जो काम मैं कर ही नहीं सकता, उसका वायदा क्यों कर रहा हूँ।
दलबीर का फोन आता है। वह कहता है -
“कल भाभी से मेरी बात हुई थी। बच्चे बहुत उदास हैं और तू जानता ही है कि अकेली औरत घर को कैसे संभाल सकती है। तू जल्दी लौट आ यार... मुझे भी तेरी ज़रूरत है।”
“यार दलबीर, मुझे खाने को ऐसी मिठाई मिल गई है कि मैं अभी आ नहीं सकता।”
मैं उसको आलिया के विषय में बताता हूँ। वह ताना मारते हुए कहता है -
“तू सदा अपने बारे में ही सोचा कर, किसी दोस्त की चिन्ता न करना कभी।”
“सच!... यह सब तेरे लिए ही है। अगर तेरी ज़िन्दगी न बदल दी तो कहना।”
“तू थूक से पकौड़े न बना... पहले वापस आ, फिर बात करेंगे।”
अगले रोज़ पत्नी का फोन भी आता है। वह मेरी बच्चों के साथ बात करवाकर मुझे भावुक करने में सफल हो जाती है।
इंग्लैंड पहुँचकर मैं दलबीर को फोन करता हूँ। वह कहता है -
“कल मुझे टीका लगेगा, अगर आ सकता है तो आ जा।”
“मैं आ रहा हूँ, कल सुबह तेरे पास पहुँच जाऊँगा।”
दलबीर दिमागी मरीज़ है। उसको कभी-कभी दौरे पड़ते हैं। दौरे के समय कई बार तो उसको स्मरण ही नहीं रहता कि उसके साथ क्या घटित हुआ है, पर जब ठीक हो जाता है तो अच्छा-भला होता है। एक बात अच्छी है कि जब दौरा पड़ने की अलामतें शुरू होती हैं तो उसको पता चल जाता है और खुद ही अस्पताल चला जाता है। उसकी यह स्थिति उसकी पत्नी कुलजीत और बच्चों के छोड़ जाने के कारण हुई है। कुलजीत घर भी ले गई है और बच्चे भी। भरे-भराये घर में से निकलकर एक दिन दलबीर अचानक सड़क पर आ जाता है। उसके दिमाग को हिला देने के लिए यह झटका काफ़ी साबित होता है। काम न कर सकने के कारण डॉक्टर उसको अनफिट का सर्टिफिकेट दे देते हैं। उसको काउंसिल का फ्लैट भी मिल जाता है, पर अकेलापन उसको बुरी तरह घेर लेता है। हर महीने उसको एक विशेष टीका लगता है। टीका लगने के बाद उसको कई घंटे आराम करना पड़ता है। ऐसे अवसर पर मैं उसके पास चला जाया करता हूँ।
अगली सवेरे नर्स घर आकर उसको टीका लगा जाती है। मैं उसके लिए खाना लेकर आता हूँ। शाम तक वह ठीक हो जाता है। मेरे से इंडिया की कहानियाँ पूछते हुए कहता है -
“यह आलिया कौन है भई?”
“बस एक मोमबत्ती है जो खूब तेज़ जलती है। यह एक नदी है जो कलकल करती बहती है।”
“तू यार बहुत लक्की है, पता नहीं रब को क्या देकर ऐसी किस्मत लिखा कर आया है। मुझे तो एक भी सहेली नहीं मिल रही, मिलेगी भी कैसे? जब उसको पता चलता है कि यह बंदा तो पागल है, वह भाग खड़ी होती है।”
“यदि तू चाहे तो मैं आलिया को तेरे साथ फिट कर सकता हूँ।”
कहते हुए मैं सोचने लगता हूँ कि आलिया को पार्सपोर्ट बनाने के लिए कहते समय कहीं दलबीर ही तो नहीं था मेरे मन में बैठा हुआ! वह एक मिनट के लिए चुप हो जाता है और फिर आहिस्ता से कहता है -
“मुसलमान लड़की का मुझे क्या करना है!”
“सुन्दर और जवान औरत का धर्म उसका औरतपन ही होता है।”
“फिर भी यार, धर्म के पचास झंझट होते हैं। ये लोग तअस्सुबी भी होते हैं।”
“तअस्सुबी तो अमीर लोग ही होते हैं, गरीब का रब तो रोटी होता है, तू सोच ले, आलिया बहुत अच्छी लड़की है। मुझे यकीन है कि तेरी देखभाल करेगी... मैं अगले साल जाकर बात कर लूँगा, या यहीं बैठे फोन पर ही...।”
“बात तो तेरी दिल को बहुत अच्छी लगती है, पर सोच कि एक जवान लड़की मेरे साथ कैसे रह लेगी।”
“इसके बारे में फिक्र न कर, तू हाँ कर ताकि मैं आगे बात चला सकूँ। एक बात तो तय है कि तेरी ज़िन्दगी बदल जाएगी।”
“एक बात और सोच ज़रा, न मेरे पास जॉब है और न ही कोई पैसा, उसको वीज़ा कैसे मिलेगा। इधर आ भी गई तो पक्की कैसे होगी?”
“ये सब मेरे मसले हैं, तू एक बार हाँ कर।”
वह ‘हाँ’ कर देता है। मैं हमीदे को फोन करके सारी बात बताता हूँ। हमीदा तो पहले ही तैयार बैठा है। मैं आलिया से भी बात करता हूँ। आलिया भी इंग्लैंड के सपने देखना शुरू कर चुकी है। मैं अपनी पत्नी के साथ यह बात करता हूँ। पहले तो उसको यह सब पसंद नहीं आता, एक तो उम्र का बहुत अन्तर है और दूसरा कारण दलबीर की सेहत है। वह थोड़ी देर के लिए विरोध करती है, पर मैं तर्क देकर उसको मना लेता हूँ।
मैं आलिया को इधर इंग्लैंड में बुलाने की तैयारी करने लगता हूँ। हम दलबीर को एक मित्र की दुकान पर अस्थायी-सा काम करता दिखाकर अप्लाई कर देते हैं। कुछ विलम्ब करके ब्रिटिश हाई कमिश्नर आलिया को वीज़ा दे देता है। वह इंग्लैंड पहुँच जाती है। हम कुछ मित्र एकत्र होकर उसका विवाह दलबीर के साथ रजिस्टर करवा देते हैं। सिक्ख रस्मों के साथ धार्मिक विवाह भी हो जाता है।
दलबीर की ज़िन्दगी एकदम बदल जाती है। आलिया उसका घरबार साफ़ करती है। उसको ताज़ा रोटी मिलने लगती है। साफ़ कपड़े मिलने लगते हैं। आलिया हर समय उसके आगे-पीछे घूमती फिरती है। उसको करीब ही किसी फैक्ट्री में काम मिल जाता है। घर में कुछ पैसे भी आने लगते हैं। दलबीर फ्लैट में नया फर्नीचर डलवाता है। नये पर्दे और नई कारपेट। दलबीर बहुत प्रसन्न है। वह अक्सर कहने लगता है -
“यार, मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि एक औरत के आने से बंदे की लाइफ इतनी चेंज हो सकती है।”
एक दिन मैं फोन करता हूँ। आलिया उठाती है। दलबीर घर पर नहीं है। मैं आलिया को कहता हूँ -
“क्या हाल है मेरी जान? ”
“ठीक है जोगी जी।”
“अगले हफ्ते ईद आ रही है, मैं अपनी ईदी लेने आ जाऊँ?”
“कोई गलत मतलब तो नहीं तुम्हारा?... जोगी जी, अब मैं दलबीर की पत्नी हूँ इसलिए मैं तुम्हारे साथ किसी किस्म का संबंध नहीं रख सकती।”
पहले तो मुझे उसकी कही बात पसंद नहीं आती, पर फिर बहुत अच्छी लगने लगती है।
एक दिन दलबीर मुझे बताता है।
“यार, मुझे जो दवाई देते हैं, उसके साइड इफेक्ट बहुत हैं। मैं सेक्स नहीं कर पाता। इस बेचारी की मैंने लाइफ़ खराब कर दी है। मुझे तो अब गिल्टी फील होने लग पड़ा है।”
“तू ये गोली क्यों नहीं लेता? कहते हैं कि बहुत फायदेमंद है।”
“मैंने डॉक्टर से बात की थी, वह कहता है कि जो दवा मैं खाता हूँ, उसके साथ वियाग्रा ठीक नहीं।”
“चल कोई बात नहीं, इसको लेकर तू ज्यादा चिंता क्यों किए जाता है।”
“मैं अपने बारे में नहीं, आलिया के बारे में सोचता हूँ।”
“तुझे कभी आलिया ने शिकायत की इस बारे में? ”
“नहीं, वो तो बेचारी कुछ नहीं कहती।”
“फिर तू क्यों रेत में मौजे खोले जाता है?”
दलबीर मेरी बात का कोई जवाब नहीं देता।
दो वर्ष बीत जाते हैं। आलिया हमीदे को खूब पैसा भेजती है। उसने नया घर भी बना लिया है। उसके भाई अकरम ने नया मोटर साइकिल निकलवा लिया है। मैं इंडिया जाता हूँ तो हमीदा मुझे दुआएँ देता नहीं थकता, पर वह हर समय शराबी रहने लगा है। मैं उसको बहुत समझाता हूँ, मेरी बात सुनकर ‘हाँ’ में सिर हिलाता रहता है, पर उस पर कोई अमल नहीं करता।
अगले वर्ष आलिया इंडिया जाती है और वापस आकर मुझे फोन करके बताती है -
“जोगी जी, वो तो मेरी कमाई को बर्बाद करने पर तुले हैं। मैं जितने पैसे भेजती हूँ, दोनों बाप-बेटा उड़ाये जाते हैं। अब ताया के दबाब में हैं और उसके ड्रगी लड़के के साथ मेरा विवाह करना चाहते हैं। यह नहीं सोचते कि मैं दलबीर को कैसे छोड़ दूँगी। जिस बंदे ने मुझे स्वर्ग दिखाया, उसको धोखा कैसे दूँ। मुझे नहीं जाना दोबारा इंडिया इन लोगों से मिलने।”
इस पर मैं कुछ नहीं कहता।
दलबीर के दौरे बढ़ने लगते हैं। अब उसको अधिक समय अस्पताल में रहना पड़ता है। एक दिन वह कहता है -
“क्यों यार, इस गरीबन की लाइफ़ तबाह किए जाते हैं हम। मैं इसे तलाक दे देता हूँ और तू इसे कह कि अपनी मर्ज़ी से कहीं विवाह करवा ले।”
आलिया को पता लगता है तो वह लड़ने लगती है। दलबीर उसको बताये बग़ैर ही कुछ कागज़ों पर उसके दस्तख़त करवा लेता है और तलाक दे देता है। आलिया बहुत रोती है। मैं उससे कहता हूँ -
“दलबीर शायद ठीक है, आलिया। तेरे सामने पूरी ज़िन्दगी पड़ी है। जा, अब इंज्वाय कर।”
“नहीं, ये नहीं हो सकेगा।”
आलिया अपनी बात पर अड़ी हुई है। हम उसको मनाकर कांउसिल का अलग फ्लैट दिला देते हैं। धीरे-धीरे वह अपने फ्लैट में जाकर रहना प्रारंभ कर देती है। दलबीर के घर की चाबी उसके पास है। जब चाहे आती-जाती रहती है। वह दलबीर का घर साफ़ रखती है। उसके कपड़े धोती है। खाना भी बना आती है। उसको अस्पताल में मिलने भी जाती है। बीच-बीच में मैं भी आलिया के पास रात में रह आता हूँ। वह जीने के इस नये ढंग में सहज ही ढल जाती है। एक दिन मैं कहता हूँ -
“जा, इंडिया हो आ और अपने लिए कोई लड़का पसंद कर आ।”
“दिल नहीं करता मेरा, मैं ऐसे ही खुश हूँ।”
पर मैं दबाव डालकर उसको इंडिया भेजता हूँ। करीब डेढ़ महीने बाद वह वापस आ जाती है और मुझसे कहती है -
“जोगी जी, दलबीर ने तो मुझे नहीं रखा, प्लीज़ तुम मुझे रख लो। ज़िन्दगी भर कोई तकलीफ़ नहीं होने दूँगी।”
“मैं तुझे कैसे रख सकता हूँ?”
“कैसे रखना? तुम वहाँ रहे जाओ, मैं यहाँ ठीक हूँ, जब दिल करे मुझे आकर मिल जाया करो।”
“नहीं, यह ठीक नहीं। तू विवाह करवा ले और अपनी ज़िन्दगी जी।”
“विवाह अब मुझे नहीं करवाना।”
“क्यों नहीं करवाना? ”
“विवाह का हिसाब-किताब मुझे ठीक नहीं लगता। तुम्हारा नाम लेकर ज़िन्दगी बिता लूँगी।”
“इतनी पगली न बन। मेरी वाइफ़ है, बच्चे हैं।”
“मुझे सब मालूम है। मैंने सब सोच लिया है। जैसा मैंने कहा कि मैं यहीं रहे जाऊँगी, तुम कभी-कभी आ जाया करो, अब की तरह।”
मैं जब भी उसको मिलने जाता हूँ तो वह ऐसी ही बातें लेकर बैठ जाती है। इन्हीं दिनों में हमसे असावधानी हो जाती है। वह उमंग में भरी मुझे बताने लगती है। मैं चिंतित हो उठता हूँ। मैं कहता हूँ -
“इसे गिराना पड़ेगा।”
“नहीं जोगी जी, कभी भी नहीं। मैं अबोर्शन नहीं करवाऊँगी। मैं तुमसे कभी कुछ मांगती हूँ?”
मुझे लगता है कि यदि उसने अपना हठ न छोड़ा तो मेरी बहुत बेइज्ज़ती होगी। मैं बहुत मुश्किल से उसे मनाता हूँ।
(जारी…)