Das Darvaje - 23 in Hindi Moral Stories by Subhash Neerav books and stories PDF | दस दरवाज़े - 23

Featured Books
Categories
Share

दस दरवाज़े - 23

दस दरवाज़े

बंद दरवाज़ों के पीछे की दस अंतरंग कथाएँ

(चैप्टर - तेइस)

***

आठवाँ दरवाज़ा (कड़ी -1)

आलिया : मैं सबसे ऊपर

हरजीत अटवाल

अनुवाद : सुभाष नीरव

***

मैं और आलिया अस्पताल जा रहे हैं। वह अचानक रोने लगती है। बिल्कुल बीती रात की तरह। फिर कार के स्टेयरिंग पर हाथ रखते हुए बोलती है -

“जोगी जी, प्लीज़, मेरी सुन लो, चलो वापस घर चलें।”

“आलिया, पूरी रात हम इसी बात को लेकर कलपते रहे हैं। फैसला करके ही सोये थे।”

“वह ठीक है, पर मेरा दिल नहीं मानता। मुझे ऊपर जाकर ईश्वर को भी जवाब देना है।”

“ईश्वर को तो ऊपर जाकर ही जवाब दोगी, पर लोगों के सामने तो अभी ही जाना होगा न। क्या कहेगी दुनिया? ”

“मुझे दुनिया की परवाह नहीं।”

“दुनिया का डर तुझे भी है और मुझे भी। तुझे अभी विवाह करवाना है और मेरे बच्चे और दो साल में बड़े हुए और चार साल में शादी लायक भी! यह सब इसी दुनिया में ही होना है।”

“जोगी जी, मुझे विवाह नहीं करवाना... तुम लंदन रहते हो और मैं यहाँ दो सौ मील दूर! किसी को कुछ पता नहीं चलेगा। अगर कहोगे तो मैं दो सौ मील और दूर स्कॉटलैंड चली जाऊँगी। तुम्हारा नाम तक नहीं लूँगी किसी से, भगवान की कसम! ”

“मेरे से अधिक ज़रूरी तेरी ज़िन्दगी है, अभी उम्र ही क्या है तेरी! आराम से विवाह करवा और अपना घर बसा। अगर इसे रखने की गलती कर गई तो उम्रभर इसकी कै़द में फंसी रहेगी।”

“मुझे मंजूर है।”

“ऐसा तू अभी जज़्बाती होकर कह रही है, जब सच से सामना होगा तो पछताएगी। अच्छी बात तो यह है कि इससे निजात पा और अपने भविष्य के बारे में सोच।”

मेरी कोई भी दलील आलिया पर काम नहीं कर रही। वह अपनी बात पर अड़ी बैठी है। मैं अन्तिम दांव बरतता हूँ -

“आलिया, तू समझती है कि मैंने तेरी कभी कोई सहायता की है? ”

“तुम्हारे मेरे ऊपर बहुत अहसान हैं, मेरी जान भी हाज़िर है तुम्हारे लिए।”

“फिर मेरी बात मान और चुपचाप अस्पताल चल पड़। बड़ी मुश्किल से अप्वाइंटमेंट मिली है। अगर आज लेट हो गए तो समझ ले कि ज़िन्दगी में लेट हो जाएँगें। तेरी ज़िन्दगी बिल्कुल बदल जाएगी।”

“जोगी जी, प्लीज़! ”

वह रोये जाती है।

कई बरस पीछे...

मेरा गांव, मेरा घर, मेरा पिता। माँ गुज़र चुकी है।...

मेरा कारोबार फेल हो जाता है। आमदनी का कोई ज़रिया नहीं बचता। मैं सोशल सिक्युरिटी पर आ जाता हूँ। यह सोशल सिक्युरिटी वाले भी सीधी उंगली कुछ नहीं करते। मैं उंगली टेढ़ी करता हूँ। मेरी पत्नी अपना और बच्चों का क्लेम भरती है। उसको हल्की-सी तनख्वाह जितने पैसे मिलने लगते हैं। मैं बिल्कुल खाली हूँ। जब तक कोई अगला कदम नहीं उठाता, मुझे घर पर ही रहना पड़ेगा। मैं कुछ नया करना चाहता हूँ लेकिन मेरा दिल और दिमाग, दोनों कुछ आराम चाहते हैं। मैं सोचता हूँ कि क्यों न कुछ देर पिता के पास इंडिया रह आऊँ। वहाँ सब कुछ घर का है। कोई खर्चा नहीं होगा और पिता भी खुश। मैं किसी तरह पत्नी को पटाता हूँ, मनाता हूँ और हवाई जहाज में चढ़ जाता हूँ।

गांव पहुँचता हूँ। मेरे पिता मेरे आने पर बहुत खुश हैं। उन्होंने राम लाल नाम के एक कश्मीरी को खाना बनाने के लिए रखा हुआ है। घर के सारे काम वही करता है। घर के कामों में उसका हाथ बहुत साफ़ नहीं है, पर फिर भी ठीक है। दौड़ दौड़कर काम करते हुए सब संभाले फिरता है। एक दिन हमीदा आता है। हमीदा, मेरा चाचा का दोस्त है। चाचा के निधन के बाद भी वह हमारे परिवार के साथ निकटता रखता है। वह प्रायः मेरे पिता से मिलने आ जाया करता है। शराब पीने का वह शौकीन है और बातें करने का भी। पिता कभी-कभी रुपये-पैसे से भी उसकी मदद कर दिया करते हैं। उसे मेरे आने का पता चला होगा इसलिए बदमाशों वाली खड़ी मूंछों के साथ वह आ धमकता है। बड़े प्रेम से मिलता है। हमारे परिवार के साथ अपनी पुरानी आत्मीयता और अपनापे की बातें करता है। राम लाल खाने के लिए कुछ बनाकर लाता है। हमीदा कहने लगता है -

“ए लड़के, मैंने तुझे पहले भी देखा है, तुझे खाना बनाना नहीं आता। बाहर से आए हुए को खाना भी स्पेशल चाहिए होता है। ध्यान रखा कर।”

फिर मुझसे कहता है -

“छोटे भाई, कभी देख मेरी लड़की के हाथ का खाना खाकर, अगर उंगलियाँ भी न खा जाओ तो कहना! ”

“हमीदे, मैं खाने का ज्यादा शौकीन नहीं, बस ये राम लाल तो हमारा वक्त निकाले जा रहा है।”

“वो तो ठीक है, पर इन्सान इतनी भागदौड़ किसलिए करता है, सिर्फ़ खाने के लिए ही न। हज़ारों मीलों का सफ़र तुमने इसीलिए किया कि तुम अच्छी रोटी खा सको।”

“हमीदे, मुझे तो सिर्फ़ दो रोटियाँ ही चाहिएँ, दो रोटियाँ और दो पैग, बस।”

“छोटे भाई, बातें तेरी भी सच्ची हैं, पर एक बार बंदे को ढंग का खाना खाने की आदत पड़ जाए तो फिर वो खराब खाने की ओर मुँह नहीं करता। तू एकबार मेरी लड़की के हाथ का बना खाना खाकर तो देख, तुझे पता लगेगा कि दुनिया कहाँ बसती है।”

“किसी वक्त देखेंगे।”

“किसी वक्त क्या, कहो तो लड़की को कल ही छोड़ जाऊँ।”

“अगर ज़रूरत पड़ी तो ज़रूर बताएँगे।”

मैं उससे पीछा छुड़ाने के लिए कहता हूँ। मेरे बाद पिता कहते हैं -

“हमीदे, घर में कोई और औरत होती तो तेरी लड़की का आना ठीक था, पर...। ”

“लो सरदार जी, तुम तो ऐसे कहते हो जैसे पराये हो! लड़की के साथ ही मेरा छोटा लड़का भी आ जाएगा। थोड़े दिन रखकर देख लो। अगर तुम्हें ठीक लगे तो... जितने दिन चाहो, घर का काम करवा देगी, पैसा बेशक कुछ न देना।”

हमीदे ने जैसे यह सब पहले ही सोच रखा हो। हमारे विचारों की परवाह किए बग़ैर फै़सला भी करता जाता है।

करीब दो दिन बाद अट्ठारह-बीस साल की एक साधारण-सी लड़की हाथ में बैग उठाये हमारे घर आ जाती है। साथ में चौदह बरस का लड़का भी है। दोनों आकर पिता को ‘सत्श्री अकाल’ बुलाते हैं और अपना परिचय देते हैं। मैं भी पिता के कमरे में चला जाता हूँ। पिता उनके बारे में बताते हैं और राम लाल से कहते हैं -

“ले भई, तू इस लड़की को रसोई दिखा दे। और इसे कह कि चाय बनाए, खुद पिये, अपने भाई को पिलाये और हमें भी।”

राम लाल उसको रसोई में छोड़कर वापस हमारे पास आ जाता है और कहता है -

“सरदार जी, कहीं ऐसा तो नहीं कि आपने अब मेरी छुट्टी करने वाले हो? ”

“नहीं रे, यह तो बेटे की रोटी की खातिर आई है, मेरी रोटी तो तू ही बनाएगा।”

राम लाल इत्मीनान से अपने काम में लग जाता है।

दोपहर के बाद मैं घर आता हूँ। हमीदे का बेटा आँगन में खेल रहा है और लड़की बैठक में बैठी टीवी देख रही है। मैं अन्दर जाता हूँ तो वह उठ खड़ी होती है। मैं कहता हूँ -

“बैठी रह।”

वह बैठ जाती है। मैं पूछता हूँ -

“क्या नाम बताया था तूने अपना? ”

“जी, आलिया और अकरम मेरे भाई का।”

“पढ़ती है कि पढ़ाई छोड़ दी है? ”

“भाजी, दस करके हट गई थी। अब तो अपने घर का ही काम किया करती हूँ, कभी ऐसे ही किसी दूसरे के घर का भी।”

वह मेरे साथ छोटी-छोटी बातें करने लगती है। फिर अचानक कहती है -

“भाजी, आप चाय के साथ पकौड़े खाओगे? ”

“पकौड़े!... पकौड़े खाए बहुत देर हो गई, बना ले। अच्छे बनाएगी? ”

“एकबार खाकर देखो, मैं पकौड़े दो बार निकाला करती हूँ, बहुत खस्ता बनेंगे।”

“बना ले फिर। पहले देख कि रसोई में सारा सामान है कि नहीं, नहीं तो राम लाल से मंगवा ले।”

“सामान मैं ही ले आऊँगी। मुझे इस गांव का सब पता है। मैं डैडी के साथ कई बार आई हूँ यहाँ।”

कुछ देर बाद वह पकौड़े बनाकर मेरे सामने ला रखती है। मैं चखकर स्वाद देखता हूँ। ये वाकई बहुत बढ़िया बने हैं। मैं कहता हूँ -

“आलिया, इतने टेस्टी पकौड़े तो मैं अरसे बाद खा रहा हूँ। इतने करारे पकौड़े चाय वाले नहीं, ये तो व्हिस्की के साथ खाने वाले हैं। ऐसा कर, मुझे पानी का जग और गिलास ला दे।”

“आप भी मेरे डैडी की तरह पीते हैं? ”

वह हँसती हुई कहती है। पकौड़ों की ओर से फुर्सत पाकर वह मेरे पास आ बैठती है। मेरे से इंग्लैंड के बारे में बातें पूछने लगती है। मेरी पत्नी के बारे में, मेरे बच्चों के बारे में, मेरे काम के बारे में। वह मेज़ पर पड़ी मेरी किताब उठाते हुए कहती है -

“आप हर समय क्या पढ़ते रहते हैं? ”

“कुछ खास नहीं... तू नहीं पढ़ा करती कुछ?”

“मुझे तो पढ़ते हुए नींद आ जाती है।”

तब तक मुझसे मिलने वाले कुछ लोग आ जाते हैं। वह उठकर चली जाती है।

आलिया हमारे घर में रच-बस जाती है। रोटी-पानी बढ़िया तैयार कर लेती है। उसका भाई अकरम तो हर समय खेलने में ही मस्त रहता है, पर आलिया ज़रा गंभीर स्वभाव की है। एक दिन हमीदा आता है और मुझसे कहने लगता है -

“क्यों? मेरी बात सही थी न? ”

“हाँ भाई हमीदे, लड़की तेरी बहुत गुणवंती है।”

“छोटे भाई, इस गुणवंती को किसी तरह बाहर (विदेश में) ले जा यार, तुझे दुआएँ देंगे।”

“हमीदे, मैं कैसे ले जाऊँ! मैं कौन-सा एजेंट हूँ। और फिर मेरे पास कोई राह भी नहीं है।”

“किसी को खड़ा करके, कोई बूढ़ा-बुजु़र्ग ही हो, लंगड़ा-लूला, बात तो इंग्लैंड जाने की है।”

“चलो देखते हैं।”

मैं उससे पीछा छुड़ाने के लिए कह देता हूँ। मुझे पता है कि यह एक ही बात पर बार बार ज़ोर दिए जाएगा। वह दोनों हाथ ऊपर हवा में खोलकर कहता है -

“मुझे तो लगता है कि मेरे सोहणे रब ने तुम्हें सबब बनाने के लिए ही इधर भेजा है।”

उसकी बात पर मैं हँसने लगता हूँ। उसके जाने के बाद आलिया पूछती है -

“क्या कहता था डैडी?”

“कहता था, आलिया को इंग्लैंड ले जा।”

“ले जाओ न फिर।”

“यह कोई आसान काम थोड़े है।”

“अपने अटैची में बंद करके ले जाओ।” वह भोले अंदाज में कहती है।

मैं हँस पड़ता हूँ। पूछता हूँ -

“शादी कब करवा रही है?”

“यह तो डैडी को पता। मेरे मामा के लड़के को मेरा रिश्ता करते थे, पर मुझे वो लड़का पसंद नहीं था।”

“कैसा लड़का चाहिए तुझे?”

“आपके जैसा!” कहती हुई वह अपने दोनों हाथ मुँह पर रख लेती है।

पिछले कई वर्षों से स्त्रियों से जुड़े मेरे सम्पर्क का अनुभव मुझे कुछ कहने लगता है। मैं आलिया की ओर ग़ौर से देखता हूँ। वह कोमल-सी लड़की नहीं बल्कि एक भरपूर औरत लगती है। मेरे इर्द-गिर्द घूमती-फिरती वह अट्ठारह-बीस साल की लड़की न होकर मुझे अपनी हमउम्र दिखने लगती है।

मुझे यहाँ आए अभी करीब दो सप्ताह ही हुए हैं कि मेरी पत्नी का फोन आ जाता है। वह कहती है कि मैं शीघ्र लौट आऊँ। वह बहाना बनाती है कि बच्चों का दिल नहीं लग रहा। मैं उसको टरका देता हूँ। दूसरे दिन मेरे दोस्त दलबीर का फोन आ जाता है। वह कहता है -

“अच्छा बंदा है तू! न बताया, न पूछा, इंडिया जा बैठा।... मैं तेरा इंतज़ार करता था कि तू मुझे मिलने अस्पताल आएगा।”

“सॉरी यार, यूँ ही मन उचाट हो गया था और इंडिया चला आया।”

“मुझे भाभी बताती थी कि तीन महीने रहने का प्रोग्राम बनाकर गया है।”

“देखता हूँ, अगर दिल लग गया तो।”

“ऐसा न कर, हफ्ता भर और रह ले और वापस आ जा। आकर अपने बच्चे संभाल। और फिर मुझे भी तेरी ज़रूरत है। कुछ दिनों में मुझे टीका लगने वाला है।”

वह अपनी बात पर ज़ोर देता हुआ कहता है। कुछ बातें और करके मैं फोन रख देता हूँ। समीप खड़ी आलिया पूछती है -

“किसका फोन था? ”

“किसी दोस्त का था।”

“कोई ख़ास दोस्त लगता है।”

“हाँ, बीमार रहता है बेचारा। कई बार अस्पताल चला जाता है। मुझसे गलती हो गई कि आते समय उसको मिलकर नहीं आया।”

“नज़दीक ही रहता है? ”

“नहीं, दूर के किसी शहर में रहता है।”

“क्या बीमारी है? ”

“कोई ख़ास नहीं।”

मुझे उसका ज्यादा सवाल करते जाना अच्छा नहीं लगता। फिर दलबीर की बीमारी किसी से कैसे साझी कर सकता हूँ। आलिया के साथ क्या, किसी अन्य के साथ भी कभी दलबीर की हालत के बारे में बात नहीं करता। यदि किसी को बताऊँ कि वह कभी कभी मानसिक संतुलन गवां बैठता है तो सुनने वाला कहेगा कि सीधे कह न, पागल है। मुझे चुप देख वह पूछती है -

“अब जल्दी लौट जाओगे? ”

“देखते हैं, सोचते हैं।”

“अब आए हो तो रह लो... बाबा जी भी आपके आने पर बहुत खुश हैं।”

“आलिया, तू इतना बढ़िया खाना बनाती है, तुम्हारे हाथ की बनी चीजे़ं खाने के लिए ही रुकना पड़ेगा।”

वह शरमा जाती है।

वह मेरे संग बातें करते हुए प्रायः मेरे करीब होकर बैठ जाया करती है। मैं उसकी तरफ ध्यान से देखता हूँ तो वह इतनी साधारण नहीं दिखती जितना मैं सोच रहा हूँ। उसकी शरबती आँखें विशेष आकर्षण रखती हैं। उसकी टनकदार हँसी बड़ी दिलकश है। जब वह मेरे पास बैठी होती है तो मैं रह रहकर उसकी तरफ ही देखे जाता हूँ। एक दिन मैं कहता हूँ -

“आलिया, तू बहुत सुन्दर है।”

“रहने दो, मेरा दिल रखने के लिए कह रहे हो।”

“नहीं, तेरी आँखें बहुत सुन्दर हैं।”

“ये तो सभी मुझे कहते हैं।”

वह गर्व से बताती है, पर फिर उदास-सी होती हुई बोलती है -

“मेरी मम्मी मुझे गालियाँ बकती रहती है कि तू बदशक्ल, कुलक्षणी है।”

“कहते हैं न कि माँ-बाप की गालियाँ घी जैसीं! इसका मतलब यह नहीं कि तुझे वो सुन्दर नहीं समझती। हर माँ-बाप के लिए अपना बच्चा सुन्दर होता है, पर तू तो है ही सुन्दर! ”

“कई बार देखने वाले की आँख ही ऐसी होती है।”

“ऐसा ही समझ ले, पर यह सच है कि तू मुझे बहुत सुन्दर लगती है और दिनोंदिन और ज्यादा प्यारी लगती जा रही है।”

वह कुछ नहीं बोलती परंतु मुझे लगता है कि मुझे कुछ हो रहा है।

(जारी…)