दस दरवाज़े
बंद दरवाज़ों के पीछे की दस अंतरंग कथाएँ
(चैप्टर - सत्रह)
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छठा दरवाज़ा (कड़ी -2)
ऊषा : कौन हरामजादा नॉक करता है...
हरजीत अटवाल
अनुवाद : सुभाष नीरव
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एक दिन करमजीत का फोन आता है -
“कैसे भाई, लगाए जाता है?”
“और अब क्या करूँ।”
“कोई शिकायत तो नहीं?”
“शिकायत तो कोई नहीं, पर कब तक रहेगी ये?”
“जब कोई शिकायत ही नहीं तो ये सवाल क्यों पूछ रहा है?”
“फिर भी, अधिक दिन तो मैं नहीं रख सकता।”
“जब तक तेरा मन नहीं भरता, रखे रख। जब मन भर जाए तो मुझे बता देना। अब एक काम करना होगा। यदि तुझे ऊषा का तेरे घर में रहना ठीक लगता है तो उसको रेंट बुक बना दे, किराया तुझे गवर्नमेंट देती रहेगी और इसका रहने का ठिकाना बन जाएगा। और जब तुझे लगे कि इसे नहीं रखना तो इसको नोटिस दे देना कि घर जल्दी खाली कर दे, उस नोटिस को दिखाकर इसे काउंसिल का घर या फ्लैट मिल जाएगा। फल भी और पुण्य भी, दोनों साथ-साथ।”
“तेरा तो बड़ा शातिर दिमाग है।”
“इसी की तो खाते हैं। मैंने अपने किरायेदार गोरे ऐंडी से नोटिस से पाँच सौ पौंड लिया था। आज वह काउंसिल के बड़े घर में बैठा दुआएँ देता है।”
“मैं ऐसे चक्करों में ना ही पड़ूँ तो अच्छा। और फिर औरत को घर में रखना...।”
“मैं तेरी दुविधा को समझता हूँ। तुझे लोगों को यही बताना है कि यह किरायेदार है। किरायेदार रखना तो कोई गलत बात नहीं।”
“फिर भी, औरत है। आदमी होता तो और बात थी।”
“आदमियों की सौ प्रॉब्लम्स होती हैं। फिर, ऊषा ऐसी चीज़ है जो सारी उम्र काम आएगी।”
मैं जानता हूँ कि सरकार की तरफ से मुझे उसका पचास-साठ पौंड हफ्ते का किराया आने लग जाएगा। इतने पैसे मेरी कार को चलता रखने के लिए बहुत होंगे। कुछ देर सोचकर मैं फिलहाल उसको किराये पर रख लेने का निर्णय कर लेता हूँ।
वह घर में ही रोटी बनाने लगती है। वह खाना बनाने में अधिक माहिर तो नहीं है, पर देसी खाना कई दिनों बाद खाया होने के कारण अच्छा लगता है। खाना बनाने के साथ-साथ वह घर में इधर-उधर चलती-फिरती भी आनन्द-सा देने लगती है। अब तक वह मेरे साथ काफी खुल चुकी है। कई बार हल्का-सा मजाक भी करने लगती है।
एक दिन मैं कहता हूँ -
“ऊषा, आज रात मैं घर नहीं आऊँगा।”
“क्यों? अपनी गोरी की तरफ जाना है?”
“तुझसे किसने कहा?”
“करमजीत ने।”
“हाँ, वो मेरी बहुत पुरानी सहेली है।”
“उस हरामजादी के पास कौन-सी चीज़ ज्यादा है जो मेरे पास नहीं है?”
वह इस तरह कहती है कि मेरी हँसी छूट जाती है। मैं कहता हूँ -
“तू तो अभी कल आई है!... तुझे यह बुरा क्यों लग रहा है?”
“मुझे नहीं, किसी भी औरत को यह बुरा लगेगा। तू मेरे साथ सोकर उसके पास जाएगा और वहाँ से लौटकर फिर मेरे साथ... छी-छी!”
बात करती हुई वह अपने नाक के आगे हाथ ऐसे रखती है जैसे कोई बुरी चीज़ सूंघ ली हो। कुछ देर बाद वह पूछने लगती है -
“सच बता, तुझे मेरे में और उस गोरी में क्या फर्क दिखता है?”
मैं सोचने लग जाता हूँ कि इसको क्या बताऊँ। यह कहूँ कि तेरे मुकाबले ऐनिया की टाँगें इतनी लम्बी हैं कि खत्म होने में ही नहीं आतीं। जब मैं कुछ देर तक उसकी बात का जवाब नहीं देता तो वह अपना प्रश्न दोहराते हुए कहती है -
“तुझे मेरे में कोई कमी, कोई कसर दिखाई देती है?”
“नहीं, बल्कि तेरे पास बैठकर मुझे अधिक अपनत्व महसूस होता है।”
“फिर मार उसको गोली, आराम से घर में बैठा कर।”
“ऊषा, तू इतनी बात तो समझती है न कि तेरा-मेरा यह संबंध टेम्परेरी-सा ही है।”
“हर हरामी मर्द यही समझता है, पर औरत ऐसा नहीं चाहती। वह एक मर्द की होकर रहना चाहती है।”
“तेरी बात ठीक है, कभी मैं भी ऐसा ही सोचा करता था कि एक ही औरत के संग सारी ज़िन्दगी बिता दूँगा, पर यह सब अपने हाथ में नहीं होता।”
“और किसके हाथ में है?”
“देख, हम दोनों एक ही ट्रैक के मुसाफ़िर हैं, अब हमें ऐसी ही भटकती राहों में से होकर अगली मंज़िल की ओर जाना पड़ेगा।”
“क्या मतलब?”
“मतलब यह कि तू अपने पति को छोड़कर जीता के पास आई, फिर करमजीत के पास और उसके बाद मेरे पास। मैं जानता हूँ कि तू यह सब नहीं चाहती होगी, पर मज़बूरी है। मैं भी इसी प्रकार कई गलियों में से निकल रहा हूँ। लाइफ में सैटल होने तक यही सब चलेगा।”
“इसकी क्या ज़रूरत है। एक साथी तलाशकर टिककर बैठ जाना चाहिए।”
“ऊषा, मैंने कहा तो है कि अपने वश में कुछ नहीं होता, परिस्थितियाँ बड़ी होती हैं आदमी से। हमें अभी पता नहीं किन-किन राहों पर से गुज़रना है।”
“मुझे तो लगता है कि हम मिल गए, बस!”
“नहीं ऊषा, ऐसा कभी न सोचना। मैं तेरे साथ विवाह नहीं कर सकता।”
“क्यों? मेरी पहली शादी से बच्चा है इसलिए या मेरी जात दूसरी है?”
“नहीं, यह बात नहीं। हम दोनों की टाइप अलग है।”
“यह हरामी टाइप क्या होती है?”
कहती हुई वह उठकर चली जाती है। मुझे डर लगने लगता हे कि यह कहीं मेरे गले ही न पड़ जाए। मैं करमजीत को सारी बात बताता हूँ। वह कहता है -
“फिकर नाट, पहली बात तो यह अड़ने वाली चीज़ नहीं, पर फिर भी इसके एक बार किराये के पैसे लग लेने दे, फिर नोटिस दे देना। मैं इसे काउंसिल का फ्लैट दिला दूँगा।”
एक दिन ऐनिया मेरे कपड़े धोने मेरे घर आती है तो ऊषा उसको मिल जाती है। ऐनिया उसके साथ कुछेक बातें करती है, पर ऊषा को अंगरेजी नहीं आती, इसलिए अपनी बात ढंग से नहीं रख पाती। मैं घर लौटता हूँ तो ऊषा बताने लगती है -
“आई थी आज तेरी गोरी, अक्ल-वक्ल तो उसको ज़रा नहीं।”
“वह कैसे?”
“उसको मेरी कोई बात समझ में ही नहीं आती थी, बस मूर्खों की तरह देखे जाती थी।”
मैं हँसने लगता हूँ। फिर पूछता हूँ -
“वो सुन्दर लगी कि नहीं?”
“सुन्दर थी, पर ऊषा ऊषा ही है।”
“हाँ यह सच है। तेरा तो कोई मुकाबला ही नहीं।”
मेरे कहने पर वह खुश हो जाती है।
वैसे ऊषा से घर में मुझे कोई तकलीफ़ नहीं है। बल्कि मुझे उसकी उपस्थिति बहुत अच्छी लग रही है। एक तो वह पैरों में झांझरे पहने रखती है और बांहों में चूड़ियाँ। हर समय घर में छन-छन होती रहती है। दूसरा यह कि ऊषा काम करती हुई कई बार गुनगुनाने लगती है। एक दिन मैं पूछता हूँ -
“क्या गा रही है?”
“यूँ ही कुछ। कालेज के दिनों में मैं स्टेज पर गाया करती थी।”
“अच्छा! सुना कुछ।”
“इस वक्त मूड नहीं, फिर कभी सुनाऊँगी... तेरे लिए एक गीत है मेरे पास। जब तू बोतल खोलेगा तब सुनाऊँगी।”
अगली शाम जब घर की छतों पर अँधेरा पसरने लगता है तो मैं कहता हूँ -
“ऊषा, ला बनाकर मेरे लिए एक बड़ा-सा पैग और सुना कुछ।”
वह बड़े चाव से उठकर सारा सामान लाती है, मेरे लिए एक पैग तैयार करती है, मुझे पकड़ाते हुए मेरी ओर देखकर पंजाबी गीत गाने लगती है -
कित्थे तां रखां ऐह नशे दीआं बोतलां
कित्थे मैं रखां वे गलास
वे रंग काला हो गिया
तेरी नमोशी दे नाल
सोहणियां, तेरी नमोशी दे नाल!
मेज़ ते तूं रक्ख दे नशे दीआं बोतलां
हत्थ विच दे दे नीं गलास
तूं रंग गोरा कर लै नीं आपणां
साडा तां रहिणा इही हाल
सोहणिये, साडा तां रहिणा इही हाल!
बारी विच रक्ख दे तूं नशे दीआं बोतलां
ओथे ही रख दे गलास
तू रंग गोरा कर लै नीं आपणा
साडा तां रहिणा इही हाल
सोहणिये, साडा तो रहिणा इही हाल!
गाते हुए वह मेरा हाथ पकड़कर मेरी ओर देखती रहती है। मुझे यह आलम बहुत प्यारा लगता है। वह गीत समाप्त करती है तो मैं उसे बांहों में भर लेता हूँ और कहता हूँ -
“ब्यूटीफुल! तू तो बहुत सुन्दर गाती है।”
“हर लड़की सुन्दर गा सकती है, ईश्वर ने उसको गला ही ऐसा दिया है, पर सभी नहीं गाया करतीं।”
“चल, अब तू मेरे लिए रोज गाया करना।”
“क्यों? तेरे लिए क्यों?”
“क्योंकि तू अब मेरी जान बनती जा रही है।”
“झूठ! जान तो तेरी वो गोरी है जहाँ आए दिन दौड़ जाता है।”
वह मुँह टेढ़ा-सा बनाकर कहती है। मैं चुप हो जाता हूँ। कुछ देर बाद वह फिर कहती है -
“मेरा सपना था कि अपने हसबैंड के लिए गाऊँ, पर उस हरामी को किसी बात की कद्र ही नहीं थी।”
मैं सोचने लगता हूँ कि ऊषा वास्तव में इतनी जल्दी छोड़ देने वाली लड़की नहीं थी। पता नहीं, उसके ससुराल वालों ने उसकी कद्र क्यों नहीं की। मैं पूछता हूँ -
“तेरा दिल नहीं करता, लौटकर अपनी ससुराल जाने को?”
“नहीं, बिल्कुल नहीं।”
“अगर दुबारा सुलह हो जाए तो कैसा रहे?”
“वे बड़े हरामजादे हैं, नहीं मानने वाले।”
“मैं सोचता हूँ, जो पहला विवाह होता है, उसके मायने ही कुछ और होते हैं। इसलिए तू वापस चली जा।”
वह सोच में पड़ जाती है। मैं पुनः कहता हूँ -
“अब तूने बाहर की दुनिया भी देख ली है, पर अपना घर अपना ही होता है।”
“होता तो है, अगर अपना हो।”
“मैं बात करके देखूँ तेरी ससुराल वालों से?”
“वे नहीं मानेंगे, वे पूरी कुत्ते की पूंछ हैं।”
“तू हाँ कह, मैं उनके साथ बात करता हूँ।”
मैं ऊषा को वापस जाने के लिए मना लेता हूँ। उसकी ससुराल वाले बर्मिंघम में रहते हैं। वह मुझे उनका पता और फोन नंबर दे देती है। मैं बर्मिंधम में रहते अपने रिश्तेदारों के माध्यम से ऊषा की ससुराल तक सम्पर्क करता हूँ। उसका ससुर आत्मा राम मेरे रिश्तेदार का मित्र निकल आता है। बात आगे चल पड़ती है। हम उसके ससुराल वालों को बेटे रॉकी का वास्ता देते हैं। सुलह होने लगती है। मैं ऊषा को लेकर बर्मिंघम जाता हूँ। उसकी ससुराल वाले उसे वापस घर में रख लेते हैं। करमजीत को पता चलता है तो वह गुस्से में आकर कहता है -
“तू यार, यह क्या धर्मपुत्र बनने बैठ गया। इतनी बढ़िया चीज आराम से खाए जाता! नहीं खाई जाती थी तो आगे किसी को दे देता।”
“नहीं यार, मैं तुझे बता नहीं सकता, जितनी खुशी मुझे उसको उसके घर में भेजकर हुई है, मैं बयान नहीं कर सकता।”
“मैं समझता हूँ तेरी बात। अगर वो अपने घर बस जाए तो इससे बढ़िया कोई बात नहीं, पर यह रहने वाली नस्ल नहीं... ऐसा न हो कि एक-आध बच्चा और गोदी में उठाकर आ जाए।”
“चलो, यह अब उसकी मर्ज़ी। हमने इन्सानियत का फर्ज़ निभा दिया।”
(जारी…)