Aamchi Mumbai - 30 in Hindi Travel stories by Santosh Srivastav books and stories PDF | आमची मुम्बई - 30

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आमची मुम्बई - 30

आमची मुम्बई

संतोष श्रीवास्तव

(30)

अद्भुत है दादा साहब फालके चित्रनगरी.....

गोरेगाँव में ५२० एकड़ भूमि पर फैली है फिल्म सिटी जिसे ३० अप्रैल २००१ में फिल्मों के जनक दादासाहब फालके चित्रनगरी नाम दियागया है | २६ सितंबर १९७७ में इसका उद्घाटन हुआ और यहाँ छोटे परदे यानी टी. वी. सीरियल्स की शूटिंग आरंभ हुई | बड़े परदे की फिल्में भी यहाँ शूट की जाती हैं | दो लाख स्क्वेयर फीट के कार्पेट एरिया में१६स्टूडियो निर्मित हैं | यहाँपूरी कायनात मय लावलश्कर के मौजूद है | सारे पहाड़ी शहर नैनीताल, कश्मीर, शिमला, ऊटी..... यह एक ऐसा ख़ाली कैनवास है जिसमें आर्ट डायरेक्टरसीन के मुताबिक रंग भरता है | कभी रेलकी पटरियाँ बिछ जाती हैं, कभी तालाब, नदी, झील, जंगल, बर्फ़ीले पहाड़, पतझड़, आँधी, तूफ़ान..... ओह,..... यहसपनोंकी नगरी है जहाँ पर्यटक मस्ती भरे सफ़र में मानो सारा जहाँ देख लेते हैं | कारखाने, खेत, बागबगीचे, किले, महल, मंदिर, बाज़ार, मयख़ाना..... वगैरह | यहाँक्रोमा, कम्प्यूटर, ग्राफ़िक्सटैक्नीक जो अब फिल्मों में इस्तेमाल की जाती है इनके बाँयें हाथ का खेल है | कैमरे के पीछे का हुनर ये है कि यहाँ मंदिर में भगवान सीन के हिसाब से बदलते रहते हैं | कभी गणपति तो कभी शिवशंकर, कभीकृष्णजी तो कभी माँ दुर्गा | मंदिर की दीवारें खड़ी रहती हैं लोकेशन बदल जाती है | ऊपर वाले के इतने रूप..... कहीं अजान, कहीं बौद्ध सूक्त, गुरुबानी..... मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर करना | यहाँ कई क्षेत्रीय फिल्मों की शूटिंग हुई है..... गुजराती, मराठी, नेपालीआदि | सीरियलतो धुआँधार बन रहे हैं | ऐतिहासिक, धार्मिक, कॉमेडी सीरियल्सके तो परमानेंट सैट बने हुए हैं, तारक मेहता का उल्टा चश्मा, महाभारत,जोधा अकबर, रज़िया सुल्तान,महाराणा प्रताप, चक्रवर्ती सम्राट अशोक | वहाँ पहुँचकर ऐसा लगता है जैसे हम उस युग में विचरण कर रहे हैं |

ख़्वाजा अहमद अब्बास को देखने की उनसे मिलने की बहुत चाह थी | लेकिन मुम्बई आने के बावजूद भी यह चाह पूरी नहीं हो पाई | बाँद्रा स्थित आलीशान बहुमंजिला इमारत में फिलोमिना लॉज के एक फ्लैट में उनका निवास था | आवारा, श्री ४२० जैसीहिट फिल्में उन्हीं ने लिखी थी | पिछले दिनों टी. वी. पे उनकी लिखी फिल्म देखी तो राजकपूर का डायलॉग बहुत देर तकज़ेहन में अटका रहा..... एककार, दो कार, सब बेकार’..... तबशोलेनहीं आई थी और न ही गब्बर का यह डायलॉग कि तेरा क्या होगा कालिया?’ लोगों की ज़बान पर था पर आज मैं कह सकती हूँ कि शोले की तरह ही राजकपूर का यह डायलॉग बहुत हिट हुआ था | ख़्वाजा अहमद अब्बास के लिए हम कह सकते हैं कि वे एक सिरफिरे लेखक और फिल्मकार थे..... वे प्रगतिशील परम्परा का आधारस्तंभ थे..... वे अपनी सारी कमाई ऐसी फिल्मों के लिए झौंक देते थे जो उनकी, धर्मनिरपेक्ष सोच के तो करीब होती थीं लेकिन बॉक्स ऑफ़िसपर पिट जाती थीं | शहर और सपना, दो बूँद पानी, सात हिन्दुस्तानी कला की दृष्टि से बेमिसाल थीं | ये सब जुनूनी लेखक थे | फिल्मों में भाग्य आज़माने साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर भी आते रहे पर फिल्म इंडस्ट्री उन्हें कुबूल नहीं कर पाई | मैं भी नामी निर्देशक के पास प्रेमचंद की कहानी लेकर गई थी | अपनी तो क्या ले जाती, लेते ही नहीं वे | सोचा प्रेमचंद की कहानी पर मुझसे संवाद ज़रूर लिखवायेंगे | मिलते ही वे तपाक़ से बोले..... कहानी तो ठीक है पर ये प्रेमचन्द कौन हैं | लेकर आती उन्हें..... फिर फिल्म की रॉयल्टी देने में दिक्कत आती है | ” मैंने माथा ठोक लिया..... केबिन से बाहर निकलते यूँ लगा जैसे किसी ने हिन्दी साहित्य के परखच्चे उड़ा दिये हैं |

अब तो फिल्मों के बाकायदा नियुक्त किये लेखक होते हैं | जो उनके लिए पटकथा, संवाद आदि लिखा करते हैं | भले ही उनके नाम की जगह किसी और का नाम आये पर पैसे तो मिलते रहते हैं इन घोस्ट राइटर्स को |

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