खट्टी मीठी यादों का मेला
भाग – 2
(रात में बेटी के फोन की आवाज़ से वे जग जाती हैं, और पुराना जीवन याद करने लगती हैं कि कैसे वे चौदह बरस की उम्र में शादी कर इस घर में आई थीं, पति कॉलेज में थे. बाद में वही स्कूल में शिक्षक बन गए. दादी सास, सास-ससुर, ननदों से भरा पूरा घर था. उनकी भी चार बेटियाँ और दो बेटे पूरा घर गुलज़ार किए रहते)
गतांक से आगे.
पति को पढने का बड़ा शौक था, पूरे ध्यान से बच्चों को पढ़ाते. खुद भी टीचर ट्रेनिंग का कोर्स किया, एम. ए किया. चारो बच्चों को सुबह शाम बिठा कर खुद पढ़ाते. बच्चियों के सुघड़ अक्षरों में लिखी कापियां देखतीं तो दिल गर्व से भर आता. उन्हें तो बस रामायण और व्रत, उपवास की पोथियाँ पढने लायक अक्षर ज्ञान करवाया गया था. पर पति स्कूल के पुस्तकालय से और जब भी शहर जाते, अच्छी अच्छी पत्रिकाएं और किताबें खरीद लाते. बच्चों के नाम भी किताबों से पढ़करएकदम अलग सा रखा था. ममता तो सासू माँ ने रखा उसके बाद, स्मिता, प्रकाश, प्रमोद, नमिता सब पति ने ही रखे. स्मिता कितना झल्लाती 'कोई मेरा नाम सही नहीं बोलता, सब मुझे सिमता कहते हैं. और पति जबाब में कहते, "तो तुम सुधार दिया करो, इस तरह सबलोग एक नया शब्द तो सीख जाएंगे" स्मिता कहती, "वे लोग क्या सीखेंगे मैं भी यही समझने लगूंगी कि मेरा नाम सिमता ही है" वे बाप-बेटी की इस नोंक झोंक पर हंस पड़तीं
स्कूल में लम्बी गर्मी छुट्टी होती. और दिन में लू के डर से लोग घर के अंदर ही रहते. उन्हीं दिनों उनके पठन-पाठन का कार्यक्रम चलता. पति उन्हें खुद पढने के लिए बहुत उकसाते. पर घर के काम-धाम से थकी उन्हें सुनना ज्यादा अच्छा लगता. वे पंखा झलती और पति उन्हें पत्रिकाओं और किताबों से पढ़कर, कहानियां आलेख सुनाते. एक नया संसार ही उनके सामने खुलता चला जाता. पूरी गर्मी की दुपहरिया ऐसे ही कटती.
पति कहते, लड़कियों को कॉलेज में भी पढ़ाएंगे. हॉस्टल में रख देंगे. अपने साथ पढने वाली लड़कियों की बातें बताते की कैसे वे बिलकुल नहीं डरतीं, मर्दों के सामने भी खुलकर बोलती हैं तो वे समझ नहीं पाती, 'कैसी होती होंगी ये लडकियां?' एक बार ननदें मायके आई थीं और सबलोग मिलकर पास के शहर में सिनेमा देखने गए थे. वे बाद में पति से पूछ बैठीं थीं, इन फ़िल्मी हिरोईन जैसी लडकियां पढ़ती थीं, उनके साथ, कॉलेज में? पति जोर से हंस पड़े थे फिर बहुत ढूंढ कर किसी पत्रिका में कॉलेज में पढने वाली लड़कियों की तस्वीरे लेकर आए थे. तब वे देखती रह गयीं, ये तो बिलकुल गाँव की लड़कियों जैसी हैं... हाँ बस थोड़े कपड़े, अलग ढंग के पहने हैं... दुपट्टा पेट तक लम्बी रखने की बजाय गले में डाल रखा है. और कस कर दो चोटियाँ बनाने के बदले बिलकुल एक ढीली ढाली चोटी बनायी है. खुल नहीं जाती उनकी चोटी... वे सोचती रह जातीं.
फिर भी हॉस्टल में रखने की बात वे नहीं समझ पातीं, घर वालों से दूर बेटियाँ कैसे रह पाएंगी? ममता थी भी गाय सी सीधी. पति की लाई किताबें पढ़ती रहती या फिर छोटे भाई बहनों की देखभाल में लगी रहती. सबसे छोटी मीरा की तो जैसे बालिका माँ ही थी. हर वक़्त गोद में उठाये फिरती. मीरा भी स्कूल से आकर उसे किताबें भी नहीं रखने देती और गोद में चढ़ने को मचल पड़ती.
पर सोचा हुआ, कब हो पाया है. ममता ने दसवीं के इम्तहान दिए और ससुर जी ने फरमान सुना दिया. पास के गाँव के सबसे बड़े रईस जो उनके मित्र भी थे के पोते से ममता की शादी पक्की कर दी है. पति को वह लड़का बिलकुल पसंद नहीं था. उनके स्कूल का ही पढ़ा हुआ था. अव्वल नंबर का बदमाश और हर क्लास में फेल होने वाला. बस पिता के रसूख की वजह से पास होता रहा. पढने के नाम पर पास के शहर तो चल गया पर उसकी आवारगी के किस्से छन छन कर आते रहते. लेकिन ससुर जी का कहना था उन्होंने इन दोनों के बचपन में ही बात पक्की कर दी थी. लड़के के लायक ना होने की बात को वे सिरे से ही खारिज कर देते. पिता के सम्मुख कभी मुहँ ना खोलने वाले, पति ने भी जरा जोर से कहा, यह लड़का मुझे बिलकुल नहीं पसंद' इस पर ससुर जी ने हमेशा की तरह जोर से डांट दिया, "तुम्हे क्या पता, दुनियादारी क्या होती है, सिर्फ किताबों में घुसे रहो, इस उम्र में लड़के ऐसे ही होते हैं, सबलोग तुम्हारी तरह नहीं होते. शादी हो जायेगी, तो उसे अक्कल आ जाएगी" अपने ऊपर किए कटाक्ष को पति झेल नहीं पाए और भन्नाए हुए से बाहर निकल गए.
वे घबरा कर सास के पास गयीं. सास से उनके रिश्ते एक निश्चित फासले पर चलते. सास आज भी चाबियों का गुच्छा कमर में खोंसे रहतीं. पर काम सारे उनसे ही करवातीं, जरा संदूक में से ये निकाल दे, जरा वो रख दे. वे भी सास के अधिकारों में कोई भी अतिक्रमण नहीं करतीं. कुछ भी रसोई में नया बनाना हो तो सासू माँ से पूछ कर ही बनातीं, और वे अंदर से खुश होते हुए झूठा गुस्सा दिखाती, "अरी पूछती क्या है... बना लिया कर जो जी चाहे " मनिहारिन आँगन में बड़े से टोकरे से बिंदी, आलता, रंग बिरंगी चूड़ियाँ निकाल कर कपड़े पर सजा देती पर वे पूछतीं, "अम्माजी, ये लाल चूड़ियाँ ले लूँ?" और सास बदले में कहतीं "हाँ और वो कत्थई वाली भी ले लो". उनके पति कमाते थे, वे जो चाहे खरीद सकतीं थीं, पर इतना सा पूछ लेना, सास को जो ख़ुशी देता वे, उस से उन्हें वंचित नहीं करना चाहती थीं. वो मनिहारिन धूप में बड़ा सा टोकरा उठाये, गाँव में घर घर घूमा करती थी. पर वो विजातीय थी इसलिए कोई उसे पानी भी नहीं पूछता. भले ही उस से ख़रीदे श्रृंगार के सामन, 'चूड़ी आलता, बिंदी, कंघी, रिबन' गाँव की सारी औरतें मंदिर में देवी माँ को चढ़ातीं. एक दिन उन्होंने डरते डरते सास से कहा, ' बिचारी धूप में, इतना घूमती है प्यास लग जाती होगी... कुछ चना-चबैना देकर पानी दे दूँ? " सास चौंकी और जरा रुक्ष स्वर में बोलीं, "किस बर्तन में दोगी?" और उन्होंने स्वर में शहद घोल कर कहा था, "ये शहर से शीशे के ग्लास और प्लेट लाये हैं ना, उनमे से ही एक में दे देती हूँ और अलग रख दूंगी, वो जब भी आयेंगी उसी में दे दिया करुँगी " सास ने बड़ी अनिच्छा से कहा था, "जाओ जैसा मन में आए करो... ये बिटवा ने चार किताबें पढ़ पढ़ कर तुम्हारा भी दिमाग खराब कर दिया है... जाओ दे दो" और वे बच्चों को बुलाने भागीं कि जाती हुई मनिहारिन को आवाज़ देकर बुलाएं. वे जोर से चिल्ला भी नहीं सकती थीं.
आज भी उन्हें पूरी उम्मीद थी कि हमेशा की तरह सासू माँ उनकी बात मान जाएँगी. ममता को वे भी तो कितना प्यार करती हैं. उसका नाम भी उन्होंने ही रखा था. पर सास तो उन लोगों के नए ढंग से बने मकान पर रीझी हुई थीं. और उनलोगों की कार ने और भी मन मोह लिया था उनका. कई बार बाबूजी से कह चुकी थीं. पर बाबूजी नहीं माने थे, "यह सब पैसे की बर्बादी है, हमें गाड़ी का क्या काम, जब शहर जाना हो किराए पर मिल जाती है. " सास मन मसोस कर रह गयी थीं और आज अपनी कल्पना में पोती को गाड़ी में घूमती देखने के सिवा उनका मन कुछ और देखने को तैयार नहीं था. बोलीं, " अरे, इतने सुन्दर घर में बिटिया जा रही है, और क्या चाहिए. धनधान्य से पूर्ण अमीर लोग, देखने में लड़का क्या बांका लगता है, ममता राज करेगी. "
(क्रमशः )