और,, सिद्धार्थ बैरागी हो गया
मीना पाठक
(4)
सुन्दरी सम्मोहित सी अपलक स्वामी जी को निहार रही थी, उसे क्या हो रहा था ? स्वामी जी को देख कर मन और भी व्याकुल क्यों हो रहा था ? वह तो यहाँ पर मन की शान्ति के लिए आई थी पर यहाँ आ कर तो उसकी पीड़ा और भी बढ़ गई थी | हे ईश्वर ! ये मुझे क्या हो रहा है ? स्वामी जी बैरागी हैं और मै भी तो वैधव्य का जीवन जी रही हूँ फिर ये मुझे क्या हो रहा है ? स्वामी जी की मुखाकृति कुछ जानी पहचानी, देखी हुई-सी क्यूँ लग रही है | वह उनके चेहर से अपनी नज़रें हटा लेती है कि कहीं स्वामी जी ने अपनी आँखे खोल ली तो वह उसके मनोभाव समझ ना जाएँ |
आसमान में पूर्व और उत्तर के कोने में हल्की सी लाली फैलने लगी थी | बगीचे में पक्षियों का कलरव गूँजने लगा, पुजारी जी के आने का समय होने वाला था | सुन्दरी भगवान को प्रणाम कर स्वामी जी को उसी स्थिति में छोड़ कर घर की ओर चल दी | वह तो मन की शान्ति के लिए आई थी पर वहाँ से एक प्रश्न ले कर लौट रही थी | स्वामी जी को देख कर उसे क्या हो गया था ? घर का कार्य करते हुए वह सारा दिन स्वामी जी के ख्यालों में खोयी रही | अब उसके पाँव रोज उसे मंदिर पर ले जाते | वह स्वामी जी को आत्म मुग्धता से देखती और भीड़ लगने से पहले ही वापस आ जाती | एक अजीब सा सुख मिलता उसे स्वामी जी के सानिध्य से |
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आज उनका हृदय जोर-जोर से धड़क रहा था..कोई पहचान ना ले..वह कमजोर ना पड़ जाए कहीं पर..जो भी हो पर आज तो उन्हें आखिरी बार जाना ही है वहाँ..आखिर उसी द्वार से भिक्षा मांगने के लिए तो उन्होंने ना जाने कितने द्वार से भिक्षा मांगी है..स्वामी जी के पाँव अपनी मंजिल की ओर बढ़ते जा रहे थे और मन तेज़ी से भूत की ओर..उस दिन अपने कमरे से निकल कर वह भाग कर गाँव के बाहर नहर के पुल पर जा बैठा था..अपमान और क्रोध के कारण उसका जी कर रहा था कि वह इसी नहर की हरहराती धारा में छलांग लगा दे पर हिम्मत नहीं हुई ..वह सुबह क्या बताएगा अपने दोस्तों को कि कल रात में क्या हुआ उसके साथ..नहीं-नहीं वापस घर नहीं जाएगा पर कहाँ जाय !..और तभी उसे सोन किनारे उस मठ की याद आती है..एक बार वह बाबा के साथ वहाँ गया था..गल्ला पहुँचाने..वहाँ मठ में साधू-सन्यासी रहते थे और दूर-दूर से गाँव वाले उनके लिए राशन-पानी की व्यवस्था कर निहाल होते थे..उसके किशोर मन ने एक निर्णय लिया और भागता चला गया मठ की ओर..फिर घूमता रहा इस मठ से उस मठ..पर घर की ओर रुख नहीं किया..वर्षों तक सेवा करने के बाद उसने दीक्षा ले लिया था..उम्र बढ़ने के साथ कई बार मन में आया कि लौट जाए घर..उस मासूम गुड़िया का ख़याल भी आया..उसकी नासमझी पर हँसी भी आई और अपनी मूर्खता पर क्रोध भी आया..पर अब लौटना उसके लिए संभव नहीं था..हाँ..एक बार उसे उस द्वार पर अवश्य जाना था..भिक्षा लेने..फिर मठ लौट जाना था कभी वापस ना आने के लिए |
पाँव ठिठक कर रुक गए थे | मन वर्तमान में आ गया था | सामने ही वो बैठी थी | एक पल के लिए विचलित हुये | मन कह उठा. “मेरे कारण तुमने अपने जीवन में अँधेरा क्यूँ भर लिया ?” पर अगले ही पल पूरी दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ गए |
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ओसारे में बैठी सुन्दरी धूल-मिट्टी में मिले हुए धान को अलग कर रही थी | कपड़े की छोटी सी पोटली बना कर मिट्टी के साथ मिले धान की ढेरी पर दबाती जा रही थी, धान पोटली के तले में चिपक जाता और वह उसे अलग झाड़ लेती, इस तरह मिट्टी से धान आसानी से अलग करती जा रही थी | हाथ तो अपना काम कर रहे थे पर मन कहीं और भटक रहा था | धीरे-धीरे पूरे छ: वर्ष बीत गए, यौवन में कदम रखते ही वह अपनी हमउम्र सखियों की तरह अपने प्रीतम का भेजा हुआ पत्र सबसे छुप कर बाँचना चाहती थी | रोज डाक काका की राह देखती पर वह सायकिल की घंटी बजाते उसके सामने से निकल जाते और वह मायूस हो जाती, सोचती कि वह अभी तक मुझसे नाराज हैं. फिर सोचती क्यों ना मैं ही पत्र लिख कर उन्हें बता दूँ कि वो मेरी बालपन की नासमझी थी; पर पत्र अगर किसी और के हाथ लग गया तो कोई क्या कहेगा ! हँसी होगी मेरी, यही सोच कर वह सकुचा जाती और पत्र नहीं लिखती पर मन ही मन अपने प्रीतम की छवि से बतियाती, लजाती और मुस्कुराती | अचानक ही उस दिन डाक काका की सायकिल रुक गई वह बहुत खुश हो गई | उसके ससुर जी का पत्र था | दिन धरा गया और फिर से वह विदा हो कर अपनी आँखों में सुन्दर सपनो का संसार बसाए अपनी ससुराल आ गई पर इस बार ना जाने कैसी उदासी से उसे उतारा गया और उसी दक्खिन कमरे में ला कर बैठा दिया गया |
दीवार पर एक सुन्दर से बालक की तस्वीर टंगी देख कर वह मुस्कुरा दी | तस्वीर उतार कर आँचल से पोंछ फिर से वहीं टांग दी | मन ही मन सोच रही थी इतने वर्षों बाद देखूँगी, ना जाने कैसे दिखते होंगे | बिदा कराने भी नहीं गए..अब तक रिसिआये हैं ..खीस कम नहीं हुई है | रात में बनी संवरी लजाई सी पलंग पर बैठी प्रतीक्षा करती रही और मन ही मन सोचती रही कि आते ही उनका पैर छू कर उन्हें मना लूँगी..आखिर गलती भी तो मैंने ही की थी ना..अपने दूल्हे से कोई इस तरह झगड़ता है भला ? और जब मान जाएँगें तब इतने दिनों में एक भी चिट्ठी ना भेजने का उलाहना भी दूँगी..फिर पूछूँगी कि का एक बार भी मेरी याद नहीं आई ? पर पूरी रात आँखों में बीत गई जिसकी प्रतीक्षा थी वह नहीं आया | अगले ही दिन उसके ऊपर कुठाराघात हो गया था कि जिस दिन वह ब्याह कर इस घर में आई थी उसी रात से वह लापता था | बहुत खोज-खबर की गई पर कुछ पता नहीं चला |
जब बाबू जाने कि दामाद कहीं कमाने नहीं गया बल्कि घर से भागा है..तो कैसे वह आँधी- तूफ़ान की तरह आये थे..उनका प्रचण्ड रूप देख कर ससुर जी काँप गए थे..पंचायत बैठी..भाई-पटिदार सब जुटे..पंचों का निर्णय भी पिता के पक्ष में गया पर उसने वहीँ सब के सामने अपने पिता से कह दिया कि-“अब यही हमारा भाग है..भगवान जी ने लिलार पर जउन लिख दिया है..ऊ त भोगना ही है..अपने करम से कहाँ तक भागेगें हम |”..बहुत कहने पर भी वह नहीं मानी थी..पिता निराश हो कर वापस चले गए थे..तब से चुपचाप अपना जीवन यहीं ससुराल में काट रही थी
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-“भिक्षामदेहि |”
अचानक आवाज सुन कर चौंक पड़ी, उसने देखा मंदिर वाले स्वामी जी अपना कमण्डल आगे किये भिक्षा मांग रहे थे | हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई | मन बसंत सा खिल उठा..आँखों ने झपकान बंद कर दिया..चेहरे पर सातो रंग बिखर गए..होंठों पर एक मधुर मुस्कान तिर गई |
“आज तो दुआर पवित्तर हो गया स्वामी जी |”
दौड़ कर भीतर से साफ चादर ला कर वहीं बिछे तख़्त पर बिछा देती है | आज तो सुन्दरी के पाँव धरती पर नहीं पड़ रहे थे | गाँव का हर घर चाहता था कि स्वामी जी एक बार उनके द्वार पधारें..आज सुन्दरी का भाग खुल गया था |
“देवी ! मेरे पात्र में कुछ भिक्षा डाल दो |”
सुन्दरी हाथ जोड़ कर उनके सामने खड़ी हो गई, “नहीं महाराज..पहले आप कृपा कर के विराजिए |” सुन्दरी का निहोरा स्वामी जी ठुकरा ना सके या शायद वह स्वयं भी कुछ देर वहां रुकना चाहते थे..खड़ाऊँ उतार कर तख़त पर बैठ गए |
सुन्दरी वहीं मचिया खींच कर बैठ गई | स्वामी जी को देख कर उसे फिर वही अजब-सी अनुभूति हो रही थी | स्वामी जी ने चारो तरफ नज़र दौड़ाया |
“घर में और कोई नहीं क्या ?”
“हैं ना ! बड़का जेठ जी ब्लाक पर गए हैं, मझले भाई खेतों की ओर निकल गए हैं और”... कुछ कहते-कहते रुक गई सुन्दरी..उसकी नजर कोठरी के बंद दरवाजे की तरफ उठ गई..दिल में एक टीस-सी उठी..पर तुरंत संभल कर बोली, “सबसे छोटे देश के काम पर गए..बाकी सब सो रहे हैं..दोपहर है ना !”
स्वामी जी थोड़ा बेचैन होते हैं, “क्या कोई बड़ा-बूढा नहीं है घर में ?”
“नहीं स्वामी जी, बाबूजी को स्वर्ग सिधारे पांच वर्ष हो गए और अम्मा जी पिछले वर्ष गोलोकवासी हो गयीं |”
“ओह्ह !” स्वामी जी का मुख मलिन हो गया |
“देवी ! मुझे अब विदा करो |”
सुन्दरी भीतर चली गई | स्वामी जी अपने वस्त्र से नेत्रों में आ गए अश्रु को सुखाने लगे तभी एक वृद्धा लाठी टेकती हुई हाथ जोड़ उनके सामने आ कर बैठ गई और उनकी ओर भक्ति भाव से देखने लगी | कुछ पल बाद ही उन्हें देख कर उसकी आँखे कुछ सोचने की मुद्रा में सिकुड़ गयीं..जैसे दिमाग पर जोर डाल कर कुछ याद करने की कोशिश कर रही हो..जैसे ही उसकी नजरें स्वामी जी के चेहरे से सरक कर उनके हाथों पर पड़ी..वह चौंक पड़ी..आश्चर्य से उसकी आँखे फ़ैल गयीं..स्वामी जी के एक हाथ में पाँच की जगह छ: उँगलियाँ थीं | स्वामी जी भी वृद्धा को पहचानने का प्रयास कर रहे थे |
तभी वृद्धा के होठ फड़क उठे, विश्वास-अविश्वास के बीच झूलती वह बोल पड़ी -
“सिद्धार्थ बाबू...! सिद्धार्थ बाबू हो ना !”
स्वामी जी बगलें झाँकने लगे | उन्हें लगा कि अब यहाँ एक पल भी रुकना ठीक नहीं, कहीं मोह-माया उनके पाँव ना जकड़ लें | वृद्धा अब भी अपना सवाल दोहरा रही थी | तभी सुन्दरी एक पीतल के कटोरे में चावल भर उस पर एक गुड़ की भेली रख कर ले लाई और स्वामी जी के भिक्षा पात्र में बड़ी श्रद्धा से डाल दी | स्वामी जी उठे और एक पल की भी देरी किए बिना लम्बे-लम्बे डग भरते हुए चल दिए | उनके आने का उद्देश्य पूरा हुआ | कदम शरीर का बोझ उठाये गाँव के बाहर की ओर तेजी से बढ़े जा रहे थे पर मन जैसे साथ चलने से इनकार कर रहा था |
“ई का कइले रे दुलहिन ? अपने हाथे से उनके भीख दे दिहले ?” अभी तक असमंजस की स्थिति में खड़ी वृद्धा पूरे विश्वास से बोल पड़ी |
सुन्दरी आवाक रह गई वृद्धा की बात सुन् कर |
“अरे मौसी ! ऊ त मंदिर वाले स्वामी जी थे ना ! बड़े भाग से ई दुआर काँड़े आजु |”
“फेरू से अपने हाथे आपन भाग फोर लिहले रे दुलहिन..! तू त आजो बउरही है..अरी ऊहे तो था..जिसकी बाट तू रोज जोहती थी...और आजो नाहीं पहिचान पायी तू उसे..आज से वह पूरा बैरागी हो गया...सिद्धार्थ बैरागी हो गया रे बहुरिया..सिद्धार्थ बैरागी हो गया !” वृद्धा के अश्रु बह चले |
वह उसकी सास की बचपन की सखी थी, एक ही गाँव में दोनों ब्याही गयीं थीं | ये बात सास बताया करती थीं, इसी लिए वह उससे अपार स्नेह करती थी | यदा-कदा अपनी लाठी टेकती हुई उसके पास आ ही जाती थी, सुन्दरी और उसके पति के अलावा एक वही थी जिसे सब कुछ मालूम था | सुन्दरी ने उससे अपने ब्याह के बाद पहली रात की पूरी बात बाताई थी |
सुन्दरी के हाथ से कटोरा छूट कर छन्न की आवाज करता हुआ नीचे गिर गया और वह पत्थर की मूरत बनी खड़ी रह गई | उसके कानों में मौसी के शब्द पिघले सीसे की तरह रेंगते हुए उतरते जा रहे थे |
“सिद्धार्थ बैरागी हो गया रे बहुरिया..सिद्धार्थ बैरागी हो गया !”
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अचानक उसकी आँखों के सामने घोर अँधेरा छा गया..उसका शरीर पत्ते की तरह काँप उठा ..पैरों में जान नहीं बची..लगा जैसे पूरी धरती उसे ले कर घूमती हुयी पाताल में उतरती जा रही हो..आँखें मूँद ली उसने..बंद आँखों के सामने जिन्दगी की वो दो शापित रातें साकार हो उठीं जिनकी सियाही ने उसका पूरा जीवन ही काला कर दिया था...अब तो कोई आस नहीं बची थी..जिस आस में वह जी रही थी..वह भी आज टूट गयी थी..नहीं पहचान पायी थी उसे..वह चेतनाशून्य होती जा रही थी तभी..बाँसुरी की धुन की तरह एक आवाज उसके कानों में उतरती चली गयी..
“सुन्दरी !”
किसी ने उसे आवाज दी थी..उसने आँखें नहीं खोली..ये उसका भ्रम था..अब उसे सुन्दरी कहने वाला कौन था ! तभी फिर से आवाज आयी..
“सुन्दरी !”
अबकी बार उसने आँखें खोलनी चाही पर पलकों पर जैसे मनों बोझ था..नहीं खुली..तभी किसीने जोर से झकझोर दिया..बोझिल पलकें खुलीं...सामने धुंधली-सी आकृति धीरे-धीरे साफ़ होती गयी |
”कितना सोओगी..! कबसे आवाज दे रहा हूँ..सुनती ही नहीं..निकलो..हम घर पहुँच गए..|”
उसे लगा वह बरसों का सफ़र तय कर के आयी है..तन-मन दोनों से थका हुआ महसूस किया उसने..उससे नजरें हटा कर उसने घर की ओर देखा..वही पुराना घर मरम्मत और रंग-पुत कर नया हो गया था..बड़े जेठ के पोते का यज्ञोपवीत संस्कार में वो आगरा से चल कर अपने गाँव आये थे..दोनों जिठानियाँ दरवाजे पर उसके स्वागत को खड़ी थीं..कुछ और मोटी हो गयीं थीं दोनों..वह गाड़ी से उतर उनकी तरफ बढ़ गयी..जैसे ही झुकी दोनों ने उसे अँकवार में भर लिया..बाकी लोग गाड़ी से सामान उतारने लगे |
रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी..पूरा घर सो रहा था पर उसकी आँखों से नींद कोसो दूर थी..मन बेचैन..वह उठी और दबे पाँव उस कमरे के दरवाजे पर आ खड़ी हुई..दिल धड़क उठा..धीरे से दरवाजा खोल कर भीतर आ गई और दरवाजे के पास लगा स्विच ऑन कर दिया..चट्ट की आवाज के साथ कमरा रौशनी से नहा उठा..अब ये वो दक्खिन कमरा नहीं था..स्टोर रूम बना दिया गया था..बड़े-बड़े बक्सों पर छोटे बक्से और अटैचियाँ कपड़े से ढकी हुई लदी थीं..अनाज के ड्रम भी रखे थे..एक तरफ उसका पलंग आज भी पड़ा था..उसपर ढेरों कपड़े लदे थे..पूरा कमरा सामान से भरा था..वह दीवार पर कुछ तलाशने लगी..पर वहाँ कुछ भी नहीं था..हाँ, वो कील वैसे ही आज भी दीवार की छाती पर गड़ी थी..मन में एक टीस उठी और आँखें छलछला गईं..एक लम्बी साँस भर के वह जैसे ही पलटी..काँप उठी..भय से आवाज थरथरा गयी..लगा कि चोरी करते रंगे हाथ पकड़ ली गयी है..मुंह से अनायास ही निकल पड़ा..”बाआआ..बूऊऊऊ..!”
उसके होंठों पर उंगली रख दी उसने..”सारी दुनिया से लड़ कर हाथ थामा था तेरा..इस लिए नहीं कि तू सारी जिन्दगी मुझे बाबू कहती रहे..समझी..चल यहाँ से..ये अब तेरा कमरा नहीं..स्टोर रूम है..भैया-भौजी ने जिद ना की होती तो तुझे ले कर कभी ना आता यहाँ..|” मुकेश सुन्दरी का हाथ थाम कर पूरब वाली कोठरिया की ओर बढ़ गया |
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