मन्नू की वह एक रात
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग - 5
‘जल्दी अंधेरा करो, जल्दी अंधेरा करो।’
हम कुछ नहीं समझ सके तो उसने खिड़की दरवाजे बंद करके पर्दे से ढक देने को कहा। मकान तो देख ही रही हो कि तीन तरफ दूसरे मकान बने हैं। रोशनी आने का रास्ता सिर्फ़ सामने से है। और सबसे पीछे कमरे में तो अंधेरा ऐसे हो जाता है मानो रात हो गई हो। हम पीछे वाले कमरे में ही थे। उसने हम दोनों को करीब बुलाया और फिर धीरे-धीरे अपनी मुट्ठी खोली तो उसकी हथेली पर उस अंधेरे में कुछ चमक रहा था। महक भी कुछ अजीब सी आ रही थी। वह महक दीपावली की न जाने क्यों याद दिला रही थी। फिर उसने कहा,
'‘देख कितनी आत्माएं हैं इस घर में जो तुझे मां नहीं बनने दे रहीं। पिछले जन्म में तूने गो हत्या की और नाम दूसरे का लगा दिया। इससे दो घरों में झगड़ा हुआ जिसमें कई लोग मारे गए। मरने वालों में कई बच्चे भी थे। गो हत्या से नाराज देवताओं के कारण बीमारी फैली जिससे कई लोगों की अकाल मृत्यु हुई। उस कारण उनकी आत्माएं भटक रही हैं। और जब-तक यह भटकेंगी तू मां नहीं बन सकती। इन सबको मुक्ति दिलानी ही होगी।'’
वह बराबर हथेली को हिला रहा था। जिससे जुगनू सी चमक हो रही थी और हम दोनों अचंभित से देख रहे थे। फिर बाबा ने खिड़कियों के पर्दे हटवा दिए अब मोटे शीशों को पार कर कुछ रोशनी आने लगी थी। तब वह फिर बोला,
'‘अभी कुछ देर के लिए मैं इन आत्माओं को रिहा कर रहा हूं फिर हवन कुंड में इन्हें भस्म कर हमेशा के लिए मुक्त कर दूंगा।'’
मेरी मूर्खता देखो कि उस समय मेरे दिमाग में यह नहीं आया कि आत्मा तो अजर-अमर है। वह चाहे जैसी हो किसी भी तरह उसे मारा नहीं जा सकता। जबकि न जाने कितनी बार गीता पढ़ चुकी थी। लेकिन जब मति भ्रष्ट थी तो क्या हो सकता था।
इसके बाद बाबा ने कमरे के सबसे कोने में जगह साफ कराई । वहां अपने साथ लाए गंगा-जल को छिड़क कर उसे पवित्र किया। यह सब करते हुए वह न जाने कौन-कौन से मंत्रों को उच्चारित किए जा रहा था। संस्कृत भाषा में वह इतना स्पष्ट उच्चारण कर रहा था कि उसकी विद्वता की मैं कायल हुई जा रही थी। करीब आधे घंटे में उसने सारी तैयारी कर ली। वहीं ज़िया उसे पूरे मन-प्राण से मदद कर रही थीं । मैं एक तरफ कोने में चटाई पर बैठी थी। क्योंकि बाबा ने कुछ लौंग मेरे हाथ में देकर कहा था कि उसे मैं मुट्ठी में बंद कर आंख मूंद कर बैठी रहूं। मैं उसके आदेशानुसार बैठी रही।
तैयारी पूरी होने पर उसने मुझे पूजा स्थान पर बुला कर बैठाया। कुछ देर तंत्र-मंत्र करने के बाद मेरे हाथों में रोली, सिंदूर और न जाने क्या-क्या लगाया, मेरे माथे , पूरी मांग में मुट्ठियों से सिंदूर भर दिया। इस बीच ज़िया बैठी देखती रहीं । करीब बीस मिनट की पूजा के बाद उसने उठ जाने को कहा। हाथ में तमाम तरह की पूजा सामग्री भर दी थी। फिर उसे ले जाकर छत पर डाल आने और पलट कर न देखने की हिदायत दी। यह कर जब लौटी तो उसने हवन-कुंड में मंत्र पढ़-पढ़ कर सात बार हवि दी। फिर साबूत नारियल जटा वाला उठा कर लोहे के उस छोटे से हवन-कुंड के धुंए में सात बार दिखाया और फिर जल्दी-जल्दी उसकी जटा हटा कर नारियल तोड़ दिया। मैं और ज़िया एकदम दंग रह गए। उसमें से चूड़ी के टूटे हुए सात टुकड़े, बहुत छोटी सी एक चुनरी, और सात लौंग जो कि सिंदूर में रंगी हुई थीं निकलीं। एक साबूत नारियल से यह सब निकलना हम दोनों को आश्चर्य में डालने के लिए काफी था। हम अभिभूत हो बाबा के चरणों में गिर कर पूछने लगे ’यह क्या है बाबा।’
'’यह तुझ पर किए गए टोने का सामान है। असल में तू एक साथ कई बाधाओं से घिरी है। एक तरफ पिछले जन्म की बाधाएं हैं तो दूसरी तरफ इस जन्म में तेरे किसी अपने ने ही तुझ पर टोना किया है। वह तुझे बरबाद कर देना चाहती है।'’
‘लेकिन बाबा किसने किया। मेरा तो किसी से झगड़ा भी नहीं है। अपनी जान में मैंने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा। फिर किसी ने ऐसा क्यों किया ? और कब किया ?’
'‘तुमने भले ही इस जन्म में किसी का कुछ न बिगाड़ा हो लेकिन जलने वालों की कमी नहीं है। न जाने तुम्हारी कौन सी बात कौन अपने बुरा मान जाएं कई बार खुद तुम्हें भी नहीं मालूम होता। जिसने भी किया है वह तुम्हारे ही घर का है।'’
’बाबा कौन हो सकता है। हमें बता दें जिससे हम उससे सावधान रहें।’
‘'नाम बताने पर तुममें प्रतिशोध की भावना जागेगी, तुम भी गलत रास्ते पर चल वही सब करोगी। फिर ऐसी मार-काट चलेगी कि तुम दोनों बरबाद हो जाओगी।'’
’तो बाबा कुछ ऐसा कर दीजिए कि टोने का असर ख़त्म हो जाए और आगे भी कुछ बुरा न हो।’
’'मैं कर तो सब दूंगा लेकिन जो हमला किया है उसने उसके लिए हमें यहीं बलि देनी पड़ेगी। क्योंकि उसने तो तेरे पति की ही जान लेने की कोशिश की है। ऐसा करके वह न सिर्फ़ तुझे मां बनने से रोकना चाहती है बल्कि पति की जान लेकर वह तुझे हर तरह से दर-दर की भिखारिन बना देना चाहती है।'’
बाबा की यह बात सुन कर मेरी रुह कांप गई। मैं क्या करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मैं एक दम शरणागत हो बाबा के सामने रो पड़ी। उसके आगे हाथ जोड़ कर कहा कि बाबा मुझे इस समस्या से किसी भी तरह बचाओ। बाबा बड़ी गंभीरता से हवन कुंड को देखता रहा फिर मेरी तरफ घूरते हुए बोला,
‘तू घबरा मत, मैं इस समस्या से तुम्हें हमेशा के लिए छुटकारा दिला दूंगा। पूजा के बाद तू नौ महीने में ही मां बन जाएगी। मगर एक बड़ी समस्या है बेटी।’
’क्या बाबा आप बताइए आप जो कहेंगे मैं करूंगी।’
‘देख मुझे एक साथ दो पूजा करनी होगी। एक तेरे पति की जान बचाने के लिए। दूसरी मां बनने के लिए रास्ता साफ हो इसके लिए।’
‘तो बाबा करिए न।’
'‘देखो पति की रक्षा के लिए बलि देनी पड़ेगी। मैंने पहले ही बताया कि बड़ी समस्या यह है कि बलि यहीं देनी है। लेकिन यहां किसी जीव की बलि संभव नहीं। उसका एक ही उपाय है कि उसकी जगह स्वर्ण देवी को स्वर्ण अर्पण कर दूं। लेकिन शायद यह तू नहीं कर पाएगी क्योंकि कम से कम एक तोला स्वर्ण चाहिए। अब तू ही बता कि तू क्या चाहती है। पति, बच्चे या फिर जीवन भर दुखों का पहाड़ ढोना चाहती है।'’
बाबा की बात सुन कर मैं कांप गई अंदर तक। मैंने प्रश्न भरी नजर से ज़िया की तरफ देखा ज़िया भी असमंजस में दिखाई दीं। फिर उठ कर मैं ज़िया को लेकर दूसरे कमरे में आई उनसे पूछा तो वह बोली,
'‘मन्नू एक तोला सोना बहुत होता है। देवी-देवता पर तो सोने का पत्तुर ही चढ़ाते हैं। मगर बाबा जी भी पहुंचे हुए लग रहे हैं। उनकी बात को टालना मुझे तो सही नहीं लग रहा। पूजा कराने का तुम संकल्प भी ले चुकी हो।'’
ज़िया की बात सुन कर मैंने अनमने ढंग से ही लौट कर बाबा से पूजा पूरी करने को कह दिया। सोने की दो चूड़ियां मैंने निकाल कर दे दीं।'
‘लेकिन दीदी स्वर्ण देवी नाम की भी कोई देवी हैं यह मैं पहली बार सुन रही हूं।’
‘हां मैंने भी उसी बाबा से पहली और अखिरी बार सुना था यह नाम। मगर उस क्षण ऐसी घबराई-अफनाई हुई थी कि कुछ सूझ ही नहीं रहा था। इन बातों पर ध्यान तब गया जब यह चैप्टर क्लोज हुआ और मन में लंबे समय तक उथल-पुथल मची रही। खैर जब मैंने चूड़ियां दे दीं तो बाबा ने चूड़ियों पर अभिमंत्रित जल छिड़का। फिर एक काग़ज़ पर पूजा की कई सामग्री लिखीं जिस में जड़ी बूटियां भी थीं। उन्हें लाने को कहा जो घर से कई किलोमीटर दूर अमीनाबाद में ही मिल सकती थीं।
समस्या यह खड़ी हुई कि मैं पूजा पर बैठी थी किसी और को बताना नहीं चाहती थी। अंततः ज़िया बड़ी हिचकिचाहट के साथ गईं । वह मुझे अकेले नहीं छोड़ना चाहती थीं । वह जानती थीं कि सामान खरीदने आने-जाने में दो-ढाई घंटे लग जाएंगे। मैं भी अंदर-अंदर भय-भीत थी लेकिन बाबा की बात सुनने के बाद अब मैं नौ महीने में बच्चा पाने का सपना देख रही थी। सो मैंने ज़िया को भेज दिया। अब बाबा ने अपनी पूजा और भी फैला दी। मैं पहली बार किसी पूजा में उस तरह का तमाशा देख रही थी। ज़िया के जाते ही बाबा ने नारियल में से निकली सारी सामग्री और अन्य कई चीजें हवन कुंड में डाल दीं। फिर मंत्र पढ़ कर मुझ पर तमाम पानी और अन्य सामग्री छिड़की और मुझ से कहा,
‘'नहा कर सिर्फ़ एक कपड़े में आओ'’ मैं परेशान सी उसे देखती रही तो वह फिर बोला,
'‘परेशान होने की ज़रूरत नहीं। यह इस तांत्रिक पूजा का विधान है। यदि तुम्हारा पति भी साथ देता तो विधान के हिसाब से पति-पत्नी दोनों को यह पूजा निर्वस्त्र होकर करनी होती है। लेकिन पति शामिल नहीं है इसलिए मैंने किसी तरह यह रास्ता निकाला है। संकोच न कर जा जल्दी कर और सिर्फ़ साड़ी ही लपेट कर आना।'’
अब मैं डर के मारे कांपने लगी थी। ज़िया भी नहीं थीं । मैं उठ कर बाथरूम की तरफ गई। मगर नहाने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी। मैंने एक-दो बार झांक कर बाबा को देखा तो वह पहले ही की तरह पूजा में व्यस्त था। अंततः मैंने सोचा चलो जो होगा देखा जाएगा जब इतना कुछ करती आ रही हूं तो यह रिस्क भी लेती हूं। मैंने जल्दी-जल्दी खूब नहाया ढेर सा सिंदूर वगैरह लगा होने के कारण समय थोड़ा ज़्यादा लगा। जब केवल साड़ी पहनने के लिए मैंने साड़ी उठाई तो बड़ा अजीब सा लग रहा था। डरते-हिचकते खाली साड़ी लपेट ली। मगर बदन न पोंछने के कारण वह बदन से जगह-जगह चिपक गई थी। शीशे में अपनी अस्त-व्यस्त हालत देख कर मेरा मन एक बार भटका मैंने सोचा पूरे कपड़े पहनूंगी। पूजा हो या न हो। मैं सारे कपड़े पहन कर पहुंची तो देखा बाबा आंखें बंद किए मंत्र पढ़े जा रहा था। और हवन कुंड में तरह-तरह की सामग्री भी डाले जा रहा था। उससे जो धुवां निकल रहा था वह अब अजीब कसैला सा लग रहा था। मैंने पहुंच कर कहा,
’बाबा जी मैं आ गई अब बताइए क्या करना है।’ बाबा बिना आँखें खोले ही क्रोधित हो बोला,
’'तूने देवता का कहना नहीं माना। कहने के बावजूद तूने सारे कपड़े पहने हैं। तू सारी पूजा क्यों बरबाद करना चाहती है।'’
मैं बाबा की बात सुन कर दंग रह गई कि उसने मेरी तरफ देखे बिना कैसे जान लिया कि मैंने साड़ी के अलावा ब्लाउज, पेटीकोट वगैरह भी पहन रखे हैं। मैंने कांपते हुए हाथ जोड़ कर माफी मांगी। अब बाबा का प्रभाव मुझ पर और भी ज़्यादा बढ़ गया। मैं भागी-भागी कमरे में गई और जल्दी-जल्दी सारे कपड़े उतार कर एक दूसरी धोती लपेट ली और शीशे के सामने देखने लगी कि कहीं से कोई अंग दिख तो नहीं रहा। अपने को शीशे में देख कर मुझे असमय ही गांव की पड़ाईन चाची अचानक याद आ गईं।
जब भी मैं उनके घर जाती थी तो वह बड़े से रसोई घर में परिवार के अठारह-उन्नीस लोगों का खाना बनाते या फिर आंगन में बरतन मांजती ही दिखतीं थीं बस एक सूती धोती में। जाड़ा हो या गर्मी उनके तन पर बस एक धोती दिखती। और झलकते रहते थे उनके शरीर के अंग भी। उनका भरा-पूरा शरीर मेहनती होने का प्रभाव देता दिखता था। गर्मी के दिनों में तो पसीने से उनका बदन तर-बतर रहता था। उनके चुल्हे में लकडी़ जलती ही रहती थी। बदन पर पसीने से चिपकी उनकी धोती उनका ही आख्यान बांचती थी। उन कुछ सेकेण्ड में ही तन पर लिपटी वह धोती पड़ाईन चाची की व्यथा का मुझे अहसास करा गई। मगर बाबा के प्रभाव के आगे सब बेकार था। सकुचाती हर तरफ से अपने को समेटती जल्दी से जाकर बाबा के सामने बैठ गई। बाबा फिर बिगड़ गया।
‘'हुं अ अ....... तू बिना पूछे क्यों बैठ गई। खड़ी हो जा'’ मैं फिर खड़ी हो गई। बाबा ने फिर मंत्र पढ़ कर मुझ पर अंजुरी में पानी भर-भर कर ग्यारह बार फेंका। हवन कुंड का धुवां वह मेरी तरफ हाथ से करता जा रहा था और बोलता जा रहा था,
‘'जय- काली मां भर दे इसकी झोली।'’
हवन कुंड का धुवां मुझे अपने यहां के बब्बनवा की याद दिला रहा था। वह हल जोतने या खेत में कुछ काम करके जब घर आता तो अम्मा जो खाना देतीं उसे खाने के बाद बाहर कुएं के किनारे बैठ जाता और चिलम भर के पीता। उस समय खेलते हुए एक-आध बार जब उस ओर से गुजरी तो उसका कसैला धुवां अंदर जाते ही उबकाई सी होने लगती। आज हवन का धुवां भी कुछ वैसा ही अहसास दे रहा था। मुझे कुछ नशा सा हो रहा था। दुनिया भर की तरह-तरह की पूजा करने के बाद बाबा ने आटे से एक बच्चे की अनुकृति बनाई और मुझे देकर कहा,
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