Shuru se shuru karte hai in Hindi Short Stories by Rita Gupta books and stories PDF | शुरू से शुरू करते हैं

Featured Books
Categories
Share

शुरू से शुरू करते हैं

शुरू से शुरू करतें हैं द्वारा रीता गुप्ता

"अनु तुमने उससे बात की?"
आज मम्मी ने फिर अनुश्री से पूछा. पिछले कुछ दिनों से ये नया सिलसिला शुरू हुआ था। मम्मी उसे याद दिलाती कि अनुश्री को आकर्ष से पूछना चाहिए। बदले में अनु फटी फटी दृगों से मम्मी को तकती रह जाती, फिर उसकी दृष्टि स्वत: ही शून्य में विलीन हो जाती और भावनाशून्य हो मृतप्राय बोझिल देह देर तक आत्मा पर हो रहें दंश को झेलती रहती।
आत्मा तो उसकी जाने कब से जख्मी लहुलुहान ही थी. पहले रो कर, आंसू बहा कर तपती मरुभूमि से मन को सिंचित कर फिर से हरा भरा करने का अथक प्रयास करती थी. पर अब जाने मन कैसा उजाड़ मरुस्थल हो चुका था कि अश्रु सैलाब एक कैक्टस उगाने में भी असफल हो रहे थें। कितना भारी लगा था उसे अपनी भावी सास के द्वारा अंजुरी में दिया गया अक्षत और शगुन। इतना वजन कि उसकी आत्मा उसी वक़्त दब गयी-कुचल गयी। कितनी चुभन थी उस महावर में जो उसके पैरों में रचाई गयी थी। जख्मी रक्त टपकते ह्रदय से उसने ससुराल में प्रवेश लिया था. क्या वो आलता रचे पैरों के छाप थे जो वह नयी दुल्हन के रूप में छम छम कर बनाती जा रही थी, ऐसा सबको लगा होगा पर उसने तो आलता वाले थाल में पैर ही नहीं रखा था; फिर क्या ह्रदय की चुभन इतनी भेदक थी कि तलुवे से रक्त टपक गया।
अब ऐसे टूटे भग्न ह्रदय से प्यार की वादियाँ तो सजती नहीं हैं, पर उसने कोशिश जरुर की, कि वह फिर से अपने दिल के किरचों को जोड़ एक नया दिल बना ले. उन किरचों को जिन्हें वह अपनी विदाई के वक़्त अपने आँचल के खोइंचे में बटोर लायी थी कि एक नयी राह को सजा सके उसके साथ जिसके साथ उसने सात फेरे लिए थे.
मम्मी ने चलते वक़्त आँचल में खोइंचा दिया था इस आशीष के साथ,
"जा अब अपने घर सुखी रह"
शब्द दर शब्द वह उन्हें बटोर लायी थी मायके से, अपना कुछ भी नहीं छोड़ा था. पूर्ण सम्पूर्णता से प्रवेश लिया था उसने गृहस्थ जीवन में। हर रक्तिम पग के साथ वह अपना अरुणिम अतीत छोड़ कर अग्रेसित हुई थी. वह खुद तो प्रवेश कर गयी पर बहुत कुछ ऐसा था जिनका ना कोई रूप होता है ना ही रंग; ना ही वह दिखाई देता है, वह था उसका मन जो उसके साथ आया ही नहीं। अनुश्री ने तो घरवालों के समक्ष घुटना टेक दिया पर उसकी भावनाओं ने परतंत्र होने से इनकार कर दिया। क्या करती बेचारी अनु, बिना मन और भावनाशून्य हो कर ही उसने ससुराल की देहरी पर पग धरे। जहाँ जाति, गोत्र और वंशावली का इतना महत्व हो वहां मन का अस्तित्व तो पानी ही भरेगा न। घरवालों ने उसके मन को कुचल कर ह्रदय को तार तार कर दिया और थमा दिया उस तथाकथित उच्च वंशज को जिनकी मूंछों की बड़ी शान थी. क्या हुआ जो उसके मन के विपरीत हुआ, आखिर उसके पुरखों की नाक तो बच गयी. आखिर ये पुरखे इतने क्रूर क्यूँ होतें हैं जो अपने ही वंशजों की इच्छाओं की बलि मांगते हैं।
ससुराल में आये उसे चार दिन हो गए थें पर दर्श के दर्शन उसे अभी तक नहीं हुए थे. एक तरह से उसे सुकून ही लग रहा था कि जितना टलना हो टले ये मुठभेड़। मेहमान धीरे धीरे चले गए पर माहौल में एक खुसुर फुसुर की सरसराहट थी. कुछ शब्द तैरते हुए उस तक भी आये पर अनु ने सिरे से झटक दिया. चचेरी ननद ने जाने से पूर्व अपनी तरफ से आग लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
इतना समझ में आने लगा था कि एक ही नैया में दोनों सवार हैं, नियती ने दो अलग-अलग चमन के पुष्पों को एक गुच्छे में बांध दिया था। खग ही जाने खग की की बोली, अचानक उसे बेशुमार प्यार आ गया था दर्श पर। दुखों की विरासत तो सांझी थी। अपना कष्ट भूल अब वह उसको मरहम लगाने की सोचने लगी। अनजाने ही सही दयार्थ ही उसे अपने नयेनवेले पति से मिलने की इच्छा तीव्र हो गयी।
"उसके दुखों को अपना लूंगी, अपना भूल जाउंगी",
इस टाइप के ख्याल मन में आने लगें थे। दर्श से मिलना तो हो पहले। घर के और लोगों को अब अच्छे से पहचानने लगी थी। सब वापस अपने अपने काम में लग गए थे, एक अनु को ही अपना अस्तित्व, अपना औचित्य समझ नहीं आ रहा था। इंजीनियरिंग कॉलेज का अंतिम समेस्टर था। यहां से जा कर उसे फाइनल इम्तहान भी देने थे। ब्रीफकेस से साड़ियों के तह से अपनी किताब निकाली और पढ़ने लगी। पुस्तक खुलते ही उसकी याद आ खड़ी हुई, आंसू, शब्द और वह सब गडमड होते रहें।
...और फिर एक दिन बहुत रात गए दर्श उसका पति आ खड़ा हुआ। इस औचक प्रवेश से अनु अकबका सी गई। ऊपर से नीचे तक उसे घूरता रहा कुछ देर। उसके मुंह से आ रही शराब की बदबू उसे और असहज बनाने लगी। क्या पति नामक जीव ऐसे होते हैं?
अनुश्री को दर्श ने किसी पूराने बर्तन की तरह उलट पलट कर देखा। मौन अपनी सीमाओं को चीख चीखकर अतिक्रमण कर रहा था, अनु के हृदय के घाव जो इन दिनों में पपड़ियाने लगे थे बड़ी बेरहमी से अनावृत होने लगे थे। सुहाग की वह रात बहुत बेरहम साबित हुई।
अगले दिन उसे पगफेरों के लिए जाना था, भाई और पापा आएं थे उसे लेने। अब वह अपने फाइनल परीक्षा दे कर ही आएगी, ऐसा ही कुछ मलहम सा पापा कह रहें थे कि दर्श आ खड़ा हुआ।
"कैसे हो बेटा", कह पापा ने गले लगाना चाहा। पर शायद दर्श से रात्रि आवेश उतरा नहीं था।
"अब इसको दुबारा यहां भेजने की जरूरत नहीं है। नहीं चाहिए मुझे किसी की जूठन"।
सब सन्नाटे में आ गए, सास के हाथों से कप गिर गया। पापा का चेहरा अचानक काला पड़ गया। अनुश्री अचंभित, अवाक हो सोचने लगी कि क्या प्रतिक्रिया व्यक्त किया जाए, पति के इस मौन व्रत टूटने पर। अब न कुछ बचा था न कुछ धरा था वहां। सासूमां की सिसकियों में उतना दम नहीं था कि बेटे के आक्षेप को चुनौती दे सके. वैसे हुआ वही जो अनु के मन में था पर बेहद गलत तरीके से. बदनामी का गठ्ठर उठाये अनु मायके आ गयी. रास्ते भर उस निर्दोष आरोप को मथती रही, घर पहुँचते सब काफूर हो गया था. दौड़ कर अपने कमरे में गयी,
"माँ अब सिर्फ दस दिन बचे हुए हैं इम्तहान को। अच्छा किया जो बुला लिया। अब सिर्फ और सिर्फ पढ़ाई, हर बार की तरह बहुत अच्छे नंबर तो आने से रहें पर पास हो जाऊं इतना तो पढ़ना ही होगा", बच्चे की तरफ पुलकती हुई अनुश्री ने कहा था।
शादी-ससुराल-दर्श सब भूल अनु लग गयी पढ़ाई में. अब नहीं देख रही थी माँ-पापा के उतरे चेहरों को, नहीं सुन रही थी फुसफुसाहटों को. नहीं सोच रही थी अपने उन सपनो को जो उसने खुद के लिए देखे थे. पर जब किसी विषय पर अटकती तो आकर्ष जरूर याद आता था. कितनी बार फ़ोन भी किया उसने आकर्ष को पर,
"ये नंबर मौजूद नहीं है"
की आवाज बड़ी बेरहमी से उसकी इच्छा को कुचल देती। इम्तहान शुरू हो गए, सेंटर पहुँच अनु की आँखे आकर्ष को खोजती रहतीं, सब दिखते मिलते पर एक वही जाने किधर छिपा रहता कि किसी दिन नहीं मिला। चार साल में ये पहली परीक्षा थी जो उसने आकर्ष के मदद के बिना दी होगी। अब तक उसे अच्छे नंबर आते रहें थे क्योंकि वह था हमेशा उसकी मदद को, उसकी उलझनों को सुलझाता रहता। एक शादी क्या हो गयी वह मानों अछूत हो गयी। सब उसे देख कैसे मुंह घुमा ले रहे थें, ख़ैर येन केन प्रकरेण परीक्षाएं ख़तम हुईं। परीक्षा हॉल से निकलते ही उसे आशीष दिख गया, वह दौड़ पड़ी।
"आशीष, क्या तुमने आकर्ष को देखा है? क्या उसका सेंटर किसी और जगह पड़ा है?",
अनु सब जान लेना चाहती थी।
"अब क्या चाहिए तुम्हें आकर्ष से? सब कुछ तो दे दिया उसने तुम्हें ; क्या इतने पर भी मन नहीं भरा?"
आशीष ने कुछ तल्ख़ हो कहा तो अनु चौंक गयी ।
............
"आ गयी अनु? हो गयी परीक्षाएं? ये देखो दर्श ने क्या भेजा है", मम्मी ने बिलकुल उदास और उजाड़ चेहरा बना कर कहा।
पर शायद अनु ने सुना ही नहीं, प्रेत छाया सी चलती वह जा कर कमरे में निढाल हो गिर गयी।
"बेटा तेरी तो किस्मत ही फूट गयी, दर्श ने तलाक के पेपर भिजवाएं हैं। इतना खर्च कर, उनकी सब मांगो को पूरा करते हुए ये शादी की थी। अब सुनतें हैं कि उसे कहीं और किसी दूसरी लड़की से शादी करने मन था। पर लांछन उसने बहुत बुरा लगाया है तुमपर"
मम्मी बोले जा रही थी, रोये जा रही थी...... सर पीटे जा रही थी।
"कहती थी दूर रहा कर उस लड़के से, क्या नाम था? आकर्ष, हां कहती थी दूर रहा कर। जोड़ दी होगी किसी ने उसके बारें में दर्श से, भला कोई लड़का कैसे बर्दास्त करेगा........?" मम्मी बोले जा रही थी।
अनुश्री वहां रहते हुए अब वहां नहीं थी। दिमाग में चल रहें बवंडर उसकी सोचने समझने सुनने बोलने की शक्ति का ह्रास किये जा रहें थें। माँ बोल बोल कब चली गयी पता ही नहीं चला। एक दिन गुजरा दो दिन गुजरें वैसे कई दिन गुजर गएँ, अनुश्री जिन्दा और मरने के बीच त्रिशंकु बनी कहीं थी। न खाने का होश न सोने का; आँखे फटी की फटी रह गयीं थीं। माँ फिर कुछ बोल रही थी,
"अनु तेरा रिजल्ट आया है। तू पास हो गयी बेटा। अब कुछ कर न अनु, नौकरी ही खोज। अनु फिर से जीना शुरू कर न, दर्श को भूल जा। अनु तू आकर्ष से शादी करना चाहती थी न? अब कर न, पूछ न उससे "
अनु ने घूर कर देखा और फिर अनंत में निगाहें खो गयी।
"तलाक का गहरा जख्म महसूस हुआ है इसे। बेचारी सदमे से उबर ही नहीं रही"
पापा मम्मी को बोल रहें थें।
"आकर्ष भी तो इसे बहुत चाहता था, आया था वह मुझसे गिड़गिड़ाता हुआ कि अनु की शादी न करूँ। कहता था हमें पढ़ाई पूरी कर लेने दीजिये, हम आगे साथ कोचिंग कर इंडियन इंजीनियरिंग सर्विसेज का इम्तहान देंगे",
"मैं तो इसे हर दिन कहती हूँ कि कर ले उससे ही शादी",
मम्मी पापा को दुहरा रही थी।
"दर्श के मामाजी कितना बढ़ा चढ़ा कर उसके बारे में बताते थे, हम क्या जानते थे उसकी असलियत",
मम्मी फिर सर धुनने लगी थी।
" माँ कैसे पूछूं मैं आकर्ष से? क्या बोलूं ?",
अनु की आवाज कही दूर गहराई से आती प्रतीत हो रही थी।
इतने दिनों के बाद बेटी के बोल फूटे थे, माँ-बाप मानों बौरा से गएँ। कितने दिनों से बेटी को देख व्याकुल हो रहें थें जो अपनी मृत आत्मा की मानों अर्थी लिए घूम रही थी।
"कैसे जियोगी बच्चा बुला न आकर्ष को घर पर, मैं माफ़ी मांग लूंगी। तुमसे प्यार करता है, कर लेगा वह शादी। क्यों जी मैं ठीक कह रहीं हूँ न?"
मम्मी धीमे स्वर में बोलते बोलते, पति की तरफ मनोबल हेतु देखने लगी। पर आज तो आकाश को फटना था, बहुत दिनों के रोके बाढ़ के पानी को क़हर बन टूटना था।
"क्यों अब आकर्ष सही हो गया?"
"बेटी ठुकरा दी गयी तो वह सूटेबल ग्रूम बन गया...
"वाह जी डबल स्टैंडर्ड्स, तुम जानती थी वह मेरा मित्र है। हम साथ साथ कितना कुछ करना चाहतें थें, आगे पढ़ने का प्लान कर रखा था। पर तुमने तो ऐन परीक्षा के पहले ही आनन-फानन में मेरी शादी करवा दिया मानों मैं कहीं भाग जाउंगी। हमें जुदा कर दिया, मैं नहीं जानती थी कि वह बाद में भी तुमसे शादी रुकवाने की मिन्नतें करता रहा था।"
"बेटा वह अति साधारण घर का लड़का था, तिस पर दूसरी जाति का......"
" हमें लगा दर्श स्टैब्लिशड और अच्छे घराने से है......"
पापा रुक रुक सफाई दे रहें थें।
"हमें क्या पता था...."
'पर मेरे सपनें; मेरी इच्छाएं तो पता थी न? अब कहतें हैं लौट जाऊं आकर्ष के पास ...."
अनु बावरी हुई जा रही थी।
"गलती हो गयी बेटी ......."
"तू फिर से शुरू कर ले अपनी जिंदगी"
ये मम्मी थी जिन्हें शादी ही सबसे ज्यादा जरुरी समझ आती है।
"शुरू??? कहाँ से शुरू करूँ?
आकर्ष ने तो उसी दिन दुनिया से विदा ले लिया जिस दिन मैं यहाँ से विदा ले रही थी; हम दोनों ने ही उसदिन अपने उज्जवल भविष्य से विदा ले लिया"
आवाक से पापा-मम्मी अपनी नन्ही बिटिया को ताकतें रह गएँ पथराई आँखों से, सच गुनहगार तो वे साबित हो ही गएँ बेटी के सपनों और जीवन को अपनी जागीर समझ कर। सारे समीकरण बिगड़ गएँ पर फिर से शुरुआत तो करनी ही है।

मौलिक व अप्रकाशित

द्वारा - रीता गुप्ता
राँची
Email id koylavihar@gmail.com